विद्यालय में मेरा पहला दिन

विद्यालय में मेरा पहला दिन

          मुझे याद आ रही हैं फारसी के शायर शब्तसरी की ये पंक्तियाँ –
“जे ते हर फेल कि अव्वल गश्त जाहिर । 
वरां गर्दी बवारे चन्द कादिर ।।”
          अर्थात् पहली बार जो भी काम किया जाए, वह कठिन लगता है, परन्तु धीरे-धीरे वही काम सरल हो जाता है। सचमुच, जीवन में ऐसा ही तो है। पहली बार किसी नए काम को करो, पहली बार किसी यात्रा पर जाओ, पहली बार किसी से बातचीत करो, अवश्य ही विचित्र अनुभव होगा। यह अनुभव मधुर भी हो सकता है और कटु भी । ऐसा ही खट्टा-मीठा अनुभव मुझे तब हुआ, जब मैं पहले दिन अपने वर्तमान विद्यालय में गया ।
          मैं चौदह वर्षीय नौंवी कक्षा का छात्र हूँ। मेरी माताजी एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका हैं। पिताजी दिल्ली में एक सरकारी कर्मचारी हैं। हमारा सीमित और, खुशहाल परिवार है । पिताजी सुबह रेलगाड़ी से दिल्ली जाते हैं और शाम को लौटते हैं। माता जी भी मेरे विद्यालय जाने के उपरांत नौकरी पर चली जाती हैं। शाम को हम सभी मिल-जुलकर और बैठकर बातचीत करते हैं। पहले मैं भी अपनी माताजी वाले विद्यालय में ही पढ़ता था, किन्तु वह विद्यालय केवल आठवीं कक्षा तक ही था। अतः मुझे नौंवी कक्षा में विद्यालय परिवर्तन करना पड़ा और मैं ‘हिन्दू विद्यापीठ’ में आ गया। चूँकि आठवीं कक्षा मैं मैंने 80% अंकों से उत्तीर्ण की थी। मेरा पूर्व विद्यालय भी ‘सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकेण्डरी एजुकेशन, नई दिल्ली’ से ही सम्बद्ध था । अतः विलम्ब हो जाने के बावजूद यहाँ प्रवेश लेने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। इस नए विद्यालय में प्रवेश के प्रथम दिन मेरे हृदयसरोवर में काफी हलचल मची हुई थी। मैं सोच रहा था न जाने कैसा विद्यालय होगा ? अध्यापक कैसे होंगे ? अन्य विद्यार्थी कैसा व्यवहार करेंगे ? आदि । पर साथ ही मैं इस आत्मविश्वास से भी भरा हुआ था कि शीघ्र ही स्वयं को इस नए माहौल में ढाल लूँगा।
          मैं विद्यालय के निर्धारित समय से 5 मिनट पूर्व कक्षा में पहुँचा। मैंने अपनी पुस्तकें एक डेस्क पर रखीं और कक्षा का जायजा लेने लगा। इतने में प्रार्थना के लिए घंटी बजी। मैं भी अन्य छात्रों के साथ-साथ प्रार्थना स्थल की ओर चल दिया। अपनी कक्षा की पंक्ति में जाकर खड़ा हो गया। प्रार्थना के उपरांत प्रत्येक कक्षा के छात्र- पंक्तियों ने अपनी-अपनी कक्षा की ओर चल दिए। मैं भी चुपचाप आकर अपने स्थान पर बैठ गया । कक्षा का नया छात्र होने के कारण जहाँ मैं स्वयं को कुछ अजनबी या अनुभव कर रहा था, वहीं अन्य छात्र मुझे ऐसे घूर घूर कर देख रहे थे मानो कुछ अजुबा उपस्थित हो गया हो ।
          खैर, थोड़ी देर में कक्षाध्यापिका आई। हाजिरी लेनी शुरू की। मुझ पर दृष्टिपात करते ही उन्हें प्रश्नों की झड़ी लगा दी। नाम क्या है ? पिता का नाम ? कहाँ रहते हो ? पहले किस विद्यालय में थे ? आदि । इसके पश्चात् प्रथम पीरियड आरम्भ हुआ। अध्यापक ने बैठने का संकेत किया। बैठते-बैठते भी अध्यापक ने मेरी ओर प्रश्न उछाल दिया। ‘नए आए हो ?’ ‘क्या नाम है ?’ मैं जिन प्रश्नों के उत्तर पहले ‘हाजिरी-पीरीयड’ के दौरान दे चुका था, उन्हीं का उत्तर एक बार फिर देना पड़ा । मैंने स्वाभाविक रूप से समस्त उत्तर दिए। अध्यापक ने कार्यारम्भ किया। उन्होंने ‘चक्रवृद्धि ब्याज’ पर आधारित कुछ सवाल समझाए । फिर एक सवाल छात्रों को करने को दिया। मैंने तुरन्त करके दिखा दिया। अध्यापक ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा – ‘शाबाश ! होशियार जान पड़ते हो।’ यह सुनते ही मेरा सीना गर्व से तन गया । शायद कुछ छात्रों को अध्यापक के ये वचन गले की फांस की तरह लगे । वे मुझ पर इस प्रकार दृष्टिबाण फेंकने लगे, जैसे कह रहे हों, कहाँ से आ टपका ? खैर, पहला पीरियड बीत गया ।
