सैनिक शिक्षा

सैनिक शिक्षा

          वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय संस्कृति की एक मौलिक निधि थी, जिसके आधार पर भारतीय समाज सदैव सुव्यवस्थित और सुशृंखलित रहा है। गीता में कहा गया है कि- “चातुर्वण्यं मयासृष्टं गुणकर्मविभागशः” अर्थात् गुण और कर्मों के आधार पर मैंने चार वर्णों का निर्माण किया है। यह नि:संदेह सत्य भी है क्योंकि प्रत्येक मस्तिष्क प्रत्येक कार्य के लिये उपयुक्त हो भी नहीं सकता । प्रत्येक मनुष्य में रुचि और विचार की भिन्नता नैसर्गिक है। न सभी साहित्यकार हो सकते हैं और न सभी सैनिक, न सभी व्यापारी हो सकते हैं और न सभी वकील । भारतीय प्राचीन सामाजिक व्यवस्था भी कुछ इसी प्रकार की थी । सैनिक शिक्षा केवल राजकुमारों और क्षत्रियों तक ही सीमित थी । यही समझा जाता था कि देश की सुरक्षा का भार केवल उन्हीं के कन्धों पर आधारित है। सैनिक प्रशिक्षण के लिये । सभी छोटे-छोटे राज्यों में विधिवत् सैनिक आश्रम और आचार्य सुनिश्चित थे, प्रशिक्षण की अवधि भी निश्चित होती थी । उस अवधि के पश्चात् एक सैनिक, पूर्ण योद्धा समझा जाता था । महाभारत काल में भी गुरु द्रोणाचार्य सैनिक शिक्षा के अध्यक्ष थे, जिन्होंने एकलव्य और कर्ण को क्षत्रियेतर होने के कारण प्रशिक्षण प्रदान करने से मना कर दिया था। इस प्रकार यह कहना चाहिये कि उस काल में राजकुमारों तथा क्षत्रिय वर्ण के लिये सैनिक शिक्षा अनिवार्य थी। उस समय की शिक्षा केवल एकांगी ही नहीं थी अपितु गुरुकुल के आचार्य, अध्येता (विद्यार्थी) की सर्वांगीण उन्नति के लिये प्रयत्नशील होते थे । मौर्यकाल में नालन्दा तक्षशिला ऐसे ही विश्वविद्यालय थे, जिनमें आम विषयों के अध्ययन के साथ-साथ सैनिक शिक्षा के अध्ययन का भी अच्छा प्रबन्ध था ।
          भारतवर्ष अपनी आध्यात्मिकता के लिये प्रारम्भ से ही प्रसिद्ध है। वैराग्यपूर्ण जीवन, त्याग, तपस्या, बलिदान और सन्तोष, आदि ही में यहाँ के निवासियों ने परम शान्ति और सुख का अनुभव किया। उनकी दृष्टि में भौतिकवाद एक हास्यास्पद और हेय विषय था। उनके सिद्धान्त थे— ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ सत्य है, संसार मिथ्या है। “त्वदीयं वस्तु अर्थात् हे ईश्वर! यह सब कुछ तुम्हारा ही है, इसलिए यह सब तुम्हारे ही अर्पण है। उनकी दृष्टि में शारीरिक शक्ति, आत्मिक शक्ति के समक्ष नगण्य थी। शरीर नाशवान् है, फिर नाशवान् वस्तु के लिये सुख और शान्ति का प्रश्न ही क्या “अहिंसा परमो धर्मः यतोधर्मस्ततो जयः”, आदि पुनीत वाक्यों को मनन करने वाले भारतीय मनीषियों को हिंसा की आवश्यकता नहीं थी। तमोगुण उनसे दूर था, वे सतोगुणी थे। सैनिक शिक्षा तथा हिंसा-वृत्ति दोनों अन्योन्याश्रित हैं। अतः जनसाधारण को सैनिक शिक्षा प्राप्त नहीं होती थी। वह केवल शासकों और शासकीय वर्ग तक ही सीमित थी । वे युद्ध कला में पारंगत होते थे, उन्हें अपने देश की आन-मान पर गर्व था। वे अपने देश की रक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग कर देते थे। परन्तु इस धर्मपरायण देश की जनता अधिकांश धर्म-भीरु थी। दुया, अहिंसा, क्षमा ये ही उसके प्रधान गुण थे। सैनिक शिक्षा की थोड़ी बहुत बची प्रवृत्ति भी शनैः शनैः धर्म के आचरण में समाप्त हो गई। परिणाम यह हुआ कि भारत का यह पवित्र घरा-धाम विदेशियों से पदाक्रान्त हो गया। उनके पास धन था, अनन्त सैनिक शक्ति थी और पारस्परिक दृढ़ संगठन था। हमारी दृढ़ सैनिक शक्ति के अभाव में हमारा देश परतन्त्रता की श्रृंखला में जकड़ गया और कई शताब्दियों तक इसी अवस्था में बना रहा ।
