सुभाषितानि
सुभाषितानि
सुभाषितानि पाठ परिचय:
(श्रेष्ठ वचन)
संस्कृत साहित्य के जिन पद्यों या पद्यांशों में सार्वभौम सत्य को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, उन पद्यों को सुभाषित कहते हैं। विश्वसाहित्य में संस्कृत के सुभाषितों का विशेष महत्त्व है। इन सुभाषितों में जीवन के अनुभव, सारगर्भित नैतिक शिक्षा परक संदेश तथा सामाजिक व्यवहार आदि का शाश्वत उपदेश निहित होता है। ये आकार में छोटे शीघ्रता से स्मरण करने योग्य, प्रभावशाली, सरल, हृदयस्पर्शी और भावपूर्ण होते हैं। ये सुभाषित भावी पीढ़ी का सन्मार्ग दर्शन करते हैं। वस्तुतः इन्हीं सुभाषितों या सूक्तियों से ही किसी भाषा की समृद्धि प्रकट होती है। प्रस्तुत पाठ ‘सुभाषितानि’ में 10 सुभाषितों का संग्रह किया गया है, जो संस्कृत के विभिन्न ग्रन्थों से संकलित हैं। इनमें परिश्रम का महत्त्व, क्रोध का दुष्प्रभाव, सभी वस्तुओं की उपादेयता और बुद्धि की विशेषता आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
हिन्दी-भाषया पाठस्य सारांश:
संस्कृत के प्रायः सभी कवियों ने अपने जीवन में अनुभूत सार्वभौमिक सत्यों को अत्यन्त मार्मिक शैली में अभिव्यक्त किया। ये नैतिक सन्देश ही संस्कृत में सुभाषितानि के नाम से जाने जाते हैं।
सुभाषितानि नामक पाठ में 10 सुभाषितों को संग्रहीत किया गया है। जिनमें सारभूत तथ्यों को इस प्रकार वर्णित किया गया है-परिश्रम के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और परिश्रम सबसे बड़ा मित्र। एक ऐसा सच्चा मित्र जिस मित्र अर्थात् परिश्रम को अपनाकर मनुष्य को कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता। गुणों का महत्व गुणी लोग तथा बल का महत्त्व बलवान् ही जानते हैं। क्रोध करने वाले मनुष्य को क्रोध उसी प्रकार जला डालता है जैसे लकड़ी में छिपी आग लकड़ी को जला डालती है। बुद्धिमान मनुष्यों की बुद्धियाँ संकेत मात्र से ही
सुभाषितानि ज्ञान प्राप्त कर लेती हैं। संसार में जो एक समान आचरण और स्वभाव वाले प्राणी हैं उन्हीं की मित्रता सफलीभूत होती है। मनुष्य को यदि आश्रय की आवश्यकता पड़े तो फल और छाया से युक्त महावृक्ष की भाँति किसी धन सम्पन्न और यशस्वी मनुष्य का ही आश्रय लेना चाहिए ; क्योंकि महावृक्ष फल के अभाव में छाया तो अवश्य ही देता है। महापुरुष सुख और दुःख दोनों प्रकार की परिस्थितियों में एक समान रहते हैं। न सुख में अधिक प्रसन्न होते हैं और न अधिक दुःख में घबराते हैं। यह संसार बड़ा विचित्र है इसमें सभी वस्तुओं की उपादेयता है कोई भी वस्तु निरर्थक नहीं है।
Sanskrit सुभाषितानि Important Questions and Answers
सुभाषितानि ठित-अवबोधनम्
1. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥1॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) शरीरस्थः रिपुः कः अस्ति ?
(ii) महान् कः कथित: ?
(iii) आलस्यं केषां रिपुः अस्ति ?
(iv) अत्र बन्धुः कः कथितः ?
उत्तराणि:
(i) आलस्यम्।
(ii) रिपुः ।
(iii) मनुष्याणाम्।
(iv) उद्यमः।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) आलस्यं कीदृशः रिपुः अस्ति ?
(ii) केन समः बन्धुः नास्ति ?
(iii) किं कृत्वा मनुष्य: नावसीदति ?
उत्तराणि
(i) आलस्यं मनुष्याणां शरीरस्थः महान् रिपुः अस्ति।
(ii) उद्यमेन समः बन्धुः नास्ति।
(iii) उद्यमं कृत्वा मनुष्यः नावसीदति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘शरीरस्थः’ इति पदस्य विशेष्यपदं किम् ?
(ii) ‘नास्त्युद्यमसमः’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत ?
