“हिन्दी साहित्य” के इतिहास पर एक दृष्टि

“हिन्दी साहित्य” के इतिहास पर एक दृष्टि

          वर्तमान तो सदैव मानव के नेत्रों के समक्ष रहता ही है, साथ ही साथ वह भविष्य की भी प्रतीक्षा करता रहता है, परन्तु जब उसे अतीत की ओर झाँकना पड़ता है, तब उसे एक विशेष आश्रय की आवश्यकता पड़ती है। उसी आश्रय का नाम इतिहास है। किसी देश, किसी धर्म, किसी जाति या किसी भाषा के अतीत के उत्थान – पतन को यदि हम जानना चाहते हैं, तो हमें इतिहास की शरण में जाना पड़ता है। प्राचीन तथ्यों का संचित कोष इतिहास कहा जाता है, इसलिए संस्कृत में “इतिहासो पुरावृत्तः’ कहकर इतिहास की व्याख्या की गई है। जब हम हिन्दी साहित्य के अतीत पर दृष्टि डालते हैं, तब हमें विभिन्न भावनाओं और परम्पराओं के दर्शन होते हैं। इन्हीं के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभाजित किया है –
सम्वत् १०५० से १३७५ तक (वीरगाथा – काल)
सम्वत् १३७५ से १७०० तक (भक्ति-काल )
सम्वत् १७०० से १९०० तक (रीति-काल )
सम्वत् १९०० से अब तक ( आधुनिक काल )
आदिकाल (वीरगाथा काल)
          हिन्दी साहित्य का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारतवर्ष पर उत्तर पश्चिम की ओर से निरन्तर मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे । राजा और राजाश्रित कवि छोटे-छोटे राज्यों को ही राष्ट्र समझ बैठे थे। राजपूत राजाओं को अपने व्यक्तिगत गौरव की रक्षा का अधिक ध्यान था, देश का कम । राज्य एवं प्रभाव वृद्धि की भावना से ये लोग परस्पर युद्ध करते थे । कभी-कभी उनका उद्देश्य केवल शौर्य प्रदर्शन मात्र होता था या किसी सुन्दरी का अपहरण । राजपूतों में शक्ति, पराक्रम एवं साहस की कमी न थी, परन्तु यह समस्त कोष पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विताओं में समाप्त किया जा रहा था। अत: राजपूत शत्रुओं का सामना करने में एक सूत्रबद्ध सामूहिक शक्ति का परिचय न दे सके। मुहम्मद गौरी के भयानक आक्रमणों ने राजपूत राजाओं को जर्जर कर दिया । सारांश यह है कि वह युग युद्ध का युग था । उस समय के साहित्यकार चारण या भाट थे, जो अपने आश्रयदाता राजा के पराक्रम, विजय और शत्रु- कन्याहरण आदि का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते अथवा युद्ध-भूमि में वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरकर सम्मान प्राप्त करते । साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब, प्रतिरूप और प्रतिच्छाया होता है, इस नियम के अनुसार तत्कालीन साहित्य में वीरता की भावना आना अवश्यम्भावी था । इस काल में दो प्रकार के – अपभ्रंश तथा देश भाषा काव्यों का निर्माण हुआ।
