लोकनायक जयप्रकाश नारायण

लोकनायक जयप्रकाश नारायण

“होनहार विरवान के होत चीकने पात” 
          ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० ह्यूग गैट्स केल ने जयप्रकाश जी के विषय में लिखा है  कि –
          “सारी दुनिया में जयप्रकाश नारायण के मित्र और प्रशंसक उनको भारतीय जनतान्त्रिक समाजवाद के प्रस्थापक- जनक के रूप में मुख्यतया जानते हैं। भारतीय सामाजिक जीवन को उनकी महान् देन यह है कि कम्युनिस्टों के सिद्धान्तवादी मार्क्सवाद को और कांग्रेस पार्टी के दक्षिणी पन्थी तत्वों के सतर्क परम्परावाद के आगे उन्होंने एक समाजवादी विकल्प पेश कर दिखाया। उनकी एक हस्ती है जिनका समाजवाद केवल उनकी राजनीति में ही नहीं चमकता, केवल उनकी सिखावत में नहीं रहता, बल्कि उनके सारे जीवन में समाया हुआ है।”
          निःसन्देह जयप्रकाश जी जैसे सपूतों को जन्म देकर भारत माता ने अपनी कोख की सराहना अवश्य की होगी। मानवता के मूल्यों को और स्वयं मानवता को अन्धकार से निकालकर प्रकाश में लाने के लिये जयप्रकाश जी ने जीवन भर संघर्ष किया, जूझे पर झुके नहीं, पथ से मुड़े नहीं ।
मातृभूमि का कण-कण बोल उठा–जयप्रकाश शतायु हों।
          जयप्रकाश नारायण का जन्म बिहार प्रान्त में छपरा जिले के सिताब दियारा नामक गाँव में दशहरे के दिन ११ अक्टूबर, १९०२ को हुआ था। इनके बाबा का नाम श्री देवकी। बाबू था तथा पिता श्री दयाल थे। जयप्रकाश जी की माता श्रीमती फूलरानी देवी बड़ी धर्मपरायण थीं I तीन भाई और तीन बहनों में जयप्रकाश जी चौथी संतान थे I इनसे बड़े एक भाई और बहिन की बचपन में ही मृत्यु हो जाने से माता-पिता का अपार स्नेह इन पर केन्द्रित था। चार वर्ष तक दाँत न निकलने के कारण माता इन्हें बडल जी के नाम से पुकारने लगी थीं। परन्तु जब बोलना प्रारम्भ किया तो बड़े-बूढ़ों की भाँति एक – एक शब्द सोच समझ कर और तोलकर बोलते थे I इसलिये पिताजी ने एक दिन कहा था कि “ई त बूढ़ लरिका हउअन” बाल्यावस्था में पशु-पक्षियों  से जयप्रकाश जी को बड़ा प्रेम था । वे उनको खूब खिलाते ।
          १६ मई, १९२० में जयप्रकाशजी का विवाह प्रभावती जी से हो गया । भावती जी को गाँधी जी अपनी बेटी मानते थे । विवाह से पूर्व एक दिन प्रभा जी के पिता श्री ब्रज किशोर बापू के यहाँ, चम्पारन सत्याग्रह के सिलसिले में जहाँ गाँधी जी ठहरे हुये थे तब प्रभा को देखकर गाँधी थे जी ने कहा था- “ब्रज किशोर यह मेरी बेटी है इसे मेरे साथ भेजो।” प्रभाजी बचपन में ही अपने पिताजी के साथ सभाओं में जातीं और राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेतीं। इस शादी में न कोई दहेज था और न कोई लेन-देन, आदर्श जोड़ी का आदर्श विवाह था । न डोली थी और न बाजे-गाजे । दुल्हा और दुल्हिन पैदल चलकर ही सिताब दियारा पहुँचे । विवाह के बाद जयप्रकाश जी पढ़ाई के लिए पटना चले गये ।