(iii) ‘कृत्वा’- अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(iv) ‘रिपुः’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(v) ‘दुःखम् अनुभवति’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) रिपुः ।
(ii) न + अस्ति + उद्यमसमः ।
(iii) क्त्वा।
(iv) बन्धुः।
(v) अवसीदति।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः- मनुष्याणां शरीरस्थ: महान् शत्रुः आलस्यम्। उद्यमसमः बन्धुः न अस्ति यं कृत्वा (मनुष्यः) न अवसीदति।
शब्दार्था:-रिपुः = (शत्रुः) दुश्मन। उद्यमसमः = (परिश्रमसदृशः) परिश्रम के समान । बन्धुः = (मित्रम्) मित्र। शरीरस्थः = (शरीरे स्थितः) शरीर में स्थित। अवसीदति = (दुःखम् अनुभवति) दुःखी होता है।
सन्दर्भः-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘सुभाषितानि’ नामक पाठ से लिया गया है।
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्यांश में बताया गया है कि मनुष्य को कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
सरलार्थः-आलस्य मनुष्यों के शरीर में स्थित महान् शत्रु है। परिश्रम के समान बन्धु नहीं है, जिसको करके मनुष्य दुःखी नहीं होता है।
भावार्थ:-आलस्य से बढ़कर मनुष्य का कोई शत्रु नहीं होता क्योंकि आलस्य के कारण ही मनुष्य अपनी शारीरिक व मानसिक शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर पाता। इसी प्रकार सभी कार्यों को सिद्ध करने वाले परिश्रम के समान मनुष्य का कोई मित्र नहीं होता। क्योंकि परिश्रम मनुष्य को सदैव सुख और सफलता के शिखर पर ले जाता है और आलस्य मनुष्य के जीवन को नरक बना देता है।
2. गुणी गुणं वेत्ति न वेति निर्गुणो,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥2॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) गुणी कं वेत्ति ?
(ii) निर्बलः किं न वेत्ति ?
(ii) वसन्तस्य गुणं कः न वेत्ति ?
(iv) करी कस्य बलं वेत्ति ?
उत्तराणि:
(i) गुणम्।
(ii) बलम्।
(iii) वायसः ।
(iv) सिंहस्य।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) निर्गुणः कं न वेत्ति ?
(ii) बलं कः वेत्ति कः च न वेत्ति ?
(iii) सिंहस्य बलं कः वेत्ति कः च न वेत्ति ?
उत्तराणि
(i) निर्गुणः गुणं न वेत्ति।
(ii) बलं बली वेत्तिं निर्बलः च न वेत्ति।
(iii) सिंहस्य बलं करी वेत्ति, मूषकः च न वेत्ति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘गुणी’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘जानाति’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम्?
(iii) ‘बली बलं वेत्ति’ अत्र कर्मपदं किम् ?
(iv) ‘काकः’ इत्यस्य अत्र प्रयुक्तः पर्यायः कः?
(v) अस्मिन् श्लोके णिनि-प्रत्ययान्ताः शब्दाः के के सन्ति ?
उत्तराणि:
(i) निर्गुणः ।
(ii) वेत्ति।
(iii) बलम्।
(iv) वायसः ।
(v) गुणी, करी, बली। .
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-गुणी गुणं वेत्ति, निर्गुणः न वेत्ति। बली बलं वेत्ति, निर्बलः न वेत्ति। पिक: वसन्तस्य गुणं (वेत्ति), वायसः न। करी सिंहस्य बलं (वेत्ति), मूषक: न। शब्दार्थाः-वेत्ति = जानता है। निर्गुणः = गुणहीन। बली = बलवान [बल + णिनि] । पिकः = कोयल। वायसः = कौआ। करी = हाथी [कर + णिनि] । मूषकः = चूहा।
सन्दर्भः- पूर्ववत्। प्रसंग:-इस पद्य में बताया गया है कि गुणों की पहचान गुणी तथा बल की पहचान बलवान् ही कर सकते हैं।
सरलार्थः-गुणवान् मनुष्य ही गुण के विषय में जानता है, गुणहीन नहीं जानता। बलवान् ही बल के विषय में जानता है, बलहीन नहीं जानता। कोयल ही वसन्त के गुण को जानती है, कौआ नहीं। हाथी ही सिंह के बल को जानता है, चूहा नहीं।
भावार्थ:-गुणों की पहचान के लिए स्वयं गुणवान् होना आवश्यक है क्योंकि गुणहीन व्यक्ति गुणों की पहचान नहीं कर सकता। जैसे वसन्त ऋतु की मस्ती क्या होती है, इसे कोयल ही पहचानती है और वसन्त आने पर स्वयं भी कुहुकुहु के स्वर से सारे वातावरण को आनन्दमय बना देती है। दूसरी ओर कौआ वसन्त में भी वैसी ही कां-कां करके लोगों को बेचैन बना करता है जैसा कि वह अन्य ऋतुओं में करता है। इसी प्रकार किसी के बल की परीक्षा भी कोई बलवान् ही कर सकता है, निर्बल नहीं कर सकता। क्योंकि निर्बल को यह पता ही नहीं होता कि बल क्या होता है ? चूहा स्वयं निर्बल एवं डरपोक है, उसे सिंह के बल का क्या पता। सिंह से तो बलवान् हाथी ही टक्कर ले सकता है।
3. निमित्तमुद्दिश्य हि यः प्रकुप्यति,
धुवं स तस्यापगमे प्रसीदति।
अकारणद्वेषि मनस्तु यस्य वै,
कथं जनस्तं परितोषयिष्यति ॥3॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) मनुष्यः किम् उद्दिश्य प्रकुप्यति ?