          जैनाचार्य हेमचन्द, सौमप्रभसूरि, जैनाचार्य मेरुतुङ्ग, विद्याधर तथा शार्गंधर, आदि कवि अपभ्रंश काव्य के प्रमुख निर्माता थे । देश भाषा में वीरगाथा काव्य दो रूपों में मिलता है – प्रबन्ध काव्य के साहित्यिक रूप में तथा वीर गीतों के रूप में । ये ग्रन्थ रासो कहे जाते थे। कुछ विद्वान् रासों का सम्बन्ध “रहस्य” से मानते हैं और कुछ रास (आनन्द) से मानते हैं । देश भाषा काव्य में प्रमुख आठ पुस्तकें आती हैं — खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचन्द्रप्रकाश, जयमयंकरसचन्द्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ तथा विद्यापति पदावली । इस काल में चन्द्रबरदायी भट्ट प्रतिनिधि एवम् प्रमुख कवि थे, जिन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक हिन्दी के प्रथम महाकाव्य का निर्माण किया । इस ग्रन्थ में ढाई हजार पृष्ठ तथा ६९ समय (सर्ग) हैं। इसमें कवित्त, दूहा, तीमर, त्रोटक, गाहा और आर्या, सभी छन्दों का व्यवहार किया गया है। यह प्रबन्ध-काव्य उस काल का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है, इसमें वीर-भावों की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति है, कल्पना की उड़ान तथा उक्तियों की चमत्कारिता का सामंजस्य है ।
वीरगाथा काल की संक्षिप्त रूप से प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(१) इस युग के साहित्यकार साहित्य सृजन के साथ-साथ तलवार चलाने में भी दक्ष थे ।
(२) साहित्य का एकाङ्गी विकास हुआ ।
(३) वीर काव्यों की प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों रूपों में रचनाएँ हुई।
 (४) काव्यों में वीर रस के साथ शृंगार का पुट भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
 (५) कल्पना की प्रचुरता एवं अतिशयोक्ति का आधिक्य ।
 (६) काव्य का विषय युद्ध और प्रेम ।
(७) युद्ध का सजीव वर्णन |
(८) इतिवृत्तात्मकता की अपेक्षा काव्य की मात्रा का आधिक्य ।
 (९) आश्रयदाताओं की भरपेट प्रशंसा ।
(१०) केवल वीर काव्य था, राष्ट्रीय काव्य नहीं।
 (११) साहित्यकारों में वैयक्तिक भावना की प्रधानता तथा राष्ट्रीय भावना का अभाव ।
भक्तिकाल
          राजपूतों में जब तक शक्ति थी, साहस था, तब तक वीर गाथाओं से काम चलता रहा, परन्तु शक्ति के समाप्त हो जाने पर उत्साह प्रदान करने से भी कोई काम नहीं चलता । भारतवर्ष के राजनैतिक वातावरण में, अपेक्षाकृत कुछ शान्ति उपस्थित हुई । लोगों को दम लेने की फुरसत मिली । युद्ध से हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थक चुके थे। दोनों जातियों के हृदय में परस्पर मिलन की प्रवृत्ति जाग्रत हो रही थी | समय की विभिन्न गतियों से पूर्ण परिचित भक्ति काव्य जनता के अशान्त हृदय को सांत्वना और धैर्य देने के लिए उनकी भक्ति भावना को जगाने लगे। शनै:शनै: भक्ति का प्रवाह इतना विस्तृत हो गया कि उसके प्रवाह में केवल हिन्दू जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमान भी आ मिले । कुछ लोग ऐसे भी थे जो ऐक्य की बलिवेदी पर अपने आराध्य के प्रति अनन्य भावना का बलिदान नहीं करना चाहते थे । अपने धार्मिक व्यक्तित्व को पृथक् रखकर मृतप्राय: हिन्दू जाति में नव-जीवन एवं नवस्फूर्ति संचार करना ही उनका अभीष्ट था। इस प्रकार, देश में निर्गुण और सगुण नाम के भक्ति काव्य की दो धाराएँ विक्रम की १५वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी के अन्त तक सामानान्तर चलती रहीं । निर्गुण धारा दो शाखाओं में विभक्त हुई – ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेममार्गी शाखा । ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि ‘सन्त कवि’ कहलाये और प्रेममार्गी शाखा के ‘सूफी’ । निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा के कबीर प्रधान कवि थे तथा प्रेममार्गी शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी । इसी प्रकार सगुण धारा भी रामोपासना तथा कृष्णोपासना के भेद से दो शाखाओं में विभाजित हो गयी । राम-भक्ति शाखा के प्रधान कवि गोस्वामी तुलसीदास तथा कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास थे।
निर्गुणधारा की ज्ञानाश्रयी शाखा
ज्ञानाश्रयी शाखा के सन्त कवियों एवम् उनके काव्य की निम्नलिखित विशेषतायें थीं –
(१) ये एकेश्वरवाद के मानने वाले थे ।
(२) निराकार ईश्वर की उपासना करते थे ।
(३) जाति-पाँति, छुआछूत में विश्वास नहीं करते थे ।
(४) धार्मिक बाह्याडम्बरों का खण्डन करते थे ।
(५) मूर्ति पूजा के विरोधी थे I
(६) इनका निर्गुण ब्रह्म न वेदान्तियों का निर्गुण ब्रह्म था और न मुसलमानों का ।
(७) हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिये सामान्य भक्ति मार्ग का प्रदर्शन किया।
(८) इनके काव्य का प्रेम-तत्व सूफियों का है, वैष्णवों का नहीं ।
(९) वैष्णवों ने केवल अहिंसा और प्रपत्ति ही ग्रहण किये ।
(१०) इनके सिद्धान्तों पर बज्रयानी सिद्धों तथा नाथ पंथियों का विशेष प्रभाव है।
(११) इनके अनुयायी अशिक्षित अधिक थे, शिक्षित कम ।
(१२) गुरु को गोविन्द से भी अधिक महत्त्व दिया गया।
(१३) इनके काव्य की भाषा पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी तथा विभिन्न बोलियों का मिश्रण थी।
(१४) भाषा अपरिष्कृत थी।
(१५) सन्त काव्य का प्रधान रस शान्त था, वैसे अद्भुत और वीभत्स भी पाये जाते हैं।
(१६) इनके, काव्य में रहस्यवाद की उद्भावना पाई जाती है ।
(१७) मौलिकता का अभाव, पिष्टपोषण। सभी कवियों के द्वारा एकसी बातें दुहराई गई हैं।
(१८) साखी, झूलना, सबद, सवैया, हंसपद आदि छन्दों का प्रचार रहा ।
          प्रेममार्गी शाखा – सूफी लोग सादा एवं सरल जीवन व्यतीत करते थे। सूफी शब्द का अर्थ है सफेद ऊन्न । ये लोग सफेद ऊन के कपड़े पहनते थे। सूफियों का सिद्धान्त है कि ईश्वर हमारा प्रियतम है, जो जगत् के कण-कण में व्याप्त है, उसके पास तक पहुँचने का साधन लौकिक प्रेम है जो साधन के रूप में आगे चलकर अलौकिक हो जाता है। ये सर्वेश्वरवाद के मानने वाले थे। इनका विश्वास था कि जीवन और जगत् भी ब्रह्म हैं। इन्होंने ‘तत्वमसि’ के ज्ञान को स्वीकार किया । एकेश्वरवाद के कट्टर पक्षपाती मुसलमान इनसे घृणा करते थे । प्रेममार्गी परम्परा वैसे तो उषा-अनिरुद्ध की कथा से प्रारम्भ होती है, परन्तु उसका प्रौढ़ रूप इन मुसलमान कवियों में ही दृष्टिगोचर होता है। प्रेममार्गी कवियों ने प्रेम कथानकों पर अवधी भाषा में ही अनेक प्रबन्ध-काव्य लिखे ।
प्रेममार्गी शाखा की निम्नलिखित विशेषतायें थीं –
(१) सूफी कवि मुसलमान थे ।
(२) अपने काव्यों में हिन्दू जीवन का अच्छा चित्रण किया ।
