हिन्दी की स्थिति

हिन्दी की स्थिति

          आज भारतवर्ष को स्वतन्त्र हुए ४९ वर्ष हो चुके हैं, परन्तु यदि हमसे पूछा जाये कि आपने हिन्दी के उत्थान के लिये क्या किया, तो सिवाय इसके कि हम मौन होकर रह जायें, या दो चार आयोगों के नाम गिना दें, कुछ तथ्यपूर्ण उत्तर नहीं दे सकते। यह प्रश्न हम अपने से करते तो उत्तर मिलता कि हिन्दी जहाँ थी, वहीं है और दक्षिणी राज्यों में तो उससे भी बुरी स्थिति में । राजर्षि टण्डन, सरदार पटेल, महात्मा गाँधी आदि नेताओं के जीवनकाल में, या स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व हिन्दी को अपनी भाषा समझकर हम लोग आदर करते थे या यों कहिये कि केवल अंग्रेजों को दिखाने के लिए हमारे अन्दर वह जोश था। यद्यपि भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया गया था, फिर भी आज तक उसे समुचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ। यह निश्चय किया गया था कि चूंकि हिन्दी अभी इतनी समर्थ नहीं है, इसलिए हिन्दी के साथ सन् १९६५ तक सरकारी काम-काज की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी ।
          सन् ६५ आने से बहुत पहले ही अंग्रेजी के प्रबल समर्थकों की आँखें खुलीं । भुय हुआ कि कहीं हिन्दी न आ जाये। इसके लिए उखाड़ पछाड़ शुरू हो गई । सन् ६२ में ही लोक सभा में एक विधेयक लाने का प्रयत्न किया गया कि अब भी हिन्दी इस योग्य नहीं हुई है कि राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन हो सके। अतः सन् ६५ के बाद भी अंग्रेजी की अवधि बढ़ा दी जाये। नवम्बर में ही इस प्रकार का विधेयक लोकसभा में आने वाला था, जिसे तत्कालीन गृह मन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री प्रस्तुत कर रहे थे, परन्तु २० अक्टूबर सन् ६२ को चीनी आक्रमण के कारण आपातकालीन स्थिति घोषित हो जाने की वजह से यह विधेयक उस समय टल गया । पुनः सन् ६३ में इस. विधेयक को लोक-सभा में प्रस्तुत किया गया। विधेयक की धारा इस प्रकार हैं- (१) इस कानून का नाम राजभाषा कानून होगा, (२) हिन्दी का अर्थ देवनागरी में लिखित है, (३) सन् १९६५ के बाद हिन्दी के अतिरिक्तं अंग्रेजी का प्रयोग जारी रक्खा जा सकता है, (४) दस वर्ष बाद तीन संसद सदस्यों की एक समिति हिन्दी की पुनः जाँच करेगी, (५) सन् ६५ के बाद केन्द्रीय कानूनों या राष्ट्रपति – द्वारा जारी किया गया अध्यादेश या संविधान के अन्तर्गत जारी किए नियम आदि के हिन्दी अनुवाद प्रामाणिक माने जायेंगे (६) सन् १९६५ के बाद किसी विधान सभा द्वारा स्वीकृत कानून के हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किये जा सकते हैं, (७) सन ६५ के बाद किसी राज्य के राज्यपाल राष्ट्रपति से अनुमति लेकर अंग्रेजी के साथ हिन्दी व राज्य की और किसी भाषा को राज्य-भाषा का स्थान दे सकते हैं, तथा (८) केन्द्रीय सरकार राज्य भाषा सम्बन्धी कानून के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए नियम बना सकती है ।
