श्रीमती इन्दिरा गाँधी का महान् व्यक्तित्व

श्रीमती इन्दिरा गाँधी का महान् व्यक्तित्व

          इस महान् राष्ट्र का प्रत्येक अंचल और उसका कण-कण कराह उठा अपने राष्ट्र-पुरुष अपने हृदय की अमूल्य निधि पं० नेहरू के महानिर्वाण के हृदय विदारक सन्देश को सुनकर | देश के आबाल-वृद्ध नर-नारियाँ सिसकियाँ भरते और गहरी आह भर कर एक-दूसरे की ओर देखकर धीरे से कहते “अब क्या होगा इस विशाल देश का ?”
          “पंडित जी की पवित्र आत्मा हमारा पथ-प्रदर्शन करेंगी”, कहकर जनता ने अपने आँसू धीरे से पोंछकर देश की बागडोर पण्डित जी के भोले अनुयायी श्री लाल बहादुर जी के हाथों में थमा दी। अकाल और भुखमरी की आँखें युद्ध की गर्जना से कुछ क्षणों के लिए दब-सी गयीं। पण्डित जी की आत्मा अपने देशवासियों की दरिद्रावस्था से दुःखी होकर किसी कोने में फिर भी कराह उठती थी । दैव के क्रूर हाथ आगे बढ़े और शास्त्री जी को भी देशवासियों के बीच से सहसा उठा लिया ।
          “पण्डित जी के जीवन-काल में विदेशों के कूटनीतिज्ञ एवं संवाददाता उनसे प्रायः पूछ बैठते “आपके बाद कौन” ? पं० जी मौन होकर मुस्करा भर देते। आज उसी प्रश्न का उत्तर उनकी साकार आत्मा इन्दिरा जी के रूप में हमारे सामने है। यह उस युग पुरुष की दूरदर्शिता एवं सूक्ष्म सूझ-बूझ का ही परिणाम है।
          इन्दिरा जी का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जबकि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अपने पूर्ण यौवन के साथ भारत में चमक रहा था । देश-भक्ति की बातें करना देश द्रोह समझा जाता था, फिर भी भारत माँ के सपूत स्वतन्त्रता के संघर्ष में तन, मन, धन से लगे हुए थे । इलाहाबाद में पं० जवाहरलाल जी के पिता पं० मोतीलाल नेहरू जी का निवास स्थान ‘आनन्द भवन’ इन बातों का मुख्य अड्डा था। आनन्द भवन को पुलिस घेरे रहती थी । आये दिन धर-पकड़ मची रहती थी । आनन्द भवन के इसी उन्मुक्त वातावरण में इन्दिरा जी का जन्म १९ नवम्बर, १९१७ को हुआ था । जन्म के समय श्रीमती सरोजिनी नायडू ने एक तार भेजकर कहा था — ‘वह भारत की नई आत्मा है’ पं० नेहरू कारागार में बन्द कर दिये जाते और यदि बाहर रहते तब भी कांग्रेस और आजादी के कामों में दिन और रात व्यस्त रहते, परन्तु वे सदैव योग्य पिता के समान अपनी पुत्री के लालन-पालन पर पूरा-पूरा ध्यान देते । इन्दिरा प्रियदर्शिनी की आरम्भिक शिक्षा स्विट्जरलैंड में हुई। इसके पश्चात् वे अपने अध्ययन के लिए शान्ति निकेतन में आ गयीं। शान्ति-निकेतन से इन्दिरा जी के विदा होते समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नेहरू जी को पत्र में लिखा था – “हमने भारी मन से इन्दिरा को विदा किया है। वह इस स्थान की शोभा थी। मैंने उसे निकट से देखा है और आपने जिस प्रकार उसका लालन-पालन किया है, उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता, शान्ति निकेतन के बाद वह ऑक्सफोर्ड के समर विले कॉलिज गयीं और वहाँ शिक्षा प्राप्त की I
