स्वदेश-प्रेम अथवा देश-भक्ति, अथवा “वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं”

स्वदेश-प्रेम अथवा देश-भक्ति, अथवा “वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं”

” देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित ।
जिसकी दिव्य रश्मियाँ पाकर, मनुष्यता होती है विकसित ।।”
          देश-भक्ति पवित्रसलिला भागीरथी के समान है जिसमें स्नान करने से शरीर ही नहीं अपितु मनुष्य का मन और अन्तरात्मा भी पवित्र हो जाती है। स्वेदश की रक्षा और उसकी उन्नति के लिये अपना तन, मन, धनं देश-चरणों में समर्पित कर देना ही देश-भक्ति है, देश-प्रेम है। जन्मभूमि के प्रति निष्ठा रखना मनुष्य का नैसर्गिक गुण है । जिसकी धूलि में लेट लेट कर हम बड़े हुए, जिसने हमें रहने के लिये अपने अतुल अंक में आवास दिया, उसकी सेवा से विमुख होना कृतघ्नता है ।
“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं  पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥ “
          वास्तव में माता और मातृभूमि के मोह से मनुष्य मृत्यु तक मुक्त नहीं होता । इन दोनों के इतने उपकार होते हैं कि मानव उनसे आजीवन उऋण नहीं हो पाता । मातृभूमि की मान-रक्षा के लिये अपने को बलिदान करने में जो परम आनन्द प्राप्त होता है, देशहित के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करने में जो सुख और शान्ति मिलती है, उसका मूल्य कोई सच्चा देशभक्त ही जान सकता है। देश की उन्नति में ही देश-भक्त अपनी उन्नति समझता है । देश सेवा और परोपकार ही उसका धर्म होता है। देशवासियों के सुख-दुख में ही उसका सुख और दुख निहित होता है। उसकी अन्तरात्मा स्वार्थरहित होती है ।
          स्वदेश-प्रेम मानव-मात्र का एक स्वाभाविक गुण है । मनुष्य तो विचारवान और ज्ञानवान् प्राणी है। छोटे-छोटे अज्ञानपूर्ण पशु-पक्षी भी अपने जन्म स्थान से अनन्त स्नेह करते हैं। पक्षी दिन भर न जाने कहाँ-कहाँ उड़ते-फिरते हैं, परन्तु सन्ध्या होते ही वे दूर-दूर दिशाओं से पंख फड़फड़ाते हुए अपने नीड़ों को लौट आते हैं। नगर से दूर निकल जाने वाली गाय शाम होते ही खूँटे को याद करके रम्भाने लगती है। खूँटे पर आकर ही उसे पूर्ण शान्ति और सन्तोष प्राप्त होता है। इसी प्रकार मनुष्य चाहे किसी कार्य विशेष कारण से विदेश में रहता हो, परन्तु उसके हृदय से जन्मभूमि की मधुर स्मृति कभी भी समाप्त नहीं होती । स्वदेश दर्शन की लालसा उसे सदैव बाध्य करती रहती है अपने घर लौट आने के लिये । वह जन्मभूमि को संकटापन्न नहीं देख सकता । यही कारण  था कि नेताजी सुभाष की “ आजाद हिन्द सेना” में वही भारतीय सैनिक थे जो बर्मा, जापान आदि देशों में किसी कारण विशेष से जा बसे थे। उन्होंने परतन्त्र मातृ-भूमि को स्वतन्त्र कराने की शपथ ली, यह देश-भक्ति का ही प्रताप था ।
          देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये स्वदेश-प्रेम परम आवश्यक है। जिस देश के निवासी अपने देश के कल्याण में अपना कल्याण, अपने देश के अभ्युदय में अपना अभ्युदय, अपने देश के कष्टों में अपना कष्ट और अपने देश की समृद्धि में अपनी सुख-समृद्धि समझते हैं वह देश उत्तरोत्तर उन्नतिशील होता है, अन्य देशों के सामने गौरव से अपना मस्तक ऊँचा कर सकता है देश की सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये देशवासियों का देश-भक्त होना नितान्त आवश्यक है। जिन देशों के बालक, वृद्ध, स्त्रियाँ और युवक अपने राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने स्वार्थों को चढ़ाकर उस पर तन, मन, धन न्यौछावर कर देते हैं, वे देश संसार में महान् शक्तिशाली राष्ट्र समझे जाते हैं। जापान, जर्मनी, इगलैंड, रूस आदि के इतिहास में अनेक देश-भक्तों की कहानियाँ भरी पड़ी हैं। भारतवर्ष में इस समय निःस्वार्थ देश-भक्तों की बहुत कमी है, अपने-अपने स्वार्थ में सभी संलग्न हैं, देश के हित के लिये कोई थोड़ा-सा भी त्याग सहन नहीं कर सकता । यही कारण है कि भारतवर्ष अब तक प्रशंसनीय उन्नति नहीं कर पाया है ।
