समाजवाद और गाँधीवाद

समाजवाद और गाँधीवाद

          आज के विषमताओं से भरे युग में मानव सुखी है अथवा दुःखी ? आप यह प्रश्न किसी भी कोटि के व्यक्ति से करके देख लीजिए, उत्तर सभी का एक ही होगा कि आज का मानव परम दुःखी है, परन्तु जब आप इस दुःख का कारण पूछेंगे तब आप को विभिन्न रायें, सम्मतियाँ तथा आलोचनायें सुनने को मिलेंगी। वास्तव में, आज का मानव दुःखी है और इस दुःख का कारण है हमारे समाज का दोषपूर्ण संगठन । वैषम्य की अग्नि चारों ओर सुलग कर, धधकने की अवस्था में आ गई है। ऐसा प्रतीत होता हैं कि मानो समानता युगों के लिए कहीं किसी कोने में जाकर सो गई हो। उसी को मनाकर और जगाकर समाज में फिर से लाने के लिए अनेक विचारधारायें प्रस्तुत की जा रही हैं। आज मनुष्य को इन सामाजिक और आर्थिक विषमताओं ने इतना निरीह और निष्किचन कर दिया है कि कुछ नहीं कहा जा सकता। समाजवाद और गाँधीवाद ये भिन्न-भिन्न विचारधारायें भी मानव समाज को सुखी, सम्पन्न एवं समृद्ध बनाने के लिए अपना विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं ।
         आज के युग से पूर्व, लगभग दो शताब्दियों तक विश्व में पूँजीवाद का अखण्ड एवं अबाध साम्राज्य रहा। पूँजीवाद में कोई भी व्यक्ति असंख्य धन सम्पत्ति का स्वामी बन सकता है और मनुष्य उत्पादन के साधनों पर भी अपना व्यक्तिगत अधिकार रखता है। किसी व्यक्ति का इस प्रकृति प्रदत्त मातृभूमि पर अधिकार हो जाना और अपनी स्वेच्छा से एकाकी ही उसका उपभोग करना, एक के लिए कहाँ तक उपयुक्त है। प्रकृति की ओर से न इसका कोई मूल्य है और न कोई इसका स्वामी। इसी प्रकार, श्रम भी किसी एक व्यक्ति के ही अधिकार की वस्तु नहीं । श्रम सभी कर सकते हैं और करते हैं। दो व्यक्तियों के श्रम में इतना . अवनि और अम्बर का अन्तर नहीं हो सकता, जितना कि उसकी आय में देखा गया है। एक व्यक्ति जो न शारीरिक श्रम करता है और न अधिक मानसिक श्रम ही, परन्तु उसकी आय लाखों रुपये प्रतिमास होती है, जबकि एक श्रमिक प्राःत से सन्ध्या तक अनवरत लगे रहने पर भी अपने परिवार को न आवश्यक भोजन सामग्री ही जुटा सकता है और न कल की बीमारी के लिए पैसा अलग उठाकर रख सकता है। भूखे पेट रहकर वह अपने श्रम से दूसरों को उद्योगपति बना देता है पूँजीपति और पूँजीवाद के विरुद्ध महाकवि निराला का मानस और लेखिनी भी विद्रोह भरे स्वर में बोल उठी–
अबे सुनबे गुलाब | 
भूल मत गर पाई खुशबू रंगों- आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट | 
         इस भयानक आर्थिक विषमता के दो कारण हैं— प्रथम तो पूँजी है, जिसके द्वारा एक पूँजीपति नवीन उद्योगों को प्रारम्भ करके नई सम्पत्ति उत्पन्न करता है । यह वह शक्ति है, जो बेचारे श्रमिक के लिए दुर्लभ होती है और जिसके माध्यम से एक पूँजीपति बैठा-बैठा मानवता का नग्न दृश्य देखा करता है। इसी प्रकार दूसरा कारण है— पूँजीपति द्वारा जोखिम लेकर किसी नवीन उद्योग का श्रीगणेश करना, जिसे हम नवारम्भ कहते हैं । इसी जोखिम को उठाने के कारण वह उसके लाभ का पूर्ण अधिकारी बन बैठता है। यह तो निश्चय है कि पूँजीवाद ने व्यावसायिक क्षेत्र में एक नवीन क्रांति उत्पन्न कर दी है, उत्पादन को अधिक बढ़ाया, मशीनों और कल-कारखानों की आशातीत वृद्धि हुई, परन्तु मानवता शनैः शनैः ह्रास की ओर बढ़ती गई । जब मानव के सभी