मूल्य वृद्धि अथवा महँगाई की समस्या
मूल्य वृद्धि अथवा महँगाई की समस्या
प्रत्येक स्थिति और अवस्था के दो पक्ष होते हैं, पहला— आन्तरिक और दूसरा बाह्य । बाह्य स्थिति को तो मनुष्य कृत्रिमता से सुधार भी सकता है, परन्तु आन्तरिक स्थिति के बिगड़ने पर मनुष्य का सर्वनाश हो ही जाता है। बाहर के शत्रुओं की मानव उपेक्षा भी कर सकता है परन्तु आतंरिक शत्रु को वश में करना बड़ा आवश्यक हो जाता है । यही नियम हमारे देश की स्थिति के साथ भी लागू होता है। हमारे देश की बाह्य स्थिति चाहे कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विदेशों में हमारा कितना ही सम्मान क्यों न हो, हमारी विदेश नीति कितनी ही सफल क्यों न हो, हमारी सीमा सुरक्षा कितनी ही दृढ़ क्यों न हो, परन्तु यदि देश की आन्तरिक स्थिति मजबूत नहीं है, तो निश्चय ही एक न एक दिन देश पतन के गर्त में गिर जायेगा। देश की आन्तरिक स्थिति धन-धान्य और अन्न-वस्त्र पर निर्भर करती है। आज मानव-जीवन के दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं की महार्ध्यता (बढ़ी हुई कीमतें) देश के सामने सबसे बड़ी समस्या है। समस्त देश का जीवन अस्त-व्यस्त हुआ जा रहा है। उत्तरोत्तर वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे हैं, अतः जीवन निर्वाह भी आज के मनुष्य के समक्ष एक समस्या बनी हुई है । रुपये की कोई कीमत ही नहीं रही, भाव कई गुने बढ़ गये हैं, गरीब और मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के लिये जीवनयापन दूभर हो गया है। यही कारण है कि, अभाव और असन्तोष जीवन की अपेक्षा मानव मृत्यु को वरण करना अधिक श्रेयस्कर समझता है I
अर्थशास्त्रियों के अनुसार जब उत्पादन बढ़ता है, तब वस्तु का मूल्य कम हो जाता है सरकार कहती है कि हमारा उत्पादन बढ़ा है, सरकारी आँकड़े भी यह बताते हैं कि उत्पादन बढ़ रहा है, परन्तु वस्तु के मूल्य आठ गुने और दस गुने हो गये, यह बड़ी आश्चर्यजनक बात लगती है। आज का एक रुपया सन् १९४० के दस पैसे और सन् १९४७ के बीस पैसे के बराबर है। निश्चय ही कपड़ा, सीमेंट, लोहा, इस्पात, कागज आदि अन्य वस्तुओं का उत्पादन कई गुना बढ़ा है, इमारी सभी पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश की उत्पादन क्षमता हर क्षेत्र में बढ़ी है, फिर भी यदि आप इनमें से कोई वस्तु खरीदने जायें तो पहले तो मिलेगी ही नहीं और यदि मिल भी गई तो उन भावों पर, जिन पर आपको खरीदने के लिये कई बार सोचना पड़ेगा । अर्थशास्त्र के विद्वानों के अनुसार देश में इस समय खाद्यान्नों में ६० % की वृद्धि हुई तथा भूमि का मूल्य भी बहुत ” बढ़ा है। जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में भी कल्पनातीत वृद्धि हुई है, रुपया अवश्य ऐसा है, जिसके मूल्य में वृद्धि के स्थान पर ह्रास हुआ है । माचिस पहले एक पैसे की आती थी, अब २० पैसे की और कहीं-कहीं तीर्थ स्थानों में २५ पैसे की भी कठिनाई से मिलती है। जो साबुन पहिले बारह पैसे का आता था अब ढाई व तीन रुपये का आता है, जो जूता तीन चार रुपये का आता था अब वह ७० और १०० रुपये का आता है । जो कपड़ा पचास और साठ पैसे मीटर आता था वही १५ और २० रुपये मीटर आता है, जो घी १ रु० सेर आता था आज १०० रुपये किलो है। कहने का तात्पर्य है कि कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो सस्ते मूल्य पर बाजार में मिल सकें ।
प्रश्न उठता है कि इस अव्यवस्था का क्या कारण है ? क्या देश में इन पर नियन्त्रण करने वाला कोई नहीं ? बिना नाविक की सी नाव, जिधर पानी के थपेड़े बहाये लिये जा रहे हैं उधर ही वह सामाजिक अव्यवस्था की नौका बही चली जा रही है। आजकल समाज की कुछ ऐसी हालत है कि जिसके मन में जो आ रहा है, वही कर रहा है। अपने को पूर्ण स्वतन्त्र समझता है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, दीर्घकालीन परतन्त्रता के बाद, हमें अपना देश बहुत ही जर्जर हालत में मिला है, हमें नये सिरे से सारी व्यवस्था करनी पड़ रही है, नई-नई योजनायें बनाकर अपने देश को सँभालने में समय लगता ही है, कुछ लोग इस स्थिति का लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं, जिसके कारण सबको हानि उठानी पड़ती है। सरकार इस विषय में सतत् प्रयास कर रही है, काले धन की भी इस देश में कमी नहीं है, उस धन से चोर बाजारी से, लोग मनमानी मात्रा में वस्तु खरीद लेते हैं और फिर मनमाने भावों पर बेचते हैं, अतः निहित स्वार्थ वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और चोर बाजारी करने वालों के एक विशेष वर्ग ने समाज को भ्रष्टाचार का अड्डा बना रक्खा है। उन्होंने सामाजिक जीवन को तो दूभर बना ही दिया, राष्ट्रीय और जातीय जीवन को भी दूषित कर दिया है। समूचे देश के इस नैतिक पतन ने ही आज मूल्य वृद्धि की भयानक समस्या खड़ी कर दी है। मुनाफे के आगे, आज़ न परिचय रहा, न सम्बन्ध रहा और न रिश्तेदारी ही रही। यह तो रहा मूल्य वृद्धि का मुख्य कारण, इसके साथ-साथ अन्य कई कारण और भी हैं, जो उचित हैं— राष्ट्र की आय का साधन विभिन्न राष्ट्रीय उद्योग एवं व्यापार ही होते हैं। देश की उन्नति के लिये विगत • सभी पंचवर्षीय योजनाओं में बहुत-सा धन लगा, कुछ हमने विदेशों से लिया और कुछ देश में से ही एकत्र किया, छोटे सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़े, पड़ौसी शत्रुओं से देश के सीमान्त की रक्षा के लिए सुरक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ा, दिसम्बर १९७१ में पाकिस्तान से युद्ध करना पड़ा, बंगला देश के एक करोड़ शरणार्थियों पर लगभग एक वर्ष तक करोड़ों रुपयों का व्यय करना पड़ा, उसके बाद एक लाख युद्ध-बन्दियों पर १९७३ के अन्त तक पूरे दो वर्ष करोड़ों रुपयों का व्यय और इन सबके ऊपर देश के विभिन्न भागों में सूखा और बाढ़ों का प्राकृतिक प्रकोप तथा देश में खाद्यान्नों की कमी, आदि बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जिन पर हमने अपनी शक्ति से अधिक धन लगाया और लगा रहे हैं। सरकार के पास यह धन करों के रूप में जनता से ही आता है। इन सबके परिणामस्वरूप मूल्य बढ़े।
आज जनता में असन्तोष बहुत बढ़ गया है। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मूल्य वृद्धि से लोग परेशान हैं। सरकार के विरोधी दल इस स्थिति से लाभ उठा रहे हैं। कहीं वे मजदूरों को भड़काकर हड़ताल कराते हैं, तो कहीं मध्यम वर्ग को भड़काकर जुलूस और जलसे करते हैं, जो बात जितनी नहीं है वह उससे अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती है, अधिकांश भोली जनता को उन बातों का विश्वास होता है । स्व० पं० नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के अभाव में जनता में कुछ क्षणों के लिए जो निराशा फैला दी थी, उसे श्रीमती गाँधी के प्रभाव एवं प्रतापपूर्ण नेतृत्व ने समाप्त कर दिया है। १९८० के सप्तम महानिर्वाचन में जनता ने श्रीमती गाँधी का आशातीत समर्थन किया। आज देश के पास दृढ़ और स्थायी केन्द्रीय सरकार है । मूल्य वृद्धि का श्रीमती गाँधी ने बड़ी शक्ति और साहस के साथ मुकाबला किया तथा काले धन व चोर बाजारी करने वालों के लिये भी कठोर पग उठाये ।
वर्तमान मूल्य-वृद्धि की समस्या को रोकने का एकमात्र उपाय यही है कि जनता का नैतिक उत्थान किया जाये। उसको ऐसी नैतिक शिक्षा दी जाये, जिसका उसके हृदय पर प्रभाव हो । बिना हृदय परिवर्तन के वह समस्या सुलझने की नहीं, अपना-अपना स्वार्थ- साधन ही आज प्रायः प्रत्येक भारतीय का प्रमुख जीवन-लक्ष्य बना हुआ है। उसे न राष्ट्रीय भावना का ध्यान है और न देशहित का। इसके लिये यह परमावश्यक हो जाता है कि उसे उच्च कोटि की नैतिक शिक्षा दी जाए, जिससे उसका कलुषित हृदय पवित्र हो और व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा वह राष्ट्र हित और देश हित को सर्वोच्च समझे। दूसरा उपाय है, शासक दल का कठोर नियन्त्रण। जो भी भ्रष्टाचार करे, मिलावट करे या ज्यादा भाव में सामान बेचे उसे कठोर दण्ड दिया जाये। जिस अधिकारी का आचरण भ्रष्ट पाया जाये, उसे नौकरी से हटा दिया जाये या फिर कठोर कारावास दे दिया जाये, इस प्रकार घूस-खोरी समाप्त हो सकती है। आप जानते हैं कि बिना टेढ़ी उंगली किये तो घी भी नहीं निकलता, फिर यह तो ७० करोड़ जनता को शासन रहा। मूल्य वृद्धि के सम्बन्ध में जनसंख्या की वृद्धि या जीवन-स्तर आदि कारण भी महत्त्वपूर्ण है।
वर्तमान मूल्य वृद्धि पर हर स्थिति में नियन्त्रण लगाना चाहिये । इसके लिए सरकार भी चिन्तित है और बड़ी तत्परता से इसके रोकने का उपाय सोचे जा रहे हैं, परन्तु उन्हें कार्य रूप में परिणत करने का प्रयत्न ईमानदारी से नहीं किया जा रहा है। पिछले वर्षों में दिल्ली और बड़े-बड़े शहरों में कितने लाख मन छिपा हुआ अन्न गोदामों में बन्द पकड़ा गया, जबकि देश में अन्न के लिये त्राहि-त्राहि मची हुयी थी। हमें ऐसी प्रवृत्तियों को रोकने में सरकार की भी मदद करनी है और स्वयं को भी आचरण शुद्ध करना चाहिये । वास्तविकता यह है कि यदि सरकार देश की स्थिति में सुधार और स्थायित्व लाना चाहती है, तो उसे अपनी नीतियों में कठोरता और स्थिरता लानी होगी तभी वर्तमान मूल्य वृद्धि पर विजय पाना सम्भव है अन्यथा नहीं । १९८८ में जब केन्द्रीय सरकार में श्री नारायण दत्त तिवारी वित्त मन्त्री थे तब उन्होंने मूल्य वृद्धि रोकने के ठोस प्रयास किये थे। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार नवम्बर १९८९ में पदारूढ़ हुई । बेतहाशा मूल्य वृद्धि रोकने को सरकार ने संकल्प लिया । सन्तोष है कि ९० के मध्य तक मूल्य वृद्धि जहाँ की तहाँ रुकी हुई, बढ़ी नहीं है। परन्तु जिस सीमा तक यह मूल्य वृद्धि पहुँच चुकी थी सामान्य जनता के लिये वह भी सीमा से अधिक थी।
इस दिशा में सरकारी प्रयत्नों को और गति देने की आवश्यकता है, जिससे शीघ्र ही जनता को सुख सुविधायें मिल सकें। यदि देश में अन्न-उत्पांदन इसी गति से होता रहा और जन-कल्याण के लिये शासन का अंकुश कठोर न रहा और जनता में जागरूकता न रही तो मूल्य वृद्धि कोई रोक नहीं सकता। अन्यथा गरीब सब्जी से रोटी नहीं खा सकता क्योंकि १६ रुपये किलो जहाँ टमाटर होगा और चार रुपये किलो आलू होगा, २० रुपये किलो दालें होंगी उस देश का क्या होगा ।
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