(३) लोगों में प्रचलित कथाओं द्वारा अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया ।
(४) इन प्रेम आख्यानों में कल्पना का प्राचुर्य है ।
(५) शुद्ध प्रेम का सामान्य मार्ग प्रदर्शन करके साम्प्रदायिक जाति भेद दूर किया ।
(६) लौकिक प्रेम के द्वारा ईश्वरीय प्रेम का प्रतिपादन किया ।
(७) रचनाओं में कल्पना के साथ ऐतिहासिकता का भी पुट है ।
(८) प्रत्येक कथा रूपक पर आधारित है।
(९) विरह वर्णन उच्च कोटि का है ।
(१०) इनका रहस्यवाद भावात्मक है।
(११) ये प्रबन्ध काव्य फारसी की मनसबी शैली पर आधारित हैं।
(१२) दोहा, चौपाई आदि विभिन्न छन्दों की ही प्रचुरता है।
(१३) इन प्रबन्ध काव्यों की भाषा अवधी है ।
(१४) उसमें साहित्यिकता का अभाव है ।
(१५) शृंगार रस की ही प्रधानता है ।
(१६) नायिका के नाम पर ही रचनाओं के नाम रक्खे गए हैं
सगुण धारा की राम भक्ति शाखा
          भगवत् प्राप्ति के लिए ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी भारतवर्ष में सदैव से प्रवाहित होती आई है। वैसे तो तीनों की धाराएँ संसार के कल्याण के लिए हैं, परन्तु भक्ति की धारा सरल और सुगम है तथा मानव प्रकृति के अनुकूल है। देवर्षि नारद इस भक्तियोग के प्रमुख आचार्य माने गए हैं। वैष्णव भक्ति के सम्यक् प्रचार के लिए रामानुजाचार्य (सम्वत् १०७३) ने दृढ़ आधार उपस्थित किए। उत्तरी भारत में भक्ति को सक्रिय रूप देने का श्रेय स्वामी रामानन्द जी को है जो रामानुजाचार्य की १४वीं शिष्य परम्परा में थे। रामानन्द जी की शिष्य परम्परा के द्वारा यद्यपि में रामभक्ति का प्रचार खूब हो रहा था, परन्तु हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का पूर्ण प्रकाश विक्रम की १७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी के द्वारा हुआ।
रामभक्ति काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं –
(१) उस समय तक प्रचलित सभी काव्य शैलियों में रचना हुई।
(२) रचनाओं की भाषा अवधी तथा ब्रज थी ।
(३) प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य लिखे गए ।
(४) सर्वांगीण मत-मतान्तरों में दार्शनिक विचारधाराओं का समन्वय हुआ।
(५) नैतिक तथा सामाजिक आदर्श स्थापित किये गए I
(६) ज्ञान और कर्म की अपेक्षा भक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया।
(७) इन कवियों की उपासना सेवक-सेव्य भाव की थी I
(८) लोक संग्रह की भावना को प्रमुखता दी गयी ।
(९) इस शाखा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास जी थे ।
कृष्णभक्ति शाखा
          उत्तर भारत में कृष्णभक्ति का सबसे अधिक प्रचार श्री वल्लभाचार्य जी ने किया। इन्होंने कृष्ण के माधुर्य का प्रचार किया। ये शुद्धाद्वैतवादी थे, इनके सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म, जीव और जड़ जगत् में अन्तर नहीं है। इन्होंने ज्ञान की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व दिया, आत्म-चिन्तन के स्थान पर आत्म-समर्पण को श्रेष्ठ समझा। इनकी भक्ति परम्परा में कृष्ण की उपासना सखी के रूप में की जाती थी और कृष्ण के बाल