स्पुतनिक या बालचन्द्र

स्पुतनिक या बालचन्द्र

          विज्ञान ने जब-जब करवटें बदलीं तब-तब विश्व में एक तहलका मचा । विज्ञान ने अपने नवीन एवं अद्भुत आविष्कारों से संसार को सदैव चमत्कृत किया है। जब रेलगाड़ी का पहली बार आविष्कार हुआ लोग कौतूहल दृष्टि से उसकी ओर देखते के देखते रह जाते. थे। उसके बाद जब पनडुब्बियाँ और विमान बने तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जनता उसे वैज्ञानिकों की वायु पर विजय कहने लगी। जब वैज्ञानिकों को परमाणु के विस्फोट करने में तथा उससे ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता मिली तब विज्ञान के इतिहास में एक नया पृष्ठ खुला । जनता ने समझा कि चरम-सीमा सम्भवतः यहीं तक हो परन्तु आज के वैज्ञानिक की स्पुतनिक की सफलता ने अपने पिछले सभी चमत्कारी चित्रों की आभा को प्रभावहीन बना दिया है।
          स्पुतनिक का अर्थ है साथ चलने वाला, या सहयात्री । यह शब्द रूसी भाषा का है। वे लोग इसे कम्पेनियन या बालचन्द्र भी कहते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा हमारी पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसी प्रकार यह कृत्रिम उपग्रह भी पृथ्वी की परिक्रमा करता है। रूसी लोग इसे स्पुतनिक कहते हैं, क्योंकि यह सहयात्री है। ४ अगस्त, १९५७ को रूस ने इसे पहली बार छोड़ा था । आधुनिक वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में बहुत दिनों से प्रयत्नशील थे कि चन्द्रमा तथा दूसरे ग्रहों तक किस प्रकार यात्रा सम्भव हो सकती है। इस यात्रा में सबसे बड़ी बाधा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति थी । पृथ्वी अपने आस-पास के सभी पिण्डों को अपनी ओर खींचती है और इसलिये सभी वस्तुएँ पृथ्वी – की ओर आकर्षित होकर उस पर पड़ती हैं। इस विषय में राकेटों के परीक्षण बहुत दिनों से प्रारम्भ हो गये थे और यह सोचा जा रहा था कि यदि किसी पदार्थ को प्रति सेकिण्ड ७ मील की गति से फेंका जा सके, जिससे वह ८०० मील दूर तक चलता जाए, तो वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर विजय प्राप्त कर सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी ने बी-१ और बी० प्रकार के राकेटों का उपयोग भी किया था। इस प्रकार रूस का यह आविष्कार नितान्त नवीन नहीं था, बल्कि जिन राकेटों का उपयोग जर्मन कर चुका था उन्हीं को रूसी वैज्ञानिकों ने अधिक विकसित रूप में विश्व के समक्ष उपस्थित कर दिया।
          रूस में इस स्पुतनिक का एक स्मारक भी बनवाया गया है। वह स्पुतनिक, जो आकाश में प्रथम बार ४ अक्टूबर, १९५७ को रूस द्वारा फेंका गया था, गोलाकार था। उसका व्यास ५८ सेन्टीमीटर तथा वजन ८२६ किलोग्राम था। इसमें दो रेडियी ट्रांसमीटर लगे हुए थे, जो आवश्यक सूचना प्रसारित करते थे। जिस कैरियर राकेट में रखकर इसे फेंका गया था, वह १ महीने तक पृथ्वी चक्कर लगाता रहा और फिर आकाश में ही नष्ट हो गया। रूसी भौतिक शास्त्रियों का कहना था कि वह स्पुतनिक वास्तविक चन्द्रमा से आठ गुनी अधिक गति से घूम रहा था। जनवरी के का प्रथम सप्ताह में यह नष्ट हो गया ।
