राष्ट्रभाषा हिन्दी

राष्ट्रभाषा हिन्दी

          भारतवर्ष की पवित्र भूमि विदेशियों से पदाक्रान्त थी। उन्हीं के रीति-रिवाज और उन्हीं को सभ्यता को प्रधानता दी जाती थी। अंग्रेजी पढ़ने, बोलने और लिखने में भारतीय गौरव का अनुभव करते थे। राज्य के समस्त कार्यों की भाषा अंग्रेजी ही .थी । न्यायालयों के निर्णय, दफ्तरों की कागजी कार्यवाही, विश्वविद्यालयों की शिक्षा, शासकीय आज्ञाएँ सभी कुछ। अंग्रेजी में होता था । हिन्दी में लिखे गये प्रार्थना-पत्रों को फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता था । बेचारे भारतीय विवश होकर अच्छी नौकरी एवं शासन के मान की लालसा से अंग्रेजी पढ़ते थे । संस्कृत को तो ‘मातृभाषा’ की उपाधि प्रदान कर दी गई थी । एक प्रवाह था, एक धूम मची हुई थी, सारे देश में अंग्रेजी की।
          परन्तु देश के भाग्य ने पलटा खाया, भारतीय साधकों की साधनायें फलवती हुईं । १५ अगस्त १९४७ को देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई। जब तक देश में अंग्रेज थे तब तक अंग्रेजी का स्ववश या परवश आदर होता था। परन्तु उनके जाने के पश्चात् यह नितान्त असम्भव था कि देश के सारे राजकाज अंग्रेजी में हों। अतः जब देश का संविधान बनने लगा तब प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि देश की राष्ट्रभाषा कौन-सी हो? क्योंकि बिना राष्ट्रभाषा के कोई भी देश स्वतन्त्र होने का दावा नहीं कर सकता। राष्ट्रभाषा समूचे राष्ट्र की आत्मा को शक्ति सम्पन्न बनाती है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी राष्ट्रभाषा के प्रचार और प्रसार का प्रयत्न करता है। रूस, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, आदि स्वतन्त्र देशों में अपनी-अपनी राष्ट्रभाषायें हैं। राष्ट्रभाषा से देश के स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा होती । संविधान निर्माण काल में कुछ ऐसे भी व्यक्ति थे, जो, अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा बनाये रखने के पक्ष में थे। इस प्रकार के वे भारतीय थे, जो अंग्रेजी साहित्य के निपुण थे, ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन थे और जिन्हें हिन्दी पढ़ना या लिखना बिल्कुल नहीं आता था। उन्हें भय था कि यदि हिन्दी राष्ट्रभाषा हुई, तो कहीं उनका पद उनसे छिन न जाये या वे इतनी सफलतापूर्वक कार्य न कर सकें, जितना ये लोग अंग्रेजी में कर सकते थे। इस प्रकार इस विचारधारा के पीछे केवल स्वार्थबुद्धि ही थी, कोई राष्ट्रीय भावना नहीं । कुछ लोग अन्य प्रान्तीय भाषाओं के भी पक्ष में थे । भारतवर्ष में लगभग सौ से अधिक भाषायें हैं जिनमें हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल और तेलुगू आदि प्रमुख हैं।
          भारतवर्ष में इस विषय पर अत्यधिक वाद-विवाद चलता रहा। अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा इसलिये घोषित नहीं किया जा सकता था कि छत्तीस करोड़ भारतीयों में से एक करोड़ भी ऐसे नहीं थे जो आत्मविश्वासपूर्वक अंग्रेजी बोल सकते हों, या लिख सकते हों। जिस भाषा को मुट्ठी भर आदमी ही जानते हों, उसे राष्ट्रभाषा बना देना लोकतन्त्रात्मक देश की जनता पर अत्याचार था। दूसरी बात यह थी की जिन विदेशियों के शासन को हमने मूलतः उखाड़ फैंका था, उनकी भाषा को यहाँ रखने का तात्पर्य यह था कि हम किसी न किसी रूप में उनकी दासता में फँसे रहें। परिणामस्वरूप अंग्रेजी का प्रश्न समाप्त हो गया। अन्य प्रान्तीय भाषायें भी