          आज भारतवर्ष स्वतन्त्र है। देश-भक्तों के लिये बहुत बड़ा कार्य-क्षेत्र पड़ा है। हमें किसान, मजदूरों की आर्थिक स्थिति सुधारनी चाहिये । अंगहीन, असहाय व्यक्तियों के लिये भोजन, वस्त्र की व्यवस्था करनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अनेक सुधार अभी बाकी हैं। पंचवर्षीय योजनाओं में हमें पूर्ण सहयोग देना चाहिये, जिससे देश सब प्रकार की भौतिक उन्नति कर सके। स्वदेश रक्षा के लिये हमें पूर्णरूप से कटिबद्ध होना चाहिये, जिससे कोई भी शुत्र हमारे देश पर कुदृष्टि न डाल सके | देश के उत्थान के लिये ऐसे देश-भक्तों की आवश्यकता है, जो अपना तन, मन, धन सब कुछ देश के चरणों पर चढ़ाने को उद्यत हों, स्वार्थी या अवसरवादी देश-भक्तों की आबश्यकता नहीं | हमें प्रान्तीयता की संकीर्ण विचारधारा से दूर रहना चाहिये । सबके सामने राष्ट्रीय एकता ही सर्वोपरि हो | हमें भारतवर्ष के उत्थान के लिये पूर्ण प्रयत्नशील होना चाहिये क्योंकि—
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” ।
          विश्व का इतिहास ऐसे असंख्य उज्ज्वल उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिनमें लोगों ने अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिये हँसते-हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिये । भारतवर्ष में देश-भक्तों की परम्परा बड़ी उज्ज्वल रही है । चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सिकन्दर के आक्रमण को रोकने के लिये छोटे-छोटे राजाओं ने जिस वीरता का परिचय दिया, वह भारत के इतिहास में अद्वितीय है, उस देशभक्ति का परिणाम यह हुआ कि सिकन्दर व्यास नदी से आगे न बढ़ सका । चन्द्रगुप्त मौर्य ने विदेशी आक्रान्ताओं को इतनी बुरी तरह खदेड़ा कि शताब्दियों तक वे भारतवर्ष की ओर मुँह भी न कर सके । चन्द्रगुप्त के पश्चात् पुष्पमित्र, समुद्रगुप्त, शालिवाहन, विक्रमादित्य आदि राजाओं ने देश को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिये घोर युद्ध किये और सफलता भी प्राप्त की । मुगल शासनकाल में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल और गुरु गोविन्दसिंह आदि देशभक्त वीर अत्याचारी शासन के विरुद्ध लड़ते रहे । अंग्रेजों के शासनकाल में १८५७ में भारत के लाखों वीरों ने अपने देश को स्वतन्त्र कराने के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी और उसके पश्चात् स्वाधीनता संग्राम १९४७ तक निरन्तर चलता रहा। इस संग्राम में लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, पं० मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, आदि देश-प्रेमी आत्माओं ने मातृभूमि के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। पं० जवाहरलाल नेहरू की कौन सी ऐसी प्रिय वस्तु थी, जिसका त्याग उन्होंने देश-सेवा के लिये न किया हो । वह कौनसा सुख था, जिसे उन्होंने देशहित के लिये न छोड़ा हो, ऐसा कौनसा कष्ट था जिसे देश कल्याण के लिये न सहा हो । निःसन्देह अटूट देश-प्रेम के ही कारण पं० नेहरू ने आनन्द भवन का राजसी जीवन छोड़ दिया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध, ६५ और ७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी सहसा उभार पर आया हुआ भारतीयों का देश-प्रेम अद्वितीय था।
          हमारा कर्त्तव्य है कि सच्चे देश-भक्तों का मार्गानुसरण करके सच्चे देश भक्त बनें। अपने देश के लिये हमें अपने स्वार्थों को त्याग देना चाहिये । व्यक्तिगत लाभ-हानि की ओर ध्यान न देते हुए देश-हित के लिये अपनी पूर्ण शक्ति लगा देनी चाहिये । सच्चे देश-भक्तों की जनता पूजा करती है। यदि हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की बात छोड़ दें और पवित्र हृदय से देश सेवा के कार्य में लग जायें तो निःसन्देह हमारा भारतवर्ष संसार के उच्चतम राष्ट्रों में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकता है। ऐसे देश-भक्तों के प्रति एक फूल के मानसिक उद्गार देखिये –
“मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक ।
मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक ॥”
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