स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन लेखक-परिचय

प्रश्न-
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी का जीवन परिचय एवं उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
1. जीवन-परिचय-आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का आधुनिक साहित्य के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है। इनका जन्म सन् 1864 में रायबरेली के दौलतपुर गाँव में हुआ था। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। आपने स्कूली शिक्षा मैट्रिक तक ही प्राप्त की थी, किंतु आपने अध्यवसाय, विपुल जिज्ञासा, प्रेरित अनवरत अध्ययन और चिंतन-मनन की अपनी प्रवृत्ति के कारण हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, उर्दू, बाँग्ला, गुजराती आदि अनेक भाषाओं का गहन अध्ययन किया। अपने इसी गुण के कारण आप अपने युग के अग्रणी साहित्यकार रहे। आप भाषा के महापंडित थे। आपने कई वर्षों तक रेलवे विभाग में नौकरी की। आपने 1903 ई० में ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन का कार्यभार संभाला। हिंदी जगत् के लिए यह एक महान् घटना थी। सन् 1920 तक इस पत्रिका का संपादन करते हुए आपने हिंदी में खड़ी बोली गद्य को व्यवस्थित एवं परिष्कृत करके उसे व्याकरण-सम्मत बनाया। आप जीवन-पर्यंत साहित्य-साधना में लगे रहे। सन् 1938 में आपका देहांत हो गया।

2. प्रमुख रचनाएँ-आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने लगभग 80 रचनाएँ लिखीं, जिनमें से 14 अनूदित और 66 मौलिक रचनाएँ हैं। केवल गद्य पर इनकी अनूदित और मौलिक रचनाओं की संख्या 64 है। इनके प्रमुख निबंध-संग्रह निम्नलिखित हैं
‘संकलन’, ‘रसज्ञ रंजन’, ‘लेखांजलि’, ‘संचयन’, ‘विचार-विमर्श’, ‘साहित्य-सीकर’, ‘साहित्य-संदर्भ’, ‘समालोचना समुच्चय’ आदि।

3. साहित्यिक विशेषताएँ-आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी युग- प्रवर्तक एवं युग-निर्माता पहले हैं, साहित्यकार बाद में इसलिए उनके निबंधों में भारतेंदु अथवा बाद के निबंधकारों की भाँति वैयक्तिकता, रोचकता एवं सजीवता उपलब्ध नहीं होती। वस्तुतः द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से धर्म, साहित्य, समाज, विज्ञान, राजनीति आदि विषयों पर जमकर निबंध लिखे। उन्होंने भाषा संस्कार और पुनरुत्थान का महान् कार्य किया। बेकन उनके आदर्श निबंधकार थे। इसलिए उन्होंने उनके अनेक निबंधों का हिंदी में अनुवाद भी किया। बेकन की भाँति ही महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के निबंधों में विचारों की अधिकता सर्वत्र देखी जा सकती है।

4. भाषा-शैली-आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भाषा सुधार का महान् कार्य किया। उनके निबंधों में शुद्ध साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है। वे विषयानुकूल, व्याकरण सम्मत एवं सरल भाषा के प्रयोग के पक्ष में थे। उनके निबंधों में विभिन्न शैलियों का प्रयोग हुआ है। उनके साहित्य की भाषा में लोक प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया गया है।

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ का सार

प्रश्न-
‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कृतों का खंडन’ शीर्षक पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
प्रस्तुत निबंध में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उन लोगों को मुँह तोड़ जवाब दिया है जो स्त्री-शिक्षा को व्यर्थ एवं समाज के विघटन का कारण मानते थे। इसके साथ ही लेखक ने सड़ी-गली परंपराओं को त्याग देने की प्रेरणा भी दी है। निबंध का सार इस प्रकार है-
लेखक को इस बात का बेहद दुःख है कि पढ़े-लिखे लोग भी स्त्री-शिक्षा का विरोध करते थे। बड़े-बड़े धर्मगुरु व अध्यापक भी स्त्री-शिक्षा के विपक्ष में तर्क देते थे। उनका तर्क है कि पुराने संस्कृत नाटकों में स्त्री-पात्र अनपढ़ों की भाषा में बात करते थे। इससे पता चलता है कि पुराने समय में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। स्त्री-शिक्षा से समाज में अनर्थ होते हैं। वे शकुंतला का उदाहरण भी देते हैं कि शकुंतला ने गँवारों की भाषा में श्लोक रचा था। इससे पता चलता है कि स्त्रियों के लिए कुछ भी पढ़ना उचित नहीं था।