और युवक प्रेमी रूप ग्रहण किये जाते थे। वल्लभाचार्य जी ने पुष्टि मार्ग चलाया। इनके पुत्र विट्ठलनाथ जी ने पुष्टि मार्गी कवियों में से आठ कवियों को चुनकर‘अष्टछाप’ की संज्ञा दी । इनमें से चार-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास और कुम्भनदास, श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे, तथा चार–चतुर्भुजदास, छीत, स्वामी नन्ददास और गोविन्ददास श्री विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। अष्टछाप के निम्न कवियों में तथा कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में सूरदास प्रमुख कवि थे ।
“सुर, नन्द, कुम्भन, चतुर, छीत, कृष्ण गोविन्द । 
अष्टछाप के ये कवि हैं, अरु परमानन्द ॥” 
कृष्ण-भक्ति शाखा की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं –
(१) गीतकाव्य की परमोन्नति हुई।
(२) वात्सल्य और शृंगार, दो रसों का ही प्राधान्य रहा।
(३) श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप की उपासना प्रमुख रही।
(४) काव्य की भाषा ब्रजभाषा रही।
(५) मुक्त काव्य ही लिखा गया।
(६) कृष्ण का लोकरंजक रूप ही आकर्षण का विषय रहा।
(७) ज्ञान मार्ग की निस्सारता और भक्ति मार्ग की महानता दिखाई गई।
(८) कूट पादों का निर्माण हुआ।
रीतिकाल
          भक्तिकालीन साहित्य में भक्ति और शृंगार मिले हुए थे । भक्ति काल के साहित्यकारों का शृंगार वर्णन उनकी प्रगाढ़ भक्ति का परिचायक था । जिस शृंगार की सुरा ने मृतप्राय हिन्दू समाज को अनुप्राणित करने में रामबाण का काम किया था उसी सुरा और सुन्दरी का सहयोग आगे चलकर एक घातक अभिशाप सिद्ध हुआ । जिस शृंगार वर्णन को भक्तिकालीन साहित्यकार अपने आराध्य की आराधना का अंग मानकर किया करते थे, आगे चलकर यह एक व्यसनमात्र रह गया । भक्त कवियों में भक्ति भावना का प्राधान्य था, कवित्व चमत्कार उनके लिए गौणातिगौण वस्तु थी। आगे के कवियों में कवित्व प्रधान हो गया, भक्ति उनकी विलास एवम् वासनामयी प्रवृत्तियों की यवनिकामात्र (परदा) थी ।
          कला और कविता का मूल्यांकन उस समय होता है, जब वातावरण शान्त हो, अन्न, वस्त्र की चिन्ता से कलाकार और कला – प्रेमी मुक्त हों, इन दोनों ही बातों का उस युग में अभाव था। कवि को जीवनयापन के लिए राज्याश्रय स्वीकार करना पड़ा । साहित्यकारों की रोटियाँ आश्रयदाताओं की हाँ में हाँ मिलाने तथा उनके पाप कर्मों को पुण्य बताने पर आश्रित थीं । अब साहित्यकार व्याख्या का प्रिय विषय जीवन नहीं था अपितु नारी था। राजा ही नहीं, राज्याश्रित कवि भी अपने प्रतिद्वन्द्वी से आगे बढ़ना चाहते थे। इसके लिए उन्हें संस्कृत और प्राकृत साहित्य के अध्ययन में कठोर प्रयत्न करना पड़ता और प्राचीन विषयों को नया रंग देकर श्रोताओं के समक्ष उपस्थित करना पड़ता था। एक बात और थी, वह यह कि हिन्दी में लक्ष्य ग्रन्थ पर्याप्त लिखे जा चुके थे, परन्तु लक्षण ग्रन्थों का साहित्य में अभाव था । साहित्यकारों की प्रवृत्ति इस ओर जाना स्वाभाविक ही थी, क्योंकि लक्ष्य ग्रन्थों के पश्चात् लक्षण ग्रन्थ आते हैं। ये हिन्दी