          प्रथम स्पुतनिक की सफलता का अभी आश्चर्य समाप्त नहीं हुआ था कि रूसी वैज्ञानिकों द्वारा ३ नवम्बर, १९५७ को दूसरा स्पुतनिक छोड़ा गया जिसका वजन आधा टन, यानि लगभग १४ मन अर्थात् १२०० पौंड था। इससे भारी उपग्रह को छोड़ने से विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक और भी अधिक चिंतित हुए । इसमें लाइका नाम की एक कुतिया भी बैठा कर भेजी गई थी। यह उपग्रह पृथ्वी से ९३० मील की दूरी पर छोड़ा गया था। इसने एक घण्टे ४२ मिनट में पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण की थी । इसकी गति एक सेकिण्ड में ८००० मीटर थी । वह पृथ्वी से १,५०० किलोमीटर से भी अधिक ऊँचाई पर प्रति २४ मिनट में पृथ्वी की सम्पूर्ण परिक्रमा करता था। इस उपग्रह को रूस ने अपनी अक्टूबर क्रान्ति की ४० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष में छोड़ा था। इस बालचन्द्र में जीवित कुत्ते को बैठाकर भेजने का प्रमुख ध्येय यह था कि यह जानकारी प्राप्त हो सके कि इतनी ऊँचाई पर आकाश में इतनी तीव्रता से यात्रा करने से जीवित प्राणी में क्या-क्या प्रतिक्रियायें हो सकती हैं। अपने इस अनुभव से रूसी वैज्ञानिकों ने यह निश्चित कर लिया था कि रूस चन्द्रलोक की यात्रा करने में शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर लेगा, जिस दिन राकेट छोड़ा गया था, उससे ठीक छ: दिन बाद उस कुत्ते की मृत्यु हो गई ।
          रूस और अमेरिका दोनों देशों में अपनी शक्ति बढ़ाने की होड़ सी है। राकेट का प्रयोग युद्ध काल में शत्रु के पूर्ण विनाश के लिये भी किया जा सकता है। अमेरिका के तत्कालीन प्रेसीडेण्ट आइजनहावर ने अपने ७ नवम्बर, १९५७ के रेडियो व्यक्तव्य में रूस की इस वैज्ञानिक प्रगति को स्वीकार भी किया। रूस के दो उपग्रह छोड़ने के पश्चात् अमेरिका ने विशेष प्रयत्न किया। रूस के प्रथम स्पुतनिक छोड़ने के ठीक १७ सप्ताह पश्चात् १ फरवरी, १९५८ को अमेरिका ने अपना कृत्रिम उपग्रह एक राकेट द्वारा छोड़ा। जिसकी गति १९,४०० मील प्रति घण्टा थी। इसने पृथ्वी की पहली परिक्रमा १०६ मिनट में पूरी की। इसका वजन केवल तीन पौण्ड था। यह तोप के गोले के आकार का था। अमेरिका के वैज्ञानिक ने इसकी जीवन अवधि दस माह से ढाई वर्ष तक अनुमानित की थी।
          इसके पश्चात् १७ मार्च, १९५८ को अमेरिका ने अपना दूसरा उपग्रह छोड़ा। पृथ्वी से इसकी दूरी २,५०० मील से भी अधिक अनुमानित की जाती थी। यह १३५ मिनट में समस्त पृथ्वी की परिक्रमा कर पाता था, इसका वजन भी ३ पौण्ड ही था । इसमें दो ट्रान्समीटर और ६ स्पर्शदण्ड थे। ये १०८ और ११८०३ मैगसाइकल पर रेडियो से सन्देश दे रहा था ।
          इसके बाद १५ मई, १९६८ को रूस ने अपना तीसरा बालचन्द्र आकाश में छोड़ा । इसकी लम्बाई ११९ फीट थी, व इसका वजन १८ टन था। रूस ने पहिले भी दो उपग्रह छोड़े थे, उनसे यह उपग्रह १०० गुना बड़ा था। बालचन्द्रों के इन परीक्षणों से पृथ्वी के तापमान के सम्बन्ध में भी कुछ नए तथ्य ज्ञात हुए हैं। वह यह है कि २०० किलोमीटर की ऊँचाई पर कहीं अधिक उष्णत्व है और पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चता भी है। इसके बाद अमेरिका ने एक और उपग्रह छोड़ा जिसका वजन चार टन था। इससे रूस के प्रभाव में कुछ कमी आती प्रतीत हुई । इसलिये २ जनवरी, १९५९ को रूसियों ने उपग्रह छोड़ा, जिसके सम्बन्ध में यह कहा गया कि वह चन्द्रमा तक पहुँचेगा परन्तु यह राकेट, चन्द्रमा से ३००० मील दूर होकर सूर्य की ओर चला गया। रूस ने पहले जो स्पुतनिक छोड़े थे, वे केवल पृथ्वी की परिक्रमा करते थे, परन्तु इस रॉकेट से रूसियों ने सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाला उपग्रह भी तैयार कर लिया। रूस की इस महान् वैज्ञानिक सफलता पर विश्व के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हो उठे।