अपनी व्यापकता में हिन्दी से बहुत पीछे थीं । हिन्दी के पक्ष में तर्क यह था कि सर्वप्रथम यह एक भारतीय भाषा है, दूसरी बात यह है कि जितनी संख्या हिन्दी भाषा-भाषी जनता की देश में है, उतनी अन्य किसी प्रान्तीय भाषा की नहीं। तीसरी विशेषता यह है कि हिन्दी बोलने वालों की संख्या चाहे पन्द्रह करोड़ ही हो परन्तु समझने वालों की संख्या सबसे अधिक है। देश के प्रत्येक अंचल में हिन्दी सरलता से समझी जाती है, भले ही लोग बोल न सकते हों। मुगलकाल से ही उर्दू के रूप में हिन्दी में प्रचार समस्त भारत भूमि में किसी न किसी रूप में होता रहा है। चौथी बात यह है कि हिन्दी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सरल है इसमें शब्दों का प्रयोग तर्कपूर्ण है। दो तीन महीनों के अल्प समय में ही सीखी जा सकती है। पाँचव विशेषता यह है कि इसकी लिपि वैज्ञानिक है और सुबोध है, जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। इसके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक सभी प्रकार के कार्य व्यवहारों के संचालन की पूर्ण क्षमता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय संविधान में सभी ने यह निश्चय किया कि हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा तथा देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि बनाया जाये।
          ‘हिन्दी’ राष्ट्रभाषा उद्घोषित हो जाने पर भी एकदम उसका प्रयोग में आ जाना कठिन था। अत: राजकीय कर्मचारियों को यह सुविधा प्रदान की गई कि सन १९६५ तक केन्द्रीय शासन का कार्य व्यावहारिक अंग्रेजी में ही चलता रहे और इन पन्द्रह वर्षों में हिन्दी को पूर्ण समृद्धिशाली बनाने के प्रयत्न किये जायें। इस बीच में सरकारी कर्मचारी भी हिन्दी सीख लें। उन्हें शासन की ओर से हिन्दी पढ़ाने की विशेष सुविधायें दी गईं। शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी अनिवार्य विषय बना दिया गया। शिक्षा मन्त्रालय की ओर से हिन्दी के पारिभाषिक शब्द निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ तथा इसी प्रकार की अन्य सुविधायें भी शासन की ओर से हिन्दी शिक्षा को दी गईं जिससे १९६५ में हिन्दी, अंग्रेजी का स्थान पूर्ण रूप से ग्रहण कर ले ।
          इस प्रकार शासन और जनता जहाँ हिन्दी को आगे बढ़ाने में प्रयत्नशील हैं, वहाँ ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं जो टाँग पकड़ कर पीछे घसीटने का प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों में कुछ ऐसे भी है जो हिन्दी को संविधान के अनुसार सरकारी भाषा मानने को तैयार हैं, परन्तु राष्ट्रभाषा नहीं। कुछ ऐसे भी हैं, जो उर्दू का निर्मूल पक्ष समर्थन करके राज्य कार्य में विघ्न डालते रहते हैं। उल्लेखनीय यह है कि जो सज्जन पहिले हिन्दी का हृदय खोलकर समर्थन कर रहे थे उनमें भी विरोधी मुखरित हो उठे हैं। राजा जी ने एक बार ये शब्द कहे थे, “केन्द्रीय सरकार तथा कानून की भाषा और प्रान्तीय सरकारों के परस्पर तथा भारत सरकार के साथ व्यवहार की भाषा हिन्दी अवश्य स्वीकार करनी होगी।” डॉक्टर चटर्जी ने १९४६ में कहा था, “विभिन्नता रहते हुए समस्त भारत की जड़ें अखण्ड हैं। भाषा और संस्कृति में इस सत्य का प्रतीक हिन्दी है।” “संगच्छध्वं संवदध्वं” आधुनिक भारत जीवन में इस मन्त्र को सार्थक करने का साधन हिन्दी ही है।” वास्तव में बिना के क्षेत्र के राष्ट्रीय भाषा के पद पर आसीन हुए कोई भाषा इस योग्य हो ही नहीं सकती।