कवि लक्षण प्रस्तुत करने में तो नहीं, परन्तु उदाहरण देने में अपने पूर्ववर्ती कवियों से आगे निकल गये । हिन्दी में नवीन सिद्धान्तों का विवेचन सम्भव न हो सका, इसका प्रथम कारण तो यह था कि कवियों में मौलिकता का अभाव था। दूसरा कारण यह था कि उस समय जो कुछ लिखा जाता था पद्य में ही लिखा जाता था, क्योंकि हिन्दी गद्य का विकास नहीं हुआ था और पद्य में किसी विषय की सम्यक् मीमांसा या तर्क-वितर्क करना सम्भव नहीं था । ।
          इस काल में कुछ ऐसे भी कवि हुए जिन्होंने लक्षण ग्रन्थ न लिखकर लक्ष्य ग्रन्थ लिखे । इस प्रकार के कवियों में से कुछ ने तो प्रबन्ध काव्य लिखे, कुछ ने नीति भक्ति या ज्ञान सम्बन्धी कवितायें लिखीं, कुछ ने शृंगार की स्फुट रचनायें कीं । कुछ ऐसे भी थे जो सिंह और सपूत की भाँति लकीर छोड़कर चलना जानते थे, उन्होंने इस घोर शृंगार काल में भी वीरता के गीत गाए । इस नारी के कटाक्ष और नृत्य के स्थान पर तलवार का नृत्य दिखाया । इस प्रकार इस काल में रीति-बद्ध और रीति-मुक्त दो प्रकार के कवि हुए ।
          रीति काल के प्रमुख कवि आचार्य केशवदास थे तथा अन्य कवियों में चिंतामणि, बेनी, बिहारी, मतिराम, देव, भूषण आदि प्रमुख थे।
रीतिकालीन काव्य की निम्नलिखित विशेषतायें हैं –
(१) संस्कृत साहित्य के आधार पर रीति ग्रन्थों की रचना हुई I
(२) प्रमुख रूप में रस, अलंकार, छन्द और नायिका भेद का ही विवेचन हुआ।
(३) नाट्यशास्त्र तथा शब्द-शक्ति का यथोचित विवेचन नहीं हुआ।
(४) विचारों में नवीनता और मौलिकता का अभाव रहा।
(५) इस काल के प्रमुख छंद कवित्त और सवैया ही रहे  ।
(६) बिहारी आदि कुछ कवियों ने ही दोहे लिखे ।
(७) लक्षणों की अपेक्षा उदाहरण अधिक सुन्दर लिखे  ।
(८) इस काल का प्रधान रस शृंगार रहा।
(९) शृंगार के साथ वीर रस की भी श्रेष्ठ रचनायें हुई ।
(१०) भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर अधिक ध्यान दिया गया ।
(११) प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा मुक्तक काव्यों की अधिक रचना हुई ।
(१२) इस काल की भाषा ब्रज और अवधी थी ।
(१३) मुसलमानी दरबारों के प्रभाव से फारसी शब्दों का भी मिश्रण हुआ।
(१४) रीतिबद्ध कवियों में से कुछ ने लक्षण ग्रन्थ लिखे और कुछ ने केवल लक्ष्य ग्रन्थ ।
(१५) रीति मुक्त कवियों ने भक्ति, नीति, प्रेम, वीर, शृंगार आदि विविध विषयों पर लेखनी चलाई ।
आधुनिक काल
          भारतीय विलासिता और विग्रह के फलस्वरूप, व्यापार की प्रवंचना से आए हुए अंग्रेज जब भारतवर्ष में शासक के रूप में जम गए तब भारतीयों का ध्यान जीवन के कटु सत्य की ओर गया । दो विभिन्न संस्कृति और सभ्यताओं के संघर्ष से जनजीवन में जाग्रति की भावना उठने लगी । लोगों का ध्यान अपने राजनैतिक दायित्वों पर गया और राष्ट्रीय भावों को प्रकट करने की भावना बलवती हो उठी । यद्यपि राष्ट्रीय उद्बोधन के भाव भूषण के समय में ही दृष्टिगोचर होने लगे थे, उस अंकुरित बीज में अब पल्लवित और कुसुमित होने की इच्छा तीव्र होने लगी थी ।
