“सदाचार का महत्त्व” अथवा “सच्चरित्रता” अथवा ” चरित्र की महत्ता “

“सदाचार का महत्त्व” अथवा “सच्चरित्रता” अथवा ” चरित्र की महत्ता “

“लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी,  धर्म  रक्षक  वीर व्रतधारी बनें ॥” 
          एक समय  था जब प्रातःकाल होते ही विद्यार्थी अपने-अपने सरस्वती मन्दिरों में उपर्युक्त ईश-वन्दना की पंक्तियों के गान के पश्चात अपना-अपना अध्ययन आरम्भ करते थे। हम सदाचारी होंगे, तभी हम ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं, धर्म-रक्षक बन सकते हैं और वीरों का व्रत धारण करने में समर्थ हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवन के समस्त गुणों, ऐश्वर्यो, समृद्धियों और वैभवों की आधारशिला सदाचार है, सच्चरित्रता है। यदि हम सच्चरित्र हैं, तो संसार की समस्त विभूतियाँ, बल, बुद्धि, वैभव हमारे चरणों में लेटने लगती हैं और यदि हमारा जीवन दुश्चरित्रता और दुराचारों का घर है, तो हम समाज में निन्दा और तिरस्कार के पात्र बन जाते हैं। अपने बल, बुद्धि और वैभव को हम अपने ही हाथों से खो बैठते हैं। चरित्रहीन व्यक्ति स्वयं अपने को, अपने परिवार को और अपने समाज को, जिसका कि वह सदस्य है, गड्ढे में गिरा देता है। दुष्चरित्र मुनष्य अपने समाज के लिये अभिशाप सिद्ध होता है, जबकि सच्चरित्र वरदान। दुष्चरित्र अपने कुकर्मों और कुकृत्यों से नारकीय जीवन की सृष्टि करता है, जबकि सच्चरित्र के लिए स्वर्ग के द्वार सदैव खुले रहते हैं। दुष्चरित्र का जीवन अन्धकारपूर्ण होता है, जबकि सच्चरित्र ज्ञान के प्रकाश के उज्ज्वल वातावरण में विचरण करता है। वैदिक मन्त्रों में हमारे ऋषियों ने इसलिए भगवान से प्रार्थना की है  कि –
“असतो मा सद्-गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय । ” 
          अर्थात् हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से मुझे प्रकाश की ओर ले चलो। असत्य और अन्धकार – इनका सम्बन्ध मनुष्य की चरित्रहीनता अर्थात् असत्य मार्ग ही है। सच्चरित्र अपने शुभ कर्मों से इसी भूमि पर स्वर्ग का निर्माण करता है, परन्तु चरित्रहीनदुष्टात्मा व्यक्ति अपने कुकृत्यों से इस पवित्र धराधाम को नरक बना देता है । मैथिलीशरण गुप्त तो सदाचार को ही स्वर्ग और दुराचार को नरक मानते हैं। देखिए –
खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है, 
भलों के लिये तो यही स्वर्ग है।
सुनो स्वर्ग क्या है ? सदाचार है। मनुष्यत्व की मुक्ति का द्वार है ।।
नहीं स्वर्ग कोई धरावर्ग है, 
जहाँ स्वर्ग का भाव है, स्वर्ग है।
सदाचार ही गौरवागार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।
          सच्चरित्र बनने के लिए मनुष्य को सुशिक्षा, सत्संगति और स्वानुभव की आवश्यकता होती है। वैसे तो अशिक्षित व्यक्ति भी संगति और अनुभवों के आधार पर अच्छे चरित्र के देखे गए हैं, परन्तु बुद्धि का परिष्कार और विकास बिना शिक्षा के नहीं होता। मनुष्य को अच्छे और बुरे की पहचान ज्ञान और शिक्षा के द्वारा ही होती है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि के कपाट खुल जाते हैं। अतः सच्चरित्र बनने के लिए अच्छी शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है। अच्छी शिक्षा के साथ-साथ मनुष्य को सत्संगति भी प्राप्त होनी चाहिए। देखा गया है कि शिक्षित व्यक्ति भी बड़े-बड़े कुमार्गगामी और दुराचारी होते हैं। इसका केवल यह एक कारण है कि उन्हें अच्छी संगति प्राप्त नहीं हो सकी। बुरी संगति के प्रभाव ने उनकी शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव को भी समाप्त कर दिया। क्योंकि कहा गया कि –
“संसर्गजा: दोषगुणा भवन्ति ।”