लेखक ने तर्क देते हुए कहा है कि नाटकों में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना उनकी अनपढ़ता का प्रमाण नहीं है। संस्कृत न बोल पाना भी अनपढ़, गँवार होने का प्रतीक नहीं है। बौद्ध-धर्म और जैन-धर्म के ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई है। इन धर्मों के उपदेश भी प्राकृत भाषा में ही दिए जाते थे। अतः स्पष्ट है कि प्राकृत बोलना या प्रयोग करना अनपढ़ता का प्रतीक नहीं हो सकता। जैसे हिंदी, बाँग्ला आदि भाषाएँ आज की प्राकृत हैं, वैसे ही शौरसेनी, मागधी, पाली आदि उस समय की प्राकृत भाषाएँ थीं। नाटकों में कुछ ही लोगों द्वारा संस्कृत बोलने का प्रावधान किया गया था क्योंकि सब संस्कृत नहीं बोल सकते थे।

लेखक का कथन है कि प्राचीनकाल में महिलाओं के लिए विश्वविद्यालय नहीं थे, किंतु वे प्रमाण आज नष्ट हो चुके हैं। किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पुराने समय में जहाज़ और विमान थे किंतु उनको बनाने की विद्या सिखाने के प्रमाण नहीं मिलते। फिर भी हम उनके होने की बात को बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं। लेकिन न जाने इसी तर्क पर हम स्त्रियों का शिक्षित होना क्यों नहीं मानते? ईश्वर ने अनेक वेद मंत्र उनके मुख से कहलवाए हैं। बौद्ध ग्रंथों में स्त्रियों की अनेक पद्य-रचनाएँ उपलब्ध हैं। इतना कुछ होने पर भी हम उन्हें अनपढ़ कहने पर तुले हुए हैं। . लेखक ने अनेक ज्ञानवान स्त्रियों के प्रमाण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया है कि स्त्रियाँ भी शिक्षित थीं। अत्रि की पत्नी गार्गी और मंडन मिश्र की पत्नी का तर्क ज्ञान पूजनीय पुरुषों को भी परास्त करता है। क्या यह दुराचार है। उधर एम.ए., बी.ए. करके पत्नियों को मारना व पीटना पुरुषों का सदाचार है। पुरुषों के लिए शिक्षा अमृत और स्त्रियों के लिए जहर, क्या इस बात को संगत कह सकते हैं।

यदि यह भी मान लिया जाए कि पुराने ज़माने में स्त्रियाँ अशिक्षित थीं किंतु वर्तमान युग में स्त्रियों का शिक्षित होना अति अनिवार्य है। अतः हमें स्त्रियों को अनपढ़ रखने की चाल को छोड़ देना चाहिए। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में पुराने समय में स्त्रियों के शिक्षित होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। रुक्मिणी की हरण कथा इस बात का प्रमाण है। रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को प्रेम-पत्र लिखा था। वह प्राकृत में नहीं हो सकता।

लेखक ने तर्क देते हुए कहा है कि यदि नारी-शिक्षा से अनर्थ होता है तो पुरुषों की हिंसा और पापाचार भी पढ़ाई या शिक्षा का परिणाम है। इस प्रकार तो सभी स्कूल-कॉलेज बंद हो जाने चाहिएँ। शकुंतला ने ऐसी कौन-सी दलील दे दी थी, जिससे दुष्यंत का अपमान हुआ हो। यदि वह उससे विवाह करके उसे भुला देता है तो क्या वह उसका सम्मान करती? इसी प्रकार राम ने भी सीता की अग्नि-परीक्षा भी ले ली थी और फिर किसी के बहकावे में आकर उसे पुनः त्याग दिया था। यहाँ सीता का राम के प्रति क्रोध करना उसके गँवार होने की निशानी नहीं, उसका ऐसा करना स्वाभाविक है।

लेखक के अनुसार शिक्षा कभी-भी अनर्थकारी नहीं हो सकती। अनर्थ तो पुरुष भी करते हैं। अनपढ़ों और अशिक्षितों से भी अनर्थ होते हैं। जो लोग स्त्री-शिक्षा का विरोध करते हैं, वे अपनी अज्ञानता दिखाते हैं। ऐसे लोग तो दंडनीय हैं तथा समाज की उन्नति में बाधा डालने के लिए अपराधी भी। वस्तुतः शिक्षा बहुत व्यापक हैं उसमें सीखने योग्य विविध विषय हो सकते हैं। यदि आज की शिक्षा दोषपूर्ण है और स्त्रियों को सिखाने योग्य कुछ नहीं है तो उसमें सुधार होना चाहिए। पुरुषों की शिक्षा में भी दोष हैं, किंतु इस कारण स्कूल-कॉलेज बंद नहीं किए जा सकते। इस संदर्भ में लेखक का निवेदन है कि यदि शिक्षा में दोष है तो उस पर बहस होनी चाहिए, संशोधन होना चाहिए। किंतु इसे हमें अनर्थकारी, विनाशकारी या फिर मिथ्या नहीं कहना चाहिए।

