राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद

राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद

          भारत के संविधान में देश को एक धर्म निरपेक्ष राज्य अवश्य घोषित किया गया है, लेकिन आज भी भारतीय राजनीति में धर्म या सम्प्रदाय की विशेष भूमिका रही है। हम धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना तो कर सके हैं। लेकिन धर्म निरपेक्ष समाज का स्वप्न अभी भी अधूरा है। देश में विश्वासों और विभिन्न राजनीतिक दलों के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के तनाव और विवाद उत्पन्न होते रहे हैं। इन्हीं तनावों और विवादों ने हमारे समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य का विष फैलाया है जो आज भारत के अनेक भागों में विद्यमान है। आज वस्तु स्थिति यह है कि धर्म और सम्प्रदाय राजनीति का शोषण करने लगे हैं, जबकि देश की स्वाधीनता के पूर्व राजनीतिज्ञ धर्म और सम्प्रदाय का शोषण करते थे। इस प्रकार भारत की राजनीति में धर्म से सम्बन्धित सम्प्रदाय राजनीतिक दलों के लिए ‘वोट बैंक’ बन गये हैं। इन सम्प्रदायों ने राजनीतिक क्षेत्र में प्रभावशाली बनने के लिए अपनी संस्कृति व धर्म का ‘राजनीतिकरण’ किया है और अवसर प्राप्त होने पर राजनीतिक दलों के साथ सौदेबाजी भी की है। भारत के दोनों प्रमुख सम्प्रदायों – हिन्दू तथा मुसलमानों में निहित इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने एक मामूली विवाद को आज एक ज्वालामुखी पर्वत बना रखा है, जिसकी आग में न केवल सैकड़ों निरपराध असमय ही काल कलवित हो चुके हैं वरन् सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अशान्ति, अराजकता, जातीय विद्वेष की भावना व्याप्त है। यह मामूली विवाद आज न केवल भारत के समाचार पत्रों में, वरन् विश्व के प्रमुख समाचार पत्रों में ‘राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद’ विवाद के शीर्षक से विख्यात हो रहा है ।
          राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद विवाद की पृष्ठ भूमि समझने के लिए हमें भारतीय इतिहास के पन्नों को पलटना होगा । वर्तमान अयोध्या नगर, को रामायण तथा अनेक पौराणिक ग्रन्थों में राम जन्म स्थान बताया गया है। बौद्धधर्म के पाली ग्रन्थों तथा परवर्ती ग्रन्थों में भी इस नगर को राम जन्म भूमि के रूप में ही वर्णित किया गया है। पुरातात्विक प्रमाणों से भी यह सिद्ध होता है कि इस नगर में समय-समय पर अनेक मन्दिरों का निर्माण होता रहा है। मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद भारत में अनेक असहिष्णु सुल्तानों तथा मन्दिरों को विध्वंस करने तथा उनके स्थान पर मस्जिद बनवाने का कार्य किया गया। लेकिन सल्तनत युग में विशेष कर फिरोज तुगलक और सिकन्दर लोदी के शासन काल में अयोध्या में राम जन्म भूमि का अस्तित्व बना रहा, यह निर्विवाद सत्य है I
          आज अयोध्या का मन्दिर व मस्जिद का यह विवाद-स्थल मुगल वंश के संस्थापक बाबर के शासन काल में अस्तित्व में आया था। बाबर की आत्म कथा तजुके बाबरी तथा मुस्लिम स्थापत्य कला के पर्सी ब्राउन सरीखे मर्मज्ञों के विवरणों से पता चलता है कि बाबर ने परम्परागत इस्लामी नीति के तहत कुछ मस्जिदों का निर्माण करवाया था । ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह भी पता चलता है कि सन् १५२८ में बाबर के सूबेदार मीर अब्दुल बकी ताशकन्दी (कुछ साक्ष्यों में मीर अब्दुल तकी) ने अयोध्या में मन्दिर को गिरवाकर उसके स्थान पर मस्जिद बनवाई थी । इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि मथुरा और वाराणसी आदि स्थानों पर भी मुंगल शासकों ने इसी तरह की मस्जिदों का निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है।
