शहरी सम्पत्ति: दुष्प्रभाव और सीमांकन

शहरी सम्पत्ति: दुष्प्रभाव और सीमांकन

          क्या मुट्ठी भर लोग ही सुखी जीवन बिताने के लिये पैदा हुए हैं? क्या भारतीय जनता सदैव निरीह और निष्कंचन ही बनी रहेगी? क्या भारतीय किसान और मजदूर सदैव शोषित ही बने रहेंगें? क्या भारत की सर्वसाधारण जनता भी कभी सुख की नींद सो सकेगी ? ये ज्वलन्त प्रश्न राष्ट्र के नेताओं के आगे आज भी मुँह बायें खड़े हैं। भारत को स्वतन्त्रता देकर अंग्रेज अपने देश जा चुके थे, परन्तु साथ-साथ दे गये थे, आर्थिक वैषम्य के ऊबड़-खाबड़ मार्ग, जिन्हें भारतीय कर्णधारों को समतल और सुन्दर बनाना था, जनता के हृदय में लगी हुई अभावों की आग को शान्त करना था, परन्तु यह प्रश्न था, बहुत बड़ा और कड़ा । इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए दिसम्बर, १९५४ में पं० नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार ने समाजवादी समाज की रचना की घोषणा की थी, जिसमें निजी लाभ के स्थान पर सार्वजनिक लाभ को महत्ता प्रदान की गई थी ।
          भारतीय संविधान के राज्य नीती निर्देशक सिद्धान्तों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य, राष्ट्र के भौतिक साधनों के वितरण का प्रयास सामान्य हित में करेगा और सामान्य हित के लिए आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण को रोकने का प्रयास करेगा। इस तथ्य को ध्यान में रखकर आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण की घातक प्रवृत्ति को रोकने के लिये सरकार निरन्तर प्रयत्नशील रही । देश में लघु और सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना के साथ ही साथ प्रगतिशील कर प्रणाली का प्राविधान हुआ है। परन्तु जैसे-जैसे सरकार इधर प्रयत्नशील हुई वैसे-वैसे समाज में धरा-बंटन, अपसंचय, अवैध व्यापार आदि दूषित प्रवृत्तियों से आर्थिक केन्द्रीयकरण और भी सबल होता गया और असमानता की खाई और भी अधिक चौड़ी होती गई । महलनवीस समिति और एकाधिकार. आयोग, दोनों के प्रतिवेदनों से भी यह ध्वनि निकलती है । शनैः शनैः यह असमानता इतनी बढ़ती गई कि उच्चवर्गीय १० प्रतिशत शहरी परिवारों की आय ४.२४ प्रतिशत और सबसे निम्न श्रेणी के १० प्रतिशत परिवारों की सम्पूर्ण आय केवल १.३ प्रतिशत है। आय के वितरण में ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्र की अपेक्षा कम असमानता है।
          इस भयंकर आर्थिक-असमानता को जड़ से मिटा देने के लिए शहरी सम्पत्ति का अधिकतम सीमांकन का प्रश्न सरकार के सामने है । शहरी सम्पत्ति के सीमांकन का प्रश्न आज एक सर्वमान्य सिद्धान्त बन चुका है। पर प्रश्न यह है कि चारों ओर फैली हुई और छिपी हुई धनवानों की आर्थिक शक्ति को किस प्रकार अंकुश में लाया जाये। नगरों में चल और अचल सम्पत्ति के अतिरिक्त छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे, व्यापारिक-फर्म, धर्मादा-संस्थायें तथा न्यास आदि के विभिन्न रूप पाये जाते हैं। अनेक व्यक्तियों के पास एक से अनेक विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ हैं। उन सभी प्रकार की सम्पत्तियों का समावेश सम्पत्ति सीमा के अन्दर करना होगा। जैसे, भूमि – चाहे वह विकसित है, चाहे अविकसित, बड़े-बड़े भवनों के साथ लगी हुई है, कहीं उसे बाग का रूप दे दिया गया है, तो कहीं वह वैसे ही पड़ी है। इन भूमियों का उपयोग नागरिकों के कल्याण के लिए किया जा सकता है। भवन – आवासीय गृह कुछ वैभवशाली हाथों में केन्द्रीत हैं, दूसरी ओर झुग्गी झोंपड़ी वाले और गन्दी बस्तियाँ बढ़ती जाती हैं, किरायेदार को रहने के लिये मकान नहीं मिलता और यदि मिलता है, तो मनमानी शर्तों पर व्यापारिक फर्मों पर पिछले कुछ वर्षों से प्रसिद्ध धनियों का एकाधिकार होता जा रहा है। ये लोग उत्पादन से लेकर फुटकर वितरण तक की समस्त क्रियाओं पर हावी हैं। छोटे-बड़े सभी उद्योग, उद्योगपतियों के हाथों में हैं ही। धर्मादा-संस्थायें भी लक्ष्यहीन सिद्ध हो चुकी हैं और निहित स्वार्थों की पूर्ति करने में संलग्न हैं, कहीं-कहीं तो इन संस्थाओं से अत्यधिक अचल सम्पत्ति जुड़ी हुई है। कर चोरी की प्रवृत्ति धनिकों में बढ़ती जा रही है, उनके पास अपार काला धन है, जिसका प्रयोग वे या तो तस्कर व्यापार में करते हैं या फिर बड़े-बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों और भवनों के निर्माण में । इस धन से केवल संचयकर्त्ता ही प्रभावित नहीं हैं, अपितु सारे देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित है, इससे भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है इसी काले धन पर अंकुश लगाने के लिये १९७८ में नई केन्द्रीय सरकार ने १००० रु० के नोटों को एक निश्चित तिथि के पश्चात् अवैध घोषित कर उनका प्रचलन बन्द कर दिया। इसी प्रकार – आभूषण, अंशबीमा, बचत और जमा आदि कई प्रकार की सम्पत्तियाँ हैं, जो देश में दरिद्रता, निर्धनता, असमानता और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देती हैं। वास्तव में इस धन का उपयोग देश के उत्पादन को हैं बढ़ाने में होना चाहिये ।