          आज समस्त मानव जाति का ध्यान सोवियत संघ एवं अमेरिका के अन्तरिक्ष कार्यक्रमों पर केन्द्रित है। अन्तरिक्ष कार्यक्रम के क्षेत्र में ११ अप्रैल, १९६१ को नवीन अध्याय का सूत्रपात हुआ, जब सोवियत संघ समानव एक यान अन्तरिक्ष में भेजने में सफल हुआ। सोवियत संघ द्वारा छोड़े गए इस उपग्रह के चालक मेजर यूरी गगारिन को प्रथम अन्तरिक्ष यात्री कहलाने का गौरव मिला । मानव समाज इस अभूतपूर्व सफलता पर सोवियत वैज्ञानिकों का अभिनन्दन कर रहा था कि ५ मई, १९६१ को अमेरिका ने अपनी प्रतिभा का परिचय देकर संसार को विस्मित कर दिया । उस ऐतिहासिक दिन अमेरिका ने सफलतापूर्वक एक मानव यान अन्तरिक्ष में भेजा, जिसके चालक थे कमाण्डर एलेन रोपर्ड, जिन्होंने प्रथम अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्री होने का सम्मान प्राप्त किया ।
          १२ अक्टूबर,१९६४ को सोवियत संघ ने वोस्खोद (Voskhod) नामक एक उपग्रह अन्तरिक्ष में प्रक्षिप्त किया। वोस्खोद का अर्थ है सूर्योदय (Sunrise) और वास्तव में इस परीक्षण की सफलता ने वैज्ञानिकों में आशा की नवीन किरणों के साथ-साथ आत्म-विश्वास का संचार किया। यह प्रथम अवसर था कि जब एक यान में एक से अधिक तीन अन्तरिक्ष यात्रियों ने २४ घण्टे १७ मिनट तक पृथ्वी की परिक्रमा की। इससे पूर्व सोवियत वैज्ञानिकों ने कुछ घण्टों के अन्तर पर दो यान अन्तरिक्ष में भेजे थे । ११ अगस्त को मेजर आन्द्रेय निकोलेव (Andrian Nicolayev) तथा १८ अगस्त, १९६२ को कर्नल पोपविच (P. Popvich) को सफलतापूर्वक अन्तरिक्ष में भेजा गया, जिन्होंने क्रमशः ६४ और ४८ बार पृथ्वी की परिक्रमा की । १६ जून, १९६३ को समस्त संसार स्तब्ध रह गया, जब यह समाचार दिया गया कि सोवियत महिला पृथ्वी की परिक्रमा कर रही है। वह सोवियत महिला थी वेलेन्तीना तेरेश्कोबा जिन्होंने पृथ्वी की ४८ परिक्रमा करके सोवियत संघ को एक महिला को अन्तरिक्ष में भेजने का गौरव दिखलाया ।
          सन् १९६५ का वर्ष अन्तरिक्ष वर्ष कहना ही अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इसी वर्ष आकाश यात्रा और आकाश विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अविस्मरणीय और महत्वपूर्ण रहीं। इसी वर्ष १८ मार्च को सोवियत अन्तरिक्ष यात्री कर्नल अलेक्सी लियोनाव (Alexi Leonove) अपने पृथ्वी परिक्रमा यान से बाहर निकल कर लगभग दस मिनट तक विमुक्त अन्तरिक्ष में तैरने के उपरान्त अपने यान में वापिस लौट गए। अमेरिका भी अन्तरिक्ष दौड़ में सोवियत संघ से पीछे नहीं रहा । ३ जून को अमेरिकी आकाशयात्री मेजर एडवर्ड ह्वाइट ने अपने यान जेमिनी ४ से बाहर आकर शून्य आकाश सागर में संचरण किया। इसी वर्ष १५ दिसम्बर को अमेरिका ने चन्द्रलोक की यात्रा के स्वप्न को साकार रूप देने की दिशा में महत्वपूर्ण परीक्षण किया, जब अमेरिका के दो आकाश यान—जेमिनी-३ और जेमिनी-७ का आकाश में संयम हुआ और दोनों यान पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए परस्पर ६ फुट की दूरी तक चालकों द्वारा लाये गये । (गुरुत्वहीन आकाश के खतरों के बीच यान से बाहर निकल कर तैरना और दोनों यानों का इतने समीप पहुँचना, दोनों ही कार्य