          सन् १५२८ से १८८३ ई० तक अयोध्या में मन्दिर मस्जिद विवाद सुप्त प्रायः रहा। इसके बाद अंग्रेजों की कूटनीति के फलस्वरूप इस विवाद की आग सुलगने लगी । सन् १८८३ में फैजाबाद के अंग्रेज कमिश्नर ने मुसलमानों के विरोध को ध्यान में रखते हुये विवादास्पद स्थल पर पुनः मन्दिर बनाने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया । सन् १८८५ में इस विवाद को लेकर अयोध्या में एक भीषण साम्प्रदायिक संघर्ष हो गया, जिसमें ७५ से अधिक लोग मारे गये। इसी वर्ष विवादास्पद स्थल के लिये मुकदमेबाजी भी शुरू हो गई । राम जन्म स्थान के महन्त अरद्युतिदास ने फैजाबाद के सहायक न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा दायर करके इस स्थान पर मन्दिर का निर्माण करने की आज्ञा माँगी, परन्तु न्यायालय ने इसकी अनुमति नहीं दी और जिला न्यायाधीश ने भी महन्त की अपील खारिज कर दी। इसके बाद २३ मार्च, १९४६ को फैजाबाद के दीवानी न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि मस्जिद को बाबर ने बनवाया था और सुन्नी तथा शिया मुसलमान इसका प्रयोग करते रहे हैं ।
          २२ दिसम्बर, १९४९ ई० को विवादास्पद स्थल पर राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गईं, लेकिन २३ दिसम्बर को ही जिलाधीश के आदेश से वहाँ ताला डाल दिया गया और दोनों सम्प्रदायों के लिए वहाँ प्रवेश निषिद्ध (वर्जित) कर दिया गया। इसके बाद पुनः मुकदमेबाजी का दौर आरम्भ हो गया ।
          सन् १९८४ में विवादास्पद स्थल पर मन्दिर निर्माण हेतु संघर्ष करने के उद्देश्य से ‘राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ का गठन किया गया। फरवरी १९८६ में फैजाबाद के न्यायाधीश श्री पाण्डेय ने जिला प्रशासन को आदेश दिया कि विवादास्पद स्थल का ताला खोल दिया जाये, से इस परिसर का मुख्य द्वार खोल दिया गया | ताला खुलते ही मुसलमानों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके यथापूर्व स्थिति बनाये रखने की अपील की ।
          सितम्बर १९८८ में हैदराबाद में एक विश्व हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें आयोजकों ने सरकार से विवादास्पद स्थल के सम्बन्ध में कोई बातचीत न करने तथा बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति के प्रस्तावित अयोध्या मार्च को रोकने की घोषणा की। बाद में सरकार के परामर्श पर मुसलमानों ने १२ मार्च, १९८९ को अयोध्या मार्च रद्द कर दिया ।
          सन् १९८९ में विश्वं हिन्दू परिषद् ने विवादास्पद स्थल पर २५ करोड़ रुपये की लागत से एक भव्य व विशाल मन्दिर बनाने का कार्यक्रम घोषित किया । १४ अगस्त, १९८९ को उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ ने अयोध्या में दोनों पक्षों को यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया। २९ सितम्बर, १९८९ को विश्व हिन्दू परिषद ने केन्द्रीय गृहमन्त्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री के साथ एक समझौता करके अदालत के निर्णय को मानने का आश्वासन दिया तथा १९ अक्टूबर, १९८९ को प्रस्तावित अयोध्या मार्च रद्द कर दिया, लेकिन शिलान्यास करने का निश्चय किया । ९ नवम्बर्, १९८९ को अयोध्या में शिलान्यास शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो गया। इसु अवसर पर केन्द्र सरकार ने यह तर्क दिया कि शिलान्यास स्थल विवादित स्थल से बाहर है ।
