मेरा प्रिय कवि-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मेरा प्रिय कवि-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

          हिन्दी कविता के क्षेत्र में अनेक महान् रचनाकार हुए हैं जिन्होंने अपने युग को प्रभावित करते हुए आने वाले युग को भी प्रेरित किया है। इन कवियों के काव्य-क्षेत्र और विषय अलग-अलग होकर भी ये देश और समाज के प्रति सदैव जागरुक रहे । कुछ कवियों ने राष्ट्र और समाज को ही अपनी काव्य-रचना का आधार बनाकर कविता को जन-जीवन से जोड़ दिया। ऐसे कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है । इस सभी कवियों की विशिष्टता युग-युग को प्रभावित करने वाली है। राष्ट्र समाज के सच्चे प्रहरी और जागरुक कवियों में शिरोमणि कविवर रामधारी सिंह दिनकर को शायद ही ऐसा कोई मंदबुद्धिवान् व्यक्ति होगा। जो नहीं जानता होगा । ‘दिनकर जी’ की काव्य-प्रतिभा के प्रभाव से सभी प्रभावित हैं। दिनकर जी अपने समय के सूर्य थे। दिनकर जी ने अपने परिचय के विषय में अपनी सर्वश्रेष्ठ काव्य-रचना ‘उर्वशी’ में पुरुरवा और उर्वशी के सम्वाद के अन्तर्गत पुरुरवा के द्वारा आत्म, आत्म-परिचय करते हुए लिखा है –
मर्त्यमानव के विजय का सूर्य हूँ मैं। 
उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।
अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूँ।
बादलों के सीस पर स्पन्दन चलाता हूँ ।
          कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (1908-1974 ई.) एक प्रतिभाशाली छात्र रहे हैं। छात्र जीवन में ही आपकी कविता अंकुरित होने लगी थी। आपने एक छोटे से किसान परिवार में जन्म लेकर अपनी अपार क्षमता का परिचय अपने व्यापक गम्भीर विचारों के द्वारा काव्य-रूप में अधिक दिया है। बिहार राज्य के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में सन् 1908 में जन्मे दिनकर जी ने बी. ए. आनर्स (इतिहास) की परीक्षा उत्तीर्ण करके कुछ दिनों वरबीया हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक फिर बाद में सन् 1934 ई. में बिहार राज्य सरकार के सब रजिस्ट्रार रहे। सन् 1943 में गृह सचिव तथा सन् 1946 में बिहार सरकार के प्रचार विभाग के उपनिदेशक भी रहे । सन् 1950 में बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा 1964 ई. में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित रहे। भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर कार्य करने के बाद आप भारत सरकार के गृह मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार के रूप में कार्य करते हुए 24 अप्रैल, 1974 ई. को तिरुपति में दिवंगत हो गए।
          ‘दिनकर’ जी ने अपने समस्त विचारों को इस समाज, इस लोक और इस जीवन के सूत्र से तैयार किया है। इस प्रकार उनका चिन्तन और काव्य-चित्रण भावपूर्ण है लेकिन वह कल्पित और अनुमानित नहीं है । ‘दिनकर’ तो यथार्थ को बड़ी मजबूती से पकड़ने वाले सफल कवि हैं। वे समाज के सच्चे हितैषी और शुभचिन्तक हैं । इसलिए समाज में विषमता का जाल फैलाने वाले मिल-मालिकों और सुविधाभोगी व्यक्तियों पर व्यंग्य प्रहार करते हुए दुःखी और शोषित-पीड़ित जन के प्रति सहानुभूति प्रकट करते रहे –
श्वानों को मिलता दुग्ध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं । 
मिल मालिक तेल फूलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं ।
युवती की लज्जा-वसन बेच, जब ब्याज चुकाए जाते हैं। 
तब पापी महलों का अहंकार, देता है मुझको आमंत्रण ।।
          ‘दिनकर’ ने अन्याय और शोषण को नथने के लिए कवि कृष्ण के रूप में शोषित और पीड़ित जनसमूह का चित्रण करते हुए अन्याय और शोषण रूपी काली – नाग को नथने का चित्रांकन किया है –
विषारी ! मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है।
फण पर तेरे खड़ा हुआ हूँ, भार लिए त्रिभुवन का,
बढ़ा-बढ़ा नासिका रन्ध्र में, मुक्ति-सूत्र पहनाऊँ । 
          कवि को आत्म-विश्वास है कि एक न एक दिन अवश्य प्रेम, दया, करुणा के द्वारा संसार से फैले शोषण-अभाव और अमानवता रूपी लोहे के पेड़ हरे होंगे –
धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसायेगी । 
दिन की कराल दाहकता पर, चाँदनी सुशीतल छायेगी
ज्वालामुखियों के कंठों में कलकंठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा ।
बेजान यंत्र – विरचित, गूँगी, मूर्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल खोल सबके भीतर शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल । 
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल ।
नम होगी यह मिट्टी जरूर, आँसू के कण बरसता चल ।। 
          ‘दिनकर’ जी ने सभी प्रकार के भेदभावों को मिटा कर समता- समन्वय का सन्देश दिया था। अत्याचारी से झुकने की नहीं, अपितु उसे झुकाने की शिक्षा देते हुए ‘दिनकर’ जी ने कहा है –
नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती ।
स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है ।। 
          ‘दिनकर’ ने विज्ञान की चकाचौंध से चौंधियाते हुए मनुष्य को कवि ने सावधान उसे वास्तविकता से परिचित होने के लिए आह्वान किया है –
सावधान ! मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार, 
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह स्मृति के पार | 
हो चुका है, सिद्ध तू, शिशु अभी अज्ञान,
फूल काँटों की तुझे, कुछ भी नहीं पहचान ।।
          ‘दिनकर’ जी सचमुच में पुरुषार्थ के कवि हैं। उत्साह और सम्बल के अमर गायक हैं। समता और ममता के हिमायती हैं । त्याग और समर्पण की प्रति मूर्ति है। स्नेह-बलिदान रूपी मानवता के सच्चे पक्षधर हैं; तभी वे अपनी सुप्रसिद्ध काव्य कृति कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह के द्वारा धर्मराज को दिए गए उपदेश ज्ञान के अन्तर्गत कहा है –
हार से मनुष्य की न महमा घटेगी और, 
तेज न घटेगा किसी मानव का जीत से।
स्नेह बलिदान होंगे माप नरता के एक,
धरती मनुष्य की बनेगी स्वर्ग प्रीति से ।। 
          उपर्युक्त सभी भावों को ‘दिनकर’ जी ने काव्य के विविध अंगों से भरा है। वीर रस आपका प्रधान रस है । शृंगार रस इसके बाद आपने यथेष्ट रूप में प्रयुक्त किया है। अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विशेषोक्ति आदि आपके प्रिय अलंकार हैं। आपके सभी रूपक और प्रतीकलोक प्रचलित हैं। इस प्रकार की विशेषताएँ आपकी सभी रचनाओं रेणुका, हुंकार, प्रणभंग, रसवन्ती, द्वन्दमीत, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, रश्मिरथी, उर्वशी आदि में पर्याप्त रूप से हैं। इन विशेषताओं के आधार पर ‘दिनकर’ जी वास्तव में अपने समय के दिनकर ही थे ।
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