          दूसरा पीरियड अंग्रेजी था । अंग्रेजी की अध्यापिका के आने पर फिर सारी कक्षा स्वागत हेतु खड़ी हुई । अध्यापिका के ‘सिट डाउन’ और छात्रों के ‘थैंक्यू मैडम’ कहने के साथ कक्षाकार्य आरंभ हुआ। अध्यापिका ने ‘ग्रामर’ करवाई। अध्यापिका द्वारा पूछे गए प्रश्नों के समुचित उत्तर देने से जहाँ मेरी विद्धत्ता सिद्ध हो रही थी, वहीं, कुछ छात्रों को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी आ गया है। इसी तरह पीरियड बीतते रहे। चार पीरियड बीतने पर अर्द्धावकाश हुआ। मैं अपनी बैंच पर बैठा हुआ भोजन निकालने की सोच ही रहा था कि एक छात्र ने मुझे खाने पर निमंत्रण दिया। ‘अंधा क्या चाहे दो आँखें।’ मैंने झट अपना टिफिन लिया और पहुँच गया उस छात्र के पास। भोजन के दौरान उससे व उसके कुछ मित्रों से मेरा परिचय हुआ। बातों-बातों में मुझे चार मित्र मिल गए। उन्होंने विद्यालय व अध्यापकों के विषय में बड़ी मज़ेदार बातें बताईं। उनको मैंने खूब आनन्द लिया । उन्होंने ही बताया कि छात्रों ने हिन्दी – अध्यापिका का नाम ‘श्रीदेवी’ और संस्कृत – अध्यापक का नाम ‘बच्चूराम’ रखा हुआ है। तभी घंटी बजी। शिक्षण कार्य पुनः आरम्भ हो गया।
          अब प्रथम पीरियड हिन्दी का था । तथाकथित ‘श्रेदेवी जी’ आईं। सचमुच लम्बी-छरहरी, गोरी-चिट्टी इतनी सुन्दर अध्यापिका थीं। ऐसी आकर्षक कि कोई भी छात्र उनकी बात को अनसुना कर ही न पाए। उन्होंने कक्षा में आते ही पूछा- “कल मैंने सुभद्राकुमारी चौहान का जीवन परिचय याद करके आने को कहा था, सभी को याद है ? छात्र एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। तब उन्होंने प्रश्न किया- ‘सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?’
          मैंने हाथ ऊपर किया। अध्यापिका की स्वीकृति मिलने पर मैंने बताया- ‘उत्तर प्रदेश के निहालपुर गाँव में 1904 ई. में हुआ था।’
          अध्यापिका तुरन्त प्रभावित हो गईं। कक्षा को सम्बोधित करके बोलीं- ‘देखा, केवल एक ही छात्र याद करके आया है।’ तब छात्रों ने कहा- ‘मगर, यह तो आज ही इस विद्यालय में आया है।’
          यह सुनकर अध्यापिका का ध्यान मेरी ओर गया। उन्होंने मेरा नाम, माता-पिता औरा पूर्व विद्यालय का नाम पूछा। उन्होंने मुझे शाबशी दी व अन्य छात्रों को भी… मुझसे प्रेरणा लेने को कहा। मुझे लगा मेरा इस विद्यालय में प्रवेश सार्थक हो गया । इसी प्रकार करते-करते अंतिम पीरियड आ गया। यह पीरियड ‘बच्चूराम जी’ का था। उन्हें देखकर ही मैं जाना पाया कि बच्चों ने उनका नाम बच्चूराम क्यों रखा ? वे इतने छोटे कद के अध्यापक थे कि बच्चों से अभिन्न जान पड़ते थे। कुल मिलाकर यह पीरियड भी खूब मजे में बीता।
          घंटी बजने पर सब छात्र अपने-अपने घर की ओर चल दिए। मैं भी अपनी पुस्तकें समेटकर घर को चलने लगा। तभी पीछे से किसी ने मुझे आवाज दी। मैंने मुड़कर देखा तो वह हर्ष था—मेरा बचपन का साथी । हम पाँचवीं कक्षा तक एक साथ पढ़े थे। छठी में वह ‘हिंदू विद्यापीठ’ में आ गया और मैं उसी विद्यालय में पढ़ता रहा। अपने पुराने मित्र को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। उसने बताया कि वह भी नौंवी कक्षा में ‘बी’ विभाग में पढ़ता है। हम बातें करते-करते कुछ दूर तक आए। फिर वह अपने घर की ओर मुड़ गया और मैं अपने घर की ओर।
          अब मुझे इस विद्यालय में पढ़ते हुए एक साल होने वाला है, किन्तु विद्यालय में पहला दिन मेरे लिए अमिट यादगार बन गया है। वर्तमान के धरातल पर खड़ा होकर जब कभी मैं अतीत के झरोखे में झांकता हूँ, तो बरसात की प्रथम फुहार के समान रोमांचक आनन्ददायक अनुभूति से भर उठता हूँ I
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