          २३ जून, १९९० को हरिद्वार में धर्माचार्यों के सम्मेलन में यह घोषणा की गई कि ३० अक्टूबर, १९९० को अयोध्या में मन्दिर निर्माण (कार सेवा शुरू किया जायेगा | अगस्त १९९० में भारतीय जनता पार्टी भी इस विवाद में कूद पड़ी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लाल कृष्ण अडवानी ने मन्दिर निर्माण हेतु जन समर्थन प्राप्त करने के लिए २५ सितम्बर, १९९० ई० को सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा आरम्भ कर दी । १७ अक्टूबर, १९९० ई० को भारतीय जनता पार्टी ने घोषणा की कि यदि अडवानी की रथ यात्रा रोकी गई या राम मन्दिर निर्माण में अवरोध उत्पन्न किया गया तो वह राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को दिया गया अपना समर्थन वापिस ले लेगी | २३ अक्टूबर, १९९० को समस्तीपुर में अडवानी की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद भारतीय जनता पार्टी ने केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया । परिणामस्वरूप वी० पी० सिंह की सरकार का पतन हो गया ।
          इस अवधि में केन्द्र व राज्य सरकार ने अयोध्या में यथास्थिति को कायम रखने के लिए ज़बरदस्त तैयारियाँ कीं। फिर भी ३० अक्टूबर, १९९० को हजारों की संख्या में कार सेवकों ने सुरक्षा बलों की भारी घेराबन्दी को तोड़कर अयोध्या में प्रवेश करने का प्रयास किया। इस अवसर पर सुरक्षा कर्मियों ने काफी संयम से काम लिया, इसी कारण कुछ कार सेवक मस्जिद तक पहुँच गये और वहाँ केसरिया झण्डा फहराने में सफलता प्राप्त कर ली तथा मस्जिद को भी आंशिक क्षति पहुँचाई। कार सेवकों की इन कार्यवाहियों से क्षुब्ध होकर कुछ लोगों ने सरकार की कटु आलोचना की । फलस्वरूप २ नवम्बर, १९९० को जब कार सेवकों ने पुनः वर्जित क्षेत्र में प्रवेश किया तो पुलिस ने कड़ी कार्यवाही, लगभग ढाई घण्टे तक हुई गोलाबारी में सैकड़ों लोग मारे गए और सैंकड़ों घायल हो गए। इसके बावजूद भी कारसेवक हतोत्साहित नहीं हुए तथा ६ दिसम्बर, १९९० से कार सेवकों ने अयोध्या में पुनः सत्याग्रह कार्यक्रम आरम्भ कर दिया है ।
          २३ अक्टूबर से २ नवम्बर, १९९० तक हुई दुखद घटनाओं ने देश के अनेक राज्यों को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक दिया। साम्प्रदायिकता की इस आग में सैंकड़ों लोगों को अपने जीवन की आहुति देनी पड़ी और इस साम्प्रदायिक उन्माद ने १९४६-४७ की घटनाओं का पुनः स्मरण करा दिया। इस साम्प्रदायिक उन्माद को शान्त करने के लिये केन्द्र व राज्य सरकारें अथक प्रयत्न कर रही हैं, परन्तु इसके लिये सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं हैं। लोगों को यह महसूस करना होगा कि सबको मिलजुल कर रहना चाहिए । इस समय यह विचार करना उचित नहीं है कि इन दुखद घटनाओं के लिए कौन दोषी है, बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि हर मूल्य पर साम्प्रदायिक सद्भाव को बनाये रखा जाये ।
          आज राष्ट्रहित और जनहित के लिये यह आवश्यक है कि इस विवाद को आपसी बातचीत तथा सद्भाव से हल किया जाये। अतः सम्बन्धित पक्षों को सरकार की मध्यस्थता के बिना ही परस्पर बातचीत करके इस विवाद का कोई समुचित हल निकालना चाहिए ।
          अतः आज देश की इस संकट की घड़ी में सभी नागरिकों को जाति और धर्म का आपसी मतभेद भुलाकर अपनी समस्याओं व विवादों को स्वयं ही मिल-जुलकर हल करना होगा, तभी हमारा भारत एक सच्चे धर्म निरपेक्ष देश का प्रतीक बनकर विश्व के समक्ष एक उत्कृष्ट उदाहरण रख सकेगा ।
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