          धर्म-युग समाप्त हुआ। आज का युग परमाणु युग है। चारों ओर हाहाकार और विभीषिकाएँ ही कर्णगोचर हो रही हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को बलात् अपने आधिपत्य में करना चाहता है। बड़े-बड़े कूटनीतिज्ञ अहर्निश इसी बात के चिंतन में रहते हैं कि किस प्रकार अन्य राष्ट्रों को नीचा दिखाया जाए। हिरोशिमा और नागासाकी के रोमांचकारी विध्वंसात्मका दृश्यों ने विश्व की शिराओं में एक बार फिर प्रकम्पन की लहर उत्पन्न कर दी है। प्रत्येक राष्ट्र अपने-अपने स्वदेश की रक्षा के लिये प्रयत्नशील है। अनन्त साधनाओं, तपस्याओं तथा बलिदानों के पश्चात् हमारे देश को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई और आज हम स्वतन्त्र हैं। अहिंसा, अस्तेय, दया क्षमा आदि गुण आज भी भारत के आभूषण हैं, परन्तु फिर भी विश्व का जटिल एवं संघर्षमय वातावरण सम्भवतः उसे शान्त न रहने दे और यदि हम समय के विपरीत शान्त रहे तो सम्भव है कि हमारी स्वतन्त्रता को हर समय खतरा बना रहे और हम सदैव-सदैव के लिये इतिहास के पृष्ठों से समाप्त हो जाएँ। “वीरभोग्या वसुन्धरा” का सिद्धान्त सभी युगों में सभी कालों में सत्य रहा है और रहेगा।
          शक्तिशाली सदैव अशक्तों को अपना ग्रास बनाते हैं और बनायेंगे | उनसे रक्षा के लिये प्रत्येक राष्ट्र को अपनी सैन्य शक्ति सुदृढ़ करनी होगी। सैन्य शक्ति सुदृढ़ तभी हो सकती है, जबकि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक सैनिक शिक्षा प्राप्त कर चुका हो और आवश्यकता पड़ने पर देश की आन्तरिक तथा बाह्य सुरक्षा के लिये सदैव कटिबद्ध रहे । अतः आज भारतवर्ष को अनिवार्य सैनिक शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। यद्यपि यह कार्य शासन के लिये व्यय-साध्य अवश्य है, फिर भी इसमें भारत का कल्याण निहित है।
“जिस देश में घर-घर सैनिक हों, जिसके देशज बलिदानी हों । 
वह देश स्वर्ग है, जिसे देख, अरि के मस्तक झुक जाते हों ।”
          राष्ट्रहित की दृष्टि से भारतवर्ष में सैनिक शिक्षा की अनिवार्यता आवश्यक है। यदि हम चाहते हैं कि सबल राष्ट्रों के शक्तिशाली पंजों से युद्धप्रिय कूटनीतिज्ञों की चालों से हम अपने देश की तथा न्याय की रक्षा कर सकें तब यह आवश्यक है कि कॉलेज और विश्वविद्यालय के अतिरिक्त नगरों और ग्रामों में भी सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र खोल दिये जाएँ, जिससे कि भारतीय नवयुवक समय आने पर राष्ट्र की रक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक स्थायी सेना को पूर्णरूप से सहायता प्रदान कर सकें और यदि आवश्यकता पड़े तो सहर्ष प्राणोत्सर्ग कर सकें ।
          व्यक्ति की दृष्टि से भी सैनिक शिक्षा की योजना एक महत्वपूर्ण योजना है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। यदि देश के नागरिकों का स्वास्थ्य अच्छा होगा, तो वे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व का भलि-भाँति निर्वाह कर सकते हैं। सैनिक शिक्षा से उनका शरीर पुष्ट एवं सशक्त होगा और उन्हें अपने में जीवन का अनुभव होगा। निर्बल और अशक्त को आलस्य घेर लेता है। आलस्य मनुष्य का सबसे महान् शत्रु है।
          अधिकांश भारतीयों में अनुशासनहीनता पाई जाती है । न वे समय पर कहीं जा सकते हैं, न खा सकते हैं, न सो सकते हैं, न कायदे से सड़क पर चलने का सलीका आता है और न ढंग से बात करने का तरीका, और न अपनी इच्छा के विरुद्ध वे किसी की आज्ञा मान सकते हैं। क्या विद्यार्थी, क्या युवा, क्या वृद्ध सभी में यह अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर होती है। सैनिक अनुशासन विश्व में प्रसिद्ध है। वे अपने कमाण्डेन्ट की आज्ञा पर खाई में कूद सकते हैं, आग में गिर सकते हैं। उन्हें तो केवल