“साहित्य में आदर्श और यथार्थवाद” अथवा “आदर्शोन्मुख यथार्थ चित्रण करने वाला ही उत्तम काव्य है”

“साहित्य में आदर्श और यथार्थवाद” अथवा “आदर्शोन्मुख यथार्थ चित्रण करने वाला ही उत्तम काव्य है”

          समाज की नवचेतना और नवजागरण के साथ साहित्यकार विचारधाराओं में भी परिवर्तन हुए, दिशायें बदलीं और विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रबल समर्थन किया और वादों की परम्परा चल पड़ी। किसी ने छायावाद को जन्म दिया, तो किसी ने रहस्यवाद को। किसी ने प्रगतिवाद का समर्थन किया, तो किसी ने प्रतीकवाद का । किसी ने प्रत्यक्षवाद की प्रशंसा की, तो परोक्षवाद की। इसी प्रकार यथार्थवाद और आदर्शवाद भी साहियत्क अखाड़  में कूद आये । कुछ दर्शक यथार्थवाद को प्रोत्साहित करने के लिए तालियाँ बजाने लगे और कुछ आदर्शवाद को । कुछ महानुभावों ने तटस्थता की नीति को अपनाया और दोनों के समन्वय में वाह-वाह करने लगे। आज का युग परीक्षण-काल है । साहित्य रूपी वृक्ष में से नित्य नवीन शाखायें फूट रही हैं, कुछ पल्लवित और कुसुमित हो जाती हैं, कुछ स्वयं सूखकर निष्माण हो जाती हैं और किन्हीं को लोग तोड़कर ले जाते हैं । यथार्थ और आदर्श की भी साहित्य के बाजार में बहुत कुछ धूम रही है।
          कुछ विद्वान् इस पक्ष में हैं कि साहित्य आदर्शवादी होना चाहिए । उनका विचार है कि मानव-जीवन और संसार में जो श्रेष्ठ है और श्रेयस्कर है, उसी को साहित्य में स्थान मिलना चाहिए । इसी से जन-कल्याण सम्भव है। समाज की कुरीतियों के दिग्दर्शन से, उसके दुश्चरित्रों के नग्न-चित्र से, उसके गर्हित, घृणित एवम् निन्दनीय स्वरूपों को सिखाने का एक माध्यम बन जायेगा। उदाहरणस्वरूप–चलचित्रों के सभी चित्र किसी विशेष शिक्षा के आधार पर बनाए जाते हैं, परन्तु दृष्टा उन  शिक्षाओं पर ध्यान न देकर चोरी करना, जेब काटना, अश्लील प्रेम में फँसना सरलता से सीख जाते हैं । अतः यह आवश्यक है कि साहित्य में आदर्श की ही उपस्थिति की जाये । उधर यथार्थवान्दियों का विचार है कि मानव-जीवन और संसार का वास्तविक स्वरूप भी साहित्य में होना चाहिए । साहित्यकारों का कर्त्तव्य है कि जैसा देखें वैसा लिखें । मनुष्य को वास्तविक जगत् से दूर कल्पना के संसार में ले जाकर खड़े कर देने से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। वह जिस भूमि पर रहता है, उसी के वातावरण से उसका हित और अहित सम्भव है । उसे यदि स्वर्ग का काल्पनिक चित्र दिखाया जाये, तो उससे उसकी आत्मसन्तुष्टि नहीं हो सकती। हम जिस संसार में रहते हैं उसमें सुख भी है और दुख भी है, अच्छाई भी है, बुराई भी है । यहाँ सुगन्धित पुष्पों के साथ काँटें भी हैं और मधु के साथ विष भी, यथार्थवादियों का दृढ़ विश्वास है कि वास्तविकता की ओर से आँख बन्द कर लेने से कल्याण नहीं हो सकता । हमारे जीवन में सत्य का जितना महत्त्व है, उतना कल्पना या स्वप्नों का नहीं । आदर्शवादी अपनी कल्पना द्वारा संसार की कुरूपता को अपनी बुद्धि से ढककर एक सुन्दर और पवित्र जगत् की रचना करता है, जबकि यथार्थवादी ‘साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है’ के आधार पर साहित्य में समाज का नग्न, कुत्सित और वीभत्स चित्र उपस्थित करता है ।
          साहित्य जीवन की व्याख्या है, आलोचना है उसमें जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर विचार किया जाता है, जीवन-निर्वाह के सिद्धान्त निश्चित किये जाते हैं । साहित्य समाज का मार्ग प्रदर्शन करता है, उसे असत् से हटाकर सत् की ओर लगाता है । इसीलिये हमारे प्राचीन साहित्य में अन्त में पाप और दुराचार की पराजय और उस पर सत्य, न्याय, धर्म आदि सद्गुणों की विजय दिखाई गई है। “काव्य प्रकाश” में काव्य के लक्षण गिनाते समय काव्य प्रकाशकार ने “शिवेतरक्षतये” को ही प्रतिपादित किया है। अशिव की क्षति साहित्य का पवित्र कर्त्तव्य है। अशिव क्षति करना साहित्यकार का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए । अशिव का अर्थ अमंगल या अकल्याण है। कहने का तात्पर्य है कि साहित्य जन-कल्याण करने वाला कहा जा सकता है। दूसरे लोगों का विचार है कि साहित्य समाज का दर्पण है। उनके अनुसार साहित्य समाज का वास्तविक और यथार्थ रूप ही हमारे सामने प्रस्तुत करेगा। परन्तु प्रश्न यह है कि इस प्रकार साहित्य से लाभ क्या ? जो वैद्य केवल मरीज के मर्ज को सामने रख दे क्या उस वैद्य से रोगी का कल्याण हो सकता है ? कल्याण तो ऐसे वैद्य से हो सकता है जो उस मर्ज की अच्छी से अच्छी औषधि रोगी को दे और रोगी को यह अनुभव न होने दे कि वह इतने भयानक रोग से आक्रान्त है। ठीक यही बात साहित्य के विषय में है। जीवन और समाज से केवल पापमय चित्र को प्रस्तुत करने वाला साहित्य, साहित्य नहीं हो सकता | साहित्य से तो सत्यम् शिवम्, सुन्दरम् की रक्षा होनी चाहिए। यह निश्चय है कि संसार में उत्तम और अधम सभी प्रकार के प्राणी रहते हैं, पाप और पुण्य भी रहता है । साहित्य में सभी का थोड़ा-थोड़ा प्रतिनिधित्व सम्भव है, परन्तु लोक कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक है कि पाप पर पुण्य की विजय दिखाई जाए। इससे समाज में धर्मबुद्धि उद्बुद्ध होगी और अधार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य समाज की अधिक क्षति न कर सकेंगे । साहित्य में पूर्ण सत्य की रक्षा होनी चाहिए ।
          साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति इसी प्रकार के आदर्शवाद से होती है, क्योंकि कोरे आदर्शवाद का भी कोई मूल्य नहीं होता । सौन्दर्य का अस्तित्व कुरूपता पर आधारित है। यदि संसार में कुरूपता नहीं होती तो सौन्दर्य का न तो इतना महत्त्व होता और न आकर्षण । इसी प्रकार पुण्य का अस्तित्व पाप पर है, धर्म का अधर्म पर । साहित्य में लोकोपयोगी आदर्श, उच्च कोटि के सिद्धान्त, आत्मोन्नति के साधन तथा लोक-कल्याणकारी पीयूष धारा हो, परन्तु उसे अधार्मिक प्रवृत्तियों के द्वन्द्व द्वारा स्पष्ट किया जाये । लोकोपयोगी साहित्य स्रष्टा इन दो रूपों का अपने साहित्य में विश्लेषण करता है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह काव्य में सत्य-पक्ष की ही विजय देखना चाहता है चाहे स्वयं कितना ही दुष्ट हो । असत् पक्ष के साथ उसकी सहानुभूति नहीं होती । प्राचीन भारतीय कवियों ने सच्चरित्र नायक और नायिकाओं को लेकर अनेक काव्यों और नाटकों की रचनायें कीं। इन नायक और नायिकाओं के सामने अनेक विघ्न-बाधाएँ आईं किन्तु उन्हें न गिनते हुए वे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते चले गए, अन्त में उनकी निश्चित रूप से विजय हुई । पाठक के हृदय पर इसका प्रभाव यह पड़ता है कि सत्य की असत्य पर विजय होती है।
          हमारे प्राचीन साहित्यकार पूर्णत: आदर्शवादी थे, समाज में क्या हो रहा है इसकी नग्न विवेचना उनके काव्यों में नहीं होती थी, अपितु यदि ऐसा हो तो हमें क्या करना चाहिए, इस बात का ध्यान रखते थे। वे साहित्य सृजन तो करते थे इस भूमि पर रहकर, परन्तु आदर्श होता था स्वर्गीय। जिनके पवित्र वचनामृत से अधर्म और पाप में डूबी हुई जनता अपने उद्धार की आशा करती है, उन सत् काव्यों के अध्ययन से मनुष्य का हृदय पवित्र होने लगता है। तुलसी की रामायण ने आज संसार का कितना उपकार किया यह सर्वविदित है। संसार सागर में डूबने वाले कितने दुराचारियों की इन महाकाव्यों ने रक्षा की ? विशृंखलित समाज को सुसंगठित होने की चेतना दी ? कितने मार्ग-भ्रष्टों का पथ-प्रदर्शन किया ? क्या आज के यथार्थवादी नाटक और उपन्यासों में यह क्षमता है ? रामायण में भी सत् और असत् दोनों में द्वन्द्व दिखाकर पुण्य की पाप पर विजय उद्घोषित की गई है। इस प्रकार हमारा प्राचीन साहित्य आदर्शवाद की शिला पर आधारित है। इस अमृत है के समुद्र में आज तक जिसने भी स्नान किया उसने स्वर्गीय देवत्व प्राप्त किया, यह निःसन्देह सत्य है । अतः आदर्शवादी साहित्य स्रष्टा की दृष्टि में सदैव कल्याण होता है । वह जगत् का वीभत्स नग्न चित्रण करके समाज में आग लगाना नहीं चाहता। मैथिलीशरण गुप्त ने आदर्शवाद के समर्थन में एक स्थान पर लिखा –
हो रहा है जो जहाँ सो हो रहा, यदि वही हमने कहा तो क्या कहा । 
किन्तु होना चाहिए कब क्या कहाँ, व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ II
          भारतीय नकल करने में प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी की सभ्यता, संस्कृति और वेशभूषा की नकल करने में उन्होंने अपने को सौभाग्यशाली समझा, उन्होंने उनके साहित्य का भी अनुकरण किया । लन्दन की सामाजिक समस्याओं, प्रेम-लीलाओं, गर्भपात आदि का नग्न चित्र आज बाजारों में मिलता है। भारतीय नवयुवक उन्हें पढ़कर आनन्द लेते हैं और अपने चरित्र को दूषित बनाते हैं। हमारे साहित्यकार भी पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से प्रभावित हैं। आज जितने उपन्यास और कहानियाँ लिखी जा रही हैं, सभी यथार्थवादी हैं, समाज के प्रेमी और प्रेमिकाओं का सर्वांग नग्न चित्र उपस्थित करके लेखनी को सफल मान रहे हैं। इनसे समाज का पतन हो रहा है उत्थान नहीं। राजनैतिक विषयों में यथार्थवाद अवश्य लाभ करता है। ऐसे विषयों में ‘यथार्थवादी साहित्य’ की क्रान्ति की भूमिका होती है। जब कोई देश या समाज दीर्घकाल से अन्याय और अत्याचारों से ग्रस्त रहता है, तब कुछ प्रतिभाशाली यथार्थवादी लेखक अपनी ओजस्विनी लेखनी से उन दोनों की ओर संकेत करके जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं । शनैः शनैः उन बुराइयों के विरुद्धं लोकमत एकत्रित होता रहता है। अन्त में जनता उन दोषों को एकदम समाप्त करने के लिए देश में क्रान्ति उपस्थित कर देती है। देशभक्त अपने प्राणों तक को बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं। फ्रांस और रूस की क्रान्तियाँ इसी यथार्थवाद का परिणाम थीं । परन्तु आजकल नकलची भारत में यथार्थवाद के नाम पर ऐसा कुत्सित साहित्य लिखा जा रहा है जिसको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सारे संसार में अच्छाई और नैतिकता का नाम तक नहीं रहा है। यह एक पक्षीय यथार्थवादी सर्वथा पतन की ओर ले जाने वाला है ।
          तात्पर्य यह है कि जीवन को शक्ति की प्रेरणा देने वाला साहित्य ही ‘सत्यम्’ ‘शिवम्’ ‘सुन्दरम्’ बन सकता है और लोक-कल्याण कर सकता है । यह तभी होगा जब हमारा साहित्य आदर्शोन्मुख होगा। यथार्थवादी साहित्य में अपना स्थान रक्खें, परन्तु एकांगी बनकर नहीं। उन्हें अपने साथ आदर्शवाद भी रखना होगा अन्यथा यह केवल हास्यास्पद बनकर रह जायेगा । प्रेमचन्द जैसा यथार्थवादी ही संसार में आदर प्राप्त कर सकता है। वे भी कोरे यथार्थवादी नहीं थे, वे थे आदर्शोन्मुख यथार्थवादी । अतः दोनों के सम्मिश्रण में ही समाज का कल्याण है।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *