स्वतन्त्रता के ५० वर्ष

स्वतन्त्रता के ५० वर्ष

          दो सौ वर्षों की दासता की शृंखलाओं से भारतीय जनता के हाथ और पैर लड़खड़ाने लगे थे। दिगभ्रान्ति से जनता पथ विहीन थी । शनैः शनैः भारतीयों में आत्म बोध हुआ, जन जागृति हुई। देश के विचारकों, लेखकों, साहित्यकारों एवं राजनैतिक मस्तिष्कों से जनता को अग्रसर होने का सम्बल मिला । भारत के शक्तिशाली अतीत का तथा अपने पूर्वजों के वैभव का स्मरण कर सन् १९४७ में अन्तिम जोर लगाया गया, फिर क्या था गाड़ी कीचड़ से बाहर थी, शत्रु स्तम्भित थे, मित्रों में उत्साह था, बधाइयाँ मिलने लगीं। अंग्रेज चले गये और १५ अगस्त, सन् १९४७ को हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी । परतन्त्रता ने हमें बिल्कुल खोखला कर दिया था । हम सब कुछ खो चुके थे, हमें बीच बाजार में खड़ा करके लूट लिया गया था । न हमारे पास आर्थिक शक्ति थी और न नैतिक बल, न हमारे पास सैनिक शक्ति थी, स्वतन्त्रता के ५० वर्ष सामाजिक बल, न हमारे पास धार्मिक एकता थी न आध्यात्मिक बल । फिर भी हमें प्रसन्नता थी, अपनी स्वतन्त्रता की। भारत माँ के बहते हुये आँसू रुके, मुखारविन्द पर सहसा मुस्कराहट खिल उठी ।
          राजनैतिक एवं साम्प्रदायिक कारणों ने भारत माँ के शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया। इतने पर भी ‘निरालम्ब राष्ट्र की समस्यायें मुँह बाए खड़ी थीं। उनका समाधान करना बड़ा कठिन था । सर्वप्रथम देश की आन्तरिक शांति परम आवश्यक थी । अब हम इन समस्याओं पर पृथक्-पृथक् रूप से विचार करेंगे ।
          शरणार्थी आवास –  समस्या–  मुस्लिम लीगियों की द्वेषपूर्ण भावनाओं के फलस्वरूप ही देश का विभाजन हुआ था। देश के विभाजन से पहले भी साम्प्रदायिक रक्तपात हुआ। विभाजन के पश्चात् इस समस्या ने भीषण रूप धारण कर लिया। लाखों परिवार अपने पूर्वजों की चल अचल सम्पत्ति छोड़कर अपने प्राणों की रक्षा के लिए भारत की ओर भाग खड़े हुए। मार्ग में उन पर भीषण प्रहार हुए, गाड़ियाँ लूटी गयीं, भरी गाड़ियों में आग लगा दी गई। भाग्य से जो बचे, उन्होंने भारत में शरण ली। किसी की स्त्री बिछुड़ी किसी का पुत्र छूटा, किसी के माँ बापों का भी पता न चला कि कहाँ मारे गये । इस प्रकार लाचार और दुःखी होकर और सब कुछ खोकर ६५ लाख से अधिक परिवार अपना घर बार छोड़कर भारत शरण में आए। भारत सरकार ने इन अनाथ शरणार्थियों के आवास की समस्या का बड़े साहस और धैर्य के साथ सामना किया। उन्हें घर दिया, जीवन की सभी सुविधायें दीं। उनके लिये नवीन बस्तियों का सरकारी खर्चे पर निर्माण हुआ। उनकी हानि की पूर्ति के लिये ३१ करोड़ रुपया बाँटा गया। आज वे बस चुके हैं, सम्पन्न हैं। अब यह समस्या सरकार के अथक प्रयासों से शांतप्राय हैं।
          अन्न वस्त्र और महँगाई की समस्या – भ्रष्टाचार और महँगाई अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। लोगों को न पेट भर अन्न उपलब्ध था और न पहिनने को वस्त्र । सरकार ने इस समस्या को भी सुलझाया। विदेशों से अन्न और वस्त्र की सहायता ली गई, कुछ वस्त्रों पर कन्ट्रोल लगाया गया। जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं को जनता तक पहुँचाने के लिये राशन की नीति अपनाई गई । स्वदेशी उद्योगों की उन्नति के लिये तथा देश को आत्मनिर्भर और समृद्ध बनाने के लिये प्रथम पंचवर्षीय योजना आरम्भ की गई, जिससे देश में एक नई उमंग दौड़ी। सभी उद्योग-धन्धों का विकास हुआ। अन्न वस्त्र का भी लक्ष्य से अधिक उत्पादन हुआ पिछले कुछ दिनों से भारतवर्ष में महंगाई बहुत बढ़ गई है। फिर भी सरकार पूर्णतया प्रयत्नशील है कि वह इस समस्या को हल कर सके ।