          महात्मा गाँधी का असहयोग और सत्याग्रह आन्दोलन भड़क रहा था, नौजवानों में होड़ लग कौन सहयोग दे । जनवरी १९२१ को मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में पटना में एक विशाल सभा हुई। मौलाना ने गर्जना की कि “फर्ज है नौजवान का कि अंग्रेजों की जारी की हुई निकम्मी तालीम को छोड़कर मैदान में आएँ, इस ढहती हुई हुकूमत को धक्का देकर खत्म करें और नया हिन्दुस्तान बनाएँ जिसकी खुशबू से सारा आलम महक उठे – अगर इस वक्त चूके तो मैं कहता हूँ कि आपको तवारीख माफ करने वाली नहीं है। जमाना आपको दावत दे रहा है। देर की गुंजाइश नहीं है।” इस भाषण ने जयप्रकाश जी के हृदय में हलचल पैदा कर दी। घर आये। रात भर नींद नहीं आई। दूसरे दिन दृढ़ निश्चय के साथ कॉलेज छोड़ दिया और बिस्तर बाँधकर साबरमती आश्रम जाने की तैयारी शुरू कर दी। परन्तु उनके ससुर श्री ब्रज किशोर की सलाह पर राजेन्द्र बाबू की निगरानी में सदाकत आश्रम में चल रहे बिहार विद्यापीठ में चले गये। इण्टर का इम्तहान दिया और ऊँचे नम्बरों से पास हुये। बी० एस-सी० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने से जयप्रकाश जी ने मना कर दिया क्योंकि उसमें भी उसी शैतान अंग्रेजी सरकार का पैसा लगता था।
          जयप्रकाश जी और प्रभावती जी इलाहाबाद आ गये और नेहरू परिवार के साथ मिल-जुल गये । जयप्रकाश जवाहरलाल जी को भाई कहते और कमला जी को भाभी। ३ फरवरी, १९३२ को प्रभावती जी इलाहाबाद में पकड़ी गईं और दो साल की सजा सुनाई गई। उन दिनों जयप्रकाश जी के सुपुर्द एक बड़ी जिम्मेदारी थी, देश भर में घूमना और कांग्रेस के संगठन को मजबूत करना । जयप्रकाश ने उन दिनों देश का तीन बार दौरा किया और बड़ी मुस्तैदी से अपना दायित्व निभाया।
          १७-१८ मई ३४ को पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में समाजवादी मित्रों की राष्ट्रीय स्तर पर पहली मीटिंग थी । अध्यक्षीय भाषण में आचार्य नरेन्द्र देव ने कहा कि साम्राज्य शासित राष्ट्र के लिये राजनैतिक आजादी तो समाजवाद की दिशा में पहली मंजिल है। राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता के लिए निम्न-मध्यम श्रेणी और आम जनता की शक्ति से सम्मिलित प्रयास होने चाहियें। उसके कार्यक्रम में जनता की दृष्टि से आर्थिक कार्यक्रम शामिल करने की जरूरत । इस कन्वेंशन में ही अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाने का निर्णय किया गया और जयप्रकाश को संगठन मन्त्री नियुक्त किया गया । बम्बई में अक्टूबर १९३४ को एक सम्मेलन में कांग्रेस सोश्लिस्ट पार्टी को बाकायदा कायम किया गया। जयप्रकाश जी नयी पार्टी के जनरल सेक्रेटरी नियुक्त किए गए । आचार्य नरेन्द्र देव और श्री जयप्रकाश नारायण इन दो विभूतियों ने समाजवादी आन्दोलन को सजीव रूप प्रदान किया। विचारों में काफी भेद होते हुये भी गाँधी जी जयप्रकाश जी से प्रेम करते और उनकी न्यायनिष्ठा पर पूरा विश्वास रखते थे। जयप्रकाश जी की निर्भीकता,क्रान्तिकारी भावना, मनुष्यता, पौरुष, सौजन्य तथा आकर्षण शक्ति पर सारा देश मन्त्र-मुग्ध हो उठता । क्रान्तिकारी भावनाओं से अनुप्राणित भारतीय नवयुवक तो उन पर प्राण न्यौछावर करते थे। जयप्रकाश जी लम्बे प्रोग्राम पर निकलते तो प्रभावती प्रायः बापू के पास चली जाती थीं।
