स्वप्न में नेहरू जी से भेंट
स्वप्न में नेहरू जी से भेंट
रविवार का दिन था। टेलीविज़न पर ‘भारत एक खोज’ कार्यक्रम चल रहा था । कार्यक्रम से भारत, भारतीयों के विषय में ऐसे-ऐसे रहस्य उजागर हो रहे थे, जिन्हें भारत में रहते हुए भी मैं नहीं जानता था। मैं जैसे-जैसे कार्यक्रम देख रहा था, वैसे-वैसे मेरी उत्सुकता भी बढ़ रही थी। कार्यक्रम समाप्त हुआ और चित्रपट पर अनुवादक, निर्देशक आदि के नाम आने लगे। यह जानकर मुझे आश्यर्चमिश्रित प्रसन्नता हुई कि इतना ज्ञानवर्द्धक, रोचक कार्यक्रम हमारे प्रथम प्रधानमंत्री स्व. श्री जवाहरलाल नेहरू जी द्वारा रचित ‘Discovery of India’ नामक पुस्तक का ही हिन्दी रूपान्तर करके बनाया गया। न जाने कब मुझे नींद ने आकर अपने अंक में भर लिया।
मैंने देखा सूर्य सा तेजवान्, चन्द्रमा सा शीतल, हिमालय सा विराट और गुलाब के फूल से सुसज्जित कोट वाला एक आकर्षक व्यक्तित्व मेरे सम्मुख खड़ा है। मैं समझ गया कि निःसन्देह यही पं. जवाहरलाल नेहरू हैं जो एशिया के मानधन, न्याय के आधारस्तम्भ, सच्चाई व ईमानदारी की नींव समझे जाते हैं। जिनके विषय में कहा गया है
वीर तू ! रणधीर तू ! है देश की तकदीर तू !
एशिया के मान घन ! है न्याय की जंजीर तू !!
गाँधी, बुद्ध व महावीर के व्यक्तित्व की त्रिवेणी से युक्त ऐसी महान् विभूति से वार्तालाप का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया। तुरन्त उनके पास जाकर नमस्कार किया और उनसे पूछा- “नेहरू जी, जरा यह तो बताइए कि आप नेहरू से चाचा नेहरू कैसे बन गए।”
उन्होंने मुस्कराकर मेरे नमस्कार का उत्तर दिया और मधुर वाणी में कहा- “मुझे नन्हें-मुन्हें बच्चे बचपन से ही अत्यन्त प्रिय रहे। बच्चों के गुलाब से मुस्कराते चेहरे मुझे सदैव अपनी ओर आकर्षित करते रहे। बच्चों के प्रति इस प्रेम ने न जाने कब मुझे बच्चों के ‘चाचा’ की उपाधि से विभूषित कर दिया।”
नेहरू जी का मूड अच्छा देखकर मैंने भी अवसर का लाभ उठाते हुए तुरन्त उनकी ओर अपना एक और प्रश्न उछाल दिया- “नेहरू जी, आप अपने बचपन के विषय में कुछ बताएंगे।”
उन्होंने उत्तर दिया – “मेरा जन्म 14 नवम्बर, 1889 को प्रयाग में हुआ था। मेरे पिता मोतीलाल नेहरू व माता स्वरूपरानी थी। दोनों ने ही मुझे भरपूर प्रेम दिया । राजकुमारों की भाँति मेरा पालन-पोषण हुआ। जब मैं दस बरस का था, तब हम अपने नए मकान में आकर रहने लग गए। इस नए मकान-आनन्द भवन में मुझे बाकी तो समस्त सुविधाएँ उपलब्ध थीं, बस एक ही कमी थी- अकेलापन | इस अकेलेपन में दिल बहलाने के लिए किसी साथी की कमी थी।”
मैंने पूछा- “क्या आपके भाई-बहन नहीं थे ?”
नेहरू जी बोले- “ग्यारह वर्ष तक तो कोई भी भाई-बहन नहीं था। हाँ बाद में दो बहनें हुईं-विजयलक्ष्मी और कृष्णा ।”
मैंने पूछा- “क्या आपका कोई भाई नहीं था ?”
यह पूछकर जैसे मैंने उनकी यादों को कुरेद दिया। वे उदास स्वर में बोले- “मेरा एक भाई हुआ तो था । वह भी मेरे ही जन्मदिन, पर यानि 14 नवम्बर, 1905 को, किन्तु 2 दिसम्बर 1905 को ही वह इस दुनिया से चला गया ।”.
मैंने तुरन्त बात बदलने के उद्देश्य से कहा- “अच्छा आपकी शिक्षा कहाँ हुई ?”
