समाज सुधारक- महर्षि दयानन्द

समाज सुधारक- महर्षि दयानन्द

          भारतवर्ष के राजनैतिक तथा धार्मिक उत्थान में भारत के प्रदेश गुजरात ने भी सदैव अपना सहयोग दिया है। वैसे तो वीर जननी उत्तर प्रदेश की पुण्य भूमि है, परन्तु गुजरात भी कुछ कम नहीं। महात्मा गाँधी, सरदार पटेल ये दोनों ही महापुरुष गुजरात में उत्पन्न हुये थे पर ये दोनों राजनैतिक गुत्थियों को सुलझाने वाले थे। धार्मिक क्षेत्र में इनमें से किसी ने भी तथा अन्यों ने भी कोई स्तुत्य कार्य नहीं किया। देश की राजनैतिक चेतना के साथ-साथ सांस्कृतिक या धार्मिक भावनाओं एवं हिन्दी के उत्थान में अपना बलिष्ठ कन्धा लगाने वालों में महर्षि दयानन्द का नाम विशेष रूप से स्मरणीय है। वह समाज सुधारक तथा आर्य संस्कृति के रक्षक थे । आज से पूर्व के महापुरुषों ने अपने प्राणपण से आर्य संस्कृति की रक्षा की और उसके उत्थान में महत्वपूर्ण योग दिया। महर्षि दयानन्द ने जनता को अनुद्योग, आलस्य अकर्मण्यता के स्थान पर उद्योग, परिश्रम और कर्मण्यता का पाठ पढ़ाया। धार्मिक कृत्यों में प्राचीन विचारधारा के स्थान पर तथा आडम्बरपूर्ण अर्चना के स्थान पर नवीन मानसिक पूजा को महत्व दिया। रुढ़िवाद की पुरातन छिन्न-भिन्न शृंखलाओं को नष्ट करके जनता को धर्म के मूल तथ्यों को समझाया। जाति वैषम्य, अस्पृश्यता और भेद-भाव को दूर किया । दु:खी हिन्दू जनता, ईसाई और मुस्लिम धर्म में परिवर्तित होती जा रही थी। हिन्दू जाति का एक बहुत बड़ा भाग धर्म परिवर्तन कर चुका था। महर्षि दयानन्द ने जातिवाद और वैषम्य की विषाक्त विचारधाराओं को समाज में से जड़ सहित उखाड़ फेंक देने का सबल प्रयत्न किया। इन्होंने हिन्दू धर्म में पर्याप्त संशोधन उपस्थित किये। ईसाई मिशनरियों से टक्कर ली। इन सब बातों के अतिरिक्त देश की स्वतन्त्रता के महान् उद्घोषकों में भी दयानन्द जी का प्रमुख स्थान है ।
          महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव सन् १८२४ में गुजरात प्रान्त के मौरवी राज्य के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। कोई-कोई इन्हें दयाल भी कह देते थे। इनके पिता का नाम कर्षन जी था। वे गाँव के बड़े जमींदार थे, परिवार सम्पन्न था। सनातन धर्म की पद्धति के अनुसार बालक मूलशंकर का पाँच वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार तथा विद्यारम्भ संस्कार कराया गया। संस्कृत की शिक्षा से आपके अध्ययन का श्रीगणेश हुआ। प्रारम्भ में अमरकोष और लघु कौमुदी आदि संस्कृत के ग्रन्थ याद कराये गये, यजुर्वेद की कुछ ऋचायें भी कंठस्थ कराई गई। प्रारम्भ से ही व्युत्पन्न बुद्धि होने के कारण थोड़े से ही समय में इन्होंने का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
          महर्षि दयानन्द के पिता प्राचीन विचारों के पोषक थे, वे शैव थे। परिवार में शिवजी की उपासना होती थी । बालक मूलशंकर की आयु लगभग १३ वर्ष की होगी । शिवरात्रि का महापर्व आया । शैव सम्प्रदाय वालों के लिये यह दिन विशेष महत्व का होता है। पारिवारिक प्रथा के अनुसार इन्होंने भी सारे दिन व्रत रक्खा और रात्रि को रात्रि जागरण किया, शिवलिंग के निकट बैठे-बैठे जप करते रहे, जैसे परिवार के अन्य व्यक्ति कर रहे थे । अर्धरात्रि के समय इन्होंने देखा कि एक चूहा आया और शिवलिंग पर आकर बैठ गया । वह कभी चढ़ता और कभी उतरता, कभी रक्खे हुये भोग को खाता । वह विचित्र विस्मय में पड़ गये, सोचने लगे कि शिव तो अत्यन्त शक्तिशाली हैं, सारे विश्व का सृजन और संहार करते हैं, क्या वे इस चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकते हैं ? उसी दिन से उन्हें मूर्ति पूजा के प्रति अनास्था हो गई, हृदय में विचार विद्रोह होने लगा । बात तो साधारण थी, परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टि में रखकर देखने से प्रतीत होता है कि इसका बड़ा महत्व था, क्योंकि जनता में अन्धविश्वास और अंधभक्ति थी । उनको युगों-युगों की विचारधारा के विरुद्ध एक शब्द भी कहना बड़ा कठिन था, साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं थी।
          इस घटना के दो वर्ष बाद इनकी बहिन की मृत्यु हो गई । बहिन की मृत्यु ने इनके हृदय में संसार के प्रति अरुचि उत्पन्न कर दी । इनकी दृष्टि के सामने सदैव संसार की अस्थिरता, नश्वरता और क्षणभंगुरता नृत्य करने लगी। अपने तर्कों के आधार पर संसार को प्रिय लगने वाली माया, वि॒ष प्रतीत हाने लगी। अपने पुत्र में संसार के प्रति बढ़ती हुई घृणा को देखकर पिता चिन्तित हो उठे और इन्हें विवाह के बन्धन में बाँधने का निश्चय कर लिया। एक दिन, घर में मंगल गीत हो रहे थे, बाजे बज रह थे, सभी लोग मूलशंकर के विवाह की खुशी मना रहे थे। आप रात्रि को घर से निकल भागे। पैदल चलते-चलते आप अहमदाबाद आए, फिर कुछ दिन तक बड़ौदा रहे । नर्मदा के किनारे अनेक विद्वान् साधु संन्यासियों की सत्संगति प्राप्त करते हुये आप ज्ञानार्जन में व्यस्त हो गये। उन्हें अधिकांश संन्यासी पाखण्डी और ढोंगी मिले । सन् १८६० में वह मथुरा पहुँचे। वहाँ स्वामी विरजानन्द जी से इनकी भेंट हुई, स्वामी जी नेत्रों से अन्धे थे, फिर भी इन्हें वेद, व्याकरण, ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा देने लगे। स्वामी विरजानन्द जी को भी देश में फैले हुये पाखण्डों के कारण बड़ा कष्ट होता था । दयानन्द की शिक्षा-दीक्षा समाप्त होने के पश्चात् उन्होंने आज्ञा दी कि तुम देश में वैदिक धर्म का प्रचार करो, जनता के हृदय पटल से अन्धकार को दूर करके वेदों की मर्यादा की रक्षा करो I
          गुरु की आज्ञानुसार वे वैदिक धर्म के प्रचार में लग गए। उनके पास उस समय न बाहुबल था, न धन-बल, न संस्था थी न सभा, केवल बुद्धि-बल था । उन दिनों हरिद्वार में कुम्भ का मेला हो रहा था । वहाँ जाकर उन्होंने ‘पाखण्ड-खण्डिनी पताका’ लगाकर जनता को धर्म के गूढ़ रहस्यों को बताया। कुम्भ में यद्यपि उनको विशेष सफलता नहीं मिली, परन्तु फिर भी धीरे-धीरे उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई। दयानन्द जी को शास्त्रों का अच्छा ज्ञान था, वे लोगों से शास्त्रार्थ करते थे। उन दिनों देश में शास्त्रार्थों का प्रचलन था। दो विभिन्न सिद्धान्तों के मानने वाले विद्वान् आपस में शास्त्रार्थ करते थे, जो विजयी हो जाता था, जनता उसकी बात मान लेती थी । दयानन्द अनेक शास्त्रार्थों में विजयी हुए। काशी, विद्वानों का गढ़ था, स्वामी दयानन्द जी के वहाँ पर भी कई’ शास्त्रार्थ हुए। दयानन्द जी की धूम सारे देश में मच गई ।
          वह समय सामाजिक चेतना का समय था और राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरुद्ध तथा विधवा विवाह के पक्ष में आन्दोलन कर रहे थे, दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्त्री शिक्षा के लिए प्रयत्नशील थे, स्वामी दयानन्द समाज की सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रयत्नशील थे । एक ओर उन्होंने अन्ध-विश्वास, पाखण्ड और मूर्ति पूजा का विरोध किया, दूसरी ओर छुआ-छूत और बाल विवाह को दूर करने तथा स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए आन्दोलन किये । सन् १८७५ में उन्होंने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की, आर्य समाज के सिद्धान्तों का देश में तेजी से प्रचार और प्रसार होने लगा ।
          देश के प्राय: सभी बड़े-बड़े नगरों में आर्य समाज मन्दिरों की स्थापना हो गई। आर्य समाज ने सर्वप्रथम स्त्रियों की अशिक्षा दूर करने की आवाज उठाई। स्वामी दयानन्द जी ने स्वयं गुजराती होते हुए अपने सिद्धान्तों का प्रचार हिन्दी भाषा में किया, इससे हिन्दी की वृद्धि हुई, पंजाब जैसा उर्दू भाषी प्रान्त भी हिन्दी में रुचि लेने लगा | हिन्दी भाषा इसके लिए सदैव दयानन्द जी की ऋणी रहेगी।
          भारतीय अपना स्वाभिमान खोते जा रहे थे । विदेशी सभ्यता, संस्कृति और शिक्षा प्राप्त करने में अपने को गौरवशाली समझते थे तथा अपनी भारतीय प्राचीन संस्कृति को क्षुद्र । दयानन्द जी ने वेदों और संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया, अपने पूर्वजों के प्रति महान् श्रद्धा और निष्ठा जागृत की । ईसाई पादरी अपने मत का प्रचार करने में संलग्न थे, उन्हें शासन द्वारा बल मिला हुआ था। दयानन्द जी ने उनके बढ़ते हुए प्रभावों को रोका, उन्हें मुँह तोड़ उत्तर दिए, शास्त्रार्थों में पराजित किया और वैदिक धर्म की महानता सिद्ध कर दी । इसी का विस्तृत विश्लेषण उनके ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” में है । दयानन्द जी के अथक प्रयासों से जनता विधर्मियों के बहकावे से बच गई। दयानन्द जी के धर्म प्रचार की यह विशेषता थी कि पढ़े-लिखे विद्वान लोग उनके धर्म से प्रभावित हुए। उन्होंने विद्वानों से टक्करें लीं, बुद्धि की कसौटी पर उनके विचार खरे उतरे। उनसे पूर्व भी अनेक धर्म-प्रचारक और समाज सुधारक हुए। उन्होंने पहले अशिक्षित जनता के हृदय को स्पर्श किया। इसके पश्चात् वे आगे बढ़े। परन्तु दयानन्द जी के आर्य समाज को पहले शिक्षितों ने अपनाया फिर अशिक्षितों ने, कहने का तात्पर्य यह है कि स्वामी जी के आर्य समाज और उन द्धान्तों का आधार बुद्धिवादी था। उन बातों को तर्क और व्यापार कसौटी पर कस कर देख लिया गया था। शिक्षा प्रसार में भी स्वामी दयानन्द ने अमूल्य योगदान दिया। आपने समस्त भारत में डी० ए० वी० हाई स्कूल स्थापित कराये ।
          स्वामी जी स्वतन्त्रता का मूल्य समझते थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि अपना बुरे से बुरा शासन भी अच्छा, और पराया, अच्छे से अच्छा शासन भी बुरा है। सामाजिक, नैतिक और धार्मिक उत्थान के पश्चात् वे राजनीतिक क्षेत्र में सुधार करना चाहते थे । उनकी इच्छा थी कि पहले देशी रियासतों के सभी राजाओं को संगठित किया जाये तब कोई आगे ठोस कदम उठाया जाए। यह पवित्र कार्य उन्होंने प्रारम्भ कर दिया था, परन्तु विधाता की इच्छा और ही थी, इन्हें संसार छोड़कर जाना पड़ा ।
          एक बार स्वामी जी को जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्तसिंह का निमन्त्रण प्राप्त हुआ। स्वामी जी गए, बड़ी श्रद्धा से स्वागत किया गया। दूसरे दिन नगर की जनता के समक्ष आपका भाषण हुआ। महाराजा कई बार स्वामी जी के दर्शनों के लिए आए । एक दिन राजा ने स्वामी जी को राजमहल में आमन्त्रित किया। राजा के पास वैश्या बैठी हुई थी। स्वामी जी को यह देखकर अत्यन्त खेद हुआ। उन्होंने कहा “हे राजन्! क्षत्रिय वीर कुमार को यह शोभा नहीं देता, वैश्या जगह-जगह पर भटकने वाली कुतिया के समान है।” इस प्रकार के अन्य तिरस्कारपूर्ण शब्द वैश्या की उपस्थिति में ही राजा से कहे। वैश्या को बहुत बुरा लगा। उसके हृदय में प्रतिशोध की अग्नि भड़क उठी तथा अपना रास्ता साफ करने को उसने रसोइया से मिलकर भोजन में विष मिलवा दिया। सारे शरीर में विष फैल गया, बहुत उपचार किये गये परन्तु स्वामी जी स्वस्थ न हुए, कुछ रोगों ने स्थायी रूप से अपनी जड़ जमा ली। महाराज जसवन्तसिंह उन्हें आबू पर्वत पर ले गये। बड़े-बड़े डाक्टरों को दिखाया गया पर कोई लाभ नहीं हुआ। महाराजा बहुत खिन्न हुए परन्तु स्वामी जी ने उन्हें लौटा दिया। अन्त में दीपावली के दिन आपने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा कि “आज कि है।” इतना कहकर वेद-मन्त्रों का पाठ करते हुए स्वामी जी ने अपना लोग अपने-अपने कर्त्तव्यों पर रहना, संसार में संयोग और है, तुम लोग अप मेरा संसार से प्रस्थान का दिन है, वियोग का होना स्वाभाविक नाशवान शरीर छोड़ दिया।
          हिन्दू जाति पर स्वामी जी के इतने उपकार हैं कि वह उनसे कभी उऋण नहीं हो सकती ।
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