          रियासतों का विलीनीकरण – पाकिस्तान की तरह अंग्रेजों ने जाते-जाते दूसरा विष वृक्ष बोया कि उन्होंने भारत की ६०० देशी रियासतों को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । ये रियासतें षड्यन्त्रों का अड्डा बनती जा रही थीं, उनमें अराजकता थी, पारस्परिक द्वेष था । इनके पीछे अंग्रेजों की प्रबल चाल थी वह यह कि ये रियासतें समय आने पर विद्रोह करेंगी और इस प्रकार भारत को शासन के अयोग्य ठहराकर हम फिर शासन सूत्र सम्भाल लेंगे। परन्तु जिसको प्राप्त करने में जर्मनी के बिस्मार्क और चीन के चांगकाई शेक ने वर्षों तक संघर्ष किया, उसे हमारे आदर और श्रद्धा के पात्र लौह पुरुष सरदार पटेल ने एक रात्रि में (सम्पूर्ण देशी रियासतों को भारतीय गण राज्य में सम्मिलित कर लिया) पूर्ण कर दिखाया। यह थी सरदार पटेल की नीतिकुशल और निर्णयात्मक बुद्धि । निजाम हैदराबाद ने थोड़ी-सी हिचकिचाहट दिखाई थी, वहीं सरदार ने तुरन्त पुलिस एक्शन करा दिया था। झगड़ा सदैव के लिये शांत हो गया। आज भी इतिहास सरदार बल्लभ भाई पटेल को स्वार्णिम अक्षरों में स्मरण करता है।
          ‘कश्मीर समस्या – अन्य देशी रियासतों की भाँति ही कश्मीर रियासत भी थी । परन्तु सरदार पटेल इसे भारतीय गणराज्य में शामिल न कर पाये, इसके कुछ मुख्य कारण थे। कश्मीर की एक ओर सीमा पाकिस्तान से बिल्कुल मिली हुई है तथा इधर कुछ भारत से मिलती है। वहाँ तक पहुँचने के लिये भारत से कोई सीधी सड़क नहीं है। वहाँ के महाराजा ने पहिले तो भारतीय गणराज्य में मिलने से इन्कार कर दिया, परन्तु जब पाकिस्तान का आक्रमण हुआ और महाराजा ने अपने को राज्य की रक्षा में असमर्थ पाया, तो भारतीय संघ में मिलने की एकदम घोषणा की। उधर कश्मीर की नेशनल कांफ्रेन्स भारत में मिलने की पहिले ही घोषणा कर चुकी थीं। भारत ने हवाई मार्ग से तुरन्त सेनायें भेजीं । आक्रमण से बचे हुए कश्मीर भू-भाग की रक्षा की। मामला यू० एन० ओ० को सौंपा गया, युद्ध विराम रेखा बनी, विराम सन्धि हुई। इसके पश्चात् कश्मीर में नये निर्वाचन हुए तथा उस नव निर्वाचित एसेम्बली ने भारतीय संघ में सदा के लिये सम्मिलित होने की घोषणा कर दी । परन्तु अमेरिका और इंगलैंड इस प्रश्न पर पाकिस्तान को उकसा कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। लेकिन निर्विवाद सत्य है कि कश्मीर का भारतीय संघ में विलय अन्तिम था और वह भारतवर्ष का एक अविभाज्य अंग है।
        पाकिस्तान की समस्या – भारत ने पाकिस्तान को सदैव अपना पड़ौसी मित्र राष्ट्र माना और उसे हर प्रकार की सहायता देने को सदैव उद्यत रहा । परन्तु पाकिस्तान न सदैव भारत के प्रति घृणा पूर्ण नीति अपनाई, उसके विरोध में प्रचार किया । नहर पानी, व्यापारिक यातायात, शरणार्थियों की सम्पत्ति आदि अनेक पुराने प्रश्नों पर वह भारत के साथ विरोध करता रहा । पाकिस्तान सदैव सीमावर्ती प्रदेश में नये-नये संघर्ष उत्पन्न करके अग्नि को भड़काना चाहता है। भारत पर चीनी आक्रमण के समय पाकिस्तान ने चीन के साथ साँठ-गाँठ करके पूर्ण शत्रुता का परिचय दिया । ५ अगस्त, १९६५ को उसने भारत पर स्पष्ट आक्रमण करके तथा उससे पूर्व ९ अप्रैल, १९६५ को कच्छ पर आक्रमण करके यह निश्चित रूप से सिद्ध कर दिया कि वह भारत का एक पड़ौसी शत्रु देश है, जो ताशकन्द समझौते के बाद आज भी विद्वेष रखता है। सीमा मुठभेड़ों के समाचार तो प्रायः पत्रों में प्रकाशित होते रहते थे । पाकिस्तान के १९७१ के दानवी नरसंहार से संत्रस्त एक करोड़ शरणार्थी बंगला देश से भारत आए, भारत के सामने नयी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समस्यायें आई जिनका समाधान भारत और पाकिस्तान के बीच दिसम्बर १९७१ में सीधा युद्ध होने के बाद ही निकला और स्वतन्त्र बंगला देश की स्थापना हुई, फिर भी मनमुटाव और आन्तरिक तनाव की भावना कम नहीं हुई है ।