Hindi स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Important Questions and Answers

विषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्त्री-शिक्षा के विरोधी लोगों के क्या तर्क हैं? पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पाठ में स्त्री-शिक्षा विरोधी लोगों ने स्त्री-शिक्षा के विरोध में निम्नलिखित तर्क दिए हैं
स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता प्राचीनकाल में नहीं थी, इसलिए प्राचीनकाल के पुराणों व इतिहास में स्त्री-शिक्षा की किसी भी प्रणाली के प्रमाण नहीं मिलते। इसलिए स्त्री-शिक्षा की आज भी आवश्यकता नहीं है।
स्त्री-शिक्षा के विरोधियों का यह भी तर्क है कि स्त्री-शिक्षा से अनर्थ होते हैं। शकुंतला ने दुष्यंत को जो कुवाक्य कहे, वे स्त्री-शिक्षा के अनर्थ का परिणाम है।
संस्कृत नाटकों में स्त्री-पात्रों के मुख से प्राकृत भाषा बुलवाई गई है। उस समय प्राकृत को गँवार भाषा समझा जाता था। इससे पता चलता है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं था, वे गँवार व अनपढ़ थीं। उनकी दृष्टि में तो गँवार भाषा के ज्ञान से भी अनर्थ हुआ।

प्रश्न 2.
पुरातन पंथी लोगों ने शकुंतला पर जो आरोप लगाया क्या आप उससे सहमत हैं?
उत्तर-
पुरातन पंथी लोगों ने शकुंतला पर आरोप लगाया है कि उसने अशिक्षा के कारण ही राजा दुष्यंत को कुवाक्य कहे। यदि वह शिक्षित होती तो ऐसा अनर्थ न करती। हम पुरातन पंथियों के इस आरोप से सहमत नहीं हैं। यहाँ प्रश्न शिक्षा व अशिक्षा का नहीं है। यहाँ प्रश्न है कि दुष्यंत ने शकुंतला से गांधर्व विवाह किया और जब वह उससे मिलने आई तो उसने उसे पहचानने से ही इंकार कर दिया। ऐसी स्थिति में तो कोई भी कुवाक्य ही कहता। यहाँ शकुंतला की शिक्षा को दोष देना उचित नहीं है।

प्रश्न 3.
संस्कृत और प्राकृत के संबंध पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
संस्कृत प्राचीन एवं शुद्ध साहित्यिक भाषा है। इस भाषा को जानने वाले बहुत कम लोग थे। उस समय संस्कृत के साथ-साथ कुछ प्राकृत भाषाएँ भी प्रचलित थीं। ये सभी भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हुई जनभाषाएँ थीं। मागधी, महाराष्ट्री, पाली, शौरसेनी आदि अपने समय की लोक-भाषाएँ थीं। इन्हें प्राकृत भाषाएँ भी कहा जाता है। बौद्ध और जैन साहित्य इन्हीं भाषाओं में रचित साहित्य हैं। अतः प्राकृत भाषाएँ गँवार या अनपढ़ों की भाषा नहीं है।

प्रश्न 4.
संस्कृत नाटकों में स्त्री पात्रों द्वारा संस्कृत न बोल पाना क्या उनकी अनपढ़ता का प्रमाण है? पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर-
स्त्री-शिक्षा के विरोधियों ने प्राचीनकाल में भी स्त्रियों को अनपढ़ व गँवार सिद्ध करने के लिए नाटकों का उदाहरण देते हुए कहा है कि नाटकों में नारी पात्रों द्वारा संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषा बुलवाई जाती थी क्योंकि संस्कृत सुशिक्षितों की भाषा थी और प्राकृत लोक भाषा या जनभाषा थी। किंतु लेखक इन पुरातन पंथियों व स्त्री-शिक्षा विरोधियों के तर्क को उचित नहीं समझता। उनके अनुसार प्राकृत बोलना अनपढ़ता का सबूत नहीं है। उस समय आम बोलचाल में प्राकृत भाषा का ही प्रयोग किया जाता था। संस्कृत भाषा का प्रचलन तो कुछ ही लोगों तक सीमित था। अतः यही कारण रहा होगा कि नाट्यशास्त्रियों ने नाट्यशास्त्र संबंधी नियम बनाते समय इस बात का ध्यान रखा होगा क्योंकि संस्कृत को कुछ ही लोग बोल सकते थे। इसलिए कुछ पात्रों को छोड़कर अन्य पात्रों से प्राकृत बुलवाने का नियम बनाया जाए। इस प्रकार स्त्री पात्रों द्वारा संस्कृत न बोलने के कारण उन्हें अनपढ़ नहीं समझना चाहिए। फिर प्राकृत में भी तो महान् रचनाओं का निर्माण हुआ है।

