राष्ट्र और विद्यार्थी
राष्ट्र और विद्यार्थी
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
माता और मातृ-भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। वास्तव में यह कथन सत्य है । माता ने तो केवल हमें जन्म दिया, परन्तु मातृ-भूमि ने तो हमें प्यार भरे अंक में लेकर हमारा लालन-पालन किया, उसकी पवित्र रज में लेटकर हम बड़े हुए हैं। हमारे जीवन के लिये उसने अन्न दिया, वस्त्र दिया। उसने एक से एक श्रेष्ठ द्रव्यों के द्वारा हमारा पोषण किया । मातृ भूमि की अनन्त कृपा से हमने संसार के समस्त सुखों का उपभोग किया । उस अनन्त कृपामयी जन्मभूमि के प्रति हमारा अनन्त कर्त्तव्य है, चाहे हम विद्यार्थी हों, गृहस्थी हों अथवा संन्यासी हों। श्री मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है –
“मृतक समान अशक्त अवश आँखों को मीचे,
गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे ।
करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण दिया था।
जो जननी का भी सर्वदा ही पालन करती रही,
तू क्यों न हमारी पूज्य हो, मातृभूमि माता मही । “
अतः राष्ट्र का और विद्यार्थी का वही सम्बन्ध है, जो माता और पुत्र का होता है। उनकी मान-मर्यादा की रक्षा करने का सब पर समान उत्तरदायित्व है। विद्यार्थी यह कहकर कि हम तो विद्यार्थी हैं, इससे बच नहीं सकते। आज के विद्यार्थी कल के नागरिक हैं। उन्हें प्रारम्भ से ही अपने राष्ट्र और अपने देश के प्रति कर्त्तव्यों को जानना चाहिए । प्रारम्भ से ही उन्हें अपना दृष्टिकोण विस्तृत और कार्य-क्षेत्र विशाल रखना चाहिए । विद्यार्थी का समस्त जीवन केवल अपना ही नहीं, वह समाज और राष्ट्र का भी है। विद्यार्थी से राष्ट्र को बहुत कुछ आशा रहती है।
देश के सभी व्यक्ति अपने-अपने कार्य व्यापारों से अपने व्यक्तिगत जीवन को उन्नत और समृद्धिशाली बनाने का प्रयत्न करते हैं। वे सभी प्रयत्न अप्रत्यक्ष रूप से देशहित के लिए ही होते । विद्यार्थियों का मुख्य ध्येय विद्या प्राप्त करना है। जहाँ वह विद्या उनके जीवन को समुन्नत और सशक्त बनाती है, वहाँ देश को भी प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है। देश का कल्याण देशवासियों पर ही निर्भर होता है, चाहे वह किसी श्रेणी का हो या किसी योग्यता का हो । इसके लिये यह कोई, निश्चित सीमा नहीं कि देश सेवा का अधिकार अमुक व्यक्ति को है, अमुक को नहीं । हम सभी देश के अंग हैं। हमारा अपना-अपना पृथक्-पृथक् कार्य क्षेत्र है। कोई व्यापार द्वारा धनोपार्जन करके देश को धन-धान्य पूर्ण और समृद्धिशाली बनाता है, कोई शिक्षा द्वारा, कोई अपने राजनीतिक कार्यकलापों द्वारा, तो कोई समाज सुधार के द्वारा। उसी प्रकार, विद्यार्थी भी शिक्षा के द्वारा ज्ञानार्जन के करके देश-सेवा का पुनीत कार्य करते हैं । निकट भविष्य में देश का भार इन्हीं विद्यार्थियों के बलिष्ठ कन्धों पर आयेगा। ये देश के भावी कर्णधार हैं। विद्यार्थियों में विशुद्ध राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करके उन्हें देश-सेवा के पवित्र कार्य में लगाया जा सकता है। भारतवर्ष को अपने विद्यार्थी समुदाय पर गर्व है। इस विषय में भी विद्वानों के दो मत हैं। एक कहता है कि विद्यार्थी जीवन भावी मनुष्य का निर्माण-काल है। जिस प्रकार नींव निर्बल होने पर भवन के गिर जाने का भय रहता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने, सभा सोसाइटियों में आने आदि से चित की स्थिरता नष्ट हो जाती है, अतः विद्यार्थी जीवन में एकाग्रचित होकर पूर्ण मनोयोग से विद्याध्ययन ही करना चाहिये । दूसरों का विचार है कि भावी जीवन के विशाल कर्त्तव्य क्षेत्र के लिये मनुष्य विद्यार्थी जीवन में ही आवश्यक शक्ति एकत्रित करता है। उसकी बुद्धि और विद्या की परीक्षा इसी में है कि वह दूसरों की सेवा, सहायता और उन्नति के लिये अपने को वहाँ तैयार कर पाया है या नहीं। इन दोनों विवादों से इतना अवश्य स्पष्ट है कि विद्यार्थी का भी राष्ट्र से उतना सम्बन्ध है जितना देश के अन्य वर्गों का ।
विश्व के सभी देशों में समय-समय पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए विद्रोह हुए, क्रान्तियाँ हुई । उन देशों के इतिहास का अवलोकन करने से विदित होता है कि इनमें नागरिकों के साथ-साथ विद्यार्थियों ने बहुत बड़ी संख्या में भाग लिया और अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में कोई कमी “नहीं की। भारतवर्ष में भी स्वतन्त्रता यज्ञ में हँसते-हँसते न जाने कितने ही विद्यार्थियों ने अपने प्राणों की आहुति दी । सन् १९४२ में जब कि देश के समस्त नेता जेलों में बन्द कर दिये गये थे, विद्यार्थियों ने ही देश के स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व किया था। भारत के समस्त अंचलों में क्रान्ति की ज्वाला जलाने वाले विद्यार्थी ही थे, जिन्होंने अपने त्याग से विदेशी शासन की नींव हिला दी थी । सुभाष, नेहरू, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, आदि महापुरुष विद्यार्थी जीवन में ही नेतृत्व शक्ति प्राप्त कर चुके थे । न जाने कितनी माताओं के लाड़ले पुत्रों ने अपने अध्ययन से विरक्त होकर स्वतन्त्रता संग्राम में अपने प्राणों की बलि दे दी। विद्यार्थियों को राष्ट्र सेवा के लिए आह्वान करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं –
“जीवन रण में वीर पधारो, मार्ग तुम्हारा मंगलमय हो।
गिरि पर चढ़ना, गिर कर बढ़ना, तुमसे सब विघ्नों को भय हो II”
“भारत के सौभाग्य विधाता, भारत माँ के अधिकारी ।
भारत विजय क्षेत्र में आओ, प्यारे भारतीय विद्यार्थी ॥”
एक समय था जबकि देश की प्रत्येक प्रगति, चाहे वह धार्मिक हो या आर्थिक, चाहे वह सामाजिक हो या वैदेशिक, सभी राजनीति के अन्तर्गत आती थी। परन्तु आज के युग में राजनीति शब्द का अर्थ इतना संकुचित हो गया है कि अब इसका अर्थ केवल वर्तमान सरकार का विरोध करना ही समझा जाता है।
भारतवर्ष एक गणतन्त्र देश है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि देश की नीति का संचालन करते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति शासन में अपना प्रतिनिधित्व चाहता है। अपने स्वार्थ में दूसरों को बहकाने का प्रयास करता है। वह गन्दी दलबन्दी ही आज की राजनीति है, जिससे दूर रहने के लिए विद्यार्थियों से कहा जाता है। विद्यार्थियों के पास उत्साह है, उमंग है, परन्तु साथ-साथ अनुभवहीनता के कारण जब शासन उनके विरुद्ध कार्यवाही करता है, तब उस समय उन पथ भ्रष्ट करने वाले नेताओं के दर्शन भी नहीं होते। जनता कहती है कि स्वतन्त्रता संग्राम में विद्यार्थियों को भाग लेने के लिये प्रेरणा देने वाले आज उन्हें राजनीति से दूर रहने के लिये क्यों कहते हैं? निःसन्देह विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेने का अधिकार है, पर देश की रक्षा के लिये, उनके सम्मान एवं संवर्धन के लिये, न कि शासन के कार्य में विघ्न डालने और देश में अशान्ति फैलाने के लिये ।
विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य विद्याध्ययन ही है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। उन्हें अपनी पूरी शक्ति ज्ञानार्जन में ही लगानी चाहिये। अब भारतवर्ष स्वतन्त्र है। अपने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये एवं पूर्ण समृद्धि के लिये हमें अभी बहुत प्रयत्न करने हैं। देश के योग्य इंजीनियरों, विद्वान् डाक्टरों, साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों, वैज्ञानिकों और व्यापारियों की आवश्यकता है, इसकी पूर्ति विद्यार्थी ही करेंगे । विद्यार्थियों की देशभक्ति देश की रचनात्मक सेवा करने में है न कि विरोध प्रदर्शन में । हमारा देश अज्ञानान्धकार के गहन गर्त में शताब्दियों से विलीन है। विद्यार्थी देश में ज्ञान- रश्मियों के प्रसार में पूर्ण सहयोग दे सकते हैं ।
विद्यार्थी राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। देश की समस्त आशाएँ इन्हीं पर निर्भर हैं। उन्हें अपने समय, अपनी शक्ति, अपनी कार्यक्षमता और अपने बौद्धिक बल का देश की दुर्गन्धिपूर्ण राजनीति में अपव्यय नहीं करना चाहिये । देश सेवा ही उनकी राजनीति है। उनका विधिवत् पूर्ण परिश्रम से अध्ययन करना ही देश की प्रगति करना है ।
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