वे बोले- मेरी माताजी तो मुझे भारतीय संस्कारों में ढालना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने मेरी आरम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया । पर मेरे पिताजी मुझे पश्चिमी साँचे में ढालना चाहते थे। अतः उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए मुझे 1903 में इंग्लैंड भेजा। मैंने पहले हैरो स्कूल में, फिर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। पूरे सात वर्ष तक पश्चिमी वातावरण में रहा। सन् 1912 में बैरिस्टर बनकर भारत लौटा।”
मैंने पूछा- “नेहरू जी, आपने भारत आकर क्या वकालत शुरू कर दी ?”
वे बोले—“हाँ, अपने पिता के साथ ही मैं भी वकालत करने लगा। मेरे पिता पहले से ही पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए थे। मैं भी उनके अनुरूप ही यह कार्य करने लगा। किन्तु थोड़े ही समय बाद मैंने यह कार्य छोड़ दिया।”
मैंने उत्सुकता से पूछा- “आपने वकालत छोड़ दी ? फिर क्या करने लगे ? क्या आपके पिताजी नाराज़ नहीं हुए ? उन्होंने अन्य कार्य करने की इजाजत दे दी ?
मेरे इतने सारे प्रश्न एक साथ सुनकर वे हंसकर बोले- “अरे भाई, एक साथ इतने प्रश्न । अच्छा, तो बारी-बारी से उत्तर भी सुन लो । मैंने महात्मा गाँधी के प्रभाव से देश की राजनीति में आने के लिए वकालत छोड़ दी। मेरे पिता भी परम् देशभक्त थे। इसलिए वे मेरे वकालत छोड़ने पर नाराज़ नहीं हुए, किन्तु उन्होंने तो यह कहा था –
“काश बहुत से ऐसे पिता होते
जिन्हें अपने बेटों पर
ऐसा ही गर्व होता,
जैसाकि मुझे है।”
मैंने कहा- “वास्तव में आपके पिता महान् थे, किन्तु आखिर कौन-सी घटना ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया ?”
उन्होंने झट उत्तर दिया- “जलियांवाला बाग गोलीकांड। उसने मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया। इसीलिए मैंने देश को स्वाधीन कराने का निश्चय कर लिया।”
मैंने कहा – “नेहरू जी, अपने देश की पुकार सुनकर भोग-विलास व ऐश्वर्य के जीवन को ठोकर मारकर देशभक्ति का कंटकाकीर्ण मार्ग चुन लिया । अब कुछ अपने विवाहित जीवन के विषय में भी बताइए।”
वे मुस्कराकर बोले- “मेरा विवाह 1916 में सीताराम बाज़ार दिल्ली के रहने वाली कमला से हुआ। उससे मेरी एक पुत्री भी हुई- प्रियदर्शिनी। बाद में जिसे इन्दिरा के नाम से जाना जाने लगा।”
मैंने कहा – “नेहरू जी, मैंने अभी-अभी आपकी पुस्तक ‘Discovery of India’ के हिन्दी रूपान्तर पर आधारित धारावाहिक कार्यक्रम देखा है। यह सचमुच लाजवाब है। क्या आपने इसके अतिरिक्त और भी कोई पुस्तक रची है ?”
वे कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले- “हाँ, मैंने ‘विश्व इतिहास की झलक’ पुस्तक की रचना भी की है। “
मैंने मुग्ध-भाव से उनकी ओर निहारते हुए कहा – “आपने देश को आज़ादी दिलाई । प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देश की नैया को सफलतापूर्वक खेते हुए विकास की ओर बढ़ाया। पंचशील का सिद्धांत देकर भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गौरव और सम्मान दिलाया। न केवल भारत में, अपितु विश्व भर में शांति की किरणें बिखेरीं। सचमुच आप महान् हैं। आप सर्वत्र सम्मान के अधिकारी हैं। अपने हर कार्य में अपनी सूझ-बूझ का प्रदर्शन किया। आप “
मुझे बीच में ही टोकते हुए नेहरू जी बोले- “नहीं, यह सत्य नहीं कि मैंने हर काम सूझ-बूझ से किया। मैंने चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई को पहचानने में भूल की। उसके कारण 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। भारत की पराजय हुई। मुझे इस बात का दुःख है कि आज भी भारतीय नेता, मेरी तरह भूलें कर रहे हैं। बिना सोचे समझे नीतियाँ बना रहे हैं। स्वार्थ भावना बढ़ती चली जा रही है। मुझे यह भी अफसोस है कि मेरी ही अदूरदर्शिता के कारण कश्मीर का मसला अभी तक हल नहीं हो पाया “……।
मैंने तुरन्त कहा- “नहीं-नहीं ! इसमें आपका कोई दोष नहीं। भारत सदैव आपका ऋणी रहेगा। आपके आदर्शों को हम कभी नहीं भुला सकते।” “अरे, अरे ! किसके आदर्शों को नहीं भुला सकते? यह क्या बड़बड़ा रहे हो ?” यह आवाज़ सुनकर मैं चौंका। मेरी माताजी मुझे जगा रही थीं। यानि मैं स्वप्न में ही नेहरू जी से भेंटवार्ता कर रहा था ।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here