          सहिन्त्यिक जागरण के साथ जनता में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक जागृति भी होने लगी थी । विदेशी शासन के साथ-साथ इस देश में अपने धर्म का प्रचार भी करने लगे थे, किया मुसलम़ानों ने भी था। परन्तु उनमें और इनमें अन्तर केवल इतना ही था कि उनका प्रचार तलवार के जोर पर आधारित था, इनका बुद्धिवाद पर अपने-अपने धार्मिक विचारों के प्रचार, प्रसार, खण्डन-मण्डन के लिए पद्य उपयुक्त माध्यम नहीं था ।
          प्राचीन काल में मुद्रण-यन्त्रों के अभाव में साहित्य की सुरक्षा के लिये पुस्तकें कण्ठस्थ की जाती थीं। पद्य की संगीतात्मकता के कारण वह सरलता से याद हो जाता था । अंग्रेजों के साथ-साथ इस देश में मुद्रण-यन्त्र भी आये । पुस्तकों का कण्ठ करना अनावश्यक समझा जाने लगा। यद्यपि गद्य की परम्परा ब्रजभाषा तथा उससे पूर्व भी थी, परन्तु उसकी वास्तविक धारा जन सम्पर्क स्थापित करने की भावना से प्रेरित होकर शासन की सुविधा के लिए अंग्रेज अफसरों के द्वारा प्रभावित की गई । लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने जॉन गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से तथा मुन्शी सदासुखलाल और इंशाअल्ला खाँ ने स्वान्तः सुखाय खड़ी बोली में प्रारम्भिक गद्य लिखा ।
          भारतेन्दु युग – नवोत्थान काल के सबसे अधिक व्यापक एवम् प्रभावोत्पादक स्वरूप के दर्शन हमें भारतेन्दु-युग में होते हैं। इस युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रेरणा से गद्य साहित्य की समस्त विधाओं पर उनके समकालीन लेखकों ने तथा उन्होंने स्वयम् लेखनी चलाई । भारतेन्दु ने विवादास्पद गद्य के स्वरूप को निश्चित किया । इस युग में नाटकों की प्रधानता रहीं । भारतेन्दु से पूर्व भी दो चार नाटक लिखे गये थे, परन्तु वे नाटक कहलाने योग्य न थे । भारतेन्दु जी ने स्वयम् १४ नाटकों की रचना की, इनमें कई प्रहसन भी हैं। इसमें सत्य हरिश्चन्द्र, मुद्राराक्षस, नीलदेवी, भारत दुर्दशा, चन्द्रावती आदि प्रमुख हैं। भारतेन्दु के नाटक उनके जीवनकाल में ही खेले गए थे। उस काल में भारतेन्दु के अतिरिक्त बाबू तोताराम, बाबू राधाकृष्णदास, बाबू गोकलचन्द्र आदि प्रमुख नाटककार थे । भारतेन्दु काल के गद्य लेखकों में पण्डित प्रतापनारायण मिश्र, पण्डित बालकृष्ण भट्ट, पण्डित बद्रीनारायण चौधरी, लाला श्रीनिवास दास तथा पण्डित अम्बिकादत्त के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
          द्विवेदी युग- यह युग आलोचनात्मक युग था। भारतेन्दु के समय में लेखकों ने व्याकरण तथा वाक्य-विन्यास की ओर कम ध्यान दिया । अंग्रेजी पढ़े-लिखे जो लोग श्रद्धा तथा भक्ति के कारण हिन्दी के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए थे, व्याकरण के नियमों से अनभिज्ञ थे । ‘सरस्वती’ के सम्पादक के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा को शुद्ध, सुसंस्कृत और परिमार्जित बनाने में पूर्ण योगदान दिया। वे अशुद्ध लेखों को काट-छाँट कर लेखकों के दोष बताने में चूकते न उनकी प्रेरणाओं से नवीन विषयों पर खोजपूर्ण निबन्ध लिखे गए । द्विवेदी युग में हिन्दी साहित्य ने अपनी शैशवावस्था छोड़कर युवावस्था में प्रवेश किया। भारतेन्दु युग में भी जो बंगला साहित्य का अनुकरण हुआ था, वह द्विवेदी युग में अधिक न रहा । लेखकों में मौलिकता आई और उन्होंने ठोस साहित्य का निर्माण किया । भाषा भी परिष्कृत और सुसंस्कृत हुई तथा शैली का भी परिमार्जन हुआ।