          पं० नेहरू अपनी प्रियदर्शिनी इन्दु का जहाँ लालन-पालन एवं सुख सुविधाओं का ध्यान रखते थे, वहाँ विस्तृत ज्ञानसंवर्धन भी उनको परम अभीष्ट था। उन्होंने जेल से भी इन्दिरा जी को पत्र लिखे, उनमें ज्ञान-राशि को ही उड़ेल कर रख दिया था। बाद में ये पत्र “पिता के पत्र पुत्री के नाम” से प्रकाशित हुए और जाने कितने भारतीय ज्ञानार्थियों ने उनसे बहुत कुछ ज्ञानार्जन किया। पंडित जी ने १९३५ में नेय साल के अवसर पर एक दिन हजार पृष्ठ की एक पुस्तक अल्मोड़ा जेल से भेजी। उन्हें इस बात का भय था कि कहीं उनकी बच्ची इतनी मोटी और मुश्किल किताब देखकर घबरा न जाये और इसीलिए उन्होंने पुस्तक के ऊपर यह लिखा था नये साल के अवसर पर प्रेम और शुभकामनाओं के साथ इस आशा में कि ‘साइन्स ऑफ लाइफ’ का अध्ययन तुम्हें जीवन की सबसे बड़ी रहने की कला में सहायता करे । इस किताब के भारीपन और मोटेपन से घबराना नहीं। शुरू में तुम्हें एक छोर से दूसरे छोर तक पढ़ने की आवश्यकता नहीं क्योंकि ऐसा करने में तुम बहुत बोर हो जाओगी। जो अध्याय तुम्हें दिलचस्प लगे उन्हें पढ़ो और उनसे तुम्हें जीवन के विस्तार और विकास का अन्दाजा होगा। बाद में शायद तुम पूरी किताब पढ़ना पसन्द करोगी । इसे जरूर पढ़ना चाहिये । ”
          इन्दिरा जी को अपनी माँ से अतुलनीय स्नेह था, उनका स्मरण उन्हें आज भी आन्दोलित कर देता है। उन्होंने उनके विषय में लिखा है—”डाँटती तो वे कभी भी नहीं थीं, न ऊंची आवाज में बोलती थीं, लेकिन उनका प्रभाव ऐसा था कि जो कहती थीं वही होता था।”
          स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व और उसके पश्चात् इन्दिरा जी सदैव भारतीय समस्याओं से जूझती रही हैं और उनका अध्ययन विश्लेषण करती रही हैं। पं० नेहरू के जीवनकाल में यद्यपि उन पर अधिक जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई थी, फिर भी सत्य यह है कि सदैव देश और विदेश में एक योग्य सलाहकार के रूप में उनके साथ रहीं। जहाँ उन्होंने देश के हर भाग में स्वयं जाकर सभी समस्याओं को देखा और समझा, वहाँ विदेश में भी व्यापक भ्रमण करके उन्होंने अपने अनुभव को परिपक्व किया ।
          जब वे ऑक्सफोर्ड के समर विले कॉलेज में अध्ययन कर रही थीं, उन्होंने ब्रिटिश मजदूर दल के आन्दोलन में भाग लिया, क्योंकि इस दल की सहानुभूति भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के साथ थी । २१ वर्ष की आयु में, १९३८ में इन्दिरा जी भारतीय कांग्रेस में सम्मिलित हुईं। सन् १९४२ में इन्दिरा जी का विवाह श्री फिरोज गाँधी के साथ सम्पन्न हुआ और उसके कुछ ही दिनों बाद दम्पति को स्वाधीनता आन्दोलन में जेल जाना पड़ा, इस प्रकार उन्होंने इलाहाबाद की नैनी जेल में १३ मास व्यतीत किये । जेल से छूटने के बाद वे उत्साह से समाज सेवा के कार्यों में लग गईं । १९४६ में पं० नेहरू वायसराय की काउन्सिल के उपाध्यक्ष बनकर दिल्ली आ गये, इन्दिरा जी भी उनके साथ दिल्ली आ गई । राष्ट्र के संकट के क्षणों में इन्दिरा जी कभी पीछे नहीं हटीं और न चुप होकर बैठी हीं। वे सदैव आगे रहीं और अपने को समस्याओं के हल करने में जुटा दिया । देश के विभाजन के समय सन् १९४७ में पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को सुख-सुविधा प्रदान करने के लिये उन्होंने किस तरह कार्य किया, वह किसी से छिपा नहीं । १९५५ में उन्हें कांग्रेस की.