          ७ मार्च, १९४० की शाम को जयप्रकाश जी को पटना में गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस उन्हें जमशेदपुर ले गयी और वहाँ से चाईवास जेल में बन्द कर दिया गया। कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के मौके पर जयप्रकाश की इस गिरफ्तारी से देश में क्रोध की लहर दौड़ गई। महात्मा गाँधी ने १२ मार्च को निम्नलिखित आर्थिक वक्तव्य दिया ।
          “श्री जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। वह कोई साधारण कार्यकर्त्ता नहीं है, समाजवाद के वह महान् विशेषज्ञ हैं। कहा जा सकता है कि पाश्चात्य समाजवाद की जो बात उन्हें मालूम है उसे हिन्दुस्तान में और कोई भी नहीं जानता। यह बहुत कुशल योद्धा भी हैं। देश की आजादी के लिये उन्होंने सर्वस्व त्याग किया है। यह अखिल उद्योगशील हैं । उनकी कष्ट सहिष्णुता अतुलनीय है-सच तो यह है कि इस गिरपतारी से लोगों को ऐसा लगने लगा कि ब्रिटिश सरकार दमन करना चाहती है। ऐसी स्थिति से इतिहास की पुनरावृत्ति होगी । पहले सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय सरकार ने बन्धुओं को गिरफ्तार कर दमन का श्रीगणेश किया था। पता नहीं कि यह गिरफ्तारी पूर्ण निश्चित कार्यक्रम के अनुसार की गई या किसी बहुत जोशीले अधिकारी की भूल है। अगर यह किसी अधिकारी की भूल ही है तो इसका सुधार हो जाना चाहिये ।”
          कांग्रेस कमेटी के बम्बई अधिवेशन में ८ अगस्त, १९४१ को वह ऐतिहासिक प्रस्ताव पास हुआ जिसमें कहा गया था कि आज विश्व के सामने जो संकट है उसके निराकरण के लिए भारत की स्वाधीनता बहुत जरूरी है। इसलिये कांग्रेस यह आवश्यक मानती है कि ब्रिटिश हुकूमत भारत छोड़े और एक स्वाधीन सरकार भारत की सुरक्षा का दायित्व उठाये । गाँधी जी ने अपने सारगर्भित भाषण में ‘करो या मरो’ का मन्त्र दिया और कहा कि अब हर हिन्दुस्तानी अपने को  आजाद समझे। दूसरे दिन अभी सूरज भी नहीं निकला था कि गाँधी जी गिरफ्तार कर लिए गए, सारी कांग्रेस कार्य समिति पकड़ ली गई, सैकड़ों हजारों की संख्या में कांग्रेसी कार्यकर्ता बन्द कर दिये गये । सारा देश उठ खड़ा हुआ— ‘अंग्रेजों भारत छोड़ों” की चिंगारी भड़क उठी । उत्तर प्रदेश में बलिया, बंगाल में मेदिनीपुर और महाराष्ट्र में सतारा कई दिनों तक स्वतन्त्र रहे । वहाँ जनता का अपना राज था । हजारीबाग जेल में जयप्रकाश जी की आत्मा छटपटा रही थी इस जनक्रान्ति में भाग लेने के लिये । उन्हें बार-बार पछतावा होता कि वे इसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे। उनकी छटपटाहट बढ़ती गई। जयप्रकाश जी के शब्द कोष में मजबूर और मजबूरी शब्द नहीं है। उन्होंने जेल से निकल भागने का निश्चय किया और बाहर जाकर ब्रिटिश सरकार की ताकत से जोरदार टक्कर लेकर स्वाधीन जनता का राज्य स्थापित करने का निश्चय किया ।
