सौहार्द प्रकृते: शोभा
सौहार्द प्रकृते: शोभा
सौहार्द प्रकृते: शोभा पाठ-परिचय
समाज में आज चारों ओर अपनी श्रेष्ठता और दूसरों का तिरस्कार करने की एक परम्परा-सी बन गई है। इसी कारण हम यत्र-तत्र सर्वत्र देखते हैं कि समाज में प्रायः विघटन और भेद-भाव का वातावरण पल्लवित हो रहा है। पारस्परिक व्यवहार में दूसरे के कल्याण का सद्भाव तो विनष्ट-सा ही हो गया है। जीवन का एक मात्र लक्ष्य जिस-किसी भी तरह से स्वार्थ-सिद्धि करना बन गया है। उत्तम हो या निकृष्ट अथवा घोर निकृष्ट हर प्रकार के साधन से केवल अपने स्वार्थ को ही सिद्ध करना चाहिए- मानो यह ही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य रह गया है। संभवतः यहे पंक्तियां किसी कवि ने ऐसे ही लोगों के लिए कही हैं
“नीचैरनीचैरतिनीचनीचैः सर्वैः उपायैः फलमेव साध्यम्”
प्रस्तुत पाठ में समाज में आपसी मेलजोल को बढ़ाने की दृष्टि से पशु पक्षियों के माध्यम से बहुत ही उत्तम शिक्षा दी गई है और यह बताया गया है कि प्रकृति रूपी माता आपस में सौहार्द का सबसे सुंदर प्रतीक है। जहां पर प्रकृति का प्रत्येक अंग चाहे वह छोटा पक्षी हो या कोई बड़ा हिंसक प्राणी सभी का अपने अपने स्थान पर बड़ा महत्व है। सभी एक दूसरे पर आश्रित हैं। पाठ में इन पशु पक्षियों का आपस में संवाद दिखाया गया है, जिसमें वहे अपनी-अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करना चाह रहे हैं। अंत में प्रकृति रूपी माता उन्हें मिलजुल कर रहने का कल्याणकारी संदेश देती है।
Sanskrit सौहार्द प्रकृते: शोभा Important Questions and Answers
सौहार्द प्रकृते: शोभा पठित-अवबोधनम्
1. निर्देशः-अधोलिखितं पाठ्यांशं पठित्वा तदाधारितान् प्रश्नान् उत्तरत
(वनस्य दृश्यम्, समीपे एवैका नदी अपि वहति।) एकः सिंहः सुखेन विश्राम्यते तदैव एकः वानरः आगत्य तस्य पुच्छं धुनोति । क्रुद्धः सिंहः तं प्रहर्तुमिच्छति परं वानरस्तु कूदित्वा वृक्षामारूढः । तदैव अन्यस्मात् वृक्षात् अपरः वानरः सिंहस्य कर्णमाकृष्य पुनः वृक्षोपरि आरोहति एवमेव वानराः वारं वारं सिंहं तुदन्ति । क्रुद्धः सिंहः इतस्ततः धावति, गर्जति परं किमपि कर्तुमसमर्थः एव तिष्ठति। वानराः हसन्ति वृक्षोपरि च विविधाः पक्षिणः अपि सिंहस्य एतादृशीं दशां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) पुच्छं कः धुनोति?
(ख) वानरः कुत्र आरूढः?
उत्तराणि:
(क) वानरः,
(ख) वृक्षम्।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) वानरः सिंहस्य कर्णमाकृष्य पुनः किं करोति?
(ख) पक्षिणः किं दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति?
उत्तराणि:
(क) वानरः सिंहस्य कर्णमाकृष्य पुनः वृक्षोपरि आरोहति।
(ख) पक्षिणः सिंहस्य दशां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) धावति-इति क्रियापदस्य कर्तृपदं लिखत।
(ख) कूदितुम् अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि
(क) सिंहः,
(ख) तुमुन् ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-धुनोति = (धु-गृहीत्वा आन्दोलयति) पकड़ कर घुमा देता है । कर्णमाकृष्य = ( श्रोत्रं कर्षयित्वा, कर्णम्+आकृष्य) कान खींच कर । तुदन्ति = ( अवसादयन्ति) तंग करते हैं। कलरवम् = ( पक्षिणां कूजनम्) चहचहाहट।
हिन्दी में अनुवाद-(यह वन का दृश्य है, समीप में ही एक नदी बह रही है) एक शेर सुखपूर्वक विश्राम कर रहा है, तभी एक बंदर आकर उसकी पूंछ को हिलाता है। क्रोधित हुआ सिंह उसे मार देना चाहता है परंतु बंदर कूदकर वृक्ष पर चढ़ गया। तभी दूसरे वृक्ष से एक दूसरा बंदर शेर के कान को खींचकर फिर वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है। इस प्रकार बंदर बार-बार शेर को तंग करते हैं। क्रोधित हुआ शेर इधर-उधर दौड़ता है, गरजता है, परंतु कुछ भी करने में वह असमर्थ रहता है। बंदर हंसते हैं और वृक्ष के ऊपर अनेक प्रकार के पक्षी भी शेर की ऐसी दशा को देखकर प्रसन्नतापूर्वक चहचहाते हैं।
2. निद्राभङ्गदुःखेन वनराजः सन्नपि तुच्छजीवैः आत्मनः एतादृश्या दुरवस्थया श्रान्तः सर्वजन्तून् दृष्ट्वा पृच्छति
सिंहः – (क्रोधेन गर्जन्) भोः! अहं वनराजः किं भयं न जायते ? किमर्थं मामेवं तुदन्ति सर्वे मिलित्वा?
एकः वानरः – यतः त्वं वनराजः भवितुं तु सर्वथाऽयोग्यः। राजा तु रक्षकः भवति परं भवान् तु भक्षकः। अपि च स्वरक्षायामपि समर्थः नासि तर्हि कथमस्मान् रक्षिष्यसि?
