“सबै दिन जात न एक समान” अथवा परिवर्तन

“सबै दिन जात न एक समान” अथवा परिवर्तन

खाध इधर जन्म लोचन 
मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण,
अभी उत्सव औ, हास- हुलास 
अभी अवसाद, अश्रु, उच्छ्वास ! 
          संसार परिवर्तनशील है। इसके कण-कण में प्रत्येक क्षण परिवर्तन का चक्र चला करता है। कुछ परिवर्तन स्थल होते हैं, जिन्हें हम नित्य देख सकते हैं और कुछ सूक्ष्म होते हैं, जिन्हें हम नहीं देख सकते | मेज पर रक्खे हुए फूलदान के फूल आज ताजे थे और जब वे सूख जाएँगे तब हमें स्पष्ट परिवर्तन दीख जायेगा, परन्तु फूलदान वाली मेज में भी नित्य परिवर्तन हो रहा है, इसे हम नित्य अनुभव नहीं करते। कहने का तात्पर्य यह है कि क्षणभंगुर संसार की प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जड़ हो या चेतन, परिवर्तनशील है। कल तक जहाँ भयानक वन थे, आज उन्हीं स्थानों पर सुन्दर-सुन्दर भवन, विद्युत प्रकाश से जगमगाती गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ दृष्टिगोचर होती हैं और जहाँ जनख से परिपूर्ण सुन्दर नगर थे, वहाँ कोसों तक दीपक का प्रकाश भी दिखाई नहीं पड़ता।. कुल तक जिन वृक्षों पर हरे-भरे फल और फूल आते थे आज वे स्थाणु बने हुए अरण्यरोदन कर रहे हैं। कल तक जो बच्चे थे, जिन्हें पाठ याद न होने पर कक्षा में खड़ा कर दिया जाता था, इतना ही नहीं कभी-कभी पीट भी दिया जाता था आज हम उनको सफेद बालों से घिरे हुए चेहरे, और चार-चार, छह-छह, बच्चों के पिता के रूप में देखते हैं, तो संसार के तीव्र परिवर्तन चक्र पर आश्चर्य होता । आज उनकी आकृति पर न वह तेज है और न शरीर में वह स्फूर्ति, न वह पुरातन उच्छृंखलता है और न उद्दण्डता ।
जरा आज बचपन का कोमल गात 
जरा सा पीला पात 
चार दिन सुखद चाँदनी रात
फिर अंधकार अज्ञात ।
          ध्वंसावशेष मन्दिरों, मस्जिदों को जिनमें इस समय वन्य पक्षियों ने अपने आवास बना रक्खे “सबै दिन जात न एक समान” हैं जब कभी देखता हूँ तो तुरन्त उनका निर्माण काल और निर्माता की भक्ति और श्रद्धा नेत्रों के आगे नृत्य करने लगती है कि इनमें भी कभी शंख ध्वनि, घण्टा वादन और दीपदान होता होगा और नमाज पढ़ी जाती होगी, परन्तु आज इन्हें कोई झाँक कर देखने वाला तक नहीं। कल की सधवा को आज विधवा बनते देर नहीं लगती। कल का राजा आज देखते-देखते भिखारी बन जाता है । इस परिवर्तन का ही नाम संसार है । यदि संसार मे एक ही रास्ता हो तो मानव ऊब उठे । मनुष्य के सामने कभी सुख आते हैं, तो कभी दुःख, कभी निराशा का पूर्ण साम्राज्य होता है, तो कभी आशा की सुन्दर झलक । सुख-दुःख की धूप एवं छाया में संसार उठता बैठता है। सुख-दुःख दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं । जिस प्रकार नमकीन खाने के बाद मिठाई अच्छी लगती है और रात के बाद ऊषा की लालिमा नवस्फूर्ति प्रदान करती है, उसी प्रकार दुःख के बाद सुख अच्छा लगता है। किसी के दिन एक से नहीं रहते अन्यथा मानव अपने को किसी दिन समाप्त कर ले । उसे यही आशा रहती है कि –
“जब नीके दिन आइ हैं, बनत न लागिहै देर ।”
           रथ के चक्र के समान सुख-दुःख दोनों ऊपर नीचे आते रहते हैं, कभी सुख है तो कभी दुःख । इसलिए कहा गया है—
“चक्रवत् परिवर्तन्ते, दुःखानि च सुखानि च ।”
          यही आशा की किरण मानव को जीवन से निराश नहीं होने देती, वह जानता है कि कटा हुआ वृक्ष भी एक बार फिर हरा-भरा होकर भूले भटके पथिकों को अपनी सघन छाया प्रदान करेगा। क्षीण हुआ चन्द्रमा भी धीरे-धीरे बढ़ता है। इसीलिए कहा गया है –
“छिन्नोऽपि रोहतितरूः क्षीणोऽत्र्युपचीयते पुनश्चंद्रः ।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपया ।”
           अगर सभी दिन एक से ही बीतें तो मानव का जीवन आकर्षणहीन बन जाए । प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त की ये पंक्तियाँ कितनी सुन्दर हैं –
“मैं नहीं चाहता चिर सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुःख ।
सुख दुःख की आँख मिचोनी, खोले जीवन अपना मुख ।”
          और फिर वे इस परिवर्तन चक्र की तीव्रता को देखकर सहसा कह उठते हैं—
“आह रे, निष्ठुर परिवर्तन !