(ii) मनुष्यः निमित्तस्य अपगमे किं करोति ?
(iii) अत्र मनः कीदृशं कथितम् ?
(iv) मनुष्यः कस्मिन् अपगते प्रसीदति
उत्तराणि:
(i) निमित्तम्।
(ii) प्रसीदति ।
(iii) अकारणद्वेषि।
(iv) कोपनिमित्ते।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) जनः कदा प्रसीदति ?
(ii) यस्य मनः अकारणद्वेषि स जनः किं न अनुभवति ?
उत्तराणिं
(i) जनः कोपस्य निमित्ते अपगते प्रसीदति।
(ii) यस्य मनः अकारणद्वेषि सः जनः परितोषं न अनुभवति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘प्रकुप्यति’ इति पदस्य विलोमपदं किमस्ति ?
(ii) ‘प्रसीदति’ इति क्रियापदस्य विशेषणं किम् अत्र प्रयुक्तम् ?
(iii) ‘उद्दिश्य’ अत्र प्रकृति-प्रत्ययनिर्देशं कुरुत।
(iv) अत्र ‘मनः’ इति पदस्य विशेषणं किमस्ति ?
(v) ‘समाप्ते’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) प्रसीदति।
(ii) धुवम्।
(iii) उद् √दिश् + ल्यप् ।
(iv) अकारणद्वेषि।
(v) अपगमे।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-हि यः निमित्तम् उद्दिश्य प्रकुप्यति सः तस्य अपगमे ध्रुवं प्रसीदति यस्य मनः अकारणद्वेषि वै (अस्ति) तं जनः कथं परितोषयिष्यति।
शब्दार्थाः-निमित्तम् = (कारणम्) कारण। प्रकुप्यति = (अतिकोपं करोति) अत्यधिक क्रोध करता है। ध्रुवम् = (निश्चितम्) निश्चित रूप से। अपगमे = (समाप्ते) समाप्त होने पर। प्रसीदति = (प्रसन्नः भवति) प्रसन्न होता है। अकारणद्वेषिमनः = (अकारणं द्वेषं करोति इति अकारणद्वेषि तद्वद्मनः यस्य सः) अकारण ही द्वेष करनेवाला मन है जिसका। परितोषयिष्यति = (परितोषं दास्यति) सन्तुष्ट करेगा।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्।
प्रसंग:-प्रस्तुत सुभाषित में बताया गया है कि अकारण द्वेष करने वाले मनुष्य को कभी संतुष्ट नहीं किया जा सकता।
सरलार्थ:-जो मनुष्य किसी कारण को उद्देश्य करके अत्यधिक क्रोध करता है, वह उसके समाप्त हो जाने पर निश्चित रूप से प्रसन्न होता है। जिसका मन बिना कारण के द्वेष करनेवाला होता है, उसको व्यक्ति कैसे सन्तुष्ट करेगा।
भावार्थ:-क्रोध दो प्रकार का हो सकता है सकारण क्रोध और अकारण क्रोध। जब किसी कार्य में बाधा को देखकर मनुष्य के मन में क्रोध पैदा होता है तो उस बाधा के दूर होते ही वह क्रोध भी दूर हो जाता है और कार्य सफल हो जाने के कारण मनुष्य प्रसन्न हो उठता है। परन्तु अकारण क्रोध बड़ा भयंकर होता है। ऐसे मनोरोगी मनुष्य को किसी भी तरह से प्रसन्न नहीं किया जा सकता।
4. उदीरितोऽर्थः पशनापि गृह्यते,
हयाश्च नागाश्च वहन्ति बोधिताः।
अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः,
परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः ॥4॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) पशुना कीदृशः अर्थः गृह्यते ?
(ii) कीदृशाः नागाः वहन्ति ?
(iii) बोधिताः हयाः किं कुर्वन्ति ?
(iv) अनुक्तमपि कः अस्ति ?
(v) बुद्धयः कीदृश्यः कथिताः?
उत्तराणि:
(i) उदीरितः ।
(ii) बोधिताः ।
(iii) वहन्ति ।
(iv) पण्डितः ।
(v) परेगितज्ञानफलाः ।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) पशुना कः गृह्यते ?
(ii) बोधिताः के के वहन्ति ?
(iii) पण्डितो जनः किम् ऊहति ?
उत्तराणि
(i) पशुना उदीरितोऽर्थः गृह्यते।
(ii) बोधिताः हयाः नागाः च वहन्ति।
(iii) पण्डितो जनः अनुक्तमपि ऊहति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत.
(i) ‘उदीरितः’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(ii) ‘पण्डितो जनः’ अत्र विशेषणपदं किम् ?