अन्यः वानरः – किं न श्रुतां त्वया पञ्चतन्त्रोक्तिः
यो न रक्षति वित्रस्तान् पीड्यमानान्परैः सदा।
जन्तून् पार्थिवरूपेण स कृतान्तो न संशयः॥
(अन्वयः- यः पार्थिवरूपेण सदा परैः पीड्यमानान् वित्रस्तान् जन्तून् न रक्षति स कृतान्तः न संशयः॥)
काकः – आम् सत्यं कथितं त्वया- वस्तुतः वनराजः भवितुं तु अहमेव योग्यः ।
पिकः . – (उपहसन्) कथं त्वं योग्यः वनराजः भवितुं, यत्र तत्र का-का इति कर्कशध्वनिना
वातावरणमाकुलीकरोषि । न रूपं न ध्वनिरस्ति। कृष्णवर्णं, मेध्यामेध्यभक्षकं त्वां कथं वनराजं मन्यामहे वयम् ?
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) क्रोधेन कः गर्जति?
(ख) काकं कः उपहसति?
उत्तराणि:
(क) सिंहः,
(ख) पिकः।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) सर्वे मिलित्वा कं तुदन्ति ?
(ख) राजा कीदृशः भवति?
उत्तराणि:
(क) सर्वे मिलित्वा सिंहं तुदन्ति।
(ख) राजा रक्षकः भवति ।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) मन्यामहे-इति क्रियापदस्य कर्तृपदं लिखत।
(ख) भवितुम् अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
उत्तराणि:
(क) वयम्,
(ख) तुमुन् ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्था:-सन्नपि = (सन्+अपि) होते हुए भी। वित्रस्तान् = (विशेषेण भीतान्) विशेष रूप से डरे हुओं को। कृतान्तः = (यमराजः) मृत्यु का देवता-यमराज, जीवन का अन्त करने वाले।
सन्दर्भ:- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में बन्दर वनराज सिंह को तंग करते हैं तथा उसे अपनी रक्षा में भी असमर्थ रहने के कारण वन का राजा होने के लिए अयोग्य सिद्ध करते हैं।
हिन्दी-अनुवाद-नींद के टूट जाने से दुखी हुआ शेर वन का राजा होते हुए भी तुच्छ प्राणियों के द्वारा अपनी ऐसी दुर्दशा से थका हुआ सभी प्राणियों को देख कर पूछता है
सिंह-(क्रोध पूर्वक गरजते हुए) अरे ! मैं तो वन का राजा हूं, क्या तुम्हें भय नहीं लगता है ? क्यों मुझे इस प्रकार से सभी मिलकर दुखी कर रहे हो?
एक वानर-क्योंकि तुम वन के राजा होने के किसी भी तरह से योग्य नहीं हो। राजा तो रक्षक होता है परंतु आप तो भक्षक हैं। और तो क्या, तुम तो अपनी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हो फिर हमारी रक्षा कैसे करोगे?
दूसरा वानर-क्या तुमने पंचतंत्र की यह उक्ति नहीं सुनी है
जो प्राणी राजा के रूप में सदैव दूसरों के द्वारा सताए गए तथा विशेष रूप से भयभीत प्राणियों की रक्षा नहीं करता है ऐसा प्राणी राजा के रूप में साक्षात् यमराज ही है इसमें कोई संशय नहीं।
कौआ-हां, यह तो बिल्कुल सच कहा है। वास्तव में वनराज होने के लिए तो मैं ही योग्य हूं।
कोयल-(उपहास करता हुआ) तुम वन के राजा होने के लिए कैसे योग्य हो? जहां -तहां काय-काय की कठोर ध्वनि से सारे वातावरण को व्याकुल ही करते हो। न तुम्हारा रूप है, न आवाज। काले रंग वाले तथा पवित्र-अपवित्र सभी कुछ खा लेने वाले तुझ को हम किस प्रकार वन का राजा मानें?
3. काकः – अरे! अरे! किं जल्पसि? यदि अहं कृष्णवर्णः तर्हि त्वं किं गौराङ्गः?
अपि च विस्मयते किं यत् मम सत्यप्रियता तु जनानां कृते
उदाहरणस्वरूपा-‘अनृतं वदसि चेत् काकः दशेत्’-इति प्रकारेण।
अस्माकं परिश्रमः ऐक्यं च विश्वप्रथितम्, अपि च काकचेष्ट: विद्यार्थी एव आदर्शच्छात्रः मन्यते।
पिकः – अलम् अलम् अतिविकत्थनेन। किं विस्मर्यते यत्
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।
वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥
काकः – रे परभृत्! अहं यदि तव संततिं न पालयामि तर्हि कुत्र स्युः पिकाः? अतः अहम् एव करुणापरः पक्षिसम्राट् काकः।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) कस्य सत्यप्रियता तु जनानां कृते उदाहरणस्वरूपा?
(ख) कयोः भेदः नास्ति?
उत्तराणि:
(क) काकस्य,
(ख) पिककाकयोः ।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) कीदृशः विद्यार्थी आदर्शच्छात्रः मन्यते?
(ख) परभृत् कः अस्ति?