भविष्य की आकाश यात्राओं के लिए अत्यधिक आवश्यक थे क्योंकि वैज्ञानिक त्रिशंकुओं, यानी आकाश स्टेशनों का निर्माण इन्हीं पर निर्भर करता है ।) इसी वर्ष अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ही देशों ने चन्द्रमा की सतह की विशदतर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया, क्योंकि चन्द्रमा ही आकाश यात्रियों की पहली मंजिल है। जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से अमेरिका ने रेंजर और सोवियत संघ ने लूना नामक अनेक उपग्रह छोड़े, जो अपने उद्देश्यों में आंशिक रूप से सफल रहे। इसके अतिरिक्त, अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने अपने उपग्रह क्रमश: मंगल और शुक्र की ओर भी उड़ाये। इस तरह १९६५ अपने पीछे यह विश्वास छोड़ गया कि मानव का भविष्य पृथ्वी की कैद में न रहकर आकाश की असीमता में स्वतन्त्र है।
          जब तक चन्द्रयानों से प्राप्त जानकारी के आधार पर यह अनुमान किया गया कि चन्द्रवदन कहकर जिस चन्द्रमा से सुन्दर मुखड़े की उपमा दी जाती थी, उसी चन्द्रमा का मुखड़ा बड़ा ऊबड़-खाबड़ और कठोर है। २४ दिसम्बर, १९६६ को सोवियत यान लूना-१३ चन्द्रमा के धरातल पर दबे पाँव (Soft landing) उतरने में सफल हुआ । (चन्द्रमा से ६० कि० मी० दूर रहते ही इसने अपने रिट्र राकेट चालू कर दिये ताकि वह आहिस्ता से बिना झटका खाये उतर सके) उस यान से जो सूचनायें प्राप्त हुई हैं, वह आज तक प्राप्त समस्त सूचनाओं से अधिक तथ्यपूर्ण और अद्भुत हैं। भौतिक और यान्त्रिक दृष्टि से चन्द्रमा की सतह की जानकारी विशेष वैज्ञानिक महत्व की है। इस यान से प्राप्त महत्वपूर्ण सूचना के अनुसार, चन्द्रमा का धरातल २० से ३० सेंटीमीटर की गहराई तक उतना ही कठोर है, जितना पृथ्वी का, तथा उसमें स्थान-स्थान पर गड्ढे एवं दरारें आदि हैं। अमेरिकी चन्द्र यान लूना और विस्टर- ३ ने २४ फरवरी, १९६७ को उन स्थानों का सफलतापूर्वक सर्वेक्षण समाप्त किया जहाँ अन्तरिक्षयान चालकों को चन्द्रमा पर उतारा जा सकेगा । यान द्वारा पृथ्वी पर भेजे गये चित्रों से चन्द्रमा के विषुवत् रेखा के साथ-साथ ऐसे उपयुक्त स्थानों का पता चलता है, जहाँ अमेरिकी यान चालक सुगमता से चन्द्रमा पर उतर सकेंगे। ८५० पौंड के इस यान को केप कैनेडी (फ्लोरिडा) से ४ फरवरी, १९६७ को आकाश में प्रक्षिप्त किया गया, जिसने १५ फरवरी को निश्चित कार्यक्रम के अनुसार चन्द्रमा के चित्र लेने आरम्भ किये और तीनों महाद्वीपों पर समाचित एक संचार प्रक्रिया (Telestar) के अन्तर्गत उन्हें पृथ्वी पर सम्प्रेषित किया गया । हाल ही में अमेरिका द्वारा अन्तरिक्ष में प्रक्षिप्त अन्तरिक्ष यान और विटर-४ ने पृथ्वी पर चन्द्रमा का प्रथम चित्र भेजा। इस चित्र में दक्षिणी ध्रुव के निकट का क्षेत्र अंकित है, जो इससे पूर्व कभी नहीं देखा गया था। केप कनेडी ने छोड़े गए इस यान का उद्देश्य था, चन्द्रमा के अग्र भाग का ८० प्रतिशत से अधिक और पृष्ठ भाग का ८० प्रतिशत भाग चित्रांकित करना ।