प्रश्न 5.
‘प्राचीनकाल में प्राकृत भाषा का चलन था’-पाठ के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर-
स्त्री-शिक्षा विरोधियों ने प्राकृत भाषा को अनपढ़ एवं गँवार लोगों की भाषा बताया है। किंतु लेखक ने प्राकृत भाषा को जन-साधारण की भाषा बताया है। उस समय की पढ़ाई-लिखाई भी प्राकृत भाषा में होती थी। उस समय प्राकृत भाषा के प्रचलन का प्रमाण बौद्ध-ग्रंथों एवं जैन-ग्रंथों में मिलता है। दोनों धर्मों के हजारों ग्रंथ प्राकृत भाषा में रचित हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश भी प्राकृत भाषा में ही दिए हैं। बौद्ध धर्म का महान् ग्रंथ त्रिपिटक भी प्राकृत भाषा में रचित है। ऐसे महान् ग्रंथों का प्राकृत में रचे जाने का कारण यही था कि उस समय जन-भाषा प्राकृत ही थी। अतः प्राकृत अनपढ़ों की भाषा नहीं थी।

प्रश्न 6.
लेखक के मतानुसार आज के युग में स्त्रियों के शिक्षित होने की आवश्यकता प्राचीनकाल की अपेक्षा अधिक क्यों है? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर-
यदि स्त्री-शिक्षा विरोधियों की बात मान भी ली जाए कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को पढ़ाने या शिक्षित करने का प्रचलन नहीं था तो उस समय स्त्रियों को शिक्षा की अधिक आवश्यकता नहीं होगी। किंतु आज के युग में स्त्री-शिक्षा कि आवश्यकता एवं महत्त्व दोनों ही अधिक हैं। आज का युग भौतिकवादी एवं प्रतियोगिता का युग है। इस युग में अनपढ़ता देश व समाज के विकास में बाधा ही नहीं, अपितु देश व समाज के लिए कलंक भी है। नारी का शिक्षित होना तो इसलिए अति आवश्यक है कि जिस परिवार में नारी शिक्षित होगी उस परिवार के बच्चों की शिक्षा-व्यवस्था अच्छी हो सकेगी। शिक्षित नारी ही बच्चों को अच्छे-बुरे की पहचान करने का ज्ञान देकर उन्हें अच्छे नागरिक बना सकेगी। शिक्षित नारी नौकरी करके या अन्य कार्य करके धन कमाकर परिवार के आर्थिक विकास में सहायता कर सकती है। इसीलिए लेखक ने प्राचीनकाल की अपेक्षा आधुनिक युग में स्त्री-शिक्षा को अति आवश्यक बताया है।

प्रश्न 7.
प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों के लिए किस-किस शिक्षा का विधान किया गया था?
उत्तर-
प्राचीन ग्रंथों में कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि कुमारियों के लिए विभिन्न प्रकार की शिक्षा का प्रबंध था; जैसे चित्र बनाना, नाचने, गाने, बजाने, फूल चुनने, हार गूंथने आदि। लेखक का मानना है कि उन्हें पढ़ने-लिखने की शिक्षा भी निश्चित रूप से दी जाती होगी।

विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 8.
लेखक ने किन लोगों को स्त्री-शिक्षा के विरोधी बताया है ?
उत्तर-
लेखक ने बताया है कि जो लोग स्वयं शिक्षित हैं और जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा ग्रहण की है, जो धर्मशास्त्र व संस्कृत साहित्य से परिचित हैं, जिनका काम कुशिक्षितों को सुशिक्षित करना है, जो कुमार्गियों को सुमार्गी बनाते हैं और अधार्मिकों को धर्मतत्त्व समझाते हैं, वही लोग स्त्री-शिक्षा का विरोध करते हैं।