          ९ नवम्बर, १९४२ | दिवाली का त्यौहार । जेल में सभी जेली और कर्मचारियों को जेलर की ओर से दावत का आयोजन था फिर नाच और गाने का प्रोग्राम था। राम वृक्ष बेनीपुरी ने उस जश्न के प्रोग्राम का संचालन किया । वातावरण अजीब मस्ती में झूम रहा था। ढोल मंजीरे पर गीतों की बौछार । उसी समय जयप्रकाश जी ने जान की बाजी लगा दी। नई धोतियों की रस्सी बनाकर छ: मिनट में जेल की दीवार लाँघ गये और बाहर निकल गये। साथ में ६ मित्र और थे। प्रतिदिन की भाँति प्रायः जब लोग मार्क्सवाद पढ़ने के लिये जयप्रकाश जी की बैठक में लगने वाली कक्षा की ओर जाने लगे तो बेनीपुरी जी ने रास्ते में ही उन्हें रोक दिया कि जयप्रकाश जी आज क्लास नहीं लेंगे, उनकी रात भर तबियत ठीक नहीं रही है, अभी सोये हैं जगाना उचित नहीं । पढ़ने वाले लौट गये । इस तरह बारह घण्टे तक जयप्रकाश जी के बाहर चले जाने का किसी को पता चलने नहीं दिया गया । अब जेल अधिकारियों को मालूम हुआ तो उनके होश उड़ गये । हजारी बाग से पटना, पटना से दिल्ली वायसराय को और दिल्ली से लन्दन खबर पहुँची। ब्रिटिश सरकार ने जिन्दा या मुर्दा जयप्रकाश को पकड़ने के लिये दस हजार रुपये के इनाम का एलान किया ।
          एक द्विन अंग्रेजी सरकार को सुराग मिला और अचानक जयप्रकाश और लोहिया पकड़ लिए गए। उन्हें हनुमान नगर थाने ले जाया गया । उसके बाद नेपाल सरकार उन्हें नेपाल भारत सीमा पर पहुँचाकर भारत सरकार के सुपुर्द करने वाली थी रास्ते में जयप्रकाश ने आजाद दस्ते के एक सैनिक को खबर करायी कि हनुमान नगर जा रहे हैं, जो कुछ हो सके करो ताकि यहाँ से भाग निकलें । जे० पी० और लोहिया के अलावा ५ साथी और भी पकड़ लिये गये थे। उसी शाम आजाद दस्ते के ३५ सैनिक हनुमान नगर आ गये । बाकायदा स्कीम बनाई गई, सातों कैदी सो गए, अचानक गोलियाँ चलने लगीं । सातों बहादुर दौड़ पड़े, कोई कहीं गया और कोई जयप्रकाश कलकत्ते चले गए और फिर अपने काम में लग गये। अंग्रेजी हुकूमत हैरान थी । वह जयप्रकाश के आजाद घूमने को ब्रिटिश सल्तनत के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती थी।
          एस० पी० मेहता के नाम से फर्स्टक्लास में सूट-बूट पहिने श्री जयप्रकाश फ्रेंटियर मेल से रावलपिंडी जा रहे थे। कश्मीर पहुँचकर पठानों से सम्पर्क करना था, उत्तर पश्चिमी सीमा में क्रांति का नया मोर्चा खोलना था । अमृतसर स्टेशन पर गाड़ी ठहरी, नीचे उतर कर चाय का आर्डर दिया और फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गये। चाय आ गई, पी रहे थे, इतने में ही दरवाजे पर खट-खट हुई । बाहर एक अंग्रेज था दो हिन्दुस्तानी । वह भीतर आया और टिकिट दिखाने को कहा। जयप्रकाश ने कहा आप कोई रेलवे के अफसर हैं, उत्तर मिला—नहीं, पर मैं आपका टिकिट देखूँगा । देखिए । गोरे अफसर ने टिकिट देखा और कहा- आप जयप्रकाश नारायण हैं? नहीं मेरा नाम एस० पी० मेहता है। नहीं, आप गलत बोल रहे हैं। यह नेपाल नहीं पंजाब है, मुझे गोली मारने का अख्तया है अगर आपने जरा भी हिलने की कोशिश की तो देखिये यह मेरा रिवाल्वर । जयप्रकाश समझ गये कि अब खेल खत्म हो गया। लाहौर पहुँचने पर उनके हाथ में हथकड़ी डाल दी, बाहर उतारा, उस समय स्टेशन पर १६५० हथियार बन्द सिपाही तैनात थे। बड़ी खोज और परेशानी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा कैदी पकड़ा गया। लाहौर के किले में एक महीने तक जयप्रकाश काल कोठरी में रक्खे गये । २० अक्तूबर, ४३ में जयप्रकाश की यातनायें शुरू हुई, सवाल पूछे गए कि ये कुछ बता दें कि कहाँ क्या हो रहा है और कौन कहाँ है। कुर्सी पर बाँधकर पिटाई की गई। परन्तु भारत माता के इस सपूत ने स्पष्ट कह दिया कि आप चाहे कुछ भी करें मुझसे आपको कुछ जानकारी नहीं मिलने वाली है, मैं अपनी जान पर खेल जाऊँगा लेकिन आपके दमन के आगे नहीं झुकूँगा । जनवरी १९४५ में जयप्रकाश लाहौर के उस किले से आगरा सेन्ट्रल जेल भेज दिये गये। लाहौर का किला जयप्रकाश के लिये जबरदस्त अग्नि परीक्षा थी । उस अग्नि में तप कर जयप्रकाश रूपी स्वर्ण और भी निखर उठा ।
          सहसा ब्रिटेन की राजनीति में नया मोड़ आया । २३ मार्च, १९४५ को चर्चिल सरकार हार गई और मजदूर दल जीतकर आया । ब्रिटेन की उदारवादी सरकार ने स्पष्ट कह दिया कि हम भारत को बन्धन में नहीं रखना चाहते । २३ मार्च, १९४५ को लन्दन से एक मिशन आया । मिशन के आने के अट्ठारहवें दिन ११ अप्रैल, १९४६ को जयप्रकाश जी रिहा कर दिये गये। जयप्रकाश जिन्दाबाद के नारों से आकाश गूँज उठा। दिल्ली के स्टेशन पर अगस्त क्रान्ति के प्यारे वीर के स्वागत में विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा था । जयप्रकाश जी सबसे पहले बापू से मिलने गए, बापू उन्हें देखकर गद्गद् हो उठे और प्रार्थना सभा में मुक्त कण्ठ से उनकी प्रशंसा की ।
          मिशन योजना को कांग्रेस कार्यकारिणी ने स्वीकार कर लिया था । ६-७ जौलाई ४६ को बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई । कांग्रेस अध्यक्ष का दायित्व पं० नेहरू को सौंपा गया । पहिले दिन ६ जौलाई को जयप्रकाश जी ने अपने भाषण में मिशन योजना का डटकर विरोध किया ।
        एक दिन जयप्रकाश जी ने बापू से कहा कि मैं कांग्रेस से अलग होना चाहता हूँ । बापू कुछ न बोले । पहिले ऐसा पूछने पर प्रायः मना कर देते थे, इस बार चुप रहे । पल भर कुछ सोचा और फिर कहा- ‘बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी। तकलीफ की कोई बात नहीं, आपके आशीर्वाद से सब कुछ सहन किया जा सकता है।’ जयप्रकाश ने उत्तर दिया था । ३० जनवरी, ४८ को बापू ही चल बसे। बापू की विदाई से जयप्रकाश अत्यन्त दुःख्नी थे। उन्होंने माँग की कि बापू की हत्या के प्रायश्चिंत स्वरूप भारत सरकार को औपचारिक रूप से इस्तीफा दे देना चाहिये ।