उत्तराणि:
(क) काकचेष्टः विद्यार्थी आदर्शच्छात्रः मन्यते।
(ख) परभृत् पिकः अस्ति।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) पालयामि-इति क्रियापदस्य कर्तृपदं लिखत।
(ख) सत्यप्रियता-अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि:
(क) अहम्,
(ख) तल्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-अनृतम् = (न ऋतम्, अलीकम्) असत्य। अतिविकत्थनम् = (आत्मश्लाघा) डींगें मारना।
सन्दर्भ:- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में बन्दर और कोयल अपने आप को वन का राजा होने के लिए योग्य सिद्ध करते हैं।
हिन्दी-अनुवाद
कौआ-अरे ! अरे! क्या बकवास कर रहे हो? यदि मेरा काला रंग है तो क्या तू गोरे रंग का है? और भी, क्या तुम्हें याद है कि मेरी सत्यप्रियता लोगों के लिए उदाहरण रूप है-‘झूठ बोले तो कौवा काटे’ इस प्रकार से। हमारा परिश्रम और एकता तो विश्व प्रसिद्ध है। और कौए जैसी चेष्टा करने वाला विद्यार्थी ही आदर्श छात्र माना जाता है।
कोयल-बस करो, बस करो, बहुत अधिक अपनी प्रशंसा मत करो। क्या भूल गए हो कौआ काला होता है, कोयल भी काला होता है – कोयल और कौए में रंग की दृष्टि से कोई भेद नहीं है परंतु वसंत का समय आने पर (अपने कटु या मधुर स्वर के कारण) कौआ कौआ रह जाता है और कोयल कोयल।
कौआ-अरे! दूसरों के आश्रय पर जीने वाले (कोयल)! मैं यदि तुम्हारी संतान की पालना न करूं तो कोयल कहां से आएगा। इसीलिए मैं सबसे बड़ा करुणावान् और पक्षियों का राजा कौआ हूँ।
4. गजः – (समीपतः एवागच्छन्) अरे! अरे! सर्वां वार्ता शृण्वन्नेवाहम् अत्रागच्छम्। अहं विशालकायः, बलशाली, पराक्रमी च। सिंहः वा स्यात् अथवा अन्यः कोऽपि। वन्यपशून् तु तुदन्तं जन्तुमहं स्वशुण्डेन पोथयित्वा मारयिष्यामि। किमन्यः कोऽप्यस्ति एतादृशः पराक्रमी। अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।
वानरः – अरे! अरे! एवं वा (शीघ्रमेव गजस्यापि पुच्छं विधूय वृक्षोपरि आरोहति।)
(गजः तं वृक्षमेव स्वशुण्डेन आलोडयितुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा अन्यं वृक्षमारोहति। एवं गजं वृक्षात् वृक्षं प्रति धावन्तं दृष्ट्वा सिंहः अपि हसति वदति च।)
सिंहः – भोः गज! मामप्येवमेवातुदन् एते वानराः।
वानरः – एतस्मादेव तु कथयामि यदहमेव योग्य: वनराजपदाय येन विशालकायं पराक्रमिणं, भयंकरं चापि सिहं गजं वा पराजेतुं समर्था अस्माकं जातिः। अतः वन्यजन्तूनां रक्षायै वयमेव क्षमाः।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) सर्वां वार्ता कः शृणोति?
(ख) वानराः, केषां रक्षायै क्षमाः?
उत्तराणि:
(क) गजः,
(ख) वन्यजन्तूनाम् ।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) गजः कीदृशः अस्ति?
(ख) वानरः गजस्यापि पुच्छं विधूय किं करोति?
उत्तराणि:
(क) गजः विशालकायः, बलशाली, पराक्रमी च अस्ति।
(ख) वानरः गजस्यापि पुच्छं विधूय वृक्षोपरि आरोहति।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) आगच्छम्-इति क्रियापदस्य कर्तृपदं लिखत।
(ख) पराजेतुम् अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि:
(क) अहम्,
(ख) तुमुन्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-शृण्वन्नेवाहम् = ( शृण्वन् एव अहम्-आकर्णयन्) सुनते हुए ही मैं । पोथयित्वा = (पीडयित्वा हनिष्यामि)पटक-पटक कर मार डालूंगा। मारयिष्यामि = (हनिष्यामि) मार डालूँगा। विधूय = (आकर्ण्य) खींच कर। आलोडयितुम् = हिलाना चाहता है। पराजेतुम् = हराने के लिए।
सन्दर्भः- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में हाथी और बन्दर अपने आप को वन का राजा होने के लिए योग्य सिद्ध करते हैं।
हिन्दी-अनुवाद: हाथी-(पास में आते हुए) अरे! अरे ! संपूर्ण बातचीत को सुनते हुए ही मैं यहां आया हूं। मैं विशाल शरीर वाला, बलशाली और पराक्रम वाला हूँ। शेर हो या कोई दूसरा प्राणी, वन में रहने वाले पशुओं को तंग करने वालों को तो मैं अपनी सूंड से से पटक-पटक कर मार दूंगा। है कोई कोई दूसरा इतना पराक्रमी। इसीलिए मैं ही वन का राजा होने के लिए योग्य हूं।
बंदर-अरे! अरे ! ऐसे ही। (और जल्दी से हाथी की पूंछ खींचकर वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है।) (हाथी उस वृक्ष को ही अपनी सूंड से हिलाना चाहता है, परंतु बंदर तो कूदकर दूसरे वृक्ष पर चढ़ जाता है। इस प्रकार बन्दर को एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर दौड़ते हुए देखकर शेर भी हंस पड़ता है और कहता हैअरे हाथी! मुझे भी इसी तरह से ये बंदर तंग कर रहे थे।
बंदर-इसीलिए तो मैं कहता हूं कि मैं ही वन का राजा होने के लिए योग्य हूँ, क्योंकि बड़े से बड़े शरीर वाले, पराक्रमी और भयंकर शेर या हाथी को भी पराजित करने में यह हमारी वानर जाति समर्थ है। इसीलिए वन में रहने वाले प्राणियों की रक्षा करने के लिए हम ही समर्थ हैं।
5. (एतत्सर्वं श्रुत्वा नदीमध्ये एक: बकः)
बकः – अरे! अरे! मां विहाय कथमन्यः कोऽपि राजा भवितुमर्हति अहं तु शीतले जले
बहुकालपर्यन्तम् अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा सर्वेषां रक्षायाः उपायान चिन्तयिष्यामि, योजनां निर्मीय च स्वसभायां विविधपदमलंकुर्वाणैः जन्तुभिश्च मिलित्वा रक्षोपायान् क्रियान्वितान् कारयिष्यामि अतः अहमेव वनराजपदप्राप्तये योग्यः।
मयूरः-(वृक्षोपरितः-साट्टहासपूर्वकम्) विरम विरम आत्मश्लाघायाः किं न जानासि यत्
यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा।
अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव।।
को न जानाति तव ध्यानावस्थाम्। ‘स्थितप्रज्ञ’ इति व्याजेन वराकान् मीनान् छलेन अधिगृह्य क्रूरतया भक्षयसि।धिक् त्वाम्। तव कारणात् तु सर्वं पक्षिकुलमेवावमानितं जातम्।
वानरः – (सगर्वम्) अतएव कथयामि यत् अहमेव योग्यः वनराजपदाय।शीघ्रमेव मम राज्याभिषेकाय तत्पराः भवन्तु सर्वे वन्यजीवाः।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) शीतले जले ध्यानमग्नः कः तिष्ठति ?
(ख) बकः क्रूरतया कान् भक्षयति?
उत्तराणि:
(क) बकः,
(ख) मीनान्।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) बकस्य कारणात् किम् अवमानितं जातम् ?
(ख) सर्वे वन्यजीवाः कस्मै तत्पराः भवन्तु?
उत्तराणि:
(क) बकस्य कारणात् सर्वं पक्षिकुलम् अवमानितं जातम् ।
(ख) सर्वे वन्यजीवाः वानरस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवन्तु। ।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) आत्मप्रशंसा-इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं पर्यायपदं लिखत।
(ख) जातम्-अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि:
(क) आत्मश्लाघा,
(ख) क्त।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-चिन्तयिष्यामि = (विचारयिष्यामि) विचार करूँगा। विप्लवेतेह = (विप्लवेत+इह –इह निमज्जेत् /विशीर्येत) डूब जाती है । जलधौ = (सागरे) समुद्र में । नौरिव = (नौः+इव-नौकायाः समानम्) नौका के समान। अधिगृह्य = (गृहीत्वा) पकड़ कर। आत्मश्लाघा = (आत्मप्रशंसा) अपनी प्रशंसा। तत्पराः = (संलग्नाः) तैयार, संलग्न।
सन्दर्भ:- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्दै प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में बगुला और बन्दर अपने आप को वन का राजा होने के लिए योग्य सिद्ध करते हैं।
हिन्दी-अनुवाद- (यह सब सुनकर नदी के बीच से ही एक बगुला-)।
बगुला-अरे ! अरे ! मुझे छोड़कर कोई दूसरा वन का राजा कैसे हो सकता है? मैं ही तो शीतल जल में बहुत समय तक एकाग्र होकर, ध्यान मग्न होकर, स्थितप्रज्ञ के समान ठहर कर सभी की रक्षा के उपायों का चिंतन करूंगा और योजना बनाकर अपनी सभा में अनेक पदों को सुशोभित करने वाले प्राणियों के साथ मिलकर रक्षा के उपायों को क्रियान्वित करवाऊंगा। इसीलिए मैं ही वन का राजा होने के लिए योग्य हूं।
मोर-(वृक्ष के ऊपर से ही ठहाके के साथ हँसकर) बस करो! बस करो! अपनी प्रशंसा से बस करो। क्या नहीं जानते हो कि –
यदि अच्छा नेता राजा न बने तो प्रजा बिना किनारों वाली नौका की तरह समुद्र में डूब जाया करती है।
तुम्हारे ध्यान की अवस्था को कौन नहीं जानता, स्थितप्रज्ञ होने के बहाने से बेचारी मछलियों को छल से पकड़कर बड़ी क्रूरता से खा जाते हो। धिक्कार है तुम्हें, तुम्हारे कारण से ही तो सभी पक्षी समूह अपमानित होते हैं।
बंदर-(बड़े गर्व के साथ) इसीलिए तो कहता हूं कि वनराज के पद को सुशोभित करने के योग्य मैं ही हूं। सभी वन्य प्राणी मेरे राज्याभिषेक के लिए तैयार हो जाएं।
6. मयूरः – अरे वानर! तूष्णीं भव। कथं त्वं योग्यः वनराजपदाय? पश्यतु पश्यतु मम शिरसि राजमुकुटमिव शिखां स्थापयता विधात्रा एवाहं पक्षिराजः कृतः अतः वने निवसन्तं माम् वनराजरूपेणापि द्रष्टुं सज्जाः भवन्तु अधुना यतः कथं कोऽप्यन्यः विधातुः निर्णयम् अन्यथाकर्तुं क्षमः।
काकः – (सव्यङ्ग्यम्) अरे अहिभुक्! नृत्यातिरिक्तं का तव विशेषता यत् त्वां वनराजपदाय योग्यं मन्यामहे वयम्।
मयूरः – यतः मम नृत्यं तु प्रकृतेः आराधना। पश्य! पश्य! मम पिच्छानामपूर्वं सौंदर्यम् (पिच्छानुद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः सन् ) न कोऽपि त्रैलोक्याम् मत्सदृशः सुन्दरः। वन्यजन्तूनामुपरि आक्रमणं कर्तारं तु अहं स्वसौन्दर्येण नृत्येन च आकर्षितं कृत्वा वनात् बहिष्करिष्यामि। अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) विधात्रा पक्षिराजः कः कृतः?
(ख) मयूरस्य पिच्छानां सौन्दर्य कीदृशम्?
उत्तराणि:
(क) मयूरः,
(ख) अपूर्वम्।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) मयूरस्य शिरसि किं विराजते ?
(ख) मयूरः कथं नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति?