कार्य मशीनों ने ले लिए तब वह अकर्मण्य होता गया और उसकी कार्य क्षमता एवम् कार्यकुशलता नष्ट होती गई । जिस प्रकार मशीनें खरीदी जाती थीं। उसी प्रकार मजदूरों की मजदूरी भी खरीदी जाने लगी है । एक रुपया या सवा रुपया उसका मूल्य निर्धारित कर दिया गया । लाभ का बहुत बड़ा भाग ‘उद्योगपति की जेब में जाने लगा और उनकी सफलता का आधार स्तम्भ्र वह श्रमिक रात्रि को भूखे पेट सोने लगा। शनैः शनैः पूँजीपति और श्रमिक के बीच एक भयानक खाई बन गई और बढ़ती रही । जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था उत्तरोत्तर विकसित होती गई, वैसे-वैसे श्रमिक, निर्धन, अकिंचन और दरिद्र होता गया। एक ओर विद्युत प्रकाशपूर्ण अभ्रंकष प्रासाद थे, तो दूसरी ओर दुर्गन्धपूर्ण टूटी फँस, की झोपडियाँ। एक ओर भौतिकता एवं विलासिता का नग्न नृत्य था, तो दूसरी ओर दरिद्रता का ताण्डव नृत्य ।
         किसी भी वस्तु के अधिक उत्थान के पश्चात् उसका पतन अवश्यम्भावी होता है। पूँजीवाद की प्रतिक्रिया के रूप में समाजवाद का जन्म हुआ। समाजवाद ने मानव के आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। मनुष्य ही मनुष्य का शोषण करे, इससे बढ़कर और लज्जा की क्या बात हो सकती है। जहाँ कि पूँजीवाद आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को इच्छानुसार कार्य करने, इच्छानुसार श्रमिक को पारिश्रमिक देने और इच्छानुसार उसके शोषण को वैध घोषित करता है, वहाँ साम्यवादी विचारकों ने इस भयंकर आर्थिक वैषम्य और आर्थिक क्षेत्र में स्वेच्छाचारिता का घोर विरोध किया । समाजवाद के अनुसार, उत्पादनों के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त करके राज्य के समस्त निवासियों का सम्मिलित स्वामित्व होना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति को उसकी उत्पादन क्षमता के अनुसार जीविकोपार्जन के लिए श्रम का अवसर दिया जाना चाहिए और उस श्रम के बदले में उसे अपनी पारिवारिक समस्त आवश्यकताओं के लिए वेतन रूप में या वस्तु रूप में सभी वस्तुयें प्राप्त होनी चाहियें। समाजवाद के अनुसार, किसी भी बड़े व्यवसाय का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं है। सभी वस्तुओं का उत्पादन उतना ही होना चाहिए जितना कि आवश्यक है। इसीलिए समाजवाद शासन-व्यवस्था में न अधिक उत्पादन सम्भव होता है और न अधिक पूँजीकरण । इस प्रकार की शासन प्रणाली में शोषित और शोषण का प्रश्न ही नहीं उठ पाता । समाजवाद शासन प्रणाली में अकर्मण्य,निरुद्योगी और पराश्रित जीवन निर्वाह करने वालों का नितान्त अभाव होता है। सभी श्रम करते हैं और सभी समाजवादी विचारकों का विश्वास है कि पूँजीपतियों, और श्रमिकों के संघर्ष में, अन्त में श्रमिक वर्ग ही विजयी होगा ।
         समाजवाद समस्त विश्व को शोषक और शोषित, इन दो रूपों में विभाजित करता है। वह राज्य की परिधियों में विश्वास नहीं रखता। समाजवाद विश्व के समस्त शोषितों को एक ध्वज के नीचे संगठित देखना चाहता है, जिसे कि शोषक वर्ग सदैव-सदैव के लिए इस पृथ्वी से समाप्त हो जाए और इस प्रकार एक नवीन वर्गहीन समाजवाद की स्थापना हो । यही कारण है कि आज के पूँजीवादी देश समाजवाद की बढ़ती हुई भावनाओं को रोकने में सचेष्ट हैं और सदैव समाजवाद अथवा साम्यवादी देशों से आतंकित एवं भयभीत रहते हैं।
