मेरे जीवन की एक दुर्घटना

मेरे जीवन की एक दुर्घटना

          मैं तो जानता ही हूँ, सम्भवतः आप भी जानते होंगे हिमालय और विन्ध्याचल आदि पर्वतों की तरह ही एक छोटा-सा पर्वत है जिसका घेरा लगभग सात-आठ मीलों का होगा । उसके विषय में पुराणों में कहा गया है कि कृष्ण ने कुपित इन्द्र से ब्रजवासियों की रक्षा करने के लिये उसे अपनी अंगुली पर उठा लिया था। उसका नाम गोवर्धन है। यह पर्वत मथुरा से लगभग दस-पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है। उसी के चरण में एक छोटी-सी नगरी भी बसी हुई है। उस नगरी को भी उसी पर्वत के नाम से पुकारा जाता है। आप मोटर वालों के मुँह से यह सुनें कि ‘क्या बाबू जी आप गोवर्धन चल रहे हैं ?’ ब्रज यात्रा में गोवर्धन पर्वत का विशेष महत्त्व है, उसकी पूजा होती है और गौमुख पर न जाने कितने मन दूध भी चढ़ता है । मन्दिरों में भगवान की भाँति ही नित्य प्रायः सायं उसकी आरती होती है और भोग भी लगाया. जाता है। भारत के दूर-दूर के राज्यों से क्या गुजरात, क्या बंगाल, सभी स्थानों से असंख्य श्रद्धालु भक्त वहाँ जाकर श्रद्धा से भेंट चढ़ाते हैं ।
          आषाढ़ का महीना था। पूर्णिमा दो-चार दिन में आने वाली थी । धार्मिक दृष्टिकोण से इस पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है । कोई इसे गुरु पूर्णिमा कहता है और कोई व्यास- पूर्णिमा । भारतवर्ष में भी प्राचीन पद्धति के अनुसार इस पवित्र तिथि को गुरु की पूजा की जाती है। श्रद्धालु शिष्य इस तिथि को अपने-अपने गुरुजनों को कुछ न कुछ उपहार में अवश्य भेंट करते हैं। गोवर्धन में एक विशाल उत्सव होता है। देश के समस्त अंचलों से लाखों व्यक्ति यहाँ एकत्रित होते हैं और इस पूर्णिमा के दिन गोवर्धन की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा में भाग लेने वाले असंख्य व्यक्ति होते हैं। अधिकांश मनुष्य पैदल ही चलकर परिक्रमा देते हैं। कुछ श्रद्धालु भक्त पैदल न चलकर लम्बे लेट कर उस परिक्रमा मार्ग की दूरी को तय करते हैं। इसे यहाँ की भाषा में ‘दण्डौती परिक्रमा’ कहते हैं। सुना जाता है कि गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा देने से मनुष्य की मनोकामना पूर्ण हो जाती है और यदि कोई ‘युगल जोड़ी’ अर्थात् पति-पलि मिलकर परिक्रमा देते हैं, तो अधिक पुण्य फल प्राप्त होता है। वहाँ कई वृक्ष ऐसे हैं जिनकी शाखाओं में यात्री कपड़े की दो चीर बाँध कर आपस में गाँठ लगाते हैं, पर्वत पर पड़े हुए पत्थर के टुकडों से लोग छोटे-छोटे घर बनाते हैं। यह सब विभिन्न मनोकामनाओं को पूरा करने के लिये ही किया जाता है। गोवर्धन की परिक्रमा करने के बाद यात्रियों को राधा-कुण्ड और कृष्ण-कुण्ड की परिक्रमा करनी पड़ती है, ये भी इसी एक परिक्रमा में सम्मिलित हैं। इस प्रकार, चलने वाले को आठ नौ कोस चलना पड़ता है और तब कहीं उसे मनोवांछनीय फल प्राप्त होता है। होता भी है या नहीं, कौन जाने पर लोग ऐसा कहते हैं। कहावत है ‘श्रद्धावान् लभते फलम्’ “अगर श्रद्धा है तो सब कुछ मिल जाता है ।
          यद्यपि मैं एक-दो बार पहले भी गोवर्धन की परिक्रमा कर चुका था, परन्तु इस वर्ष भी बड़ी तीव्र इच्छा हुई, मनोरथ भी याद नहीं रहा कि इस तीव्र इच्छा की पृष्ठभूमि में क्या था? घर वालों के एक-दो बार मना करने पर भी कि इतनी भीड़ में अकेले जाना अच्छा नहीं, मैं नहीं माना। आखिर आज्ञा मिल गई और पूर्णिमा को प्रातः ही मैं अलीगढ़ से मोटर द्वारा मथुरा को चल दिया। इस परिक्रमा के कारण मोटरों में भीड़ तो बहुत थी, परन्तु मुझे कोई विशेष कष्ट नहीं हुआ। मेरे पास कोई विशेष सामान भी नहीं था, केवल एक थैला, जिसमें एक तौलिया था, शीशा – कंघा था, शायद साबुन भी था, स्नान करने के बाद पहनने को एक धोती थी । मैं कुर्ते धोती में था— कुर्ता नया मलमुल का था, इसी प्रकार धोती भी नई थी । जूता पन्द्रह-सोलह दिन पहले ही पहना था, , बनियान थी और कुर्ते की जेब में एक चमड़े का बटुआ था, जिसमें पन्द्रह रुपये थे, सात मेरे और आठ दूसरे के । अलीगढ़ से मोटर द्वारा मथुरा पहुँचा । दिन अच्छा था, कुछ बादल हो रहे थे, इसलिये सूर्य की किरणें तेज मालूम नहीं हो रही थीं। एक अड्डे पर उतर कर दूसरे अड्डे के मार्ग को रिक्शे द्वारा तय किया और गोवर्धन जाने वाली मोटर में बैठ गया । बहुत भीड़ थी, मोटर भी रोजाना से बीस गुना ज्यादा जा रही थीं परन्तु जहाँ और दिन तीस पैसे सवारी थी, वहाँ आज एक रुपया सवारी थी । मोटर भरते ही चल दी ओर उसने थोड़ी देर में गोवर्धन पहुँचा दिया। चारों ओर असंख्य आदमियों की भीड़ थी । जिधर दृष्टि जाती उधर मनुष्य ही मनुष्य दिखाई पड़ रहे थे, तिल रखने को न धर्मशाला में स्थान था और न सड़क के इधर-उधर । जंगल तक में आदमी ठहरे हुए थे, मुझे ठहरना तो था नहीं फिर भी भीड़ में इधर-उधर घूमा। छह बज चुके थे, सूर्यास्त के बाद परिक्रमा आरम्भ करने का निश्चय किया था। गोवर्धन पर्वत के बीच में एक विशाल कुण्ड है, जिसे वहाँ के लोग ‘मानसी गंगा’ के नाम से पुकारते हैं। परिक्रमा से पहले और श्रद्धालु भक्त बड़ी भक्ति से इस कुण्ड में स्नान करते हैं और उसके बाद परिक्रमा आरम्भ करते हैं। मैंने भी मानसी गंगा में स्नान किया और परिक्रमा के लिये पग बढ़ाए ।
          निश्चित स्थान, जहाँ से परिक्रमा प्रारम्भ होती है, वहाँ पहुँचा । परिक्रमा के लिए जंगल का चौड़ा मार्ग है । उस पर असंख्य यात्री एक साथ चलते हैं । रात्रि का समय था, अनन्त साधु-संन्यासियों से यात्रा पथ संकुलित था। बीच बीच में पानी भरा हुआ था; गड्ढे थे और कीचड़ हो रही थी, शायद कुओं पर बनी हुई अस्थिर प्याऊओं का वह जल था। मेरे हृदय में भी यही इच्छा हुई कि कपड़े खराब करने से क्या लाभ और मुझे यहाँ जानता ही कौन है ? एक तो साधु-संन्यासी बहुत थे और रात में वैसे भी लोगों ने कपड़े उतार रखे थे, क्योंकि पैदल १५ किमी चलना आसान नहीं था। मैंने भी कपड़े उतार लिए, यहाँ तक कि बनियान और धोती भी उतार कर थैले में रख ली । नीचे केवल कोपीन बाँधे हुए था। धोती-कुर्ता, बनियान, जूते तथा रुपये का बटुआ अर्थात् सारा सामान जो कुछ मेरे पास था वह थैले में रख दिया और प्रसन्न मुद्रा में अपने को कृत्रिम साधुओं की श्रेणी में कल्पना करता हुआ जल्दी-जल्दी परिक्रमा लगाने लगा। गृहस्थ यात्री रुक-रुक कर परिक्रमा देते हैं, एक-दो मील चलने के बाद विश्राम कर लेते हैं और कुछ खा-पीकर आगे बढ़ते हैं। इस प्रकार उनकी परिक्रमा में दो दिन लग जाना स्वाभाविक है। परन्तु बिना कहीं रुके, अव्यवहित रूप से चलते-चलते मैने अपनी परिक्रमा साढ़े चार बजे समाप्त कर दी ।
          शरीर थक चुका था। पैरों के तलवे बीच से फटे जा रहे थे, उषा के आगमन में अभी कुछ विलम्ब था। दुकानों के चबूतरों पर, सड़कों के किनारे और रेतीले खेतों में जहाँ जिसको जगह मिल गई थी, वहीं सो रहा था। मैने भी सोचा कुछ समय के लिये यदि कमर सीधी कर ली जाये तो अच्छा हो । जगह ढूँढी, मानसी गंगा की सीढ़ियों के ऊपर बाजार की सड़क थी और उस सड़क से मिला हुआ ही ऊपर की ओर एक रास्ता था । दो-चार सीढ़ी चढ़ने के बाद काफी बड़ा चौक दिखाई दिया, वहाँ एक बड़ा मन्दिर था। चौक में धरती पर ही हजारों आदमी सो रहे थे, मुझे भी एक कोने में जगह मिल गई । बिना कुछ बिछाये, कोपीन लगाये ही मैं धरती पर लेट गया, इस विचार से कि अभी थोड़ी देर में