आज्ञा चाहिये। उनके जीवन में एक नियमितता होती है। जीवन के दैनिक कार्यक्रमों में भी एक अनुशासन होता है। सैनिक शिक्षा से यह लाभ होगा कि हमारी व्यक्तिगत रूप से अनुशासन-हीनता समाप्त हो जाएगी। हम बड़ों का आदर करने और सहर्ष उनकी आज्ञा पालन करने के अभ्यस्त हो जायेंगे। जब हमारे नैतिक, सांस्कृतिक स्तर का उत्थान होगा तभी हम अपने देश को भी सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि से उन्नति के शिखर पर आसीन कर सकेंगे। सैनिक वातावरण से नागरिकों में विपत्तियों को प्रसन्नता तथा धैर्य से सहन करने की क्षमता उत्पन्न होगी। उनमें साहस तथा स्वावलम्बन का संचार होगा। अत: व्यक्तिगत हित की दृष्टि से भी हमारे नागरिकों को सैनिक शिक्षा की आवश्यकता है।
          स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने इस दिशा में विशेष ध्यान दिया है। स्कूल, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता है, परन्तु वैकल्पिक रूप से । सैनिक प्रशिक्षण की यह विकल्पता शासन की ओर से समाप्त कर देनी चाहिये । छोटी-छोटी कक्षाओं के लिए जूनियर एन० सी० सी०, इण्टर तथा स्नातकीय परीक्षाओं के लिए सीनियर एन० सी० सी० के कोर्स सुनिश्चित कर दिये गये हैं। परन्तु यह विषय अनिवार्य न होने के कारण सभी छात्र लाभान्वित नहीं हो सकते । भारत सरकार ने हृदयनाथ कुंजरू की अध्यक्षता में बनी हुई “राष्ट्रीय सैनिक छात्र कमेटी” के सभी सुझावों को स्वीकार कर लिया तथा ३००००० व्यक्तियों को सीनियर कोर्स के लिए फौजी, सामुद्रिक तथा वैज्ञानिक प्रशिक्षण देने के लिये योजना बनाई। जूनियर कोर्स के सैनिक छात्रों का कोटा, लगभग १,३५,१४३ निश्चित हुआ है और भी इसी प्रकार के भारत सरकार की ओर से पी० आर० डी०, होम गार्ड आदि अनके प्रयास किये जा रहे हैं। परन्तु छात्रों तक ही यदि यह सैनिक शिक्षा सीमित रही तो यह देश के कल्याण के लिए अपर्याप्त होगी। सम्पूर्ण राष्ट्र को शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए यह आवश्यक होगा कि देश के प्रत्येक नगर और ग्राम में सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र हों। देश का प्रत्येक वयस्क पुरुष एक बलिष्ठ सैनिक हो, उसमें अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए त्याग और बलिदान की भावना हो। हमें आशा है कि निकट भविष्य में शासन की ओर से इस दिशा में और भी प्रयास किया जाएगा ।
          भारत की सैन्य शक्ति एवम् सैनिक शिक्षा का ही परिणाम है कि उसने अपने पड़ोसी हमलावर देश पाकिस्तान के ३ दिसम्बर, १९७१ से १६ दिसम्बर, १९७१ तक १४ दिनों के ही युद्ध में दाँत खट्टे कर दिए और पाकिस्तान को पराजय का मुँह देखना पड़ा जैसा कि सन् ४७ और ६५ के पिछले दो युद्धों में भी वह देख चुका था । सन् ६२ में भारतीय सैनिकों ने चीन से अपनी रक्षा की थी। विदेशी आक्रमणों के समय सैनिक ही देश के मान और गौरव के रक्षक होते हैं। निष्कर्ष यह है कि राष्ट्र की आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए, सबल राष्ट्रों के शोषण के ग्रास न बनने के लिये तथा अपनी व्यक्तिगत, शारीरिक, मानसिक एवम् नैतिक उन्नति के लिए सैनिक शिक्षा परमावश्यक है। यह शिक्षा उद्योगों अध्यवसायी कठिन परिश्रमी तथा स्वावलम्बी बनने में भी हमारा मार्ग प्रशस्त करेगी । परन्तु स्मरण रहे कि यह सैनिक शिक्षा आत्मरक्षा और अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए ही हो न कि यह अशक्त राष्ट्रों के स्वातन्त्र्य अपहरण के लिये, अन्यथा हम अपने आदर्श से गिर जायेंगे, क्योंकि ‘शक्तिः परेषां परिपीडनाय’ का सिद्धान्त पाशविक है ।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *