सर्वोदय

सर्वोदय

          सृष्टि के प्रारम्भिक क्षणों से ही समाज के मनीषियों ने समाज को सुखी, शान्त और समृद्ध बनाने के लिये अनेकानेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। समाज को सुसंगठित और सुव्यवस्थित बनाने के लिए ऋषि मुनियों ने वर्णाश्रम व्यवस्था को जन्म दिया, जिसकी पृष्ठभूमि में जातिवाद और ब्राह्मणों का धर्मवाद निहित था । इस व्यवस्था पर आधारित समाज निःसंदेह बहुत समय तक सुसंगठित रूप से चलता रहा, यहाँ तक कि आज भी उसका ज्यों का त्यों रूप भारतवर्ष में विद्यमान है, उसमें कुछ विकृति अवश्य आने लगी है। समाज को शाश्वत सुख और अनन्त शान्ति प्रदान करने के लिये ही महात्मा बुद्ध ने भिक्षु रूप धारण करने तथा संघारामों की घोषणा की थी। समाज की विशृंखलता और जातिवाद को दूर करने के लिये ही कबीर ने निर्भीक होकर समाज के चौराहे पर गर्जना की थी। इसी तरह समय-समय पर अनेक समाज सुधारक, समाज को व्यवस्थित बनाने में प्रयत्नशील रहे। आज का समाज विभिन्न विचारधाराओं का केन्द्र है। सभी अपने-अपने रूप में समाज को सम्पन्न बनाने का दावा रखते हैं। प्रमुख रूप से चक्की के दो पाट आज समस्त विश्व को पीसे डाल रहे हैं, वे हैं पूंजीवाद और साम्यवाद । आधुनिक युग में ही ये विचारधारायें विशेष रूप से प्रचलित हैं। साम्राज्यवादी देश पूंजीवाद का समर्थन करते हैं। पूंजीवाद पैसे के बल पर सभी का शोषण कर सकता है, चाहे वह विद्वान हो या श्रमिक । साम्यवाद पूंजीवाद व्यवस्था को पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहता है। यह विचारधारा वर्ग संघर्ष में विश्वास रखती है। उनका विश्वास है कि एक दिन आयेगा जबकि श्रमिक और मजदूरों का इन शोषक पूंजीपतियों पर स्वामित्व होगा। साम्यवादी, रक्तमय क्रान्ति में विश्वास रखते हैं। इनकी दृष्टि में सत्य, अहिंसा और ईश्वर जैसी कोई वस्तु महत्व नहीं रखती है ।
          परन्तु इन विचारधाराओं के अतिरिक्त कुछ विचारक ऐसे भी होते हैं जो किसी वर्ग विशेष का हितचिन्तन न करके, मानव मात्र में कल्याण की कामना करते हैं जो हर किसी को सुखी, समृद्ध एवं सम्पन्न देखना चाहते हैं। सबके विकास में ही देश का कल्याण समझते हैं। इनकी इच्छा रहती है कि –
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् ।’
          अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी कल्याण प्राप्त करें, किसी को कोई दुःख प्राप्त न हो, इस प्रकार की पुनीत भावनाओं को महात्मा गाँधी जैसे पुण्यात्माओं ने उपस्थित किया था। वर्गभेद, वर्णभेद, जातिभेद तथा छूत-अछूत जैसे सामाजिक रोगों को समाज से बहिष्कृत करने के लिये, आर्त, दु:खी और चिरविपन्न जनता को शान्ति प्रदान करने एवं उसके अभ्युदय और सर्वांगीण विकास के लिये राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें सभी प्राणियों को अपनी-अपनी सहज योग्यताओं के विकास का अवसर मिले और जिसमें न कोई ऊँचा हो और न नीचा ।
          इस प्रकार का समाज सर्वोदय के सिद्धान्तों में निहित है। सर्वोदय में मंत्रदाता महात्मा गाँधी थे। उन्होंने मानव कल्याण के लिये अनेक सूत्रों का निर्माण किया तथा उन्हें रचनात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। गाँधी जी के इन्हीं सूत्रों का नाम ‘सर्वोदय’ है। सर्वोदय की प्रेरणा गाँधी जी को रस्किन की ‘अन्टू दी लास्ट’ नामक पुस्तक से प्राप्त हुई। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा- “मैं नैटाल के लिये रवाना हुआ। मास्टर पोलक स्टेशन पर मुझे पहुँचाने आये और रस्किन की पुस्तक ‘अन्टू दी लास्ट’ मेरे हाथ में देकर बोले “यह पुस्तक पढ़ने लायक है।” मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तक ने महत्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला तो वह यही पुस्तक ” है। मेरा विश्वास है कि जो चीज मेरे अन्तर में बसी हुई थी उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मैंने इस पुस्तक में देखा है।” इस पुस्तक में गाँधी जी ने केवल तीन सिद्धान्तों को अपने सर्वोदय का आधार बनाया ।
१. व्यक्ति का श्रेय समष्टि के श्रेय में ही निहित है ।
२. वकील और नाई दोनों के कार्य का मूल्य समान है, क्योंकि प्रत्येक को अपने व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलाने का समान अधिकार है ।
३. किसान, कारीगर तथा मजदूर का जीवन सच्चा तथा सर्वोत्कृष्ट है।
          समाज का कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के लिये कार्य दे और उसकी आवश्यकता पूरी करे। सर्वोदय के मानव मान-दण्ड ने पर्याप्त क्रान्ति की है। सर्वोदय समाज के आर्थिक और सामाजिक वैषम्यों का तीव्र विरोध करता है तथा जड़वाद और व्यक्तिवाद के विरुद्ध है। सर्वोदय सम्पत्ति के राष्ट्रीयकरण में विश्वास रखता है। व्यक्तिगत सम्पत्ति में शोषण और संघर्ष की भावनाएँ अन्तर्निहित होती हैं। निजी सम्पत्ति में मानव की स्वार्थपरता बढ़ती है। अत: सहकार्य और साहचर्य से मानव की ईर्ष्या के स्थान पर सहयोग और सहानुभूति, वैमनस्य के स्थान पर स्नेह तथा संकीर्णता के स्थान पर औदार्य की वृद्धि होती है । इस प्रकार सर्वोदय, समाजवाद, आत्मवाद और समत्व में विश्वास रखता है। सर्वोदय नेता एवम् गम्भीर विचारक श्री शंकरराव देव ने सर्वोदय के विषय में लिखा है, “साम्यवाद अथवा पूंजीवाद की भाँति सर्वोदय, साध्य के लिये साधना की अपेक्षा नहीं करता ।” साम्यवाद शोषितों का पक्ष लेकर हिंसात्मक रक्तमय क्रान्ति का पक्षपाती है। इसी प्रकार, पूंजीवाद स्वतन्त्र को गुलाम बनाकर शोषण करता ही है ।
          सर्वोदय केवल सैद्धान्तिक पक्ष का ही प्रतिपादन नहीं करता, वह क्रियात्मक रूप से कर्म करने की प्रेरणा भी प्रदान करता है। राष्ट्रपिता गाँधी जी ने सर्वोदय के अट्ठारह नियम, सूत्र रूप से जनता के सामने उपस्थित किये थे । उन्हीं सूत्रों के आधार पर सर्वोदय का विकास भारत में हुआ। ये सूत्र निम्नांकित हैं—
१. साम्प्रदायिक एकता
२. मद्य निषेध
३. वर्ग भेद तथा अस्पृश्यता का विनाश

४. खादी का प्रयोग
५. गृह उद्योग का विकास
६. ग्रामों की सफाई
७. प्रारम्भिक शिक्षा
८. प्रौढ़ शिक्षा
९. महिलाओं की सेव
१०. स्वास्थ्य एवं शिक्षा
११. प्रान्तीय भाषायें
१२. राष्ट्रभाषा
१३. आर्थिक सहायता
१४. कृषक
१५. श्रमिक
१६. आदिवासी
१७. कुष्ट रोग
१८. विद्यार्थी
          इन अष्टादश सूत्री नियमों पर चलकर भारतवर्ष अपनी सर्वांगीण उन्नति कर सकता है । जब तक मानव में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ जैसी पवित्र भावनाओं का उदय नहीं होता, तब तक न वह स्वयम् उन्नति कर सकता है और न दूसरों को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है। सर्वोदय के आधार पर ही हम ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ की पवित्र भावनाओं को फिर से जागृत कर सकते हैं। एक समय था जब हमारे ऋषि कहा करते थे—
शं नो अस्तु द्विपदें शं नो अस्तु चतुष्पदे
          अर्थात् दो पैर वाले और चार पैर वाले सभी का कल्याण हो । परन्तु आज चार पैर वालों की तो दूर की बात है, मानव अपने बन्धु दो पैर वाले का भी भला नहीं चाहता। स्वार्थ की कालिमामयी प्रवृत्ति इतनी बढ़ गई है कि चारों ओर अपना ही अपना दिखाई पड़ता है, दूसरे के कल्याण की तो कोई सोचता ही नहीं। अतः भारतवर्ष यदि अपनी सार्वभौमिक और सर्वांगीण उन्नति चाहता है, तो राष्ट्रपिता गाँधी के सर्वोदय के सिद्धान्तों को स्वीकार करना पड़ेगा, तभी उसकी उन्नति सम्भव है।
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