यशस्वी नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी

यशस्वी नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी

          बीते पचास वर्षों में श्री वाजपेयी ने क्या-क्या नहीं देखा – बरसाती फुहारें देखीं, उन्हें सूखते देखा । धैर्य और साहस के धनी ने उन्हें फिर से हरी-भरी होते भी देखा। मर्यादा के सिंहासन पर विराजमान राजनीति को धराशायी होते देखा, उठाने का अपने बुद्धि कौशल से प्रयास भी किया पर नगाड़ों के आगे तूती की आवाज, उनकी ध्वनि विलुप्त हो गई। जिन फूलों को मुरझाते देखा, डबडबायी आँखों से उन्हें खाद दिया, पानी दिया और फिर उन्हें हरा भरा कर दिया। पत्रकारिता को पारदर्शी और जनप्रिय बनाकर ठोस जनाधार का निर्माण किया ।
          बीते पचास वर्षों में श्री वाजपेयी ने क्या-क्या नहीं किया – शत्रुओं को मित्र बनाया, वक्तृता को सर्वोच्च शिखर दिया। देश को धर्म निरपेक्षता दी, भयभीतों को निर्भयता का पाठ पढ़ाया। लोकतन्त्र की रक्षा के लिये अपनी राह आप चुनीं । कट्टर पंथियों को उदारता का पाठ पढ़ाया। इस अजातशत्रु ने देश के कण-कण को संघर्ष की जगह प्यार का पाठ पढ़ाया। साहित्य को प्राचीन प्रकोष्ठों मे से निकाल कर आधुनिक मलयाचल की शुचि, शीतल, मन्द समीर से परिचय कराया और अपने दर्द की अभिव्यक्ति भी उसी में की –
“मेरे प्रभु, मुझे इतनी उँचाई कभी मत देना कि मैं गैरों को गले लगा न सकूँ इतनी रुखाई कभी मत देना ।”
          १९४२ और ७७ में जेल की दीवारें भी अपने में दबाकर इन्हें बदल न सकीं । इनकी कुशाग्रता और सत्यनिष्ठा के सामने वे भी बौनी बन गई । देश के प्रथम प्रधानमन्त्री और अद्वितीय दार्शनिक पं० जवाहर लाल नेहरू ने श्री वाजपेयी जी के बारे में और उनकी शब्दों की जादूगरी के बारे में कहा था –
“वाजपेयी की जुबान में सरस्वती है, ये किसी दिन किसी ऊँवे पढ़ को प्राप्त करेंगे।”
          श्री वाजपेयी जी ने कृत्रिमता से दूर रहना देश को सिखाया, गाँधीवादी दर्शन जन-जन तक पहुँचाने में अद्वितीय सार गर्भित कार्य किया। उनके राजनैतिक लम्बे सफर में सहसा १९७८ में एक ऐसा मोड़ आया जिससे वे कट्टर पंथी हिन्दुत्व से प्रखर गाँधीवादी समाजवादी नेता के रूप में अवतरित हो गये। इस बौद्धिक परिवर्तन ने उन्हें साम्प्रदायिक से उदारवादी और नरमपंथी बना दिया, उन्होंने लिखा था ” हो सकता है कल हम सभी फैशनबाज, गाँधीवादी हो जायें, गाँधी जी के आदर्शों के अपनाने के बजाय सिर्फ लफ्फाजी करने से ज्यादा बदतर और कुछ नहीं हो सकता।” श्री वाजपेयी जी का मानना है कि आजाद भारत ने गाँधीजी से विश्वासघात किया। एक कविता उन्होंने अपनी इस भावना को अभिव्यक्ति भी दी है। ‘क्षमा याचना’ शीर्षक से इस कविता में उन्होंने लिखा है –
क्षमा करो बापू तुम हमको वचन भंग के हम अपराधी I
राजघाट को किया अपावन, मंजिल भूले, यात्रा आधी II
          १९२४ में ईसाई, प्रभु ईसा का जन्म दिन मनाने में हर्ष और खुशियों में सराबोर हो रहे थे। यदि ये कहें कि पं० कृष्ण बिहारी वाजपेयी के यहाँ दूसरे ईसा मसीह का जन्म हो रहा था तो अतिश्योक्ति न होगी। कौन जानता था कि आज जन्म लिया बालक भारत जैसे महान् देश का प्रधान मन्त्री होगा। पं० कृष्ण बिहारी बाजपेयी स्कूल मास्टर थे और अटल जी के दादा पं० श्यामलाल वाजपेयी जाने-माने संस्कृत के विद्वान् थे। अटल जी के नाम से लोक प्रिय श्री वाजपेयी की शिक्षा विक्टोरिया