(iii) ‘उक्तम्’ इति पदस्य अत्र विलोमपदं किम् ?
(iv) ‘स्पष्टरूपेण कथितः’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(v) ‘अनुक्तमप्यूहति’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
उत्तराणि:
(i) क्त।
(ii) पण्डितः ।
(iii) अनुक्तम्।
(iv) उदीरितः।
(v) अनुक्तम् + अपि + ऊहति।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः- पशुना अपि उदीरितः अर्थः गृह्यते, हयाः नागाः च बोधिताः (भारं) वहन्ति, पण्डितः जनः अनुक्तम् अपि ऊहति, पण्डितानां बुद्धयः परेङ्गितज्ञानफलाः भवन्ति।
शब्दार्था:-उदीरितः = (उक्तः, कथितः) कहा हुआ। गृह्यते = (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है। हयाः = (अश्वाः) घोड़े। नागाः = (हस्तिनः) हाथी। ऊहति = (निर्धारयति) अनुमान लगाता है। इगितज्ञानफलाः = (इङ्गितं ज्ञानम्, इङ्गितज्ञानमेव फलं यस्याः सा, ताः) सङ्केतजन्य ज्ञानरूपी फलवाले। पण्डितः = (विद्वान, बुद्धिमान्) बुद्धिमान्।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्।
प्रसंग:-प्रस्तुत पद्यांश में बताया गया है कि बुद्धिमान् मनुष्य की बुद्धियाँ दूसरों के संकेत से ही ज्ञान प्राप्त कर लेती हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से कहने या दण्डित करने की आवश्यकता नहीं है।
सरलार्थः- पशुओं के द्वारा भी कहा हुआ अर्थ ग्रहण किया जाता है; हाथी और घोड़े बताए हुए निर्धारित (भार) को ढोते हैं, विद्वान् व्यक्ति बिना कहे भी अनुमान लगाता है, क्योंकि विद्वान् मनुष्यों की बुद्धियाँ दूसरों के संकेतों से ही ज्ञान प्राप्त करने वाली होती हैं।
भावार्थ:-संसार में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं। एक वे जिन्हें स्पष्ट रूप से कोई बात कही जाए तो समझ आती है; ऐसे मनुष्य पशु तुल्य होते हैं। दूसरे प्रकार के वे प्राणी हैं जो प्रताड़ित करने पर समझते हैं; जैसे घोड़ा या हाथी। तीसरे प्रकार के मनुष्य बुद्धिमान् कहे जाते हैं जो बिना कहे ही संकेत मात्र से दूसरे के मन की बात को पढ़ लेते हैं। क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य की यही पहचान है कि उनकी बुद्धियाँ संकेत मात्र से सम्बन्धित विषय का ज्ञान कर लेती हैं।
5. क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां,
देहस्थितो देहविनाशनाय।
यथा स्थितः काष्ठगतो हि वह्निः,
स एव वह्निर्दहते शरीरम् ॥ 5 ॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) नराणां प्रथमः शत्रुः कः ?
(ii) देहस्थितः कः कथितः ?
(iii) क्रोधः किमर्थं भवति ?
(iv) वह्निः कुत्र स्थितः ?
उत्तराणि:
(i) क्रोधः ।
(ii) क्रोधः।
(iii) देहविनाशाय।
(iv) काष्ठगतः।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) क्रोधः नराणां कीदृशः शत्रुः ?
(ii) शरीरं कः दहते ?
(iii) काष्ठं कः दहते ?
उत्तराणि
(i) क्रोधः नराणां देहस्थितः प्रथमः शत्रुः ।
(ii) शरीरं देहस्थितः क्रोधः दहते।
(iii) काष्ठं काष्ठगतः स्थितः वह्निः दहते।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘अग्निः ‘ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः ?
(ii) ‘स्थितः’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(iii) ‘मित्रम्’ इत्यस्य अत्र प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(iv) ‘देहस्थितः’ इति विशेषणस्य प्रयुक्तं विशेष्यपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) वह्निः ।
(ii) क्त।
(iii) शत्रुः।
(iv) क्रोधः।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-हि नराणां देहविनाशनाय प्रथमः शत्रुः देहस्थितः क्रोधः । यथा हि काष्ठगतः स्थितः वह्निः काष्ठम् एव दहते (तथैव शरीरस्थः क्रोधः) शरीरं दहते।
शब्दार्थाः-काष्ठम् = (इन्धनम्) लकड़ी। वह्निः = (अग्निः) आग। दहते = (ज्वालयति) जलाता है। सन्दर्भ:-पूर्ववत्। प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि क्रोध क्रोधी के ही शरीर को जला देता है।
सरलार्थ:-मनुष्यों के शरीर-नाश के लिए प्रथम शत्रु शरीर में स्थित क्रोध ही है। जिस प्रकार लकड़ी में स्थित अग्नि लकड़ी को ही जला देती है, उसी प्रकार शरीर में स्थित क्रोध शरीर को जला डालता है।
भावार्थ:-क्रोध मनुष्य के शरीर में रहने वाला ऐसा घातक शत्रु है कि यह जिस शरीर में रहता है उसी शरीर को जला डालता है। जैसे आग लकड़ी में छिपी रहती है और वही आग उस लकड़ी को जला डालती है अतः मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक क्रोध से बचना चाहिए।
6. मृगा मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति,
गावश्च गोभिः तुरगास्तुरङ्गैः।
मूर्खाश्च मूखैः सुधियः सुधीभिः,
समान-शील-व्यसनेषु सख्यम् ॥6॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत-
(i) मृगाः कैः सङ्गम् अनुव्रजन्ति ?