          संविधान निर्माण की समस्या – स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के समक्ष नवीन संविधान निर्माण की भी एक समस्या थी, क्योंकि यह देश बहुत से धर्मों का बहुत सी जातियों का, अनेक भाषाओं का और अनेक मतों का देश है। यहाँ का संविधान ऐसा होना चाहिये, जो सब को समान रूप से न्याय और अधिकार दे सके । देश के नेताओं ने बड़ी दूरदर्शिता पूर्वक सभी विचारधाराओं का समन्वय करके १९४९ के अन्त तक संविधान तैयार कर लिया। यह संविधान २६ जनवरी, सन् १९५० से देश भर में लागू किया गया। इसमें ३९५ धाराएँ तथा ८ अनुसूचियाँ हैं। यह संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी अधिकार से वंचित नहीं रखता। इसमें सभी प्रादेशिक भाषाओं को प्रमुखता प्राप्त है, परन्तु राजभाषा के रूप में हिन्दी को ही स्वीकार किया गया है। संविधान के अनुसार दलितों को बड़ी सुविधाएँ प्रदान की गई हैं तथा भारत के कलंक अस्पृश्यता को सदा के लिये समाप्त कर दिया गया। सभी राज्य अपने में स्वतन्त्र होते हुए भी केन्द्र के अधीन हैं। भारतीय संविधान इस प्रकार एक आदर्श संविधान बनाया गया है ।
          विदेश नीति की समस्या – भारत स्वतन्त्रता के पश्चात् जब अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर आया, तो उसने देखा कि विश्व की शक्ति दो गुटों में विभाजित है – एक का नेता है अमेरिका, दूसरे का अध्यक्ष है रूस । तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने तटस्थता की नीति की घोषणा की। भारत किसी भी गुट में सम्मिलित नहीं हुआ है। आज विश्व में इस नीति के बल पर भारत का और भारत के कर्णधारों को सम्मान एवम् आदर है। विश्व शान्ति के नेता के रूप में भारत आज अग्रदूत बना हुआ है। आज हमारी सहायता के लिये जितना अमेरिका तैयार है, उतना ही रूस। १९७१ में भारत और रूस की २० वर्षों के लिये सन्धि हो जाने के बाद भी भारत की तटस्थ विदेश नीति आज भी ज्यों की त्यों अप्रभावित है। विश्व के सभी राष्ट्रों के लिये भारत के मैत्री द्वार खुले हुए हैं । स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व तो हमारी कोई नीति ही नहीं थी, जो ब्रिटेन के मित्र और शत्रु थे, ,वे हमारे भी मित्र और शत्रु थे।
          व्यक्ति और राष्ट्र के चरित्र निर्माण की समस्या-परतन्त्रता के क्षणों में देश की बड़ी दयनीय स्थिति थी । विदेशी हमारा आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक सभी प्रकार का शोषण करते थे। वर्ण-भेद अपनी सीमा को पहुँचा हुआ था। स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत सरकार ने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की ओर भी ध्यान दिया। जनता के जीवन को सुखी बनाने के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। शासन के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ एवम् पंचम पंचवर्षीय योजनाओं में व्यक्तियों के जीवन स्तर को उठाने पर विशेष ध्यान दिया है। गाँव-गाँव में पाठशाला और चिकित्सालय खोले गये हैं। देश के जन-जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिये १९८० से छठी पंचवर्षीय योजना भी चालू हो गई है ।
          भाषा समस्या – पंजाबी अपने को पंजाब का होने में और पंजाबी भाषा बोलने में तथा बंगाली अपने को बंगाल का होने में एवं बंगाली भाषा बोलने में गर्व अनुभव करते हैं। अभी-अभी मुम्बई, चेन्नई और पंजाब की भाषा के आधार पर ही पुनः टुकड़े हुए और इधर का उधर मिलाया गया, उधर का इधर। पंजाब ने अपना पंजाबी सूबा अलग बना लिया है। उधर मद्रास में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम अपनी अलग चीख पुकार मचाए हुए था। भारत का संविधान भारत की १५ भाषाओं को प्रमुख स्थान देता है। परन्तु प्रदेशों की क्षुद्र विचारधारा को कहाँ तक रोका जा सकता है, हिन्दी, जो आज से ३५ वर्ष पूर्व राज भाषा बन चुकी है वह मौन है, उस पर शासन ने २६ जनवरी, १९६५ के बाद भी १० वर्ष के लिये अंग्रेजी को सरकारी कार्यों में सहायक भाषा स्वीकार कर लिया था और आज १९९६ में भी यथा अंग्रेजी स्थान है। इस प्रकार देश में आज भाषाओं की समस्या बनी हुई है। यह समस्या भारतीयों की समुचित मनोवृत्ति की परिचायिका है।