          अर्थात् दोष और गुण संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। मुनष्य जैसे व्यक्तियों में बैठेगा-उठेगा, उनकी विचारधारा, व्यसनों, वासनाओं और अच्छे-बुरे कर्मों का प्रभाव उस पर अवश्य पड़ेगा। अतः सच्चरित्र बनने के लिए शिक्षा से भी अधिक आवश्यकता अच्छी संगति की है। सत्संगति नीच से नीच मनुष्य को उत्तम बना देती है । गोस्वामी जी लिखते हैं
“सठ सुधरहिं सत्संगति पाई । पारस परस कुधातु सुहाई | ” 
          पारस पत्थर का स्पर्श करते ही लोहा भी सोना बन जाता है। इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं । ” कीटोऽपि सुमनः संगत् आरोहति सत्तां शिरा” अर्थात् साधारण कीड़ा भी फूलों की संगति से बड़े-बड़े देवताओं और महापुरुषों के मस्तक पर चढ़ जाता है सत्संगति मानव का क्या-क्या हित साधन नहीं करती – ।
“सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम् ।”
          स्वानुभव भी मनुष्य को सच्चरित्र बनने में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। जब बच्चे की उंगली एक बार आग से जल जाती है, तब वह दुबारा आग पर उंगली नहीं रखता। चोर जब चोरी करते हुए पकड़ लिया जाता है तो पुलिस की रोमांचकारी एवं भयानक मार पड़ती है, तब कच्चे चोर चोरी करना भी छोड़ देते हैं । झूठ बोलने या कोई दुष्कर्म करने पर जब विद्यार्थी पर अध्यापक या माता-पिता के हाथ पड़ जाते हैं, तब वह भविष्य में सहसा वैसा नहीं करता । उसे अनुभव हुआ कि ऐसा करने से मुझे यह फल मिला, क्योंकि वह बुरी बात है, इसलिये मैं इसे भविष्य में नहीं करूंगा। इस प्रकार, व्यक्तिगत अनुभव भी मनुष्य को सच्चरित्रता की ओर ले जाते हैं। चौथी बात जो मानव को सच्चरित्र बनाती है, वह है अपनी आत्मा की पुकार । जीवन में सदाचारिता लाने के लिए हमें अपने पूर्वजों के आदर्श चरित्रों को पढ़ना चाहिए, उन पर विचार करना चाहिए और पद चिन्हों पर चलने का प्रयत्न करना चाहिए। सच्चरित्र बनने के लिए जितेन्द्रियता भी अत्यन्त आवश्यक है। यदि हमारी इन्द्रियाँ हमारे वश में हैं, तो कोई भी अनुचित और अशोभनीय कर्म हम कर ही नहीं सकते । यह बात पूर्णतया सही है।
          सच्चरित्रता से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं, क्योंकि सच्चरित्रता किसी विशेष गुण का बोधक शब्द नहीं है। अनेक गुण जैसे— सत्य भाषण, उदारता, विशिष्टता, विनम्रता, सुशीलता, सहानुभूतिपरता, आदि जिस व्यक्ति में होते हैं; वह व्यक्ति सच्चरित्र कहलाता है। उस व्यक्ति की समाज प्रतिष्ठा करता है, उसे आदर और सम्मान का स्थान दिया जाता है, इस लोक में कीर्ति का पात्र बनता हुआ अंत में स्वर्ग को प्राप्त करता है। सच्चरित्रता से मनुष्य अपनी आत्मा का संस्कार कर लेता है। उसके पवित्र विचार, उसकी महान् भावनायें, उसके दृढ़ संकल्प, सदैव दिव्य लोकांतर में विचरण करते हैं। सच्चरित्रता से मनुष्य सुख और संतोष प्राप्त करता है, शांतिमय जीवन व्यतीत करता है। लोग उसके आदर्श चरित्र पर चलकर अपना जीवन सफल बनाते हैं। वह अपने आदर्श चरित्र से समाज का कालुष्य दूर कर देता है । सच्चरित्रता से मनुष्य में शूरता, वीरता, धीरता और निर्भयता और अन्य गुण स्वतः ही आ जाते हैं। उसके अदम्य साहस के सामने कोई भी शत्रु ठहर नहीं सकता। सच्चरित्रता से मनुष्य को सुन्दर स्वास्थ्य और परिष्कृत बुद्धि प्राप्त होती है, जिसके द्वारा वह कठिन से कठिन कार्यों को सरलता से पूर्ण कर लेता है। सदाचार और सच्चरित्रता के अभाव में मनुष्य दर-दर की ठोकर खाता है और पशुओं के समान जीवन व्यतीत करता है। अंग्रेजी की एक कहावत का भाव है कि “अगर मनुष्य का धन नष्ट हो गया तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ और यदि उसका चरित्र नष्ट हो गया, तो उसका सब कुछ नष्ट हो गया ।” शुद्धाचरण से मनुष्य को धन भी प्राप्त होता है, अच्छी सन्तान भी प्राप्त होती है और वह दीर्घजीवी होता है | एक है श्लोक में कहा गया है –