कालेज ग्वालियर में प्राप्त हुई और आज के लक्ष्मी बाई कॉलेज से उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की । राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे डी० ए० वी० कॉलेज कानपुर चले गये । इसके बाद कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिये अध्ययन प्रारम्भ किया। नौकरी से अवकाश लेने के बाद उनके पिता ने भी कानून की शिक्षा के लिये अपने बेटे के साथ प्रवेश लिया। पिता-पुत्र दोनों एक ही होस्टल के एक ही वर्ग रहे थे ।
          श्री वाजपेयी अपने प्रारम्भिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सम्पर्क में आ गये ये वह आर्य कुमार सभा के सक्रिया सदस्य रहे । १९४२ में वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से जुड़े और १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जेल भी गये । १९४६ में आर० एस० एस० ने उन्हें प्रचारक बनाकर लड्डुओं के प्रसिद्ध नगर संडीला शहर भेज दिया। कुछ महीने बाद उनकी प्रतिभा के प्रभा मण्डल से प्रेरित होकर आर० एस० एस० ने लखनऊ से प्रकाशित ‘राष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादक नियुक्त कर दिया। फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपना मुख-पत्र ‘पाञ्चजन्य प्रारम्भ किया और श्री वाजपेयी जी उसके प्रथम सम्पादक बनाये गये। कुछ वर्षों में ही वाजपेयी जी ने पत्रकारिता में विशिष्ट ख्याति अर्जित करके विशिष्ट स्थान बना लिया। बाद के वर्षों में उन्होंने वाराणसी से प्रकाशित ‘चेतना’, लखनऊ से प्रकाशित ‘दैनिक स्वदेश’ और दिल्ली से प्रकाशित ‘वीर अर्जुन’ का सफलता और कुशलता से सम्पादन किया ।
          श्री वाजपेयी की क्षमताओं, बौद्धिक कुशलता और भाषण कला को देखते हुए श्यामाप्रसाद मुखर्जी और पं० दीनदयाल उपाध्याय जैसे महान् नेताओं का ध्यान उनकी ओर गया। श्री वाजपेयी जन संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और बाद में वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निजी सचिव बन गये। श्री वाजपेयी ने १९५५ में पहली बार चुनाव मैदान में पैर रखा जब विजय लक्ष्मी पंडित द्वारा खाली की गई लखनऊ सीट के उपचुनाव में वह पराजित हो गये । आज वह इसी संस क्षेत्र से जीतकर प्रधानमंत्री पद तक पहुँचे हैं। वर्तमान कार्यकाल समेत श्री वाजपेयी आठ बार लोक के लिये चुने गये हैं और दो बार राज्य सभा के सदस्य रहे हैं। श्री वाजपेयी ने १९७४ में संसद से त्याग पत्र देने की इच्छा व्यक्त करके सभी को चौंका दिया था तब उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण संसदीय लोकतंत्र की प्रभावहीन होती मर्यादा व सदन का सत्तारूढ़ दल के ‘रबर स्टैम्प’ के रूप में H बदल जाना बताया था ।
          श्री वाजपेयी ने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ में ही लखनऊ की सीट पर हार का मुह देखकर न हिम्मत खोई और न साहस गँवाया अपितु चौगुने उत्साह से १९५७ में बलरामहरजीतकर पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया । इसी चुनाव क्षेत्र से १९६२ में कांग्रेस की सुभद्रा जोशी से फिर हार गये लेकिन १९६७ में उन्होंने फिर इस सीट पर कब्जा कर लिया। उन्होंने १९७१ में ग्वालियर सीट पर १९७७ और १९८० में नई दिल्ली, १९९१, १९९६, तथा १९९८ में लखनऊ संसदीय सीट पर विजय प्राप्त की है। वे १९६२ से ६७ तक तथा १९८६ से ८९ तक ऊपरी सभा के सदस्य रहे ।
          श्री वाजपेयी १९५७ से १९७७ तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता, १९६८ से १९७३ तक जन संघ के अध्यक्ष और १९७७ के बाद जनता दल के विभाजन के बाद बनी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक थे । श्री वाजपेयी की सेवाओं से प्रभावित होकर भारत सरकार ने १९९२ में इन्हें “पद्म विभूषण” से सम्मानित किया था। वर्ष १९९३ में मानवाधिकार से जुड़ी बैठक के लिये जेनेवा जा हे प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व भी वाजपेयी जी ने किया, इस दौरे को आशातीत सफलता मिली। सीलिये कई राष्ट्रीय प्रतिनिधि मण्डलों के नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती रही है । इस कार्य नं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वाजपेयी सर्वाधिक ख्याति प्राप्त है। १९९४ में उन्हें श्रेष्ठ सांसद के तौर पर गोविन्द बल्लभ पंत और लोकमान्य तिलक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।
          जनता पार्टी के संस्थापक के सदस्यों में भी श्री वाजपेयी शामिल थे और आपातकाल के बाद जनता पार्टी की आँधी चलने पर बनी मोरारजी देसाई सरकार में ये विदेश मन्त्री बनाये गये। विदेश मन्त्री के रूप में उन्होंने पड़ौसी देशों खास कर पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने की पहल कर सब को चौंका दिया। संयुक्त राष्ट्र महासभा को हिन्दी में सम्बोधित कर श्री वाजपेयी ने एक तरह का इतिहास कायम किया और वहाँ आर्थिक मुद्दों विकासशील एवं विकसित देशों के बीच संवाद, निरस्त्रीकरण, पश्चिम एशिया और रंगभेद की ओर सदस्य राष्ट्रों का ध्यान खींचा।
          आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ श्री वाजपेयी भी जेल गये । जब १९७७ में आपातकाल समाप्त हो गया तो जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के काम में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
          श्री वाजपेयी ने अनेक पुस्तकें लिखीं हैं जिनमें उनके लोकसभा में भाषणों का संग्रह, ‘लोकसभा में अटल जी’ ‘मृत्यु या हत्या, ‘अमर बलिदान’, ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ’, ‘कविता संग्रह’,न्यू डाइमेन्शन ऑफ इण्डियन फोरन पालिसी’, ‘फोर डिकेट्स इन पार्लियामेन्ट’ और शीघ्र ही प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मेरी इक्यावन रचनायें’ प्रमुख हैं।
          श्री वाजपेयी अनेक प्रमुख संसदीय समितियों के सदस्य रहे हैं। वह साठ के दशक में आश्वासन समिति और इसी दशक में लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहे हैं ।
          विनम्र, कुशाग्र बुद्धि एवं अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न श्री वाजपेयी १९ मार्च, १९९८ को संसदीय लोकतन्त्र के सर्वोच्च पद पर प्रधानमन्त्री के रूप में दुबारा आसीन हुए हैं। लगभग २२ महीने पहिले भी वे इस पद को सुशोभित कर चुके हैं लेकिन संख्या बल के आगे त्याग पत्र देना पड़ा था। विशाल जनादेश ने श्री वाजपेयी से स्थायी और सुदृढ़ सरकार देने का आग्रह किया है। आशा है कि वे जनता के विश्वास को सफल सिद्ध कर सकेंगे ।
जयन्ति ते सुकृतिनः जनसेवा परायणाः ।
नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजं भयम् ॥
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