 एक सौ वर्ष, नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन-वन
 यही तो है संसार असार, सृजन, सिंचन, संहार !”
           संसार की परिवर्तनशीलता पर अस्थिरता और प्रसाद जी का एक व्यंग्य चित्र देखिये –
“सुख दुःख में उठता गिरता, संसार तिरोहित होगा ।
मुड़ कर न कभी देखेगा, किसका हित अनहित होगा।”
          इस परिवर्तन की महिमा का कहाँ तक वर्णन किया जाये। एक दिन भारत विश्व-गुरु था, इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। ह्वेनसांग और मेगस्थनीज आदि विदेशी यात्रियों ने अतीत भारत की सुसम्पन्नता का बहुत सुन्दर चित्र उपस्थित किया था। देश में पूर्ण राम-राज्य था। गोस्वामी जी के शब्दों में –
“नहि दरिद्र कोउ दुखी न हीना। नहि कोउ अबुध न लच्छन हीना।”
          परन्तु आज वह भारत न सोने की चिड़िया है और न विश्व-गुरु । कितना भयंकर परिवर्तन है देश की स्थिति में। समय की क्रूरता बड़े-बड़े पुरुषों को नत कर देती है। इसी का नाम तो परिवर्तन है। सत्यवादी हरिश्चन्द्र का डोम के घर दास बनना, भगवान् राम को चौदह वर्ष का अरण्यवास, नल और दमयन्ती का जंगलों में मारे-मारे फिरना, सीता का गर्भावस्था में गृह परित्याग आदि सभी घटनाएँ परिवर्तन की निष्ठुरता की याद दिलाती हैं।
          यह परिवर्तन प्रकृति में सदा गतिशील रहता है। आज बसन्त की हरीतिमा है, पुष्पों में विकास है, भ्रमरों का मधुर गुंजन है तो पतझड़ का रौद्र रूप प्रकृति के समस्त यौवनपूर्ण वैभव को विनष्ट करता हुआ वीरान बना देता है। परन्तु वहाँ भी भ्रमर के हृदय में आशा की धुंधली किरण अपना प्रकाश किए रहती है। पतझड़ का रौद्रता भ्रमर को निराश नहीं बना पाती, वह जानता है कि मुझे दुःख के बाद सुख अवश्य मिलेगा, इसीलिए –
“इहहि आस अटक्यो रौ, अलि गुलाब के मूल ।
अइहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारनि ये फूल ।”
          नित्य के जीवन में हम देखते हैं कि कोई मनुष्य यदि कल धनवान् था, तो आज वह निर्धन है, यदि कल वह उन्नति के शिखर पर चढ़ रहा था, तो आज अवनति के गर्त में पड़ा हुआ है। कल यदि किसी का उत्कर्ष काल था तो आज उसका अपकर्ष काल है । महान् से महान् वैभवशाली राष्ट्र जो उन्नति के शिखर पर थे, वही समय के परिवर्तन के साथ धराशयी हो गये । विश्व की कितनी सभ्यताओं ने अपने वैभव पर गर्व किया, परन्तु समय के प्रवाह में आज उनका नाम भी सुनाई नहीं परता है।
किसी को सोने के सुख साज 
मिल गया यदि ऋण भी कुछ आज, 
चुका लेता दुःख कल ही ब्याज
काल को नहीं किसी की लाज । 
××××× × × × × 
विपुल मणि रत्नों का छवि जाल,
इन्द्र धनुष की सी छटा विशाल । 
विभव की विद्युत ज्वाल,
चमक, छिप जाती है तत्काल । 
          यही उत्थान और पतन का क्रम सृष्टि में अनवरत रूप से चलता रहता है। इसीलिये कहा गया है कि “सबै दिन जात न एक समान । ” परन्तु अब प्रश्न यह है कि क्या इस परिवर्तन से मनुष्य को अपना साहस, धैर्य और शान्ति खो देनी चाहिये? कभी नहीं। उसे दृढ़ता के साथ विपत्तियों से संघर्ष करना चाहिये । धैर्यशाली व्यक्ति दुःख को भी सुख कह सकता है। मनुष्य को सम्पत्ति और विपत्ति में समान रहना चाहिये जैसे सूर्य जब उदय होते हैं, तब उनकी आभा लाल होती है, और जब अस्त होते हैं, तब भी उनकी लालिमा में कोई अन्तर नहीं आता। कहा भी है—
“उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।” 
          गीता में भगवान कृष्ण ने भी यही उपदेश दिया है–
“सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
भरुयर्पितमनोबुद्धिर्भत्ति मान्यः स में प्रियः ।”
          अर्थात् सुख-दुःख में लाभ-हानि में, जय-पराजय में समान भाव रहते हुए अपना मन और बुद्धि मेरे अर्पण कर देने वाला भक्त मुझे प्रिय है। कहने का तात्पर्य यह है कि भयानक से भयानक विपत्ति में भी मनुष्य को हतोत्साहित और बड़े से बड़े सुख में भी अधिक प्रसन्न नहीं होना चाहिये यह तो समय है—आता है और चला जाता है। अंग्रेजी में कहावत है—“It comes to go.”
समय की शिला पर मधुर लेख कितने, किसी ने बनाए किसी ने मिटाए।
          परन्तु अन्त में पन्त जी के शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है –
अहे निष्ठुर परिवर्तन ! 
तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन
विश्व का तरुण विवर्तन
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन 
निखिल उत्थान पतन ।
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