          ३० मई, १९५२ को जयप्रकाश जी उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में आचार्य विनोबा भावे से मिले । तीन घण्टे तक दोनों एकान्त में बातें करते रहे । जे० पी० ने अनुभव किया कि विनोबा निष्ठा से भूमि समस्या का निराकरण चाहते हैं और उनका कार्यक्रम समाजवादी है । २२ जून, १९५२ से जयप्रकाश जी ने तीन सप्ताह का आत्म शुद्धि के लिये उपवास किया, इस उपवास ने जयप्रकाश जी को बिल्कुल बदल दिया, जिस चीज की जयप्रकाश जी को आवश्यकता थी वह मिल गई। इसके बाद उन्होंने ‘अच्छाई की प्रेरणा’ नामक लेख लिखा। इसमें उन्होंने कहा “वर्तमान समाज और धर्म का असर जाता रहा, ईश्वर में श्रद्धा हिल गई है, इतिहास ने अघ युगों में मुर्दा नारों के रूप में नैतिक मूल्यों को ठुकरा दिया है। संक्षेप में जब भौतिकवाद का सिक्का लोगों के दिल पर जम गया है, तो अच्छाई के लिए क्या कोई प्रेरणा बची है? मेरा मानना है अब कोई अन्य प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है।” १९ अप्रैल, १९५४ को बोधगया में जयप्रकाश जी ने सर्वोदय के लिये अपना जीवन दान दे दिया है। सन्त जयप्रकाश जी की प्रेरणा से ५८२ व्यक्तियों ने भी सर्वोदय के लिए अपना जीवन दान किया। आचार्य विनोबा ने अपना जीवन समर्पित किया।
          जयप्रकाश जी के जीवन काल की सुगन्धि विदेशों में फैली। सर्वोदय के सन्देश को देश-देशान्तरों में फैलाने के लिये वे २८ अप्रैल, १९५८ को निकले। इस यात्रा में उन्होंने योरोप के १४ देशों (इंगलैंड, फ्रांस, जर्मन आदि) में सर्वोदय का संदेश पहुँचाया और लगभग ५० सभाओं में जयप्रकाश जी के महत्वपूर्ण भाषण हुये । २० सितम्बर, ५८ को वे दिल्ली लौट आये।
          १९७२ में जयप्रकाश जी ने वह कर दिखाया जो बड़े-बड़े योगी या सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं। भगवान बुद्ध के चरण में अंगुलीमाल डाकू ने समर्पण किया था। परन्तु जयप्रकाश जी के चरणों में न जाने कितने अंगुलिमालों ने अपनी भयानकता त्याग कर अपने मस्तक झुका दिए, उनके चरणों पर अपने-अपने भयावह प्राणघाती शस्त्रों को समर्पित कर दिया। जयप्रकाश जी ने सबको शरण दी। चम्बल घाटी के खूँखार भयानक डकैत निःशंक और निर्भय होकर जयप्रकाश जी के पास आते और समर्पण करते । जयप्रकाश जी गीता व रामायण की पुस्तकें देते । १२ अप्रैल, १९७२ की मुरैना से पच्चीस मील दूर पगारा के डाक बंगले में जयप्रकाश जी रुके हुये थे। चम्बल घाटी का सरनाम डाकू मोहरसिंह, जिसको जिन्दा या मुर्दा पकड़कर लाने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने दो लाख रुपये का इनाम घोषित कर रक्खा था, डाक बंगले में आया और अपना सिर जयप्रकाश जी के चरणों में रख दिया और बोला कि अब यह सिर आपके चरणों में है चाहे आप इसे फाँसी के तख्ते पर लटकवाइये या चाहे जो कीजिए । जयप्रकाश ने मोहर को सीने से लगा लिया और बोले –’आपको फाँसी नहीं लग सकती, मुझे सरकार से आश्वासन मिल गया है लेकिन अगर आप में से किसी एक को भी फाँसी मिली तो आप में से एक की जान मेरी जान के बराबर होगी और मैं उपवास करके मर जाऊँगा ।” इस प्रकार उन चरणों में ५०१ बागियों ने हथियार डाले और