          बेरोजगारी की समस्या – प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम पंचवर्षीय योजनाओं में जनता की बेकारी की समस्या को यद्यपि सरकार ने बहुत कुछ सुलझाने का प्रयास किया है, परन्तु यह समस्या आज भी बनी है। इसका मूल कारण यह है कि प्रत्येक हाई स्कूल या इण्टर पास विद्यार्थी नौकरी की ओर दौड़ता है । बी० ए० तथा एम० ए० पासों की भी कमी नहीं है। थोड़ा-सा भी पढ़ने के बाद गाँव का लड़का गाँव में रहना पसन्द नहीं करता, हल या बैल को हाथ लगाना पाप समझता है। कृषि के अतिरिक्त उद्योग-धन्धों की ओर भी प्रवृत्ति कम होती है । वह तो केवल नौकरी के स्वप्न देखता है । यह तो निश्चित है कि इतनी नौकरियाँ न तो शासन के पास हैं और न किसी और सूत्र के पास । फिर भी भारत सरकार देश में विद्यमान बेरोजगारी की समस्या को पूरा करने के लिए कृत संकल्प है।
          विदेशी विनिमय की समस्या – देश में सोने की कमी के कारण यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। स्वर्ण अधिनियम से कुछ सोना राजकोष में जमा हुआ है। इससे विदेशी विनिमय की समस्या कुछ-कुछ अवश्य सुलझेगी ऐसी आशा की जाती है । है
          चीनी आक्रमण – २० अक्टूबर, १९६२ को भारतवर्ष पर सहसा चीन ने आक्रमण कर दिया । हमारे सैनिकों में जितनी शक्ति थी, उन्होंने उसका मुकाबला किया परन्तु अकेले साहस और शक्ति.. से काम नहीं चलता, युद्ध के लिये अनेक उपकरणों की भी आवश्यकता होती है, जो उस समय हमारी सेना के पास नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि देश को नीचा देखना पड़ा। इस आकस्मिक पराजय के कारण जनता की पुकार पर तत्कालीन रक्षामन्त्री श्री मेनन को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। वह चीनी भय आज भी बना हुआ है।
          कश्मीर में पाकिस्तानी षड्यन्त्र की समस्या – कश्मीर की समस्या ज्यों की त्यों ही बनी हुई थी, इतने में हजरत मुहम्मद की दरगाह से बाल चोरी चले जाने से कश्मीर में फिर उपद्रव हुए, यद्यपि यह सब पाकिस्तान का षड्यन्त्र था । पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर भयानक अत्याचार हुए, जिनके परिणामस्वरूप लाखों व्यक्तियों को फिर अपना घर बार छोड़ने को विवश होना पड़ा, पाकिस्तान स्वयं ही फिर कश्मीर प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गया, जिसमें भारत पाक सम्बन्ध और कश्मीर पर विचार हुआ । एक बार फरवरी १९६४ में मीटिंग हो चुकी थी, दूसरी मई १९६४ में हुई। १९६५ में भारत पाक युद्ध के बाद ताशकन्द समझौते के समय पर भी पाकिस्तान कश्मीर, कश्मीर् चिल्लाता रहा। आज तक उसे यही रट है किन्तु कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है और रहेगा ।
          राष्ट्र नेता की समस्या – भारत की स्वतन्त्रता के १६वें वर्ष का अन्तिम चरण भारतवर्ष के लिए अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के जनमानस के सम्राट पं० नेहरू २७ मई, १९६४ को भारत को अनाथ बनाकर अनन्त एवं अज्ञात दिशा की ओर चल दिये । सारा देश शोक सागर में डूब गया। झोंपड़ी से लेकर महलों तक की आँखें आँसुओं से डबडबा आई। देश के समक्ष राष्ट्र के नेता की समस्या मुँह फाड़कर आई । विदेशी भी इस नाटकीय परिवर्तन को देखने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे। श्री कामराज ने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक इस समस्या को हल किया और श्री शास्त्री को एक स्वर से प्रधानमन्त्री बनाया गया । रूस में स्वर्गीय श्री शास्त्री के महाप्रयाण के पश्चात् राष्ट्र ने बड़े विश्वास के साथ देश का भार श्रीमती गाँधी के हाथों में सौंप दिया, १९७१ के महानिर्वाचन में गाँधी को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई | मार्च १९७७ के चुनावों में श्रीमती गाँधी की तथा उनके दल की पराजय के बाद श्री मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमन्त्री बने लेकिन उनका कार्यकाल अति अल्प रहा । सन् १९८० में श्रीमती गाँधी पुनः देश की प्रधानमन्त्री और सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता बन गईं । ३१ अक्टूबर, १९८४ को उनकी मृत्यु तक उनके कुशल निर्देशन में राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर रहा ।