          आर्थिक वैषम्य के दुष्प्रभाव की छाया आज समाज में यत्र-तत्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी है। पढ़े-लिखे लड़के जब डकैतियाँ डालने निकल पड़ें या मंडी और बाजारों में लूट करने लगें तो क्या होगा? यदि आज दस सुखी हैं, तो पचास दुखी और दरिद्र । विषमता में सदैव विद्रोह और क्रान्ति की आग सुलगती रहती है। नैतिकता अपना मूल्य खो बैठती है, समाज का आचरण सामूहिक रूप से भ्रष्ट हो जाता है। लोग कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की बुद्धि से शून्य हो जाते हैं । स्वार्थपरता बढ़ जाती है । कोमल भावनाओं के स्थान पर कर्कशता और कठोरता आ जाती है, व्यक्तिगत स्वार्थ बढ़ जाता है और राष्ट्र – प्रेम समाप्त होने लगता है –
“बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ।”
          यदि आज देश में सभी प्रकार की सम्पत्तियों का कानूनन सीमांकन कर दिया जाता है, तो लाभ यह होगा कि अतिरिक्त सम्पत्ति देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में लगेगी और साथ ही साथ उसका उपयोग राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ाने में किया जा सकेगा। इसका काम यह होगा कि एक वर्ग की पूंजी दूसरे वर्ग को प्रभावित, विनियोजित और नियन्त्रित न कर सकेगी। तीसरा काम यह होगा कि लोग, अवैधानिक और अनैतिक धन्धों से अपनी सम्पत्ति को बढ़ा न सकेंगे। इससे पूरे देश का स्तर ऊँचा उठेगा । सीमांकन के पश्चात् देश को जो अतिरिक्त सामूहिक पूंजी प्राप्त होगी, उससे देश का आर्थिक विकास किया जा सकेगा। गरीबों को घर मिलेंगे और भूमिहीनों को भूमि ।
          पश्चिमी बंगाल, केरल, बिहार आदि राज्य सरकारों ने जो जोत भूमि-सीमा निर्धारित की है, वह दो लाख रुपये की परिधि में आती है। ऐसी स्थिति में शहरी सम्पत्ति भी दो लाख रुपये से . अधिक होने का कोई औचित्य नहीं दिखाई पड़ता। संसद के पिछले अधिवेशनों में इस विषय पर पर्याप्त चर्चायें हुई हैं, जिनमें तीन लाख से पाँच लाख तक की आवाजें उठी थीं। इस विवादपूर्ण विषय पर विचार करने के लिए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा मई १९७२ में दस व्यक्तियों की एक समिति बना दी गई थी, जिसने अपनी विस्तृत रिपोर्ट और संस्तुति सरकार को दी थी – इस समिति में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री पं० कमलापति त्रिपाठी भी एक सदस्य थे। भारत की १९७७ में आसीन नई केन्द्रीय सरकार भी इस दिशा में प्रयत्नशील रही । सन् १९८० के बाद श्रीमती इन्दिरा की सरकार ने भी शहरी सम्पत्ति के सीमांकन के लिए अनेक उपाए किए। दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता जैसे बड़े नगरों में इस सम्बन्ध में कई कानून भी बनाये जा चुके हैं। १९८९ में पदारूढ़ श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार भी शहरी सीमांकन के लिए दृढ़ता से विचार कर रही है ।
          वस्तुतः सम्पत्ति का सीमांकन समाज और राष्ट्र के हित में सरकार का एक पवित्र और महत्वपूर्ण पदन्यास है। परन्तु इसकी पवित्रता क्या यथावत् बनी रहेगी यह थोड़ा संदिग्ध है। लोग अभी से बचाव के उपाय सोचने लगे हैं-वकीलों में राय मशविरा चल रहा है और उपाय प्रारम्भ कर दिए हैं, इजारेदारी शुरू हो गई है। परन्तु फिर भी — आज यदि थोड़ा लाभ हुआ है तो कभी ज्यादा होने की भी आशा है। आर्थिक वैषम्य और असमानता के रोग का समूलोन्मूलन तो वास्तव में मानवकृत सम्पत्ति के अधिकार को समाप्त कर देने में ही है, जिसके लिए संविधान में परिवर्तन करना होगा। सम्पत्ति मनुष्य रखता ही क्यों है, इसका एकमात्र उत्तर यही है कि वह अपने वर्तमान और भविष्य की सुख सुविधाओं की गारन्टी के लिए। फिर यदि उसे यही गारन्टी राज्य की ओर से मिल जाये, तो वह स्वयं ही सम्पत्ति रखना पसन्द नहीं करेगा। यदि सम्पत्ति के अधिकार को समाप्त कर, रहन-सहन के स्तर का एक निम्नतम आधार बनाकर कार्य की अनिवार्यता का प्रावधान संविधान में कर दिया जाए, तब सदैव – सदैव की लिए भारत में स्वयं ही समाजवाद समासीन हो जायेगा।
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