अच्छाई और सच्चरित्रता के जीवन को अपनाया । यह विचित्र हृदय परिवर्तन सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में अपनी तुलना नहीं रखता । १३ अप्रैल, १९७३ को जयप्रकाश जी की धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती जी का स्वर्गवास हो गया । यह जयप्रकाश जी के जीवन की कठोरतम कसौटी थी सारी अग्नि परीक्षाओं से बढ़कर अग्नि परीक्षा थी । परन्तु उन्होंने इस पर भी बहादुर सिपाही की भाँति विजय प्राप्त की। छात्रों और बिहार की जनता की प्रार्थना पर जयप्रकाश जी ने अस्वस्थ होने पर भी बिहार आन्दोलन का नेतृत्व किया । ८ जून, १९७४ को पटना के मौन जुलूस से इसका श्रीगणेश हुआ था फिर ५ जून को दिल्ली का विशाल प्रदर्शन और ३ अक्तूबर से ५ अक्तूबर ७४ तक बिहार बन्द का आयोजन | जनवरी ७७ में भारत की जनता को जनता पार्टी के रूप में नेतृत्व प्रदान . कर जयप्रकाश जी ने ‘युगपरिवर्तन’ उपस्थित कर दिया ।
           १४ फरवरी, १९४८ को रेडियो पर पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण में कहा था –
          “जयप्रकाश जी की काबलियत और ईमानदारी पर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा है। एक मित्र के नाते मैं उनकी इज्जत करता हूँ और मुझे यकीन है कि एक वक्त आयेगा जब भारत के भाग्य निर्माण में वे महत्वपूर्ण पार्ट अदा करेंगे।”
          ८ अक्टूबर, १९७९ को प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में ५.४५ बजे मौत से हार माननी पड़ी। हृदम विदारक समाचार सारे राष्ट्र में बिजली की तरह कौंध गया। सारा राष्ट्र शोक में निमग्न था। दीर्घकालीन अस्वस्थता से ऊबकर एक दिन पूर्व ही ७ अक्तूबर ७९ को लोकनायक ने कदम कुँआ स्थित अपने निवास स्थान पर अपने डाक्टर से कहा था- ‘यह उधार की जिन्दगी कब तक चलेगी”। देश-विदेश के नागरिकों एवं राजनीतिकों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए लोकनायक के निधन को राष्ट्र की अपूरणीय क्षति बताया । ९ अक्तूबर, १९७९ को दोपहर दो बजकर पाँच मिनट पर उनका पार्थिव शरीर राजकीय सम्मान के साथ अग्नि को समर्पित कर दिया गया। अपने प्यारे नेता की अन्तिम झलक पाने के लिये पटना की सड़कों पर नर-नारियों का उमड़ा सैलाब भीगी आँखों से अब घर लौटने लगा था ।
          स्वर्गीय राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ ने लोकनायक के प्रति लिखा था –
है जयप्रकाश जोकि पंगु का चरण, मूक कीभाषा है,
है जयप्रकाश वह टिकी हुई जिस पर स्वदेश की आशा है,
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है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादर देता है,
बढ़कर जिसके पदचिह्नों की उर पर अंकित कर देता है I
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कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है, 
ज्वाला को बुझते देख कुण्ड में कूद स्वयं जो पड़ता है ।
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