          श्रीलंका तथा बर्मा के भारतीय प्रवासियों की समस्या — श्री शास्त्री के प्रधानमन्त्री बनने के बाद विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में भी कुछ आश्चर्यजनक परिवर्तन हुये । खुश्चेव को रूस में अपदस्थ किया गया, उधर चीन ने परमाणु बम बनाकर विस्फोट किया । बर्मा तथा श्रीलंका जैसे देशों में भारतीयों की आवास की कठिनाइयाँ सामने आईं तथा श्री शास्त्री के आगे भारतीय प्रवासियों की समस्या एक भयानक रूप में खड़ी कर दी गई। इस सबके पीछे चीन और पाकिस्तान की चाल थी। श्री शास्त्री ने बड़ी गम्भीरता से श्रीलंका और बर्मा से प्रवासी भारतीयों की समस्या का पारस्परिक बातचीत तथा समझौते के द्वारा समाधान निकाला ।
          सन् १९६४-६५ की खाद्य समस्या – श्री शास्त्री के प्रधानमन्त्री बनते ही देश में एक भयानक अन्न संकट उठ खड़ा हुआ। अबाध गति से वस्तुओं के मूल्य बढ़ने लगे। खाद्य वस्तुओं का बाजार में उपलब्ध होना दूभर हो गया । परिणामस्वरूप केरल में भयानक प्रदर्शन और उपद्रव हुए। वहाँ की जनता को सन्तुष्ट किया गया । तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी द्वारा मार्च १९७१ में अनाज के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिये जाने तथा जून १९७५ में देश में आपात्कालीन स्थिति की घोषणा से देश में अन्न के अभाव की स्थिति में कुछ सुधार हुआ था। मार्च ७७ से केन्द्रीय सरकार के प्रयासों से देश खाद्यान्नों के सम्बन्ध में अब आत्मनिर्भर हो चुका है। अन्न के भावों में भी पर्याप्त गिरावट आ चुकी है।
          राष्ट्र-भाषा की समस्या – श्री शास्त्री के प्रधानमन्त्रीत्व काल में राष्ट्रभाषा की समस्या भी उग्ररूप से उठ खड़ी हुई क्योंकि २६ जनवरी, १९६५ में संविधान के अनुसार हिन्दी को अंग्रेजी का स्थान ले लेना था । फलस्वरूप मद्रास, केरल, बंगाल आदि अहिन्दी भाषी प्रान्तों में हिन्दी का विरोध हुआ। परिणामस्वरूप राजभाषा कानून में संशोधन का निर्णय किया गया तथा अंग्रेजी का स्थान आगामी १० वर्षों के लिये सहभाषा के रूप में निश्चित कर दिया गया। लेकिन आज १९९७ आ गया है, फिर भी अंग्रेजी की स्थिति ज्यों की त्यों सुदृढ़ है।
          भ्रष्टाचार निवारण की समस्या– भारत के भूतपूर्व गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा की प्रेरणा से देश में भ्रष्टाचार निवारण का व्यापक कार्यक्रम भी एक स्मरणीय वस्तु है। इस दिशा में नन्दा जी ने बहुत कुछ किया था। इस छूत की बिमारी से कोई अछूता नहीं है, चाहे वह छोटा अधिकारी हो या बड़ा, छोटा व्यापारी हो या बड़ा । धीरे-धीरे इस दिशा में लोगों ने गम्भीरतापूर्वक सोचना शुरू किया है, जिससे आशा है कि देश में जागरण अवश्य होगा और हमारा मनोबल ऊँचा होगा। श्रीमती गाँधी के सतत् प्रयासों के फलस्वरूप देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान तीव्रता से चला । जून ७५ में घोषित आपात्कालीन स्थिति के कारण लोगों ने स्वयं अपने काले धन की घोषणायें की। भारत की वर्तमान सरकार भी इस दिशा में प्रयत्नशील रही है।
          कच्छ के रन पर पाकिस्तानी आक्रमण – स्वतन्त्रता के १८वें वर्ष के अन्तिम चरण की यह ऐतिहासिक घटना है–पाकिस्तान जैसे छोटे देश का भारत जैसे विशाल देश पर आक्रमण करना परस्पर मैत्री की भावनाओं को समाप्त करना है ।