(ii) गोभिः सङ्ग काः अनुव्रजन्ति ?
(iii) मूर्खाः कैः सह सङ्गतिं कुर्वन्ति ?
(iv) सुधियः सख्यं केन सह भवति ?
उत्तराणि:
(i) मृगैः।
(ii) गावः ।
(iii) मूखैः ।
(iv) सुधीभिः ।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) के कैः सङ्गम् अनुव्रजन्ति ?
(i) संख्यं केषु भवति ?
उत्तराणि:
(i) मृगाः मृगैः, गावः गोभिः, तुरगाः, तुरङ्गः, मूर्खाः मूखैः, सुधियः सुधीभिः सङ्गम् अनुव्रजन्ति।
(ii) सख्यं समान-शील-व्यसनेषु भवति।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘अनुसरणं कुर्वन्ति’ इत्यर्थे प्रयुक्तं क्रियापदं किम् ?
(ii) ‘सुधियः’ इत्यस्य अत्र प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(iii) ‘मैत्री’ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः ?
(iv) ‘तुरगास्तुरङ्गः’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
उत्तराणि:
(i) अनुव्रजन्ति ।
(ii) मूर्खाः ।
(iii) सख्यम्।
(iv) तुरगाः + तुरङ्गः ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-मृगाः मृगैः सह, गावश्च गोभिः सह, तुरगाः तुरङ्गैः सह, मूर्खा: मूखैः सह, सुधियः सुधीभिः सह अनुव्रजन्ति। सख्यम् समानशीलव्यसनेषु (भवति)।
शब्दार्था:-अनुव्रजन्ति = (पश्चात् गच्छन्ति) अनुसरण करते हैं, पीछे-पीछे जाते हैं। तुरगाः = (अश्वाः) घोड़े। सुधियः = (विद्वासः) विद्वान्, मनीषी। व्यसनेषु = (स्वभाव) आदत, स्वभाव में। सख्यम् = (मैत्री) मित्रता।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्। प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि मित्रता समान स्वभाव वाले मनुष्यों में ही सफल होती है।
सरलार्थ:-हिरण-हिरणों के साथ, गउएँ-गउओं के साथ और घोड़े-घोड़ों के साथ उनके पीछे-पीछे घूमते हैं। मूर्ख-मूर्तों के साथ और बुद्धिमान्-बुद्धिमानों के साथ रहकर उनका अनुसरण करते हैं; क्योंकि एकसमान आचरण और स्वभाववालों में ही मित्रता होती है।
भावार्थ:-संसार में जिन मनुष्यों का आचार-विचार और व्यवहार परस्पर एक समान होता है, उनका एक मित्र संघ बन जाता है यह आपसी मित्रता उनकी शक्ति का मुख्य कारण बनती है। मूर्ख-मूखों की संगति करते हैं और बुद्धिमानबुद्धिमानों की। कवि का तात्पर्य है कि हमें अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए बुद्धिमानों की ही संगति करनी चाहिए, मूों की नहीं।
7. सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते॥7॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) सेवितव्यः कः ?
(ii) केन समन्वितः वृक्षः ?
(iii) दैवात् किं नास्ति ?
(iv) का न निवार्यते ?
उत्तराणि:
(i) महावृक्षः।
(ii) फल-छायाभिः ।
(iii) फलम्।
(iv) छाया।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) कीदृशः महावृक्षः सेवितव्यः?
(ii) महावृक्षः एव कथं सेवितव्यः ?
उत्तराणि:
(i) फल-छाया-समन्वितः महावृक्षः सेवितव्यः।’
(ii) यदि महावृक्षे दैवात् फलं नास्ति तर्हि छाया केनापि न निवार्यते; अतएव महावृक्षः सेवितव्यः ।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत-
(i) ‘सेवितव्यः’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(ii) ‘दैवात्’ इति पदे का विभक्तिः ? ।
(iii) ‘फलछायासमन्वितः’ इत्यस्य विशेष्यपदं किम् ?