          स्वर्गीय पं० जवाहरलाल नेहरू ने उक्त विधेयक का बड़ा समर्थन किया और कांग्रेस संसदीय पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने अपनी निम्नलिखित राय जाहिर की – “इस समय देश में एकता रखना अत्यन्त आवश्यक है। हिन्दुस्तान को बिगाड़ कर हिन्दी की तरक्की नहीं हो सकती । हमें दक्षिण के लोगों में यह विचार पैदा नहीं होने देना चाहिये कि उत्तर वाले उन पर हिन्दी थोप रहे हैं। ‘हिन्दी तथा अहिन्दी’ भाषियों को दो भागों में बाँट देने से देश का भारी अहित होगा हिन्दी को रजामन्दी से आगे ले जाना है, अगर हिन्दी वाले जबरदस्ती करेंगे तो दूसरे लोग ऐंठ जायेंगे। इससे ऐसी खाई पैदा हो जायेगी जो हिन्दी के लिए ही नहीं वरन् पूरे देश के लिए घातक सिद्ध होगी। हिन्दी को और ताकत मिलेगी, यदि हिन्दी के साथ अंग्रेजी को सहायक भाषा रहने दिया जाए, क्योंकि अंग्रेजी के जरिये नये-नये विचार आते रहेंगे । ”
          इस विधेयक को लोक सभा में प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन गृह मन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि—“आप मुझ पर विश्वास रक्खें, मेरे द्वारा हिन्दी का अहित कभी नहीं हो सकता, परन्तु मुझे अपना कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व भी पूरा करना है ।” परन्तु दूसरी बात उन्होंने भी स्वयं स्वीकार करते हुए कहा कि — “जब तक हिन्दी विकसित नहीं हो जाती और जब तक लोग उसे अच्छी तरह से सीख नहीं लेते, तब तक अंग्रेजी को बनाये रखना ही पड़ेगा । आज अंग्रेजी सभी राज्यों की साझी भाषा है और राज्यों तथा केन्द्रों के बीच पत्र-व्यवहार भी उसी में होता है। यदि अगले पाँच वर्षों में अंग्रेजी का त्याग कर दिया गया, तो भारत अपने आप अलग-अलग भागों में बँटकर बिखर जायेगा ।” शास्त्री जी के वक्तव्य से भी ध्वनित होता है कि हिन्दी अभी अविकसित है | हिन्दी के मूर्धन्य कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने इस विधेयक के विषय में कहा था – “अंग्रेजी को आगे जो इतनी आयु दी जा रही है वह सावधि होगी या निरावधि ? हिन्दी-भाषी प्रान्तों का मत है कि अंग्रेजी के प्रयोग को निरावधि नहीं छोड़ना चाहिये ।” दिनकर ने यह सोचा था कि एक अवधि ही निश्चित हो जाये तो अच्छा है।
          भारतीय लोक सभा के अन्य सदस्यों की भाँति श्री अनन्त गोपाल शेवड़े भी इस विधेयक को प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा था कि – “देश के सारे नेताओं को, जो शासन के भीतर तथा बाहर हैं, और जो राजनीतिक, सांस्कृतिक या साहित्यिक क्षेत्रों में काम करने वाले हैं ऐसा वातावरण निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिये, जिससे इस विषय पर शान्ति से न्याययुक्त और तर्कयुक्त बुद्धि से केवल राष्ट्रीय हित में विचार हो सके, उसमें क्रोध, अविश्वास और राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिये स्थान न हो । राज-भाषा के प्रश्न पर विचार करते हुये हमें राष्ट्रहित को ही सर्वोपरि रखना चाहिये, राजनीतिक दलगत स्वार्थों से तो हिन्दी या राष्ट्र का अहित ही सम्भव है। “
          हिन्दी को ही यदि राष्ट्र-भाषा बना दिया गया तो और भाषाएँ अशक्त या अप्रतिभ हो जायेंगी या हिन्दी में ही श्रेष्ठ और सत्साहित्य है – इसका मतलब यह कभी नहीं समझना चाहिये और यह भी नहीं सोचना चाहिये कि हिन्दी उनं पर थोपी जा रही है क्योंकि दक्षिणात्य समझते हैं कि हम भी भारत माता की सन्तान हैं, हिन्दी हैं, संस्कृत की उत्तराधिकारिणी हिन्दी हमारे देश की राष्ट्र-भाषा है। दक्षिणात्यों में जितना देववाणी संस्कृत का अध्ययन