प्रश्न 9.
‘स्त्री शिक्षा की पुराने समय में कोई नियमबद्ध प्रणाली थी, जो शायद नष्ट हो गई थी’ इस बात को सिद्ध करने के लिए लेखक ने कौन-कौन से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं ?
उत्तर-
स्त्री-शिक्षा की पुराने समय में कोई नियमबद्ध प्रणाली रही होगी किंतु वह शायद नष्ट हो गई होगी। इस बात को सिद्ध करने के लिए लेखक ने सर्वप्रथम प्रमाण दिया है कि पुराने समय में विमान भी उड़ाए जाते थे तथा बड़े-बड़े जहाज़ों पर सवार होकर लोग एक द्वीप से दूसरे द्वीप पर जाते थे। ऐसी बातें अत्यंत आश्चर्यजनक हैं। इनके बनाने व चलाने के कोई नियमबद्ध प्रमाण नहीं मिलते क्योंकि शायद नष्ट हो गए होंगे। यदि विमानों व जहाज़ों के विषय में विश्वास किया जा सकता है तो स्त्री-शिक्षा की नियमबद्ध प्रणाली होने में विश्वास क्यों नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 10.
‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ नामक पाठ का उद्देश्य अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
इस पाठ का प्रमुख उद्देश्य स्त्री-शिक्षा के विरोधी लोगों के कुतर्कों का जोरदार शब्दों में खंडन करना है। लेखक ने अनेक प्रमाण प्रस्तुत करके सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है कि प्राचीनकाल में भी स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था थी और अनेक शिक्षित स्त्रियों के नामोल्लेख भी किए गए हैं यथा-गार्गी, अत्रि-पत्नी, विश्ववरा, मंडन मिश्र की पत्नी आदि अनेक विदुषियाँ हुई हैं। आज के युग में स्त्री- शिक्षा नितांत आवश्यक है। शिक्षा कभी किसी का अनर्थ नहीं करती। यदि स्त्री-शिक्षा में कुछ संशोधनों की आवश्यकता पड़े तो कर लेने चाहिएँ। किंतु स्त्री-शिक्षा का विरोध करना कदाचित उचित नहीं है।

प्रश्न 11.
आपकी दृष्टि में क्या स्त्री-शिक्षा अनर्थकारी हो सकती है?
उत्तर-
स्त्री-शिक्षा किसी भी प्रकार से अनर्थ नहीं हो सकती। किसी भी प्रकार की शिक्षा पापाचार नहीं सिखाती। यदि कोई व्यक्ति अर्थात् पुरुष या स्त्री कोई पाप या अपराध करता है तो उसका संबंध शिक्षा से नहीं होता। उनके पापाचार का कारण कुछ और हो सकता है, शिक्षा नहीं क्योंकि शिक्षा तो सबको सद्मार्ग की ओर ले जाती है।

Hindi स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कुछ पुरातन पंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। द्विवेदी जी ने क्या-क्या तर्क देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया?
उत्तर-
कुछ पुरातन पंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। द्विवेदी जी ने निम्नलिखित तर्क देकर स्त्रियों की शिक्षा का समर्थन किया है

(i) नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। वाल्मीकि रामायण में बंदर भी संस्कृत बोलते थे तो क्या स्त्रियाँ संस्कृत नहीं बोल सकती थीं।
(ii) बौद्ध धर्म का त्रिपिटक ग्रंथ, जो महाभारत से भी बड़ा ग्रंथ है, वह प्राकृत भाषा में रचित है। इसका प्रमुख कारण है कि प्राकृत उस समय जनभाषा थी। अतः प्राकृत बोलना अशिक्षित होने का चिह्न नहीं है। प्राकृत उस समय समाज की भाषा थी।
(iii) उस समय कुछ चुने हुए लोग ही संस्कृत बोल सकते थे। इसलिए दूसरे लोगों के साथ-साथ स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम बना दिया गया था।

प्रश्न 2.
‘स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। कुतर्कवादियों की इस दलील का खंडन द्विवेदी जी ने कैसे किया है? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
‘स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं।’-कुतर्कवादियों की इस दलील का खंडन करते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है कि पढ़ने-लिखने से ऐसी कोई बात नहीं होती। अनर्थ तो पढ़े-लिखे व अनपढ़ दोनों से हो सकता है। स्त्रियों के पढ़ने से यदि अनर्थ होता है तो पुरुष भी पढ़-लिखकर कितने गलत कार्य करते हैं तो उनके लिए शिक्षित होने की मनाही क्यों नहीं की जाती। यदि पढ़ने-लिखने से स्त्रियाँ अनर्थकारी होती हैं तो इसमें स्त्रियों का दोष नहीं है, अपितु यह शिक्षा-प्रणाली का दोष है। अतः स्त्रियों को अवश्य शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। हमें दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में ही संशोधन कर देना चाहिए।