          प्रसाद युग — यह युग कहानी तथा नाटक प्रधान था । बाबू जयशंकर प्रसाद जी ने अजात शत्रु, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, विशाख, कामता आदि उच्च कोटि के नाटक लिखे जिनमें प्रसाद जी की महान् साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। जिस प्रकार द्विजेन्द्र लाला राय ने मुगलकालीन भारत का चित्र उपस्थित किया है उसी प्रकार प्रसाद जी ने विशेष रूप से बौद्धकालीन भारत के इतिहास को अपनाया। प्रसाद जी ने हिन्दुओं को सभ्यता तथा नैतिक श्रेष्ठता दिखाई । प्रसाद जी के नाटकों में मनोवैज्ञानिकता पर्याप्त मात्रा में है। कहीं-कहीं बड़े सुन्दर अन्तर्द्वन्द्व दिखाये गये हैं। इस युग में प्रसाद जी के अतिरिक्त पण्डित बद्रीनाथ भट्ट, पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी, जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिंद’, पण्डित गोविन्दबल्लभ पन्त तथा श्री हरिकृष्ण प्रेमी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
          प्रेमचन्द युग– यह युग उपन्यासों का युग था । यद्यपि प्रसाद जी ने भी ‘कंकाल’ और ‘तितली’ उपन्यास लिखे थे, परन्तु नाटककार के रूप में प्रसाद जी अधिक सफल हुए। उपन्यास सम्राट के रूप में प्रेमचन्द जी आते हैं। इनके प्रतिज्ञा, गबन, गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, सेवासदन, निर्मला, प्रेमाश्रम आदि उपन्यास अधिक प्रसिद्ध हैं। चरित्रप्रधान उपन्यास लिखने में आप सिद्धहस्त थे । इन्होंने निम्न तथा मध्य कोटि के लोगों में मानवता के दर्शन कराये । प्रेमचन्द जी कहानी लिखने में भी उतने ही सफल हुए जितने उपन्यास लिखने में। कुछ लोगों का यहाँ तक विचार है कि वे कहानी लिखने में उपन्यासों की अपेक्षा अधिक सफल हुए । प्रेमचन्द जी ने अपनी कहानियों में समाज के उपेक्षित लोगों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। प्रेमचन्द के युग के अन्य कलाकारों में पण्डित विशम्भरनाथ कौशिक, सुदर्शन, वृन्दावनलाल वर्मा, मुन्शी प्रतापनारायण श्रीवास्तव चण्डी, ‘हृदयेश’ तथा बेचन शर्मा उग्र आदि प्रमुख हैं।
          वर्तमान युग – वर्तमान को किसी विशेष विधा का युग नहीं कहा जा सकता और न कोई ऐसा प्रकाण्ड लेखक ही है, जिसने इस काल पर अपनी स्पष्ट छाप छोड़ी हो । केवल प्रेम भरी छोटी-छोटी कवितायें तथा प्रेमी और प्रेमिकाओं से पूर्ण अश्लील कहानियाँ तथा इसी प्रकार छोटे-छोटे उपन्यास चल रहे हैं। वर्तमान के बारे में अभी कोई निश्चित सम्मति नहीं दी जा सकती। निराला, महादेवी, पन्ट और गुप्त जी के काव्य अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं, परन्तु उसके भी पढ़ने वाले आज कितने लोग हैं ?
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