          हिन्दी के विरोध में जितनी भी आवाजें आ रही हैं, उनके मूल में प्रमुख कारण राजनैतिक है। यदि ठण्डे हृदय से एकान्त में विरोधी भी विचार करते होंगे तो अन्तरात्मा यही कहती होगी कि देश का कल्याण हिन्दी के राष्ट्रभाषा मानने में ही है। देश का बहुत बड़ा भाग अंग्रेजी को या अन्य किसी भारतीय भाषा को संस्कृति के आधार पर राष्ट्रभाषा स्वीकार करने को तैयार नहीं । राष्ट्रभाषा ऐसी होनी चाहिये जो देशवासियों के लिये सरल एवं सुगम हो, जिसे न जानने वाले व्यक्ति भी थोड़े से प्रयास से सीख सकें । हिन्दी का पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगला, आदि भाषाओं से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इन भाषाओं के बोलने वालें बिना किसी प्रयास के हिन्दी समझ लेते हैं। दक्षिण की कन्नड़, मलयालम और तेलुगू भाषाओं की वर्णमाला देवनागरी वर्णमाला ही है। इन तीनों भाषाओं में संस्कृत के शब्दों का प्राधान्य है। हिन्दी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी है। इस कारण वे भी हिन्दी सरलता से सीख सकते हैं। केवल तमिल एक ऐसी भाषा है, जो हिन्दी से नितान्त भिन्न है। इस प्रकार विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो सकती है।
          कुछ लोगों का विचार है कि हिन्दी के प्रभाव से धीरे-धीरे प्रादेशिक भाषायें समाप्त हो जायेंगी। कोई भी प्रदेशवासी अपनी भाषा को छोड़ना कभी पसन्द नहीं कर सकता, परन्तु उनकी यह धारणा भी,भ्रान्तिमूलक है। केन्द्रीय सरकार ने राज्य सरकारों को यह सुविधा प्रदान की है कि वे अपने राज्य का कार्य अपनी प्रादेशिक भाषाओं में कर सकती हैं। बंगाल में बंगला, पंजाब में पंजाबी तथा मद्रास में तमिल राज्य-भाषा घोषित की जा चुकी हैं। इस प्रकार अन्य प्रदेशों में भी प्रांतीय भाषाओं को राज्य भाषा बना दिया गया है। प्रान्तीय भाषायें समृद्धिशालिनी हों, इसमें न केन्द्रीय सरकार को कोई आपत्ति है और न किसी अन्य व्यक्ति को ही । हिन्दी केवल केन्द्रीय सरकार की राज-भाषा होगी। प्रान्तीय सरकारें अन्य प्रान्तों की सरकारों से या केन्द्रीय सरकार से पत्र-व्यवहार हिन्दी में करेंगी ।
          हिन्दी को समृद्धिशाली एवम् सम्पन्न बनाने के लिये हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम उदार दृष्टिकोण अपनायें | हिन्दी के द्वार प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों के लिए खोल दें। इसके लिए हमें व्याकरण के नियमों को सुगम बनाना होगा। तद्भव शब्दों का तत्सम शब्दों में परिवर्तन कर देने के कारण भाषा में जो कृत्रिमता आ गई है, उसे एकदम दूर करना होगा अन्यथा भाषा की जटिलता उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी। शासन की ओर से पारिभाषिक शब्दों का जो निर्माण हो रहा है, उनका प्रमाणीकरण अवश्य हो जाना चाहिये । बाबू गुलाबराय ने इस विषय में कहा है, “पारिभाषिक शब्दावली का सारे के लिये प्रमाणीकरण आवश्यक हो, क्योंकि जब तक हमारी शब्दावली सारे देश में न समझी जायेगी, तब तक न तो वैज्ञानिक सहकारिता ही सम्भव हो सकेगी और न विद्यार्थी ही लाभ उठा सकेंगे।” आशा है राष्ट्रभाषा हिन्दी समस्त देश को एक सूत्र में आबद्ध करके नवराष्ट्र के निर्माण में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकेगी । परन्तु दुर्भाग्य है कि भारतवासियों के हृदय में हिन्दी के प्रति जो ममत्व १९४७ के पूर्व था आज वह भूला बिसरा स्वप्न जैसा लगता है।
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