है, उसका शतांश भी उत्तर वालों में नहीं। अधिकांश दक्षिणवासी हिन्दी का समर्थन करते देखे गये हैं। श्री रसक पुन्निगे का कथन है कि हिन्दी साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग, बम्बई, आगरा आदि की हिन्दी परीक्षाएँ दक्षिण में खूब चलती हैं। लगभग १५ वर्ष से राज्य स्कूलों और कॉलिजों में हिन्दी अध्यापन की व्यवस्था है। दक्षिण में हिन्दी का समर्थन करने वालों का एक कट्टर समुदाय भी है, जो हिन्दी के लिये सब कुछ भाग करता है। दक्षिण में अधिकाधिक मात्रा में हिन्दी फिल्में दिखाई जाती हैं।
          १५ सदस्यों ने विधेयक के विरोध में मत दिया। प्रसिद्ध कांग्रेसी एवं प्रसिद्ध साहित्यकार सेठ गोविन्ददास ने कांग्रेसी होते हुये भी विधेयक का लोक सभा में घोर विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि, “भले ही मुझे कांग्रेस छोड़नी पड़े पर मैं आँखों देखा विष नहीं खा सकता।” परिणाम वही हुआ जो होना था। विधेयक बहुमत से पास हुआ। इसके पश्चात् राज्य सभा में भी थोड़े बहुत नेताओं के विरोध के पश्चात् यह विधेयक पास हो गया। अब अंग्रेजी आगे भी बारह वर्षों तक राष्ट्र भाषा के रूप में बनी रहेगी, इसे संयोजक भाषा कहा जायेगा । १० वर्ष बाद हिन्दी की स्थिति पर फिर विचार होगा।
          हिन्दी को संविधान ने राष्ट्र-भाषा स्वीकार किया, इसके पीछे भी भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों का बल निहित था ।
          १९६७ के आम चुनावों के पश्चात् बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि प्रमुख हिन्दी-भाषी प्रान्तों की सरकारों ने हिन्दी में ही कार्य करने का दृढ़ संकल्प लिया था, उधर छात्रों में मातृ-भाषा के प्रति अपूर्व श्रद्धा उमड़ती हुई दिखाई पड़ती थी हिन्दी भाषी प्रान्तों में अंग्रेजी में लिखी हुई कोई भी वस्तु दिखाई न पड़े इसलिये छात्रों ने अंग्रेजी के साइन बोर्डों की जगह हिन्दी के साइन बोर्ड. लगाइये, अभियान चलाया । बिहार और उत्तर प्रदेश की मातृ-भाषा-भक्त सरकारों ने उच्चतर परीक्षाओं में अंग्रेजी को एकदम वैकल्पिक विषय घोषित कर दिया । हिन्दी-टाइप-राइटरों के निर्माण के लिये कम्पनियों को आदेश दे दिये गये। विधान सभा की निश्चित कार्यवाहियाँ हिन्दी में की जाने लगीं। सरकारी कार्यालयों को आदेश दे दिये गये कि अपना सारा काम हिन्दी में करें । सहसा एक बार ऐसा प्रतीत होने लगा कि शायद हिन्दी के दुर्दिन बीत चुके हों ।
          सन् ६५ के बाद भी अंग्रेजी को संयोजक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले विधेयक के पास हो जाने पर भी बहुत से लोग शासन की भाषा-नीति से प्रसन्न नहीं थे। परिणामस्वरूप राजभाषा विधेयक संशोधक बिल राज्यसभा तथा लोक सभा में प्रस्तुत किया गया । विरोधी दलों के विरोध के बावजूद संशोधन पास हो गया।
          उधर हिन्दी भाषी मन्त्रिमण्डल अपने-अपने राज्यों में केन्द्रीय सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध थे और अपने राज्यों में अंग्रेजी को प्रोत्साहित करने के पक्ष में नहीं थे । परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मन्त्री ने सन् ६८ प्रारम्भ होते ही अंग्रेजी को परीक्षाओं से निकाल बाहर फेंकने के लिये वैकल्पिक विषय घोषित कर एक पुनीत कर्त्तव्य का पालन किया। बिहार और राजस्थान में भी सरकारों ने इसी प्रकार के पवित्र निर्णय लिये । राजस्थान में तो यह सुविधा तक दी गई कि टेलीफोन पर हिन्दी अंग्रेजी के हिन्दी पर्यायवाची शब्द बताये जाने लगे ।
          प्रसन्नता का विषय है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा में भी कुछ सीमा तक हिन्दी का अच्छा विकास हुआ तथा अन्य प्रदेश भी इस ओर प्रयत्नशील हुये | १९६७ के आम चुनावों के बाद नये शिक्षामन्त्री श्री त्रिगुणसेन ने इस ओर विशेष रुचि ली । केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल का रुख भी हिन्दी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण था । भू० पू० राष्ट्रपति डॉ० जाकिर, हुसेन ने भी शपथ के बाद प्रथम भाषण हिन्दी में देकर हिन्दी को गौरवान्वित किया और भारतवासियों के हृदय में आशा की किरण जाग्रत की। बिहार के मन्त्रिमण्डल ने हिन्दी को सरकारी भाषा घोषित कर बड़ा पुनीत कार्य किया । १९७१ में उत्तर प्रदेश में जब श्री त्रिपाठी के मन्त्रिमण्डल ने स्थायी सरकार के रूप में कार्य भार ग्रहण कर लिया तो हिन्दी के सौभाग्य ने एक बार फिर शान्ति की श्वांस ली। मुख्यमन्त्री श्री त्रिपाठी ने सरकारी कार्यालयों को स्पष्ट आदेश दिये कि सरकारी काम हिन्दी में न करना अनुशासनहीनता समझा जायेगा। माननीय मुख्यमन्त्री के इस सत्प्रयास से अंग्रेजी भक्त अफसरों ने कुछ हिन्दी में पढ़ना-लिखना सीखा। हिन्दी के आज तीन स्वरूप हैं। पहला स्वरूप भारतीयों की मातृभाषा का दूसरा स्वरूप राजभाषा का, और तीसरा स्वरूप भारत से बाहर बस जाने वाले प्रवासी भारतीयों का हिन्दी का तीसरा स्वरूप सर्वाधिक व्यापक उसका विश्व भाषा वाला रूप है। मारीशस, फिजी, गियाना, सूरीनाम, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड और जापान को मिलाकर तीस ऐसे देश हैं जहाँ कई लाख की संख्या में भारतवासी बसे हुये हैं और आपसी व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग करते हैं। हिन्दी आज विश्व की प्रमुख भाषाओं की पंक्ति में जा पहुँची है। उसके बोलने वालों की संख्या के अनुसार संसार में तीसरा स्थान हिन्दी का है। पिछले वर्षों में सम्पन्न हुये विश्व हिन्दी सम्मेलनों के कारण हिन्दी के इस तीसरे स्वरूप की चर्चा अधिक जोरों पर है। ये सम्मेलन जनवरी १९७५ में भारत के नागपुर शहर में और अगस्त १९७६ में मारीशस में सम्पन्न हुये । निश्चित ही इन सम्मेलनों के सत्प्रयासों का प्रभाव विश्व के बौद्धिक जन मानस पर बिना पड़े न रहेगा और हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाओं में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त करेगी। १९७७ से प्रतिष्ठित भारत सरकार के विदेश मन्त्री के संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य विदेशों की यात्राओं में हिन्दी के प्रयोग से सम्भवतः विश्व में हिन्दी को आगे बढ़ने में कुछ बल मिलता, में परन्तु हिन्दी की स्थिति यथावत् रही। भारत की समृद्धि की जहाँ अनन्त उपलब्धियाँ रहीं वहाँ हिन्दी की समृद्धि बहुत मन्द रही। राजीव गाँधी के युग में भी यही स्थिति रही। सन् ९६ तक हिन्दी का कोई महत्त्वपूर्ण उत्थान नहीं हुआ। आशा है कि भविष्य में हिन्दी की स्थिति भी सुधरेगी।
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