(iv) ‘निवारणं क्रियते’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं क्रियापदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) तव्यत्।
(ii) पञ्चमी विभक्तिः।
(iii) महावृक्षः ।
(iv) निवार्यते।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-फलच्छाया-समन्वितः महावृक्षः सेवितव्यः । दैवात् यदि फलं नास्ति छाया केन निवार्यते।।
शब्दार्थाः-सेवितव्यः = (आश्रयितव्यः) आश्रय लेना चाहिए। दैवात् = (भाग्यात्) भाग्य से; निवार्यते = (निवारणं क्रियते) रोका जाता है।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्। प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि बड़े वृक्षों की भाँति बड़े लोगों की ही शरण में जाना चाहिए।
सरलार्थः-फल और छाया से युक्त किसी महावृक्ष का आश्रय ही लेना चाहिए। दुर्भाग्य से यदि उस वृक्ष पर फल नहीं है वृक्ष की छाया किसके द्वारा रोकी जाती है अर्थात् छाया तो अवश्य ही मिल जाती है।
भावार्थ:-मनुष्य को महान् लोगों का ही अनुसरण करना चाहिए। उन्हीं की संगति और उन्हीं का आश्रय कल्याणकारी होता है। महान् लोग किसी बड़े फलदार और छायादार वृक्ष की भाँति होते हैं। जैसे कभी वह वृक्ष यदि फल भी नहीं देता तो कम से कम उसकी छाया तो मिल ही जाती है। वैसे ही बड़े लोगों से यदि कोई सांसारिक वस्तु नहीं भी मिलती तो उनके साथ रहने के कारण मिलने वाला सम्मान तो मिल ही जाता है।
8. अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥8॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) अमन्त्रं किं नास्ति ?
(ii) अनौषधं किं नास्ति ?
(iii) कीदृशः पुरुषः नास्ति ?
(iv) दुर्लभः कः ?
उत्तराणि:
(i) अक्षरम्।
(ii) मूलम्।
(iii) अयोग्यः ।
(iv) योजकः।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) कीदृशं मूलं नास्ति ?
(ii) कं योजकः दुर्लभः ?
उत्तराणि
(i) अनौषधं मूलं नास्ति।
(ii) अमन्त्रम् अक्षरम्, अनौषधं मूलम् अयोग्यं च पुरुषं योजकः दुर्लभः ।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘योग्यः’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘न औषधम्’-अत्र समासं कुरुत।
(iii) ‘सुलभः’ इत्यस्य विपरीतार्थकपदं किम् ?
(iv) ‘नास्ति मूलमनौषधम्’ अत्र क्रियापदं किमस्ति ?
उत्तराणि:
(i) अयोग्यः ।
(ii) अनौषधम् (अव्ययीभावः)।
(iii) दुर्लभः ।
(iv) अस्ति।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-अमन्त्रम् अक्षरं नास्ति, अनौषधम् मूलं नास्ति, अयोग्यः पुरुषः नास्ति, तत्र योजकः दुर्लभः ।
शब्दार्थाः-अमन्त्रम् = (न मन्त्रम्, अमन्त्रम् इति) मन्त्रहीन। मन्त्रम् = (मननयोग्यम्) मनन योग्य/सार्थक/सारवान्। मूलम् = (अध:भागम्) जड़। औषधम् = (ओषधि + अण्-वनस्पतिनिर्मितम्) दवा, जड़ी-बूटी। योजकः = (युज् + ण्वुल्) जोड़ने वाला, रचना करने वाला।
सन्दर्भः- पूर्ववत्। प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि संसार में कोई भी वस्तु अनुपयोगी, गुणहीन या निरर्थक नहीं है।
सरलार्थ:-कोई ऐसा अक्षर अथवा अक्षरसमूह वाला शब्द नहीं है, जिसमें विचार करने योग्य कुछ भी न हो। किसी वृक्ष या वनस्पति की कोई ऐसी मूल (जड़) नहीं है, जिसमें औषधीय गुण न हों। संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जिसमें कोई भी योग्यता न हो। सर्वथा निरर्थक रचना करने वाला भी दुर्लभ है। .
भावार्थ:-वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर का अपना स्वतन्त्र अर्थ होता है, उन अक्षरों से बने शब्दों का भी अर्थ होता है। अतः सभी अक्षर और उनसे निर्मित शब्द मन्त्र अर्थात् मनन करने योग्य होते हैं। संसार में जो भी वृक्ष या वनस्पतियाँ हैं, सभी औषधीय गुणों से युक्त हैं, सब में रोगनिवारण की क्षमता है, कोई भी निरर्थक नहीं है। इसी प्रकार किसी भी मनुष्य को अयोग्य नहीं समझना चाहिए, कोई न कोई योग्यता प्रत्येक मनुष्य में होती है। क्योंकि संसार में ऐसे रचनाकार को ढूँढ पाना कठिन है, जो हर प्रकार से अनुपयोगी वस्तु की रचना कर सके। जब मनुष्य की रचना ही निरर्थक नहीं हो सकती तो ईश्वर की सृष्टि को निरर्थक कैसे कहा जा सकता है ? केवल ऐसी सकारात्मक सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है, जो उनमें छिपे गुणों को पहचान सके।
9. संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ॥१॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) केषाम् एकरूपता भवति ?