कार्य-समिति में सम्मिलित किया गया और अपने त्याग एवं तपस्या के चार वर्ष बाद ही वे अखिल भारतीय काँग्रेस की अध्यक्ष बन गईं । कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में इन्दिरा जी ने सारे देश का दौरा किया और मुख्य रूप से युवक वर्ग में नया उत्साह और चेतना भर दी और केरल के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की । सन् १९६२ में जब चीन ने विश्वास-घात करके भारत पर आक्रमण किया था, तब देश के कर्णधारों की स्वर्णदान की पुकार पर वह प्रथम भारतीय महिला थीं, जिन्होंने अपने समस्त पैतृक स्वर्ण आभूषणों को देश की बलि वेदी पर चढ़ा दिया था, इन आभूषणों में न जाने कितनी जीवन की मधुरिम स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं और इन्हें संजोए इन्दिरा जी कभी-कभी प्रसन्न हो उठती थी। चीन के आक्रमण के समय देश की संकटकालीन स्थिति में उन्होंने केन्द्रीय नागरिक परिषद् की अध्यक्षता का भार भी सम्भाला । इस परिषद् का कितना बड़ा उत्तरदायित्व था, यह आज कल्पनातीत है, हमलावर चीन को भारत भूमि से बाहर करने के लिये जन सहयोग को व्यवस्थित करना, जवानों के लिए हर प्रकार का सामान तथा सुविधायें जुटाना, सभी दलों का पूरा सहयोग प्राप्त करना, आदि कार्य सरल नहीं थे । १९६५ में जब पाकिस्तान ने भारत पर अपना बर्बर आक्रमण किया तब श्रीमती इन्दिरा जी ने राष्ट्र की सेवा में अपना दिन-रात एक कर दिया । वे भारतीय वीर जवानों के उत्साहवर्द्धन एवं सान्त्वना देने के लिये युद्ध के अन्तिम मोर्चों तक निर्भीक होकर गईं । केन्द्रीय सरकार के सूचना एवं प्रसारण मन्त्री के रूप में उन्होंने अपने मन्त्रालय में जो सुधार और सराहनीय ढंग से कार्य किया, वह देशवासियों से छिपा नहीं ।
          १९ जनवरी, १९६६ को देश ने एक बार फिर पं० नेहरू की साकार आत्मा श्रीमती इन्दिरा जी को बड़े विश्वास और भरोसे के साथ अपनी सुरक्षा और समृद्धि के लिये अपनी बागडोर उनके हाथ में देकर सुख और शान्ति की श्वांस ली । १९ जनवरी, १९६६ को देश फूला नहीं समाया, जब उसे फिर एक ऐमा माँझी मिल गया जो कि उसकी पुरातन नौका को आँधी और तूफानों के थपेड़ों से बचाते हुये पूर्ण समृद्धि के गौरवशाली किनारे तक बड़े चातुर्य और बुद्धिमत्ता से खेता हुआ ले चलेगा । १९ जनवरी, १९६६ को भारी बहुमत से देश ने इन्दिरा जी को अपना नेता चुनकर एक बार फिर राष्ट्रनायक नेहरू की नीतियों में आस्था प्रकट करके उस युग पुरुष को अपनी भावभरी श्रद्धाञ्जलि भेंट की।
          अपने एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी श्री मोरारजी देसाई को परास्त कर इन्दिरा जी ने २४ जनवरी, १९६६, को अपराह १·३० बजे, बड़े गम्भीर परामर्श और विचार के पश्चात् अपने मन्त्रिमण्डल की सूची तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राधाकृष्णन् को दी तथा उसी दिन २०१५ बजे प्रधानमन्त्री पद की शपथ ग्रहण करके कार्य आरम्भ किया I
          १९६७ के आम चुनावों में इन्दिरा जी ने बहुत परिश्रम किया जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस का अत्यधिक विरोध होते हुये भी केन्द्र में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल सका । कांग्रेस संसदीय दल के नेता के लिये श्रीमती इन्दिरा गाँधी के साथ-साथ पुनः श्री मोरारजी देसाई ने चुनाव लड़ने का निश्चय किया। श्री कामराज, श्री मोरारजी देसाई तथा श्रीमती इन्दिरा गाँधी तथा अन्य नेताओं के प्रयास से चुनाव का संकट टल गया । श्री मोरारजी देसाई ने उप-प्रधानमन्त्री एवं वित्तमन्त्री का पद स्वीकार कर लिया और श्रीमती इन्दिरा गाँधी निर्विरोध रूप से संसदीय दल की नेता चुन ली गई | उन्होंने प्रधानमन्त्री पद सम्भाल कर देश को एक नया मन्त्रिमण्डल दिया।
          इन्दिरा जी शरीर से भले ही कमजोर हों परन्तु उनमें अटूट कार्यक्षमता है। दृढ़ निश्चय और विवेकपूर्ण निश्चय और उनके चरित्र की विशेषतायें हैं । वे सच बोलती हैं और सफाई से बात करती हैं। वे कोई झूठे वायदे करना पसन्द नहीं करतीं और सिद्धान्तों पर अटल रहना चाहती हैं। । उनके जीवन पर गाँधी और टैगोर का प्रभाव है। उन्होंने एक बार कहा था कि — ‘बापू ने मुझे सच्चाई और निर्भयता सिखाई ।” यही कारण है कि प्रधानमन्त्री बनने के बाद उन्होंने देश के हित में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण निर्णय किये और उन पर अन्त तक हिमालय की भाँति अडिग रहीं। इन्दिरा जी का मुख्य लक्ष्य देश से गरीबी दूर करना रहा और वे इस काम को जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहती है ।
          चण्डीगढ़ के प्रश्न पर दर्शनसिंह फेरूमान के अनशन और उनकी मृत्यु से भी अपने निश्चय से न हटने वाली प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी का अडिग, साहसी और ध्रुव निश्चयी व्यक्तित्व देश की जनता के समक्ष उस समय आया जब उन्होंने देश में समाजवाद लाने के लिए रचनात्मक पदन्यास किया। पुराने पूँजीवादी साथियों की परवाह न करते हुए उन्होंने बैंक-राष्ट्रीयकरण की घोषणा की । पुराने साथी इससे झल्ला उठे परन्तु देश की जनता ने इसका हृदय से स्वागत किया। पुराने साथियों ने साथ छोड़ दिया पर देश की जनता ने इन्दिरा जी का पूरा साथ दिया। इस समर्थन में, देश भर में प्रदर्शन हुये और प्रधानमन्त्री निवास पर बधाई देने वालों का महीनों ताँता बंधा रहा । इसी प्रकार पूँजीवादियों के विरोध की परवाह न करते हुये देश की ५५ करोड़ जनता के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अनाज के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया और अपने निर्णय पर पर्वत की भाँति अडिग रहीं ।
          जब राष्ट्रपति पद के लिए पुराने साथियों ने इन्दिरा जी को दबाने के लिए श्री नीलम संजीव रेड्डी का निश्चय कर लिया तो उन्होंने सिंह और सपूत की भाँति लकीर को छोड़कर स्वाभिमान भरी सिंह गर्जना की और वह गर्जना श्री रेड्डी की पराजय में परिणत हुई। देश की जनता ने इन्दिरा जी का पूर्ण समर्थन किया ।
          फरीदाबाद और बंगलौर के कांग्रेस अधिवेशनों से यद्यपि विरोधी एवं विषाक्त प्रचार चल रहा था परन्तु इन्दिरा जी उसकी कोई परवाह न करते हुए जनता और देश के कल्याण के लिए सतत् प्रयत्नशील रहीं। विरोधियों ने अपनी घटती हुई कीर्ति को देखकर कुछ षड्यन्त्र रचा और इन्दिरा जी को कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित करके संसदीय दल को नया नेता चुनने की आज्ञा दी।