” आचाराल्लभते आयु: आचारादीप्सिताः प्रजाः ।
आचाराल्लभते ख्याति, आचाराल्लभते धनम् ॥
          आदर्श महापुरुष राम की सच्चरित्रता आज किससे छिपी है। भारत के लाखों नर-नारी आज भी उनके पवित्र चरित्र से अपने जीवन को उज्ज्वल बनाते हैं। भरत के चरित्र की महानतायें आज भी भरत के त्याग, बलिदान एवं भ्रातृप्रेम का प्रतीक बनी हुई हैं। शिवाजी और महाराणा प्रताप की चारित्रिक विशेषताओं पर आज भी हिन्दू जाति गर्व का अनुभव करती है । लोकमान्य तिलक और मदनमोहन मालवीय आज भी भारतीय जनता के कण्ठहार बने हुये हैं। महात्मा गाँधी भी अपने चरित्र के कारण ही एक साधारण व्यक्तित्व से उठकर आज के युग के महापुरुष माने जाते हैं। सुभाषचन्द्र बोस की रोमांचकारी कहानी को कौन नहीं जानता, जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भारत माता की दासता की शृंखलाओं को छिन्न-भिन्न करने का बीड़ा उठाया, विदेशों में रहकर भारत माता की सेवा के लिए आजाद हिन्द फौज का निर्माण किया और घोषणा की कि “भारतीयो! तुम मुझे अपना खून दो, मैं तुम्हें तुम्हारी खोई हुई स्वतन्त्रता दूंगा।’ भारतवर्ष का इतिहास ऐसे ही अनेक चरित्रवान् महापुरुषों भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने चरित्र से अपना तथा अपने देश का उत्थान किया। राजस्थान की क्षत्राणियाँ अपने पवित्र चरित्र की रक्षा के लिये ही ‘जौहर’ का व्रत पालन किया करती थीं । चित्तौड़ का कण-कण आज अपने कीर्तिमान से मुखरित हो रहा है
          चरित्रवान् बनना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। चरित्र से मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा पाता है । अपनी आत्मा का कल्याण करता हुआ देश और समाज का भी कल्याण करता है । सच्चरित्रता सुख और समृद्धि का सोपान है। सच्चरित्रता के अभाव में आज देश के समक्ष अनेक भयानक समस्यायें हैं। सबसे बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण समस्या है, अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करना । जो देशवासी चरित्र भ्रष्ट हैं, वे निःसन्देह, देश की रक्षा या देश का अभ्युत्थान नहीं कर सकते । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है –
          ” चरित्र-बल हमारी प्रधान समस्या है। हमारे महान् नेता महात्मा गाँधी ने कूटनीति चातुर्य को बड़ा नहीं समझा, बुद्धि विकास को बड़ा नहीं माना, चरित्र -बल को ही महत्त्व दिया है। आज हमें सबसे अधिक इसी बात को सोचना है। यह चरित्र – बल भी केवल एक ही व्यक्ति का नहीं, समूचे देश का होना चाहिये ।”
          अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम सभी देशवासी सच्चरित्र बनें, विशेष रूप से विद्यार्थियों को तो सच्चरित्र होना ही चाहिए, क्योंकि देश के भावी कर्णधार वे ही हैं, उन्हें ही देश का भार अपने कन्धों पर रखना है, अतः प्राणपण से अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि—
“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा “श्रम की महत्ता”
“वृत्तं यलेन संरक्षेत् वित्तमायाति याति च ।
अक्षीणो विततः क्षीणः वृत्ततस्तु हतो हतः ॥” 
          अर्थात् चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है, से क्षीण हुआ मनुष्य क्षीण नहीं कहा जाता, परन्तु जिस मनुष्य का चरित्र नष्ट हो जाता है, वह तो नष्ट है ही।
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