          ताशकन्द एवं शिमला समझौता समस्या – ५ अगस्त, १९६५ से भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ा। देश मे वीर सपूतों ने शत्रु के दाँत खट्टे किए, वह परास्त हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के अनुसार २३ सितम्बर, १९६५ को युद्ध बन्द हो गया। रूस के आग्रहपूर्ण आमन्त्रण पर श्री लालबहादुर शास्त्री और अय्यूब खाँ में ताशकन्द में बातचीत हुई और ऐतिहासिक ताशकन्द समझौता हो गया। परन्तु यह समझौता अपने में ही एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत अपने नैतिक दायित्व से बँधा हुआ था और उन शर्तों का पालन कर रहा था, परन्तु पाकिस्तान अपनी पुरानी हरकतें बराबर करता चला आ रहा था, वही घृणा का प्रचार, वही सीमाओं का अतिक्रमण, लूटमार और आगजनी की घटनायें तथा वही कश्मीर हड़पने की पुरानी चालें। दिसम्बर १९७१ के भारत-पाक युद्ध के बाद १९७२ में श्रीमती गाँधी के सत्प्रयासों के फलस्वरूप शिमले में पाक राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमन्त्री के बीच फिर समझौता हुआ । परन्तु पाकिस्तान ने उस समझौते का भी पालन नहीं किया | १९७८-७९ में भी नई केन्द्रीय सरकार ने पाकिस्तान से कई सद्भावनापूर्ण समझौते किये। वर्तमान समय में केन्द्रीय सरकार भी पाकिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील है।
          रुपये का अवमूल्यन से मूल्य वृद्धि की समस्या – भारत सरकार ने ६ जून, १९६६ को प्रातः दो बजे से विदेशों के लिये भारतीय रुपए का ३६.५ प्रतिशत से अवमूल्यन कर दिया । ‘भारतीय जनता भावों को आकाश में ले उड़ी । लेकिन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी जी ने अपनी कठोर आज्ञाओं और निर्देशों से परिस्थिति पर बड़ी कुशलता से काबू पा लिया है ।
          छात्रों में अराजकता की समस्या – आज राष्ट्र के समक्ष सबसे बड़ी समस्या राष्ट्र के भावी नागरिकों की है। छात्रों की अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता और अल्हड़पन इतना बढ़ गया है, कि कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो बच्चों में कोई अनुशासन है ही नहीं। जिस विषय को चाहेंगे, उसे पढ़ेंगे जिस परीक्षा में बैठना चाहेंगे, उसमें बैठेंगे और नहीं बैठने पर भी ज उत्तीर्ण होना चाहेंगे । विद्यार्थियों की उच्छृंखलता पिछले दिनों बहुत बढ़ गई थी, पर विद्यार्थियों की बुद्धिमता एवम् शासन वर्ग की तत्परता से अब इस स्थिति में सुधार हो गया है।
          केन्द्र और राज्य में पारस्परिक सम्बन्ध– सन् १९६७ के आम चुनावों के बाद विभिन्न प्रांतों में विभिन्न दलों की गैर कांग्रेसी संयुक्त सरकार बनी। राष्ट्रनायकों के आगे जो समस्या २० वर्षों से नहीं थी और भारत पर एकछत्र राज्य कर रहे थे, वह समाप्त हो गया। शासन के समक्ष यह एक समस्या आई कि देश का संतुलित और सशक्त संचालन किस प्रकार हो । मतभेद और विचार विभिन्नता न केन्द्र को ही सशक्त बनने देगी और न प्रान्त ही सुखी एवं समृद्ध हो सकेंगे। भिन्न-भिन्न दलों की सरकारें कभी भी देश को स्थायी शासन और स्थायी नीति नहीं प्रदान कर सकतीं। यह अस्थिरता की स्थति १९७१ में पंचम महानिर्वाचन में प्रायः समाप्त सी ही हो गई क्योंकि श्रीमती गाँधी की कांग्रेस को आशातीत बहुमत प्राप्त हुआ और केन्द्र में सशक्त और स्थिर सरकार की स्थापना हो गई है।
          साम्प्रदायिक उपद्रव—स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में साम्प्रदायिक उपद्रवों की चिंगारी लगनी आरम्भ हो गई, इलाहाबाद, मेरठ, नागपुर, रांची आदि बड़े-बड़े नगरों में बड़े पैमाने पर उपद्रव भड़क उठे । इनके भीषण परिणामों से चिन्तित केन्द्रीय एवं प्रदेशीय सरकारों ने बड़ी ही तत्परता एवं सूझ-बूझ का परिचय दिया। राष्ट्रीय एकता परिषद की २२, २३, २५ जून १९६८ को सभा बुलाई गई और इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये । छोटे-मोटे साम्प्रदायिक उपद्रवों के अतिरिक्त १९६९ में अहमदाबाद में इस चिंगारी ने इतना भयानक रूप धारण कर लिया कि सैंकड़ों व्यक्तियों को मौत के मुँह में जाना पड़ा तथा लाखों और करोड़ों रुपये की क्षति उठानी पड़ी । वर्तमान में १९७७ से १९८६ तक भारत के विभिन्न स्थानों पर होने वाले साम्प्रदायिक उपद्रव देश के लिये कलंक की बात है ।
          १९६९ में कांग्रेस का विभाजन – एक प्रश्न – जो कांग्रेस ८०-८५ वर्षों से देश की सेवा करती चली आ रही थी, उसमें कुछ स्वार्थी और पूँजीवादी बहुमत हो जाने से और उनके द्वारा देशा की समाजवादी प्रगति में रोड़ा अटकाने तथा खींचातानी से खिन्न होकर श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में देश का एक बहुमत उस पुरानी कांग्रेस से अलग हो गया, जो केवल चन्द आदमियों के हाथ में बन्द थी और जनता से दूर थी । यह विभाजन समस्त स्तरों पर हुआ — नगर और मुहल्ले से लेकर अखिल भारतीय स्तर तक । इन्दिरा जी ने बड़े कौशल और साहस के साथ देश की बागडोर को सम्हाला, फिर से जनमानस की, केन्द्रीय शासन की अस्थिरता तथा कांग्रेस के अभाव में किसी दूसरी राजनैतिक पार्टी का अखिल भारतीय स्तर का न होना, साहस उद्वेलित कर देता था कि देश के शासन का क्या होगा। परन्तु १९८० के महानिर्वाचन में श्रीमती इन्दिरा गाँधी को संसद् में आशातीत बहुमत प्राप्त हुआ । राष्ट्र ने पुनः आगामी ५ वर्षों के लिये शासन का भार श्रीमती गाँधी के सबल कन्धों पर रख दिया । १९९५ में काँग्रेस में काँग्रेस तिवारी और काँग्रेस (ई) के नाम से पुनः विभाजन हो गया ।
          बाढ़ों की समस्या – भारतवर्ष की नदियों में वर्षा के दिनों में प्रायः बाढ़ें आती हैं। प्रतिवर्ष हजारों एकड़ भूमि जलमग्न हो जाती है। हजारों गाँव और सैकड़ों लोग बर्बाद हो जाते हैं। इस दिशा में राज्य सरकारें निरन्तर प्रयत्नशील हैं। बांध बनवाये गए हैं, रोक-थाम की गई है। पर बांधों में भी दरारें पड़ रही हैं। अगस्त १९७१ में सारे देश में बाढ़ों का प्रकोप रहा। बिहार और बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हजारों गाँव जलमग्न हो गये। लाखों एकड़ खेती नष्ट हो गयी। यहाँ तक कि ७, ८, ९, १० सितम्बर, १९६१ को गोमती की बाढ़ ने आधे से अधिक लखनऊ को जलमग्न कर दिया। बटलर और सहानी बांधों में दरारें पड़ गई। ४० मुहल्ले खाली करा दिये गये और हजरतगंज में सेना की नौकाएँ चलने लगीं। चिड़ियाघर के हिरण आदि जानवर स्वतन्त्र होकर भाग उठे | अगस्त १९८२ में बिहार प्रान्त के पटना नगर में आई हुई विनाशकारी बाढ़ तो पटना वासियों को कई पीढ़ी तक याद रहेगी जिसमें दुमंजिले मकान भी जलमग्न हो गये।
          भारत-रूस सन्धि – अगस्त १९७१ में भारत ने अपने मित्र रूस के साथ आगामी बीस वर्षों के लिये सन्धि की । यह सन्धि, इन दोनों महान् देशों की सुरक्षा और समृद्धि तथा विश्व शान्ति की दृष्टि से अपने में महत्वपूर्ण है। आशा है इससे विश्व कल्याण और विश्व शान्ति में सहायता ही मिलेगी ।
          लोकतन्त्र की रक्षा की समस्या – १९७५ में देश में अराजकता और अव्यवस्था पनपने लगी थी । भारत सरकार के आगे एक विचित्र समस्या थी । तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश में आपात्कालीन स्थिति की घोषणा करके देश की अराजकता को दूर करने में सफलता प्राप्त की थी ।
          जनता पार्टी का अभ्युदय – १९ जनवरी, १९७७ की दिल्ली में श्री मोरारजी देसाई के निवास स्थान पर गैर कम्युनिस्ट चार विपक्षी दलों ने एक होकर जनता पार्टी के नाम से चुनाव लड़ने का निश्चय किया । ये चार दल थे—– (१) संगठन काँग्रेस, (२) जनसंघ, (३) सोशलिस्ट, (४) भारतीय लोक दल । जनता पार्टी के अध्यक्ष मोरारजी देसाई तथा उपाध्यक्ष चौधरी चरण सिंह बनाये गये । २ फरवरी, १९७७ को सहसा भूतपूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री जगजीवन राम तथा उ० प्र० के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के नेतृत्व में लोकतान्त्रिक काँग्रेस (सी० एफ० डी० ) के नाम से एक नये दल का जन्म हुआ तथा दल ने पूर्वोक्त पार्टी से समर्थित होकर लोक सभा का मार्च १९७७ का चुनाव लड़ा।
          जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार – मार्च १९७७ के चुनावों में जनता पार्टी को अद्वितीय सफलता मिली । २३ मार्च, १९७७ को राष्ट्रपति ने जनता पार्टी को अपना नेता चुनने को कहा। २४ मार्च, १९७७ को सर्व सम्मति से श्री मोरारजी देसाई संसदीय दल के नेता चुने गये तथा उसी दिन अपराह्न में उन्हें भारत के गौरवपूर्ण प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई । २५ और २६ मार्च को भारत के नये प्रधानमन्त्री ने अपने नवीन मन्त्रिमण्डल की घोषणा की।
          १९७७ में काँग्रेस का पुनर्विभाजन – १९७७ के लोक सभा के चुनावों में भारी पराजय तथा आपात्कालीन दुराग्रहों के कारण काँग्रेस में पुनः विभाजन हो गया। भारी बहुमत काँग्रेस में रहा । कुछ लोग श्रीमती इन्दिरा गाँधी के साथ हो लिये जिसको काँग्रेस (इ) का नाम दिया गया। काँग्रेस (इ) की अध्यक्षा श्रीमती इन्दिरा गाँधी रहीं तथा काँग्रेस में कार्यवाहक अध्यक्ष सरदार स्वर्ण सिंह बनाये गये ।
          जनता पार्टी का विघटन व पतन – जनता पार्टी की सरकार अधिक समय तक देश पर शासन न कर सकी क्योंकि यह विभिन्न विचारधाराओं एवं नीतियों के लोगों का संगठन थी। इसमें उभरता, घटकवाद इसके पतन का कारण बना । जुलाई १९७९ में उसका पतन हो गया और कुछ समय के लिय चौधरी चरण सिंह देश के कार्यवाहक प्रधानमन्त्री बने । जनता पार्टी पुनः चार राजनीतिक दलों में बँट गई ।
          सातवीं लोक सभा का निर्वाचन-जनवरी, १९८० में सातवीं लोक सभा के लिए मध्यावधि चुनाव हुआ, जिसमें इन्दिरा काँग्रेस को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई । २५ माह के बाद श्रीमती गाँधी पुनः भारत की प्रधानमन्त्री बन गई । उस समय में श्रीमती गाँधी के नेतृत्व में भारत अपनी अनके समस्यायें सुलझाकर प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ।
          इन्दिरा युग का अवसान- ३१ अक्टूबर, १९८४ को उनके अंगरक्षक पृथक्तावादी आतंकवादियों ने भारत की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी। देश एक बार फिर अपने को अनाथ अनुभव करने लगा जैसा कि नेहरू के स्वर्गारोहण के समय हुआ था । श्रीमती गाँधी के ज्येष्ठ पुत्र श्री राजीव गाँधी को प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई ।
          आठवीं लोक सभा के चुनाव– दिसम्बर, १९८४ के अन्तिम सप्ताह में देश में आठवीं लोक सभा के चुनाव सम्पन्न हुए। काँग्रेस दो तिहाई बहुमत से भी अधिक बहुमत से विजयी हुई । दल के नेता पद के चुनाव के बाद श्री राजीव गाँधी को देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। अब मई ९६ में ग्यारहवीं लोक सभा के चुनाव सम्पन्न होने जा रहे हैं।
          पृथक्तावादी शक्तियाँ – विगत तीन-चार वर्षों से भारत में पृथकतावादी शक्तियाँ अपना सर उठा रहीं हैं। कहीं खालिस्तान की माँग की जा रही है तो कहीं गोरखालैंड की। कहीं नागालैंड की पुकार है तो कहीं असमगण परिषद की। प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने अपने राजनैतिक चातुर्य से समझौतों द्वारा असम और नागालैंड की समस्यायें सुलझा दी हैं परन्तु दो समस्यायें अभी भी मुँह बाये खड़ी हैं ।
          आतंकवाद – भय, आतंक एवं भीषण नरसंहारों से कुछ वर्ग भारत सरकार से अपनी पृथक्तावादी शर्तें मनवाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इधर पंजाब में उग्रवादी नरसंहार कर रहे हैं तो उधर गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट वाले। बिहार में नक्सलवादी नरसंहार में लगे लगे हुए हैं।
          सारांशतः देश के स्वतन्त्र 50 वर्षों की यह छोटी सी कहानी हैं। इन वर्षों में देश के विकास ने अनेक क्षेत्रों में प्रशंसनीय प्रगति की है, जो कि अन्य देश नहीं कर पाये हैं। इस अल्प अवधि में अनेक भीषण समस्याओं का समाधान किया गया है । परन्तु अभी सबसे बड़ी समस्या भारत में चरित्र निर्माण की है। इसमें अकेली सरकार का ही दोष नहीं है, सामाजिक चेतना की भी कमी है और इसके लिए व्यक्तिगत चेतना परमावश्यक है ।
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