उठकर स्नान करके पहली मोटर से चल दूँगा । वह थैला, जिसमें मेरा सब सामान था, अपने सिर के नीचे तकिए की जगह पर बड़े आराम से लगा लिया । लेटा ही था कि आँख लग गई। कितनी देर सोया हूँगा इसका तो कुछ पता नहीं, परन्तु हाँ, इतना अवश्य मालूम हुआ कि पूरी तरह से प्रभात नहीं हुआ था, आँखे खुलीं। सोया था तब सिर कुछ ऊपर उठा था, क्योंकि थैले का तकिया था, परन्तु जब उठा तो सिर धरती पर रखा हुआ था और थैला गायब था। बस्, सन्न रह गया, इधर-उधर निगाह भी दौड़ाई पर कुछ पता नहीं चला। सैकड़ों आदमी आ-जा रहे थे, पूछा भी जाए तो किससे? कल्पना कीजिए कि मेरी उस समय क्या स्थिति हुई होगी, ‘न शरीर पर कपड़ा था और न किराए और न खाने के लिए पैसे । केवल एक कोपीन वस्त्र ही गात में बाकी था| क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था । सामने वाले मन्दिर के पुजारी के पास गया और वह सारा हाल सुनकर चुप रह गया, वह गरीब करता भी क्या ? मैंने उससे शौच जाने के लिए एक लोटा माँगा, पर लौटा उसने नहीं दिया, एक फूटी सी लुटिया दी, जिसमें कई छेद हो रहे थे, अन्तिम समय तक बड़ी मुश्किल से उसमें थोड़ा-सा पानी बच पाया उसकी लुटिया उसे दी और फिर अपनी बातें दोहराने लगा, इस उद्देश्य से कि शायद वह कोई तरकीब बताए । वह तो चुप रहा। इतने में उस मन्दिर में जो आगरे के लोग ठहरे हुए थे उनमें से एक ने मुझे बुलाया और इस घटना पर खेद प्रकट किया और बोला एक तरकीब तो हम बताते हैं अगर मानो तो । अन्धे को क्या चाहिए, दो आँखें । मैने कहा, “जरूर बताइए, आपकी बड़ी कृपा होगी।” वे महाशय बोले “देखो काफी भीड़ है हम तुम्हें कैंची दिये देते हैं। आगे-आगे तुम चलो और पीछे-पीछे हम दो-तीन आदमी चलते हैं, कोई बात होगी तो हम देख लेंगे।” कितना सुन्दर सत्परामर्श था। सुन तो लिया पर खून का घूँट पीकर रह गया | उनके हाथ जोड़कर वहाँ से लौट आया । परन्तु अब जाऊँ कहाँ और कैसे जाऊँ, इसी चिन्ता में मैं भी मानसी गंगा की सीढियों पर आ गया । सोच रहा था कि यदि कोई पढ़ा-लिखा समझदार व्यक्ति मिले तो उससे दो-चार रुपये उधार लिये जायें, अपना पता लिखवा दिया जाये और अलीगढ़ पहुँचकर उसके रुपये भेज दिये जायें। एक सज्जन स्नान के लिये कपड़े उतार चुके थे । आकृति से बड़े सभ्य, स्वस्थ शरीर वाले मालूम होते थे। सोचा शायद कुछ पढ़े-लिखे भी हों, ऐसा विचार करके मैं उनके निकट तक गया । मैंने कहा, “मुझे आपसे कुछ कहना है।” मेरी बात बिना सुने ही उन्होंने अपने पण्डा जी को आवाज दी और कहा, “पण्डा जी, इस जंजीर को और रख लीजिए, लुटेरे आने लगे हैं।” यह कहते हुए उन्होंने वास्तव में अपने गले में से सोने की जंजीर उतार कर पण्डा जी को दे दी । अपने ऊपर मुझे इतनी ग्लानि और घृणा आई कि आँखों में आँसू छलक पड़े, पीछे हट गया और चुपचाप एक स्थान पर जा बैठा, इस आशा में कि कभी तो भगवान को दया आएगी ही। ।
          भीड़ पर भीड़ एक ओर से आती और दूसरी ओर चली जाती, पर उसमें अपना कोई नहीं था। घड़ी ने नौ बजाए, मानसी गंगा पर स्नानार्थियों की भीड़ उमड़ने लगी। इतने में मेरे मुहल्ले में रहने वाले एक लाला अपनी माँ को साथ लिए दिखाई पड़े, पर मैं न बोला। उन्होंने दूर ही से पालागें की और वहाँ इस तरह मौन होकर बैठने का कारण पूछा। मैंने अपने साथ बीती हुई सारी घटना उन्हें सुनाई। वे बेचारे मुझे तुरन्त अपने साथ धर्मशाला ले गये, जहाँ वे ठहरे थे। उन्होंने अपने कपड़े दिये और पाँच रुपये दिये। उनसे शरीर ढककर किसी तरह अलीगढ़ तक आया । घर आकर उनके पाँच रुपये लौटाये और धुलवाकर कपड़े भी भेजे। फिर तब से आज तक मैं गोवर्धन नहीं गया।
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