प्रश्न 3.
द्विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा विरोधी कुतों का खंडन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है जैसे ‘यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं।’ आप ऐसे अन्य अंशों को निबंध में से छाँटकर समझिए और लिखिए।
उत्तर-
im

प्रश्न 4.
पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना क्या उनके अपढ़ होने का सबूत है-पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
प्राचीनकाल में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा बोलने के अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं। किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण है, या फिर प्राकृत भाषा अनपढ़ों की भाषा है। सच्चाई यह है कि प्राकृत उस समय की जन-साधारण की भाषा थी। वैसे ही जैसे आज हिंदी, बाँग्ला, गुजराती आदि प्राकृत भाषाएँ हैं। अतः प्राकृत भाषा में बोलने के कारण महिलाओं को अनपढ़ कहना अनुचित है।

प्रश्न 5.
परंपरा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ाते हों तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर-
स्त्री-शिक्षा के विरोधियों का कुतर्क है कि यदि स्त्रियों को शिक्षा दी जाएगी तो अनर्थ हो जाएगा। यह बात तब तक सही थी कि पढ़-लिखकर कोई पुरुष अनर्थ न करता हो। पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा अधिक अनर्थ करते हैं। एम.ए., बी.ए., शास्त्री और आचार्य होने के बावजूद भी पुरुष स्त्रियों को हंटर से पीटते हैं। अतः स्पष्ट है कि अनर्थ के पीछे पढ़ना-लिखना कोई कारण नहीं है। पढ़-लिखकर स्त्रियाँ किसी से कम नहीं रहीं। स्त्रियों ने पुरुषों के समान वेद-रचना तक की है और उन्हें अक्षर ज्ञान देना तक पाप समझें। यह बात तर्क सम्मत नहीं है। अतः स्त्री-पुरुष दोनों को पढ़ने का समान रूप से अधिकार है। स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। यह समानता की बात नहीं है। अतः इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।

प्रश्न 6.
तब की शिक्षा प्रणाली और अब की शिक्षा प्रणाली में क्या अंतर है? स्पष्ट करें।
उत्तर-
तब स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी। उनके लिए कोई विद्यालय या विश्वविद्यालय तक नहीं थे। आज स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय हैं। स्त्रियाँ पुरुषों के साथ भी शिक्षा ग्रहण करती हैं। पहले ऐसा संभव नहीं था।

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 7.
महावीरप्रसाद द्विवेदी का निबंध उनकी दूरगामी और खुली सोच का परिचायक है, कैसे?
उत्तर-
महावीरप्रसाद द्विवेदी महान् चिंतक एवं साहित्यकार थे। वे इस बात को भली-भाँति समझते थे कि स्त्रियों को शिक्षा दिए बिना समाज के पिछड़ेपन को दूर नहीं किया जा सकता। वे चाहते थे कि स्त्रियों को शिक्षित करके उनकी प्रतिभा का प्रयोग समाज के विकास के लिए किया जाए। वे स्त्री-पुरुष में समानता के अधिकार के पक्ष में थे। जो बात उन्होंने सौ वर्ष पूर्व सोची थी, वह आज पूर्णतः सत्य घटित होती जा रही है। गाँवों में स्त्रियों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वहाँ अनपढ़ स्त्रियों की संख्या अधिक है। स्त्री के शिक्षित होने से पूरा परिवार शिक्षित हो सकता है। स्त्रियों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देना होगा। जिस घर में स्त्री शिक्षित होगी तो उस परिवार के बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करेंगे। अतः यह कथन पूर्णतः सत्य है कि यह निबंध महावीरप्रसाद द्विवेदी की खुली एवं दूरगामी सोच का परिचायक है।

प्रश्न 8.
द्विवेदी जी की भाषा-शैली पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर-
द्विवेदी जी आधुनिक हिंदी गद्य की भाषा के जनक कहे जाते हैं। उन्होंने भाषा के संबंध में अत्यंत उदार दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने अपनी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ विषय की माँग के अनुकूल उर्दू-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। उन्होंने छोटे व सुगठित वाक्यों का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में निरंतर प्रवाह बना रहता है। उनकी भाषा तो ऐसी है मानो कोई अध्यापक अपने छात्रों को समझा रहा हो। इस निबंध में द्विवेदी जी ने वर्णनात्मक एवं विचारात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं व्यंग्यात्मक भाषा का भी सफल एवं सुंदर प्रयोग किया गया है। शब्द विधान सरल एवं लघु वाक्य रचना है। भाषा आदि से अंत तक सजीवता एवं प्रवाहमयता लिए हुए है। द्विवेदी जी ने भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया है।

भाषा-अध्ययन

प्रश्न 9.
निम्नलिखित अनेकार्थी शब्दों को ऐसे वाक्यों में प्रयुक्त कीजिए जिनमें उनके एकाधिक अर्थ स्पष्ट होंचाल, दल, पत्र, हरा, पर, फल, कुल।.
उत्तर-
चाल- मैं तुम्हारी चाल भली-भाँति समझता हूँ।
उसकी चाल हाथी की भाँति मस्त है।

दल – टिड्डी दल ने फसल नष्ट कर दी।
मोहन काँग्रेस दल का नेता नहीं है।

पत्र – मैंने अपने पिताजी को पत्र लिखा था।
पूजा के लिए बेल-पत्र लाओ।

हरा – हमारा देश हरा-भरा है।
भारत ने क्रिकेट में पाकिस्तान को हरा दिया।

पर – मैं मोहन के घर गया पर वह तब जा चुका था।
मोर के पर सुंदर हैं।

फल- मेहनत का फल अच्छा है।
फल खाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।

कुल – उसे परीक्षा में कुल 500 अंक प्राप्त हुए हैं।
वह उच्च कुल से संबंधित है।

पाठेतर सक्रियता

अपनी दादी, नानी और माँ से बातचीत कीजिए और (स्त्री-शिक्षा संबंधी) उस समय की स्थितियों का पता लगाइए और अपनी स्थितियों से तुलना करते हुए निबंध लिखिए। चाहें तो उसके साथ तसवीरें भी चिपकाइए।
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।

लड़कियों की शिक्षा के प्रति परिवार और समाज में जागरूकता आए-इसके लिए आप क्या-क्या करेंगे?
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।

स्त्री-शिक्षा पर एक पोस्टर तैयार कीजिए।
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।

स्त्री-शिक्षा पर एक नुक्कड़ नाटक तैयार कर उसे प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।

यह भी जानें

भवभूति- संस्कृत के प्रधान नाटककार हैं। इनके तीन प्रसिद्ध ग्रंथ-वीररचित, उत्तररामचरित और मालतीमाधव हैं। भवभूति करुणरस के प्रमुख लेखक थे।
विश्ववरा-अत्रिगोत्र की स्त्री। ये ऋग्वेद के पाँचवें मंडल 28वें सूक्त की एक में से छठी ऋक् की ऋषि थीं। शीला-कौरिडन्य मुनि की पत्नी का नाम । थेरीगाथा-बौद्ध भिक्षुणियों की पद्य रचना इसमें संकलित है।
अनुसूया-अक्रि मुनि की पत्नी और दक्ष प्रजापति की कन्या।
गार्गी–वैदिक समय की एक पंडिता ऋषिपुत्री। इनके पिता का नाम गर्ग मुनि था। मिथिला के जनकराज की सभा में इन्होंने पंडितों के सामने याज्ञवल्क्य के साथ वेदांत शास्त्र विषय पर शास्त्रार्थ किया था।
गाथा सप्तशती-प्राकृत भाषा का ग्रंथ जिसे हाल द्वारा रचित माना जाता है।
कुमारपाल चरित्र-एक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जिसे 12वीं शताब्दी के अंत में अज्ञातनामा कवि ने अनहल के राजा कुमारपाल के लिए लिखा था। इसमें ब्रह्मा से लेकर राजा कुमारपाल तक बौद्ध राजाओं की वंशावली का वर्णन है।
त्रिपिटक ग्रंथ – गौतम बुद्ध ने भिक्षु-भिक्षुणियों को अपने सारे उपदेश मौखिक दिए थे। उन उपदेशों को उनके शिष्यों ने कंठस्थ कर लिया था और बाद में उन्हें त्रिपिटक के रूप में लेखबद्ध किया गया। वे तीन त्रिपिटक हैं-सुत या सूत्र पिटक, विनय पिटकं और ‘ अभिधर्म पिटक।
शाक्य मुनि- शक्यवंशीय होने के कारण गौतम बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहा जाता है।
नाट्यशास्त्र-भरतमुनि रचित काव्यशास्त्र संबंधी संस्कृत के इस ग्रंथ में मुख्यतः रूपक (नाटक) का शास्त्रीय विवेचन किया गया है। इसकी रचना 300 ईसा पूर्व मानी जाती है।
कालिदास-संस्कृत के महान् कवियों में कालिदास की गणना की जाती है। उन्होंने कुमारसंभव, रघुवंश (महाकाव्य), ऋतु संहार, मेघदूत (खंडकाव्य), विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र और अभिज्ञान शाकुंतलम् (नाटक) की रचना की।
आजादी के आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों की शिक्षा एवं उनके शोषण के विरुद्ध जो आवाज़ उठाई उसकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है। आप ऐसे अन्य लोगों के योगदान के बारे में पढ़िए और मित्रों से चर्चा कीजिए

पंडिता रमाबाई

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पाँचवाँ अधिवेशन 1889 में मुंबई में आयोजित हुआ था। खचाखच भरे हॉल में देश भर के नेता एकत्र हुए थे।
एक सुंदर युवती अधिवेशन को संबोधित करने के लिए उठी। उसकी आँखों में तेज और उसके कांतिमय चेहरे पर प्रतिभा झलक रही थी। इससे पहले कांग्रेस अधिवेशनों में ऐसा दृश्य देखने में नहीं आया था। हॉल में लाउडस्पीकर न थे। पीछे बैठे हुए लोग उस युवती की आवाज़ नहीं सुन पा रहे थे। वे आगे की ओर बढ़ने लगे। यह देखकर युवती ने कहा, “भाइयो, मुझे क्षमा कीजिए। मेरी आवाज़ आप तक नहीं पहुंच पा रही है। लेकिन इस पर मुझे आश्चर्य नहीं है। क्या आपने शताब्दियों तक कभी किसी महिला की आवाज़ सुनने की कोशिश की? क्या आपने उसे इतनी शक्ति प्रदान की कि वह अपनी आवाज़ को आप तक पहुँचने योग्य बना सके?”
प्रतिनिधियों के पास इन प्रश्नों के उत्तर न थे।

इस साहसी युवती को अभी और बहुत कुछ कहना था। उसका नाम पंडिता रमाबाई था। उस दिन तक स्त्रियों ने कांग्रेस के अधिवेशनों में शायद ही कभी भाग लिया हो। पंडिता रमाबाई के प्रयास से 1889 के उस अधिवेशन में 9 महिला प्रतिनिधि सम्मिलित हुई थीं।

वे एक मूक प्रतिनिधि नहीं बन सकती थीं। विधवाओं को सिर मुंडवाए जाने की प्रथा के विरोध में रखे गए प्रस्ताव पर उन्होंने एक ज़ोरदार भाषण दिया। “आप पुरुष लोग ब्रिटिश संसद में प्रतिनिधित्व की माँग कर रहे हैं जिससे कि आप भारतीय जनता की राय वहाँ पर अभिव्यक्त कर सकें। इस पंडाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए चीख-चिल्ला रहे हैं तब आप अपने परिवारों में वैसी ही स्वतंत्रता महिलाओं को क्यों नहीं देते? आप किसी महिला को उसके विधवा होते ही कुरूप और दूसरों पर निर्भर होने के लिए क्यों विवश करते हैं? क्या कोई विधुर भी वैसा करता है? उसे अपनी इच्छा के अनुसार जीने की स्वतंत्रता है। तब स्त्रियों को वैसी स्वतंत्रता क्यों नहीं मिलती?”

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पंडिता रमाबाई ने भारत में नारी-मुक्ति आंदोलन की नींव डाली।
वे बचपन से ही अन्याय सहन नहीं कर पाती थीं। एक दिन उन्होंने नौ वर्ष की एक छोटी-सी लड़की को उसके पति के शव के साथ भस्म किए जाने से बचाने की चेष्टा की। “यदि स्त्री के लिए सम्म होकर सती बनना अनिवार्य है तो क्या पुरुष भी पत्नी की मृत्यु के बाद सता होते हैं?” रौबपूर्वक पूछे गए इस प्रश्न का उस लड़की की माँ के पास कोई उत्तर न था। उसने केवल इतना कहा कि “यह पुरुषों की दुनिया है। कानून वे ही बनाते हैं, स्त्रियों को तो उनका पालन भर करना होता है।” रमाबाई ने पलटकर पूछा, “स्त्रियाँ ऐसे कानूनों को सहन क्यों करती हैं? मैं जब बड़ी हो जाऊँगी तो ऐसे कानूनों के विरुद्ध संघर्ष करूँगी।” सचमुच उन्होंने पुरुषों द्वारा महिलाओं के प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया।

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