          अन्तरिक्ष कार्यक्रम का इतिहास मानव दृढ़ संकल्प, अडिग आत्म-विश्वास तथा साहस और शौर्य का प्रत्यक्ष साक्षी रहा है। गत दस वर्षों में इस क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगतियाँ हुई हैं और आज भी प्रगति का चक्र अनवरत गतिशील है, लेकिन यह प्रगति निर्विरोध नहीं है बल्कि अनगिनत. • ज्ञात अथवा अज्ञात बलिदानों का संजोया रहस्य है । २६ जनवरी, १९६७ का दिवस एक तीव्र वेदना का करुण दिवस बन गया है, जिस दिन केप कैनेडी अपोलो – १ अन्तरिक्ष यान के प्रक्षेपण मंच पर एक परीक्षण के दौरान अत्यन्त आकस्मिक रूप से आगे जाने के कारण तीन सदस्यों का समूचा चालक मण्डल अत्यन्त दुःखद अवस्था में मारा गया। मृत्यु का आलिंगन करने वाले चालक मण्डल के सदस्य थे—वर्जित ग्रिसम, एडवर्ड ह्वाइट और रोजर चेफी । अमेरिका के चन्द्रयात्रा कार्यक्रम के लिए यह भयंकर आघात था। यह आशंका भी व्यक्त की गई कि इस दुर्घटना का अन्तरिक्ष कार्यक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव होना अवश्यम्भावी होगा । वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी वर्ग दुर्घटना के भयंकर आघात को भूल भी न पाये थे कि उनके स्वप्नों पर एक और व्रजपात हो गया । २६ अप्रैल १९६७ को सोवियत संघ ने सोयूज – १ अन्तरिक्ष यान छोड़ा, जिसका संचालक था ४० वर्षीय ब्ल कोमारोव। कार्यक्रम के अनुसार, यान से निरन्तर संदेश मिलते रहे और संचालक भी पूर्ण स्वस्थ रहा, लेकिन पृथ्वी पर उतरते समय यान दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें संचालक कर्नल ब्लादोमीर कोमारोव मारा गया। कर्नल कोमारोव की मृत्यु के समाचार ने हर्ष के वातावरण को विषाद एवं दुर्भाग्य में परिणत कर दिया और वैज्ञानिकों को विवश कर दिया कि उन्हें सम्पूर्ण योजना पर पुनः विचार करना होगा और आवश्यक परिवर्तन करने होंगे ।
          गत दस वर्षों से अन्तरिक्ष दौड़ में प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी अमेरिका तथा सोवियत संघ रहे। आज भी वास्तविक प्रतिद्वन्द्वी यही दो राष्ट्र हैं, हालांकि अन्य कुछ राष्ट्र जैसे भारत और फ्रांस भी इस दौड़ के प्रारम्भिक युग में पहुँच गये हैं और एक दो राष्ट्र सम्मिलित होने के लिये प्रयत्नशील हैं दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में सम्भव सहयोग और वैज्ञानिक जानकारी का आदान-प्रदान करने के इच्छुक हैं। मास्को रेडियो से प्रसारित शोक सन्देश यह निःसन्देह प्रसारित करता है कि चाहे राजनैतिक सम्बन्धों में अनेक विवाद हों पर अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान में प्रत्येक राष्ट्र परस्पर सद्भाव की दृष्टि रखता है— बर्जिल ग्रिमस, एडवर्ड व्हाइट और रोजर चेफी के शौर्य का हम अत्यधिक सम्मान करते हैं और अन्य लोगों के साथ मिलकर हम भी उनकी स्मृति को अत्यधिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
          हर्ष है कि १२ वर्ष पूर्व अभियान सम्बन्धी जो इतिहास का नवीन पृष्ठ रूस द्वारा खोला गया था उसका समापन विजय वैजयन्ती सहित अमेरिका द्वारा २० जौलाई, १९६९ में सम्पन्न हो गया। अमेरिकी नागरिक श्री नील आर्मस्ट्रांग विश्व और मानव के इतिहास में प्रथम मानव थे, जिन्होंने अपना चरण चन्द्रमा के वृक्ष पर प्रथम बार रक्खा | श्री नील आर्मस्ट्रांग विश्व के वीर एवं साहसी पुरुषों के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे । १९७९ तक सोवियत संघ अनेकों उपग्रह छोड़ चुका है जो कि भिन्न-भिन्न ग्रहों की जानकारी और गतिविधि के विषय में संदेश दे रहे हैं। अमेरिका और सोवियत संघ के महानतम प्रयासों द्वारा निश्चित ही अन्तरिक्ष विज्ञान का भविष्य उज्ज्वलतम है।
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