उत्तराणि:
(क) मयूरस्य शिरसि राजमुकुट इव शिखा विराजते।
(ख) मयूरः पिच्छान् उद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) अहिभुक् – इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं पर्यायपदं लिखत।
(ख) कृत्वा-अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि:
(क) मयूरः,
(ख) क्त्वा।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-शिरसि = (मस्तके)सिर पर। अहिभुक् = (मयूर) साँप को खाने वाला, मोर। विधात्रा = (भगवता) विधाता ने।
सन्दर्भ:- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:-प्रस्तुत नाट्यांश में मोर अपने आप को वन का राजा होने के लिए योग्य सिद्ध करता है।
हिन्दी-अनुवाद-मोर-अरे बंदर! चुप हो जा। तू किस प्रकार से वनराज के पद के योग्य है? देखो देखो, मेरे सिर पर राजमुकुट की तरह इस शिखा को स्थापित करते हुए स्वयं विधाता ने ही मुझे पक्षीराज बना दिया है। इसीलिए वन में रहते हुए मुझे वन के राजा के रूप में देखने के लिए तैयार हो जाओ। अब कोई भी दूसरा विधाता के निर्णय को विपरीत करने में समर्थ नहीं है।
कौआ-(व्यंग्य के साथ) अरे सांपों को खाने वाले मोर! नृत्य को छोड़कर तुम्हारी कोई विशेषता है कि तुमको वनराज के पद के योग्य हम मान लें।
मोर-क्योंकि मेरा नृत्य तो प्रकृति की आराधना है। देखो देखो, मेरी पूँछ का अपूर्व सौंदर्य। ( पंखों को ऊपर उठा कर नृत्य की मुद्रा में खड़े होतेहुए) तीनों लोकों में भी कोई मेरे समान सुंदर नहीं है। वन्य प्राणियों के ऊपर आक्रमण करने वाले को तो मैं अपने सौंदर्य से और नृत्य से ही आकर्षित करके जंगल से बाहर कर दूंगा। इसीलिए मैं ही वनराज के पद को पाने के लिए योग्य हूं।
7. (एतस्मिन्नेव काले व्याघ्रचित्रको अपि नदीजलं पातुमागतौ एतं विवादं शृणुत: वदतः च)
व्याघ्रचित्रको – अरे किं वनराजपदाय सुपात्रं चीयते?
एतदर्थं तु आवामेव योग्यौ। यस्य कस्यापि चयनं कुर्वन्तु सर्वसम्मत्या।
सिंह -. तूष्णीं भव भोः। युवामपि मत्सदृशौ भक्षको न तु रक्षको। एते वन्यजीवाः भक्षकं रक्षकपदयोग्यं न मन्यन्ते अतएव विचारविमर्शः प्रचलति।
बकः – सर्वथा सम्यगुक्तम् सिंहमहोदयेन। वस्तुतः एव सिंहेन बहुकालपर्यन्तं शासनं कृतम् परमधुना तु कोऽपि पक्षी एव राजेति निश्चेतव्यम् अत्र तु संशीतिलेशस्यापि अवकाशः एव नास्ति।
सर्वे पक्षिणः – (उच्चैः)- आम् आम् – कश्चित् खगः एव वनराजः भविष्यति इति।
( परं कश्चिदपि खगः आत्मानं विना नान्यं कमपि अस्मै पदाय योग्यं चिन्तयति तर्हि कथं निर्णयः भवेत् तदा तैः सर्वैः गहननिद्रायां निश्चिन्तं स्वपन्तम् उलूकं वीक्ष्य विचारितम् यदेषः आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः उलूक एवास्माकं राजा भविष्यति। परस्परमादिशन्ति च तदानीयन्तां नृपाभिषेकसम्बन्धिनः सम्भाराः इति।)
सर्वे पक्षिणः सज्यायै गन्तुमिच्छन्ति तर्हि अनायास एव
काकः – (अट्टाहसपूर्णेन-स्वरेण)-सर्वथा अयुक्तमेतत् यन्मयूर- हंस- कोकिल-चक्रवाकशुक-सारसादिषु पक्षिप्रधानेषु विद्यमानेषु दिवान्धस्यास्य करालवक्त्रस्याभिषेकार्थं सर्वे सजाः। पूर्णं दिनं यावत् निद्रायमाणः एषः कथमस्मान् रक्षिष्यति। वस्तुतस्तु
स्वभावरौद्रमत्युग्रं क्रूरमप्रियवादिनम्।
उलूकं नृपतिं कृत्वा का नु सिद्धिर्भविष्यति।।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) वन्यजीवाः कं रक्षकपदयोग्यं न मन्यन्ते?
(ख) पूर्ण दिनं यावत् निद्रायमाणः कः तिष्ठति ?
उत्तराणि:
(क) भक्षकम्,
(ख) उलूकः ।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) सिंहेन कदा यावत् शासनं कृतम्?
(ख) कीदृशः उलूकः पक्षिणां राजा भविष्यति?