(ii) उदये सविता कीदृशः भवति ?
(iii) अस्तसमये कः रक्तः भवति ?
(iv) सम्पत्तौ विपत्ती च महतां कीदृशी अवस्था भवति ?
उत्तराणि:
(i) महताम्।
(ii) रक्तः ।
(iii) सविता।
(iv) एकरूपता।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) महताम् एकरूपता कदा भवति ?
(ii) सविता कदा-कदा रक्तः भवति ?
उत्तराणि:
(i) महताम् एकरूपता सम्पत्तौ विपत्तौ च भवति।
(ii) सविता उदये अस्तमये च रक्तः भवति ?
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘विपत्तौ’ इति पदस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘रक्तश्चास्तमये’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(iii) ‘रक्तः’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(iv) ‘सम्पत्ती’ अत्र का विभक्तिः ?
उत्तराणि:
(i) सम्पत्तौ।
(ii) रक्तः + च + अस्तमये।
(iii) क्त।
(iv) सप्तमी विभक्तिः ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-संपत्तौ विपत्तौ च महताम् एकरूपता भवति। यथा-सविता उदये रक्तः भवति, तथा अस्तमये च रक्तः भवति।
शब्दार्थाः-सविता = (सूर्यः) सूर्य। रक्तः = लाल। सम्पत्ती = (सुखे, समृद्धौ) सुख-समृद्धि में। विपत्तौ = (दुःखे, धनहीनावस्थायाम्) दुःख में।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्। प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि महान् लोग प्रत्येक परिस्थिति में अपना संतुलन बनाए रखते हैं।
सरलार्थ:-सुख और दुःख दोनों अवस्थाओं में महापुरुषों में एकरूपता बनी रहती है। जैसे सूर्य उदयकाल में रक्तवर्ण होता है, वैसा ही अस्तकाल में भी रक्तवर्ण होता है।
भावार्थ:-महापुरुष सुख-दुख दोनों स्थितियों में एकसमान रहते हैं। वे सुख में न तो प्रसन्न होते हैं और न दुःख में दुःखी होते हैं। उनकी यह एकरूपता सूर्य के तुल्य होती है। जिस प्रकार सूर्य उदयकाल में लाल होता है, उसी प्रकार अस्तकाल में भी उसकी लालिमा बनी रहती है।
10. विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम्।
अश्वश्चेद् धावने वीरः भारस्य वहने खरः ॥ 10॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) एकपदेन उत्तरत
(i) विचित्रः कः कथितः ?
(ii) किञ्चित् अपि निरर्थकं कुत्र नास्ति ?
(iii) खरः कस्य वहने वीरः भवति ?
(iv) अश्वः कस्मिन् वीरः भवति ?
उत्तराणि:
(i) संसारः ।
(ii) संसारे।
(iii) भारस्य।
(iv) धावने।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) विचित्र संसारे किं नास्ति ?
(ii) कः कस्मिन् वीरः भवति ?
उत्तराणि:
(i) विचित्रे संसारे किञ्चिदपि निरर्थकं नास्ति।
(ii) अश्वः धावने भारस्य वहने च खर: वीरः भवति ?
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘सार्थकम्’ इत्यस्य विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘गर्दभः’ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः ?
(iii) “किञ्चिन्निरर्थकम्’-अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत।
(iv) ‘विचित्रे संसारे’ अत्र विशेष्यपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) निरर्थकम्।
(ii) खरः।
(iii) किञ्चित् + निरर्थकम्।
(iv) संसारे।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
अन्वयः-विचित्रे संसारे खलु किञ्चित् निरर्थकं नास्ति। अश्वः चेत् धावने वीरः, (तर्हि) भारस्य वहने खरः (वीरः) अस्ति ।
शब्दार्था:-विचित्रे = (आश्चर्यपरिपूर्णे) अश्चर्य से परिपूर्ण। निरर्थकम् = (व्यर्थ) बेकार, व्यर्थ। खरः = (गर्दभः) गधा।
सन्दर्भ:-पूर्ववत्। प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि संसार में कोई भी वस्तु, व्यक्ति या प्राणी निरर्थक नहीं है।
सरलार्थ:-आश्चर्यों से भरे हुए इस संसार में निश्चय ही कोई भी वस्तु निरर्थक नहीं है। घोड़ा यदि दौड़ने में वीर है तो भार को ढोने में गधा है।
भावार्थ:-यह संसार बड़ा अद्भुत है, जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तु, व्यक्ति व प्राणी रहते हैं; परन्तु हम किसी को भी अनुपयोगी नहीं कह सकते क्योंकि प्रत्येक की कोई न कोई आवश्यकता अवश्य है; जैसे घोड़े की अपेक्षा गधे को सामान्य व्यक्ति नीच समझता है परन्तु घोड़े की उपयोगिता यदि तेज़ दौड़ने में है तो भार उठाने में हम गधे का मूल्य कम नहीं आँक सकते। इसीलिए समझदार मनुष्य को किसी वस्तु या व्यक्ति को व्यर्थ या अनुपयोगी नहीं समझना चाहिए।
Sanskrit सुभाषितानि Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(क) केन समः बन्धुः नास्ति ?
