“रोहिणी” (अन्तरिक्ष अनुसन्धान में १९८० की एक ठोस उपलब्धि)

“रोहिणी” (अन्तरिक्ष अनुसन्धान में १९८० की एक ठोस उपलब्धि)

          भारतीय वैज्ञानिक १९७५ में ‘आर्य भट्ट’ और १९७९ में ‘भास्कर’ दो भारतीय उपग्रह पहले ही अन्तरिक्ष कक्ष में स्थापित कर चुके थे पर भीतर ही भीतर घुटन महसूस कर रहे थे क्योंकि ये उपग्रह रूस की धरती से और रूस के राकेटों द्वारा छोड़े गये थे। अनवरत श्रम और अथक अनुसन्धानों ने भारतीय वैज्ञानिकों को गौरवपूर्ण वह दिन भी जल्दी ही दिखा दिया जबकि भारत की धरती से और भारत के राकेटों द्वारा भारत के उपग्रह “रोहिणी” को आकाश की कक्षा में स्थापित करने में सफल एवं समर्थ हो सके। इसके साथ भारत उपग्रह-देशों का छठवाँ सदस्य भी बन गया। अपने साधनों से उपग्रह छोड़ने वाले अन्य देश-रूस, अमेरिका, फ्रांस, चीन और जापान हैं।
          १८ जौलाई, १९८० को मद्रास से सौ किलोमीटर दूर आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी तट पर स्थित श्री हरिकोटा से अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा चार चरणों के राकेट से ‘रोहिणी’ उपग्रह को प्रातः आठ बजकर चार मिनट पर उत्थापित किया गया। एस० एल० बी०-३ यान भीषण वेग से काले व सफेद धुयें की लकीर छोड़ता हुआ आकाश में उठा। इसी पर सवार था ३५ किलोग्राम वाला उपग्रह रोहिणी । आठ मिनट बाद यह उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में स्थापित हो गया ।
          टेलीविजन पर केन्द्र के २००० वैज्ञानिक इस राकेट का छोड़ा जाना देख रहे थे। उड़ान के  समय राकेट यान की चाल २८ हजार मील प्रति घण्टा थी । उससे आग का जेट निकल रहा था। राकेट केन्द्र से हर्षित तकनीशियनों को निकलते देख कर पत्रकारों को सबसे पहिले संकेत मिला कि राकेट एस० एल० बी० – ३ द्वारा उत्थापन सफल रहा है। यह राकेट विक्रम सारा भाई अंतरिक्ष केन्द्र में बनाया गया था । उपग्रह उत्थापन यान एस० एल० बी० – ३ के प्रक्षेपण के पहिले अंतरिक्ष शोध संस्थान में वैज्ञानिकों ने पूजा की थी ।
          भारत को उपग्रह स्थापित करने में सफलता दूसरे प्रयास में मिली है । गत वर्ष अगस्त १९७९ को एस० एल० बी० -३ की पहिले परीक्षण उड़ान की गई थी। इसमें भी एक देय भार को कक्षा में स्थापित करने की कोशिश की जानी थी परन्तु उत्थापन यान बंगाल की खाड़ी में गिर गया, राकेट के दूसरे चरण में खराबी पैदा हो गई । भारत ने अब अपने प्रयास से ही उपग्रह छोड़ा है। वह सम्भवतः किसी भी देश द्वारा अपने पहिले प्रयास में छोड़े गये उपग्रहों में सबसे छोटा है। इसका वजन ३६ किलो है । परन्तु इससे भारत का महत्व कम नहीं होगा।
          चीन ने अपने पहले प्रयास में सबसे भारी उपग्रह छोड़ा था, उसका वजन ३०० किलोग्राम था। चीन ने द्रव ईंधन का इस्तेमाल किया था परन्तु भारतीय राकेट में चारों चरणों में १३ टन ठोस ईंधन का इस्तेमाल किया गया है । यह ईंधन अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों ने ही विकसित किया है। इन वैज्ञानिकों का यह दावा है कि इस प्रस्थापन यान एस० एल० बी० – ३ को मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र के रूप में बदला जा सकता है । यदि कोई देश ३६ हजार किलोमीटर ऊँचाई पर पृथ्वी की गति के साथ ही घूमने वाले उपग्रह को स्थापित कर सकता है तो माना जाता है कि वह अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र चलाने में समर्थ है। चीन ने १९०० में माध्यमिक दूरी के प्रक्षेपास्त्र और १९८० के आरम्भ में अन्तर्महाद्वीपीय दूरी के प्रक्षेपास्त्र बनाने में सफलता पायी है। भारत भी अगले दशक में अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र क्षमता को विकसित कर पायेगा ।
          सोवियत संघ ने ४ अक्टूबर, १९५७ को जो स्पुतनिक-१ छोड़ा था उसका वजन ८५ किलोग्राम था और वह ९२ दिन कक्षा में परिक्रमा करता था । अमेरिका ने ३१ जनवरी, १९८५ को जो एक्सप्लोरर – १ छोड़ा था वह स्पुतनिक से बड़ा था । फ्रांस ने अपना पहला उपग्रह १९६४ में छोड़ा। चीन ने ८ अप्रैल, १९७० को अपना उपग्रह चीन- १ छोड़ा जो अन्य देशों के उपग्रहों की अपेक्षा सबसे भारी था। जापान ने अपना पहिला उपग्रह १९७० में छोड़ा। वह भी भारत के उपग्रह से वजनी था। ब्रिटेन ने १९७१ में उपग्रह छोड़ने का प्रथम और अन्तिम प्रयत्न किया। भारत ने १९६७ में जो राकेट छोड़ा था वह पैंसिल के बराबर था । यह बहुत हल्की और विनम्र शुरुआत थी। इस राकेट में ३५० ग्राम विस्फोटक पदार्थ थे इसका व्यास ७५ मिलीमीटर था। इससे हमें अनुभव का बहुत बड़ा लाभ हुआ। उसी ज्ञान के परिणामस्वरूप हम एस० एल० बी-३ बना सके जिसका वजन १७ टन और ऊँचाई २२ मीटर थी।
          हिन्दू पंचांग के २६ नक्षत्रों में से चौथे नक्षत्र पर इस उपग्रह का नाम रोहिणी रक्खा गया है। इसका कारण यह है कि भगवान कृष्ण का जन्म भी रोहिणी नक्षत्र में ही हुआ था। उपग्रह छोड़ने का मुख्य उद्देश्य राकेट की ४४ मुख्य प्रणालियाँ और ढाई सौ उपप्रणालियों को परखना और मूल्यांकन करना है। यह प्रणालियाँ इतनी जटिल हैं कि उनमें एक लाख पुर्जे और दस लाख जोड़ हैं। साथ ही इसका एक उद्देश्य यह मालूम करना है कि राकेट में रोहिणी को अन्तरिक्ष में ले जाने की कितनी गति और क्षमता है तथा उसे भावी कार्यक्रमों में कितना और कैसे बढ़ाया जा सकता है। इस परीक्षण का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि अब भारतीय वैज्ञानिकों के समक्ष नयी-नयी राहें खुल गई हैं और नयी-नयी मंजिलें दिखाई देने लगी हैं। वर्तमान परीक्षण के परिणामों के अध्ययन और आँकड़ों के विश्लेषण के बाद नई और बड़ी शृंखलाओं के राकेट छोड़े जायेंगे। इनमें तरल ईंधन का उपयोग किया जायेगा। है
          भारत अपनी वैज्ञानिक प्रगति और उपलब्धियों को शान्ति और रचनात्मक कार्यों में लगायेगा, सैनिक उपयोग में नहीं। प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने १८ जौलाई, १९८० को भारतीय वैज्ञानिकों को बधाई देते हुये लोकसभा में कहा था, “मैं अपने वैज्ञानिकों तथा औद्योगिकों को इस सफलता पर बधाई देती हूँ । राष्ट्र को उन पर गर्व है। भविष्य में भी उन्हें ऐसी ही सफलतायें मिलें इसके लिये मेरी शुभकामनायें उनके साथ हैं।”
          भारत में अन्तरिक्ष कार्यक्रम से विविध लाभ प्राप्त हो रहे हैं। हवाई जहाजों के बनाने के उद्योग और इलेक्ट्रोनिक्स व्यवसाय को इससे निरन्तर सहायता मिल रही है । अन्तरिक्ष विभाग का कथन है कि उसने जो अनेक तकनीकी विधियाँ और प्रक्रियायें खोज निकाली हैं उनकी सूचना हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड को दे दी गई हैं। नये उपग्रहों से भारत की भू-संरचना, समुद्रों, नदियों, बर्फ आदि साधनों तथा सम्पदा की महत्वपूर्ण सूचना प्राप्त हुई है और हो रही हैं जैसा कि सरकार में भेजे गये चित्रों से स्पष्ट है। इन सूचनाओं के आधार पर जन कल्याण की विभिन्न योजनायें और विकास कार्यक्रम तैयार किये जा सकते हैं । इन उपग्रहों के द्वारा मौसम वैज्ञानिकों को जो पूर्व सूचना मिलेगी उसके आधार पर बाढ़ों से होने वाला विनाश कम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा, कृषि, डाक, तार, टेलीफोन तथा दूरदर्शन प्रसारण कार्यक्रमों को सुस्पष्ट बनाने के लिये उपग्रह बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।
          भारत अब ६०० किलोग्राम का उपग्रह ५०० किलोमीटर दूरी तक स्थापित करने का प्रयास करेगा। इसके लिये वह द्रव ईंधन का विकास कर रहा है। फ्रांस ने द्रव ईंधन से इंजन बनाने की औद्योगिकी भारत को दी है। भारत ने तीन टन वजन फेंकने की क्षमता वाले राकेट का परीक्षण कर लिया है। द्रव ईंधन इंजनों तथा प्रतिस्थापित यानों के परीक्षण के लिये भारत एक विशाल केन्द्र बनाने जा रहा है। पूर्वी तट पर ५० लाख की लागत से उत्पादन केन्द्र बनाया जायेगा। कुछ धातुओं और धातु मिश्रणों को छोड़कर अन्य सभी चीजों के मामले में भारत आत्मनिर्भर है। ईश्वर भारतीय वैज्ञानिकों की सहायता करे ।
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