उत्तराणि:
(क) सिंहेन बहुकालपर्यन्तं शासनं कृतम्।
(ख) आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः उलूकः पक्षिणां राजा भविष्यति।
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) अनुचितम् -इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं पर्यायपदं लिखत ।
(ख) निद्रायमाण:-अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
उत्तराणि:
(क) अयुक्तम्,
(ख) शानच् ।
हिन्दीभाषया पाठबोध:
शब्दार्थाः-संशीतिलेशस्य = (सन्देहमात्रस्य) ज़रा से भी सन्देह की। अवकाशः= (स्थानम्) जगह । वीक्ष्य = (विलोक्य/दृष्ट्वा) देखकर। सम्भाराः = (सामग्र्यः) सामग्रियाँ। करालवक्त्रस्य = (भयंकरमुखस्य) भयंकर मुख वाले का।
सन्दर्भ:- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में पक्षीसमूह उल्लू को वन का राजा बनाने के लिए प्रस्ताव करते हैं, कौआ इसका निषेध करता है।
हिन्दी-अनुवाद – (इसी समय बाघ और चीता ये दोनों भी नदी के जल को पीने के लिए आते हैं, इस विवाद को सुनते हैं और कहते हैं)
बाघ और चीता-अच्छा, राजा के पद के लिए किसी सुपात्र का चयन किया जा रहा है ? इसके लिए तो हम दोनों ही योग्य हैं, जिस किसी का भी सर्वसम्मति से चुनाव कर लो ।
शेर-अरे चुप हो जा। तुम दोनों भी मेरी तरह भक्षक हो रक्षक नहीं, ये वन के प्राणी भक्षक को रक्षक के पद के योग्य नहीं मानते हैं। इसीलिए तो विचार चल रहा है।
बगुला-शेर महोदय ने सर्वथा उचित बात कही। वास्तव में शेर ने बहुत समय तक शासन कर लिया, परंतु अब तो कोई पक्षी ही राजा हो यह निश्चय किया जाना चाहिए, इसमें तो लेशमात्र भी संशय नहीं है।
सभी पक्षी-(जोर से) हां हां, कोई पक्षी ही राजा बनेगा।
(परंतु कोई भी पक्षी अपने बिना दूसरे को इस पद के योग्य विचार नहीं करता है, तो कैसे निर्णय हो। तब सभी ने गहन निद्रा में निश्चिंत होकर सोते हुए उल्लू को देखकर विचार किया कि जो आत्मप्रशंसा से हीन है, जिसे पद का भी कोई लोभ नहीं है- ऐसा उल्लू ही हमारा राजा होगा। सभी पक्षी आपस में आदेश करते हैं और राजा के अभिषेक संबंधी सामग्री को ले आते हैं।)
सभी पक्षी तैयारी के लिए जाना चाहते हैं तभी अचानक ही कौआ भयंकर हंसी हंसते हुए कहता है
कौआ- यह तो बिल्कुल ही गलत है। क्योंकि मोर, हंस, कोयल, चकवा, तोता, सारस आदि मुख्य पक्षियों के विद्यमान रहते हुए यह दिन का अंधा डरावने मुख वाले उल्लू के राज्य-अभिषेक के लिए सभी तैयार हो रहे हैं। सारा दिन सोते हुए यह किस प्रकार हमारी रक्षा करेगा? वास्तव में तो
जो स्वभाव से अत्यंत भयंकर हो, अत्यंत उग्र हो, क्रूर हो और प्रेमपूर्ण बातचीत न करता हो ऐसे इस उल्लू को राजा बनाकर कौन सी सिद्धि होगी?
8. (ततः प्रविशति प्रकृतिमाता)
(सस्नेहम्) भोः भोः प्राणिनः। यूयम् सर्वे एव मे सन्ततिः। कथं मिथः कलहं कुर्वन्ति। वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः। सदैव स्मरत
ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते योजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्॥
(सर्वे प्राणिनः समवेतस्वरेण) मातः।
कथयति तु भवती सर्वथा सम्पक परं
वयं भवतीं न जानीमः। भवत्याः परिचयः कः?
प्रकृतिमाता – अहं प्रकृतिः युष्माकं सर्वेषां जननी? यूयं सर्वे एव मे प्रियाः सर्वेषामेव मत्कृते महत्त्वं विद्यते यथासमयम् न तावत् कलहेन समयं वृथा यापयन्तु अपितु मिलित्वा एव मोदध्वं जीवनं च रसमयं कुरुध्वम्। तद्यथा कथितम्
प्रजासुखे सुखं राज्ञः, प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः, प्रजानां तु प्रियं हितम्॥
अपि च-
अगाधजलसञ्चारी न गर्व याति रोहितः ।
अङ्गुष्ठोदकमात्रेण शफरी फु(रायते॥
अतः भवन्तः सर्वेऽपि शफरीवत् एकैकस्य गुणस्य चर्चा विहाय मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय वनरक्षायै च प्रयतन्ताम्। सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति मिलित्वा दृढसंकल्पपूर्वकं च गायन्ति
प्राणिनां जायते हानिः परस्परविवादतः।
अन्योन्यसहयोगेन लाभस्तेषां प्रजायते ॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(अ) एकपदेन उत्तरत
(क) कतिविधं प्रीतिलक्षणम्?
(ख) प्राणिनां लाभः केन प्रजायते ?
उत्तराणि:
(क) षड्विधम्,
(ख) अन्योन्यसहयोगेन।
(आ) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(क) प्रकृतिः केषां जननी?
(ख) वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः कीदृशाः?
(ग) सर्वे मिलित्वा कां प्रणमन्ति?
उत्तराणि:
(क) प्रकृतिः सर्वेषां प्राणिनां जननी।
(ख) वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः।
(ग) सर्वे मिलित्वा प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति?
(ई) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(क) परस्परम् -इति पदस्य अत्र प्रयुक्तं पर्यायपदं लिखत।
(ख) महत्त्वम्-अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः?