(ख) वसन्तस्य गुणं कः जानाति।
(ग) बुद्धयः कीदृश्यः भवन्ति ?
(घ) नराणां प्रथमः शत्रुः कः ?
(ङ) सुधियः सख्यं केन सह भवति ?
(च) अस्माभिः कीदृशः वृक्षः सेवितव्यः ?
उत्तराणि:
(क) उद्यमेन समः बन्धुः नास्ति।
(ख) वसन्तस्य गुणं पिक: जानाति।
(ग) बुद्धयः परेङ्गितज्ञानफलाः।
(घ) नराणां प्रथमः शत्रुः देहस्थितः क्रोधः अस्ति।
(ङ) सुधियः सख्यं सुधीभिः सह भवति।
(च) अस्माभिः फलच्छाया-समन्वित: महावृक्षः वृक्ष: सेवितव्यः ।
प्रश्न 2.
अधोलिखिते अन्वयद्वये रिक्तस्थानपूर्तिं कुरुत
(क) य………. उद्दिश्य प्रकुप्यति तस्य . … सः ध्रुवं प्रसीदति। यस्य मन: अकारणद्वेषि अस्ति, तं कथं ………. परितोषयिष्यति ?
(ख) ………… खलु संसारे ………… निरर्थकम् नास्ति। अश्वः चेत् ………… वीरः, खरः ………. (वीरः) (भवति)
उत्तराणि-(अन्वयः)
(क) यः निमित्तम् उद्दिश्य प्रकुप्यति तस्य अपगमे सः ध्रुवं प्रसीदति। यस्य मनः अकारणद्वेषि अस्ति, तं कथं जनः परितोषयिष्यति ?
(ख) विचित्रे खलु संसारे किञ्चित् निरर्थकम् नास्ति। अश्वः चेत् धावने वीरः, खरः भारस्य (वीरः) (भवति)
प्रश्न 3.
अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि पाठात् चित्वा लिखत.
(क) प्रसीदति ………………………
(ख) मूर्खः ………………………
(ग) बली ………………………
(घ) सुलभः ………………………
(ङ) संपत्ती ………………………
(च) अस्ते ………………………
(छ) सार्थकम् ………………………
उत्तरताणि
पदम् विलोमपदम्
(क) प्रसीदति अवसीदति
(ख) मूर्खः पण्डितः
(ग) बली निर्बलः
(घ) सुलभः दुर्लभः
(ङ) संपत्ती विपत्ती
(च) अस्ते उदये
(छ) सार्थकम् निरर्थकम्।
प्रश्न 4.
अधोलिखितानां वाक्यानां कृते समानार्थकान् श्लोकांशान् पाठात् चित्वा लिखत
(क) विद्वान् स एव भवति यः अनुक्तम् अपि तथ्यं जानाति।
(ख) मनुष्यः समस्वभावैः जनैः सह मित्रतां करोति।
(ग) परिश्रमं कुर्वाण: नरः कदापि दुःखं न प्राप्नोति।
(घ) महान्तः जनः सर्वदैव समप्रकृतयः भवन्ति।
उत्तराणि
(क) अनुक्तमप्यूहति पण्डितोजनः।
(ख) समान-शील-व्यसनेषु सख्यम्।
(ग) नास्त्युद्यमसो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।
(घ) सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।
प्रश्न 5.
यथानिर्देशं परिवर्तनं विधाय वाक्यानि रचयत
(क) गुणी गुणं जानाति। (बहुवचने)
(ख) पशुः उदीरितं अर्थं गहणाति। (कर्मवाच्ये)
(ग) मृगाः मृगैः सह अनुव्रजन्ति। (एकवचने)
(घ) कः छायां निवारयति। (कर्मवाच्ये)
उत्तराणि
(क) गुणिनः गुणान् जानन्ति।
(ख) पशुना उदीरितः अर्थः गृह्यते।
(ग) मृगः मृगेण सह अनुव्रजति।
(घ) केन छाया निवार्यते।
प्रश्न 6.
सन्धिं/सन्धिविच्छेदं कुरुत
प्रश्न 7.
संस्कृतेन वाक्यप्रयोगं कुरुत
(क) वायसः
(ख) निमित्तम्
(ग) सूर्यः
(घ) पिकः
(ङ) वह्निः
उत्तराणि: (वाक्यनिर्माणम्)
(क) वायसः काँ काँ इति शब्दं करोति।
(ख) निमित्तं विचार्य एव कार्यं करणीयम्।
(ग) सूर्यः संसारस्य प्रकाशकः अस्ति।
(घ) पिकः मधुरस्वरेण कूजति।
(ङ) क्रोधः वह्निः इव दाहकः भवति।