          परन्तु वह अडिग व्यक्तित्व अपने स्थान पर अडिग ही रहा। विरोधियों को मुँह की खानी पड़ी, संसद के बहुमत ने उनमें पूर्णविश्वास व्यक्त किया। कुछ अन्य विरोधी दलों ने भी हृदय खोलकर प्रधानमन्त्री का पूर्ण समर्थन किया तथा भविष्य के लिए पूर्ण आश्वासन दिया।
          भारतीय जनता और अपनी आत्म-शक्ति पर दृढ़ विश्वास रखते हुए १९६९ के अन्त में इन्दिरा जी ने कांग्रेस का विभाजन कर दिया। पुराने प्रतिक्रियाबादियों को छोड़ते हुए युवा पीढ़ी को साथ में लेकर इन्दिरा जी आगे बढ़ती गईं। दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस का विशेष अधिवेशन करके सुब्रह्मण्यम को अन्तरिम कांग्रेस अध्यक्ष तथा बम्बई के खुले महाअधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर श्री जगजीवन राम को सुशोभित कराया और स्पष्ट घोषणा की कि केन्द्रीय सरकार अब भी दृढ़ और स्थिर सरकार है, देश में मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे । परन्तु समय की गति को पहचानते हुए तथा देश के समक्ष उपस्थित अनिश्चितता, पराश्रयता और संदिग्धावस्था को समाप्त करने के लिए श्रीमती गाँधी ने दिसम्बर, १९७० में संसद को भंग करके देश में मध्याविधि चुनाव कराने के लिये राष्ट्रपति से सिफारिश की । राष्ट्रपति ने उसे स्वीकार कर लिया । श्रीमती गाँधी का यह कदम पूर्ण त्याग, अद्वितीय साहस और अटूट वीरता से भरा हुआ था । कौन जानता था कि श्रीमती गाँधी एम० पी० भी चुनी जायेंगी या नहीं । दो माह पश्चात् मार्च १९७१ का प्रथम सप्ताह पंचम महानिर्वाचन के लिए निश्चय किया गया । श्रीमती गाँधी ने समस्त देश की जनता के आगे अपने “गरीबी हटाओ” के सिद्धान्त को रक्खा | जनता उनकी सत्यता, त्याग और तपस्याओं के आगे नतमस्तक हो गई और उन्हें तथा उनकी नई कांग्रेस को इतने भारी बहुमत से जिताया कि शायद्र पं० नेहरू के समय में प्रथम और द्वितीय महानिर्वाचनों को छोड़कर कभी भी इतना बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। उन्हें संसद में ३५० से अधिक स्थान प्राप्त हुये । संसार देखता रह गया इस अभूतपूर्व विजय को । श्रीमती गाँधी के नेतृत्व में देश ने स्थायी केन्द्रीय सरकार प्राप्त की । उनका दो-तिहाई बहुमत था और उन्हें संविधान में संशोधन का अधिकार प्राप्त था।
          इन्दिरा जी जैसा निर्भीक एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व देश के राजनैतिक रंगमंच पर अभी तक निःसन्देह नहीं आया। उनका जादू भरा नेतृत्व विश्व के राजनीतिज्ञों के लिए एक रहस्यमय आकर्षण बन गया। १९७२ में भारत के दस प्रान्तों में कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय उन्हीं के नेतृत्व का परिणाम है। दिसम्बर ७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की अद्वितीय विजय के साथ-साथ विश्व राजनीति पर हावी होना तथा बंगला देश के नव निर्माण एवं उसकी रक्षा ने इन्दिरा जी की गौरवपूर्ण यशोगाथा को ऐतिहासिक बना दिया है। इससे भी अधिक ऐतिहासिक इलाहाबाद उच्च न्यायालय का १२ जून १९७५ का वह निर्णय है जिसमें श्रीमती गाँधी का १९७१ का लोक सभा की सदस्यता का चुनाव अवैध घोषित किया गया । हिमालय की दृढ़ता और समुद्र की गम्भीरता की प्रतिमूर्ति श्रीमती गाँधी को यह निर्णय अपने लक्ष्य से विचलित न कर सका । इस घोषणा के एक सप्ताह के भीतर ही राष्ट्रपति ने देश में आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी । श्रीमती गाँधी ने जन-जन के कल्याण के लिए तुरन्त ही २० सूत्री आर्थिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया और उस पर दृढ़ता से अम्ल कराया गया। देश में अनुशासन जागा, सामाजिक व्यवस्थायें नियन्त्रित हुईं और गरीब मुस्करा उठा । ७ नवम्बर, १९७५ को उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती गाँधी के चुनाव को सर्वसम्मति से वैध घोषित किया। भारत का जन-मानस जो २५ जून को मुरझा सा गया था, फिर से, आनन्दातिरेक से झूम उठा अपने प्रिय-प्रधानमन्त्री की विजय-वैजयन्ती पर दृढ़ता, निर्भीकता और अजेयता से परिपूर्ण श्रीमती गांधी का व्यक्तित्व विश्व के इतिहास में निश्चय ही अद्वितीय है।
          मार्च १९७७ के छठवें लोकसभा चुनावों में स्वयं की तथा कांग्रेस दल की पराजय के बाद श्रीमती गाँधी ने २२ मार्च, ७७ को प्रधानमन्त्री पद से त्याग-पत्र दे दिया। वे ११ वर्ष ५६ दिन भारतवर्ष की प्रधानमन्त्री रहीं। २२ मार्च, ७७ को श्रीमती गाँधी ने जनता पार्टी की नई बनने वाली सरकार को अपनी शुभकामनायें व्यक्त करते हुए एक वक्तव्य में कहा कि –
          “चुनाव उस लोकतन्त्री प्रक्रिया का अंग है जिसके प्रति हम बद्धमूल हैं। मैंने अनेक बार कहा है कि और मैं ऐसा विश्वास भी करती हूँ कि देश को मजबूत बनाना और जनता के जीवन को अधिक उन्नत करना चुनाव हारने जीतने से भी अधिक महत्वपूर्ण है। मैं नई बनने वाली सरकार के प्रति अपनी शुभ कामनायें प्रकट करती हूँ। मैं आशा करती हूँ कि उन धर्म निरपेक्ष, समाजवादी और लोकतन्त्री सिद्धांतों को और भी मजबूत किया जायेगा जो हमारे देश की नींव है। देश के सामने जो कार्य हैं उन्हें सम्पन्न करने के लिये मिले-जुले प्रयत्नों में कांग्रेस पार्टी और मैं रचनात्पक् सहयोग देने को तैयार हैं। हमें इस महान् देश पर गर्व है। प्रधानमन्त्री का पद छोड़ते हुए मैं अपने साथियों, अपने दल और उन करोड़ों नर-नारियों और बच्चों के प्रति हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने इन वर्षों में मुझे अपना सहयोग और स्नेह दिया। जनता के हर वर्ग के प्रति मेरे प्रेम और कल्याण की भावना अपरिवर्तित रहेगी। बचपन से ही जनता की यथाशक्ति सेवा करना मेरा लक्ष्य था। मैं आगे भी ऐसा करती रहूँगी। आज भी और सदा ही आपके लिये मेरी शुभकामनायें ।”
          इस तरह ग्यारह वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ ‘इन्दिरा युग’ देश में समाप्त हो गया। परन्तु अस्थायी और क्षणिक था क्योंकि –
खुदा उस मुसाफिर की हिम्मत बढ़ाये, 
जो मंजिल को ठुकराये, मंजिल समझकर ।