         भारतीय समाजवाद को गाँधीवाद की संज्ञा दी जाती है, परन्तु वास्तव में, देखा जाए तो समाजवाद और गाँधीवाद में बहुत कुछ समानता होते हुए भी थोड़ा बहुत मूलभूत अन्तर है। जिस प्रकार, समाजवाद समाज में समानता एवं श्रमिकों का सुख और शांति प्राप्त कराना चाहता है, वैसा ही गाँधी जी को भी समस्त जनता का श्रेय अभीष्ट था और इसलिए सर्वोदय समाज की स्थापना भी की गई थी। गाँधीवाद की प्रमुख विशेषता यह है कि वह अर्थशास्त्र और राजनीति को धर्म के साथ आबद्ध देखना चाहता है। गाँधीवाद जीवन के भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पक्षों को लेकर चलता हैं । समाजवाद जहाँ व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति पर बल देता है, वहाँ • गाँधीवाद जीवन की आवश्यकताओं को कम करने पर भी बल देता है क्योंकि मानव की इच्छायें तो अनन्त हैं यदि उन्हें न रोका जाये तो उनकी पूर्ति सर्वथा असम्भव है। यदि हम उत्पादन शक्ति में वृद्धि करते जायें तो हमारा अभीप्सित सुख और शांति सुदैव आकाशपुष्प ही बने रहेंगे। इस प्रकार गाँधीवाद आवश्यकताओं को कम करने के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर अधिक बल देता है। समाजवाद उत्पादन के लिए मशीनों की आवश्यकता समझता है। उसका तर्क है कि मशीनों से थोड़े समय में अधिक और अच्छी वस्तु का उत्पादन हो सकता है जिससे रिक्त समय में श्रमिक अपना आनन्द-विनोद तथा अध्ययन अध्यापन कर सकते हैं। गाँधीवाद छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों का समर्थन करता है। गाँधीवादी विचारकों का विचार है कि मशीनों का लेने से मानव अकर्मण्य बन जाता है तथा उसमें आत्मनिर्भरता जैसी भावनायें लुप्त हो जाती हैं। दूसरी बात यह है कि जब मशीनों द्वारा अधिक उत्पादन होने लगता है तो उसको खपाने के लिए बाजारों की आवश्यकता होती है और शनैः शनैः पूँजीवादी व्यवस्था की भाँति साम्राज्य बनाने की आवश्यकता भी उपस्थित होने लगती है। अतः मनुष्य को धीरे-धीरे अपनी आवश्यकतायें कम करते जाना चाहिए, जिससे कि उसकी आवश्यक आवश्यकतायें कुटीर उद्योग से ही सरलता से पूर्ण हो सकें। गाँधीवाद और समाजवाद में प्रमुख अंतर यह भी है कि गाँधीवाद सत्य और अहिंसा के पवित्र सिद्धांतों पर आधारित है। गाँधी जी मनुष्य का हृदय जीतने में विश्वास रखते थे। प्रेम और अहिंसा द्वारा किया हृदय परिवर्तन अधिक चिरस्थायी होता है, अपेक्षाकृत बल और शक्ति के गाँधीवाद अन्याय और शोषण की समाप्ति शांतिपूर्ण अहिंसात्मक उपायों द्वारा ही करना चाहता है, जबकि समाजवादी या साम्यवादी यह विश्वास रखते हैं। कि इस प्रकार के शोषण संस्थानों को शांतिपूर्ण प्रयासों से नष्ट नहीं किया जा सकता।
         अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यद्यपि दोनों विचारधाराओं का लक्ष्य बिन्दु एक ही है, फिर भी, साध्य समान होते हुए भी साधनों की वरिष्ठता में पर्याप्त अन्तर है। गाँधीवाद चाहता है कि श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति श्रेष्ठ साधन से हो, जबकि समाजवादी या साम्यवादी किसी भी साधन का उपयोग अनुचित नहीं समझते । निःसन्देह भारतवर्ष में गाँधीवाद ही सफल हो सकता है। क्योंकि यह भूमि त्याग, तपस्या और साधनाओं की ऋषि-महर्षियों की भूमि है।
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