उत्तराणि:
(क) मिथः,
(ख) त्व।
हिन्दीभाषया पाठबोधः ।
शब्दार्थाः-मिथः = (परस्परम्) आपस में । गुह्यमाख्याति = (रहस्यं वदति) रहस्य कहता है । मोदध्वम् = (प्रसन्नाः भवत)(तुम सब) प्रसन्न हो जाओ। अगाधजलसञ्चारी = (असीमितजलधारायां भ्रमन्) अथाह जलधारा में संचरण करने वाला। रोहितः = (रोहित नाम मत्स्य:) रोहित (रोह) नामक बड़ी मछली। अंगुष्ठोदकमात्रेण = (अंगुष्ठमात्रजले)अंगूठे के बराबर जल में अर्थात् थोड़े से जल में। शफरी = (लघुमत्स्यः ) छोटी सी मछली।
सन्दर्भः- प्रस्तुत नाट्यांश हमारी ‘पाठ्य पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सौहार्द प्रकृतेः शोभा’ नामक पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग:- प्रस्तुत नाट्यांश में वन्य प्राणियों के विवाद को देख-सुनकर प्रकृति माता स्वयं उपस्थित होकर उनके विवाद का निवारण करती है।
हिन्दी-अनुवाद: (तभी प्रकृति माता मंच पर प्रवेश करती है) (स्नेहपूर्वक) अरे अरे प्राणियो! तुम सभी मेरी संतान हो। क्यों आपस में झगड़ा करते हो। वास्तव में वन में रहने वाले सभी प्राणी एक दूसरे के आश्रित हैं। हमेशा याद रखो जो प्राणी देता है, लेता है, गोपनीय बात को बताता है, गोपनीय बात को पूछता है, खाता है और खिलाता है -प्रेम के ये छः लक्षण हैं।
(सभी प्राणी एक’ स्वर में) आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं, परंतु हम आपको नहीं जानते। आपका परिचय क्या है? प्रकृति माता-मैं तुम सब की मां प्रकृति हूँ। तुम सब मेरे प्रिय हो, समय के अनुसार मेरे लिए सभी का महत्व है। इसीलिए आपस में झगड़ा करके समय व्यर्थ मत करो, अपितु मिलकर ही आनंदित होओ और अपने जीवन को आनंदमय बनाओ क्योंकि कहा भी है
प्रजा के सुख में ही राजा का सुख होता है, प्रजा के हित में ही राजा का हित होता है, राजा का हित अपनी प्रिय वस्तु में भी नहीं होता अपितु प्रजाओं का कल्याण करने में ही राजा का प्रिय और राजा का हित होता है।
और भी
गहरे जल में विचरण करने वाला रोहित (रोहू नामक बड़ी मछली) घमंड नहीं करता। जबकि अंगूठे के समान थोड़ी गहराई रखने वाले शफरी नामक छोटी मछली बहुत उछला करती है, इसीलिए आप सभी शफरी की तरह एक-एक के गुण की चर्चा छोड़ कर, एक साथ मिलकर प्रकृति के सौंदर्य के लिए और इस वन की रक्षा करने के लिए प्रयत्न करो।
सभी प्रकृति माता को प्रणाम करते हैं और मिलकर दृढ़ संकल्प पूर्वक गाते हैंआपसी विवाद से प्राणियों की हानि होती है एक दूसरे के सहयोग करने से उनका लाभ होता है
Sanskrit सौहार्द प्रकृते: शोभा Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
अधोलिखितप्रश्नानामुत्तराणि एकपदेन लिखत
(क) वनराजः कैः दुरवस्थां प्राप्तः?
(ख) कः वातावरणं कर्कशध्वनिना आकुलीकरोति?
(ग) काकचेष्टः विद्यार्थी कीदृशः छात्रः मन्यते ?
(घ) कः आत्मानं बलशाली, विशालकायः, पराक्रमी च कथयति।
(ङ) बकः कीदृशान् मीनान् क्रूरतया भक्षयति?
(च) मयूरः कथं नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति? ।
(छ) अन्ते सर्वे मिलित्वा कस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवति?
(ज) अस्मिन्नाटके कति पात्राणि सन्ति?
उत्तराणि:
(क) वानरैः,
(ख) काकः,
(ग) आदर्शच्छात्रः,
(घ) गजः,
(ङ) वराकान् मीनान्
(च) पिच्छान् उद्घाट्य ।
(छ) संवादे न निर्दिष्टः।
(ज) दश पात्राणि (सर्वे पक्षणः च)।
प्रश्न 2.
अधोलिखितप्रश्नानामुत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत
(क) नि:संशयं कः कृतान्तः मन्यते?
(ख) बकः वन्यजन्तूनां रक्षोपायान् कथं चिन्तयितुं कथयति?
(ग) अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथमं किं वदति ?
(घ) यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा कथं विप्लवेत् ?
उत्तराणि:
(क) यः राजा पीडितान् जन्तून् न रक्षति सः निःसंशयं कृतान्तः मन्यते ।
(ख) बकः शीतले जले बहुकालपर्यन्तम् अविचल: ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा वन्यजन्तूनां रक्षोपायान् चिन्तयितुं कथयति?
(ग) अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथमं वदति- ‘अहं युष्माकं सर्वेषां जननी’।
(घ) यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा अगाधजलसञ्चारी नौरिव विप्लवेत्।
प्रश्न 3.
रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) सिंहः वानराभ्यां स्वरक्षायाम् असमर्थ एवासीत्।
(ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं शुण्डेन पोथयित्वा मारयति।
(ग) वानरः आत्मानं वनराजपदाय योग्य मन्यते।
(घ) मयूरस्य नृत्यं प्रकृतेः आराधना।
(ङ) सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति।
उत्तराणि:
(क) सिंहः वानराभ्यां कस्याम् असमर्थ एवासीत् ?
(ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं केन पोथयित्वा मारयति?
(ग) वानरः आत्मानं कस्मै योग्य मन्यते?
(घ) मयूरस्य नृत्यं कस्याः आराधना?
(ङ) सर्वे कां प्रणमन्ति?
प्रश्न 4.
शुद्धकथनानां समक्षम् आम् अशुद्धकथनानां च समक्षं न इति लिखत
(क) सिंहः आत्मानं तुदन्तं वानरं मारयति।
(ख) का-का इति बकस्य ध्वनिः भवति।
(ग) काकपिकयोः वर्णः कृष्णः भवति।
(घ) गजः लघुकायः निर्बलः च भवति।
(ङ) मयूरः बकस्य कारणात् पक्षिकुलम् अवमानित मन्यते।
(च) अन्योन्यसहयोगेन प्राणिनाम् लाभः जायते।
उत्तराणि:
(क) सिंहः आत्मानं तुदन्तं वानरं मारयति । – न
(ख) का-का इति बकस्य ध्वनिः भवति। – आम्
(ग) काकपिकयोः वर्णः कृष्णः भवति। – आम्
(घ) गजः लघुकायः निर्बलः च भवति। – न
(ङ) मयूरः बकस्य कारणात् पक्षिकुलम् अवमानितं मन्यते। – आम्
(च) अन्योन्यसहयोगेन प्राणिनाम् लाभ: जायते। – आम्
प्रश्न 5.