          २४ मार्च, १९७७ को केन्द्र में जनता सरकार की स्थापना और अपनी करारी पराजय की चोट श्रीमती गाँधी को विचलित न कर सकी । वे दुगुने उत्साह से भारत की जनता की सेवा में लग गईं। दिल्ली में बाढ़ आई तो उन्होंने बाढ़ग्रस्त दुःखी जनता के घर-घर जाकर अन्न और वस्त्र दिये। असम में भूकम्प ने जब अपार जन-धन की क्षति की तो इन्दिरा जी वहाँ पहुँची। बिहार में ने हरिजनों पर अत्याचार हुये तो इन्दिरा जी का हृदय चीत्कार कर उठा, वे वहाँ गई और संत्रस्त आश्वस्त किया । देश में जहाँ भी यक उपद्रव हुए या दैवी आपदायें आयीं, वहाँ-वहाँ इन्दिरा जी पहुँचीं, उनकी सहायता और सहानुभूति पहुँची। जबकि जनता या लोकदल की सरकारों ने श्रीमती इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व के दमन करने के लिये कोई कसर नहीं उठा रक्खी थी। श्रीमती गाँधी को गिरफ्तार किया गया, विशेष अदालतों का गठन कर उन पर मुकदमे चलाये गए, शाह, गुप्ता आदि कई जाँच आयोग बिठाये गये, पर किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार नहीं दिया। इतनी कठिन परिस्थितियों और विपरीत वातावरण में भी श्रीमती गाँधी सदैव मुस्कराती हुई देश-विदेशी संवाददाताओं से मिलतीं, दर्शकों और प्रतिनिधि मण्डलों से भेंट करतीं तथा जनता की सेवा में सबसे आगे रहतीं । सत्य ही है –
उदेति सविता ताम्रस्ताप्रएवास्तमेति च ।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥ 
          समय बदलते देर नहीं लगती और कब बदलेगा यह कोई कह नहीं सकता। श्रीमती गाँधी नवम्बर १९७८ में कर्नाटक में चिकमंगलूर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा के लिए सदस्य चुन ली गईं लेकिन संसद की विशेषाधिकार समिति द्वारा विशेषाधिकार हनन का दोषी पाये जाने पर उन्हें २० दिसम्बर, १९७८ की लोक सभा की सदस्यता से वंचित कर संसद के सत्रावसान तक के लिए जेल भेज दिया गया। जनता पार्टी की पारस्परिक फूट, ईर्ष्या, पदलोलुपता का संघर्ष आदि का लाभ शनैः शनैः श्रीमती गाँधी को मिलता गया। भारी दल-बदल के कारण १५ जौलाई, १९७९ को जनता सरकार को त्याग-पत्र देना पड़ा तथा श्रीमती गाँधी के समर्थन से २८ जुलाई, १९७९ को लोकदल की सरकार बनी, विश्वास मत प्राप्त करने के समय किन्हीं विशेष कारणों से श्रीमती गाँधी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। परिणामस्वरूप श्री चरणसिंह को त्याग-पत्र देना पड़ा। राष्ट्रपति श्री रेड्डी ने लोकसभा भंग करने के साथ-साथ मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा कर दी तथा श्री चरणसिंह काम चलाऊ सरकार के प्रधानमन्त्री बने रहे।
          जीवन में पहली बार श्रीमती गाँधी विरोधी दल की नेता के रूप में चुनाव मैदान में थीं। विरोधों और कठिनाइयों के बावजूद भी केवल अकेला व्यक्तित्व भारत के एक आंचल से दूसरे आंचल तक कांग्रेस (इ) की नीतियों और लक्ष्यों की घोषणा करता, जनता के दुःख-दर्दों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए आश्वासन देता तथा देश को स्थिर सरकार देने का वचन देता । कांग्रेस (इ) के घोषणा-पत्र में स्पष्ट कहा गया था कि श्रीमती गाँधी ही आज एकमात्र नेता हैं जो देश को अराजकता तथा बढ़ती हुई महंगाई से मुक्ति दिला सकती हैं। ३ और ६ जनवरी, १९८० को सारे भारत में सातवीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए। “इन्दिरा लाओ, देश बचाओ” की सार्थकता एवं सारवत्ता भारतीय जनमानस पर अंकित हो चुकी थी । जनता और लोकदल की सरकारों की सिद्धान्तहीन राजनीति और दिशाहीन शासन के फलस्वरूप राजनैतिक अस्थिरता, दिन पर दिन बढ़ते हुये मूल्यों से मुक्ति पाने के लिये जनता छटपटा रही थी । परिणामस्वरूप जनता ने श्रीमती गाँधी एवं उनके दल को दो-तिहाई बहुमत से विजयी बनाकर संसद में भेज दिया । १४ जनवरी, १९८० को इन्दिरा जी ने भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ ग्रहण की। प्रधानमन्त्री पद ग्रहण करने के बाद श्रीमती गाँधी ने देश में व्याप्त समस्याओं को दूर करने के लिए प्रभावकारी कदम उठाये । सन् १९८२ में उन्होंने नया बीस सूत्रीय कार्यक्रम लागू करके देशवासियों को एक नया जीवन दिया। इसी वर्ष उन्होंने दिल्ली में नवम् एशियाड का सफलतापूर्वक आयोजन करवा कर देश को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति व गौरव का अधिकारी बनाया । श्रीमती गाँधी की दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि वे दिल्ली में आयोजित ७वें निर्गुट देशों के सम्मेलन १९८३ और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्गुट आन्दोलन की अध्यक्ष चुनी गईं | क्यूबा के राष्ट्रपति फीडेल क्रास्टों और फिलीस्तीनी मुक्तिं संगठन के प्रमुख श्री यासर अराफात ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी को विश्व का एक महान् राजनीतिज्ञ स्वीकार किया। इतना ही नहीं उनके प्रधानमन्त्रित्व काल में श्री राकेश शर्मा अन्तरिक्ष यात्रा करके प्रथम भारतीय व्योम पुत्र बन गये और भारतीय महिला बचेन्द्रीपाल ने एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा झण्डा लहराने में सफलता प्राप्त की। भारत की जनता जानती है कि इन्दिरा जी के हाथों में भारत का गरिमापूर्ण भविष्य सुरक्षित रहेगा ।
          अलगाववादियों से निपटने के लिये पंजाब प्रदेश को आतंक – मुक्त करने के लिये एक बार फिर इन्दिरा जी को अग्नि परीक्षा में गुजरना पड़ा। उन्हें अपने कुशल नेतृत्व में पंजाब में ३ जून, १९८४ को सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। देश उनकी इस महान् शक्ति और विवेक को निश्चय ही युगों-युगों तक नहीं भुला पायेगा और यह भी नहीं भुला पायेगा कि एक दिन पूर्व उड़ीसा के अपने दौरे में उन्होंने यह भी कहा था कि, “मेरे खून की एक-एक बूँद इस देश के काम आयेगी ।” धर्मान्धता या स्वार्थान्धता मनुष्य को नितान्त अन्धा बना देती हैं। उसे न आगे दीखता है और न पीछे । ३१ अक्टूबर को प्रातः ९.१५ पर जैसे ही सहज स्वभाव से वह परम देश भक्त महिला पैदल ही सफदरजंग से अकबर रोड स्थित अपने कार्यालय जा रहीं थीं तीन जवान जो झाड़ियों में छिपे हुए थे तेजी से उनकी ओर दौड़े और स्टेनगन की १६ गोलियों उनका शरीर छलनी कर दिया और वे वहीं गिर पड़ीं। योग्य डाक्टरों के अथक प्रयास भी गाँधी को न बचा सके। अन्तिम दर्शनों के लिए तीनमूर्ति भवन तीन दिनों तक खुला रहा जनता की आखें आँसू बरसातीं रह गईं ।
याद करेगा भारत का इतिहास तुम्हें । 
याद करेगा भारत का बलिदान तुम्हें ।। 
याद रहेगा महाकाल का रूप तुम्हारा । 
याद रहेगा शत्रु विमर्दन काम तुम्हारा ||
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