मञ्जूषातः समुचितं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत
स्थितप्रज्ञः, यथासमयम्, मेध्यामध्यभक्षकः, अहिभुक्, आत्मश्लाघाहीनः, पिकः।
(क) काकः …………. भवति।
(ख) …………. परभूत् अपि कथ्यते।
(ग) बकः अवचलः …………. इव तिष्ठति।
(घ) मयूरः …………. इति नाम्नाऽपि ज्ञायते।
(ङ) उलूकः …………. पदनिर्लिप्तः चासीत्।
(च) सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते …………. ।
उत्तराणि:
(क) काकः मेध्यामध्यभक्षकः भवति।
(ख) पिकः परभूत् अपि कथ्यते।
(ग) बकः अविचलः स्थितप्रज्ञः इव तिष्ठति।
(घ) मयूरः अहिभुक् इति नाम्नाऽपि ज्ञायते ।
(ङ) उलूकः आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः चासीत्।
(च) सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते यथासमयम् ।
प्रश्न 6.
परिचयं पठित्वा पात्रस्य नाम लिखत
(क) अहं शुण्डेन कमपि पोथयित्वा मारयितुं समर्थः।
(ख) मम सत्यप्रियता सर्वोषां कृते उदाहरणस्वरूपा।
(ग) मम पिच्छानामपूर्व सौन्दर्यम्।
(घ) अहं पराक्रमिणं भयंकरं वापि जन्तुं पराजेतुं समर्थः ।
(ङ) अहं वनराजः । कथं सर्वे मिलित्वा मां तुदन्ति?
(च) अहम् अगाधजलसञ्चारी अपि गर्वं न करोमि?
(छ) अहं सर्वेषां प्राणिनां जननी अस्मि।
(ज) एषः तु करालवक्त्रः दिवान्धः चास्ति।
उत्तराणि-:
(क) अहं शुण्डेन कमपि पोथयित्वा मारयितुं समर्थः । – गजः
(ख) मम सत्यप्रियता सर्वोषां कृते उदाहरणस्वरूपा। – काकः
(ग) मम पिच्छानामपूर्व सौन्दर्यम्। – मयूरः
(घ) अहं पराक्रमिणं भयंकरं वापि जन्तुं पराजेतुं समर्थः। – वानरः
(ङ) अहं वनराजः । कथं सर्वे मिलित्वा मां तुदन्ति? – सिंहः
(च) अहम् अगाधजलसञ्चारी अपि गर्वं न करोमि? – रोहितः
(छ) अहं सर्वेषां प्राणिनां जननी अस्मि। – प्रकृतिः
(ज) एषः तु करालवक्त्रः दिवान्धः चास्ति। – गजः
प्रश्न 7.
वाच्यपरिवर्तनं कृत्वा लिखत
उदाहरणम्-क्रद्धः सिंहः इतस्ततः धावति गर्जति च।
– कुद्धेन सिंहेन इतस्ततः धाव्यते गय॑ते च।
(क) त्वया सत्यं कथितम्।
(ख) सिंहः सर्वजन्तून् पृच्छति।
(ग) काकः पिकस्य संततिं पालयति।
(घ) मयूरः विधात्रा एव पक्षिराजः वनराजः वा कृतः।
(ङ) सर्वैः खगैः कोऽपि खगः एव वनराजः कर्तुमिष्यते स्म।
(च) सर्वे मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नं कुर्वन्तु।
उत्तराणि:
(क) त्वं सत्यं कथयसि।
(ख) सिंहेन सर्वजन्तवः पृच्छ्यन्ते।
(ग) काकेन पिकस्य संततिः पाल्यते।
(घ) मयूरं विधाता एव पक्षिराज वनराजं वा कृतवान्।
(ङ) सर्वे खगाः कमपि खगम् एव वनराजं कर्तुमिच्छन्ति स्म।
(च) सर्वैः मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नः क्रियते।
प्रश्न 8.
समासविग्रहं समस्तपदं वा लिखत
(क) तुच्छजीवैः (ख) वृक्षोपरि ………………….।
(ग) पक्षिणां सम्राट ………………….।
(घ) स्थिता प्रज्ञा यस्य सः ………………….।
(ङ) अंपूर्वम् ………………….।
(च) व्याघ्रचित्रका ………………….।
उत्तराणि:
(क) तुच्छजीवैः – तुच्छाः एव जीवाः तैः।
(ख) वृक्षोपरि – वृक्षस्य उपरि।
(ग) पक्षिणां सम्राट – पक्षिसम्राट्।
(घ) स्थिता प्रज्ञा यस्य सः – स्थितप्रज्ञः।
(ङ) अपूर्वम् – न पूर्वम्।
(च) व्याघ्रचित्रको – व्याघ्रः च चित्रकः च तयोः समाहारः।
प्रश्न 9.
प्रकृतिप्रत्ययविभागं कुरुत/योजयित्वा वा पदं रचयत
(क) क्रुध्+क्त ………………….।
(ख) आकृष्य ………………….।
(ग) सत्यप्रियता ………………….।
(घ) पराक्रमी …………………..।
(ङ) कू+क्त्वा …………………..।
(च) शृण्वन् ………………….।
उत्तराणि:
(क) क्रुध्+क्त – क्रुद्धः ।
(ख) आकृष्य – आ + कृ + ल्यप।
(ग) सत्यप्रियता – सत्यप्रिय + तल्।
(घ) पराक्रमी – पराक्रम + इन्।
(ङ) कूर्दक्त्वा – कुर्दित्वा ।
(च) शृण्वन् – श्रु + शतृ।