भोपाल गैस काण्ड : एक त्रासदी

भोपाल गैस काण्ड : एक त्रासदी

          यूनियन कार्बाइड का यह कारखाना जिससे २ और ३ दिसम्बर की रात्रि में जहरीली गैस रिसी थी, भोपाल में बरसिया रोड, काली परेड में लगा भोपाल गैस काण्ड : एक त्रासदी है। प्रारम्भ में कारखाना महज बैटरियाँ बनाने और कीटनाशक फार्मुलेशन के लिए लगा था, वहाँ कालान्तर में मिक जैसी भंयकर विषाक्त गैसों का उत्पादन होने लगा। १९६९ में यह कारखाना इस गैस के उत्पादन हेतु नहीं वरन् इस गैस के सूत्रीकरण हेतु लगाने की योजना का अंग था | मिक का पूरा नाम है मिथाइल आइसो साइनेट (M.I.C.) गैस । इस फैक्ट्री का स्वामी यूनियन कार्बाइड (इण्डिया) लिमिटेड था जिसे यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन अमेरिका ने आवश्यक तकनीक और संयन्त्र दिये । १९७७ में इस कारखाने में कार्बोमाइजेशन, ७८ में अल्फानेथपाल संयन्त्र और ८० में मिक संयन्त्रों की स्थापना हो गई और मिक जैसी विषाक्त गैस का उत्पादन होने लगा । अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सहयोग से विदेशी मुद्रा कमाने के लोभ में पड़कर इस कारखाने की स्थापना की स्वीकृति दी गई थी । इस कारखाने के चारों ओर १९७५ से ही जो आबादी तेजी से बसनी प्रारम्भ हुई कि यह कारखाना सघन आबादी के मध्य में आ गया। यद्यपि प्रारम्भ में सरकार से लाइसेंस लेने की शर्तों में अल्फानेथपाल का उत्पादन करने की बात कही गई थी। आत तक जिसका उत्पादन नहीं किया गया उल्टे कम्पनी विदेशी मुद्रा फूंककर इस नेथपाल को अमेरिका से आयात करती है ।
          सन् १९७५ में भोपाल के प्रशासक एक० एन० बुच ने इस कारखाने को भोपाल से हटाने का नोटिस दिया था किन्तु इस कारखाने का गैस्ट हाउस सत्ता पक्ष के नेताओं के लिए मौज मस्ती का आरामगाह है, अतः कारखाना न हटाकर बुच साहब को ही भोपाल से स्थानान्तरित करवा दिया गया था। इसी गैस के दुष्प्रभाव से २६ जनवरी, १९८१ में एक मजदूर की मौत हो गई थी और ८२ में २४ व्यक्ति इसी गैस के शिकार होकर मौत की नींद सो गये थे । मध्य प्रदेश की विधान सभा में विरोधी पक्ष ने इस कारखाने की घटना पर प्रश्न उठाया था किन्तु बात आई गई हो गयी थी । भोपाल की शामली पहाड़ी पर मुख्यमन्त्री आवास के समीप कम्पनी का आलीशान गैस्ट हाउस है। जिसमें भूतपूर्व महाराजा, सांसद, केन्द्रीय मन्त्री, आला अफसर और बड़े-बड़े नेता ठहरने में गर्व का अनुभव करते हैं और उनका आतिथ्य कम्पनी की ओर से होता है। अतः मौत के दानव रूप में प्रस्थापित यह कम्पनी यहीं पर शोभायमान है । तत्कालीन महाप्रबन्धक सी० एस० राम ने अपनी दान वृत्ति और पहुँच के बल पर कारखाने की ओर किसी की टेढ़ी नजर न उठने दी । ये कीटनाशक गैस कितनी भयंकर होती है इसका उदाहरण है १९३० में बेल्जियम, ४९ में पेनसिल्वानिया, ५२ में लन्दन में तथा ८३ में लखनऊ में गैस रिसने से कई सौ लोग मूर्छित हो गये थे। १९८४ में मैक्सिको में गैस लीक होने की घटना से ४०० व्यक्ति मृत्यु के शिकार हो गये थे। किन्तु भोपाल के हादसे ने इस उपर्युक्त सभी घटनाओं को पीछे छोड़ दिया था। भोपाल के इस कारखाने में मिक गैस की तीन स्टोरेज टैंक हैं जिनमें से प्रत्येक टैंक की क्षमता ५० से ६० टन गैस की है। दुर्घटना के समय एक टैंक खाली था शेष दोनों में ४० तथा ३० टन मिक शेष थी। भूमिगत इन टैंकों के मध्य मिट्टी की मोटी पट्टी है जो सीमेन्ट-कंकरीट से ढकी है। ये टैंक स्वचालित रक्षात्मक कवच से युक्त हैं ।
          उस दुर्घटना की रात एक टैंक में किसी यांत्रिक खराबी के कारण कुछ पानी रिस कर चला गया और गैस के दबाव तथा ताप के कारण टंकी के फटने का भय उत्पन्न हो गया। हाइड्रोथार्मिक क्रिया के कारण कंक्रीट की सतह तड़कने लगी । विस्फोट और उसके प्रलय के भय ने अधिकारियों के हाथ-पाँव फुला दिये। अतः गैस को लीक करने का निर्णय लिया गया जिससे विस्फोट के द्वारा होने वाले महा विनाश से भोपाल को बचाया जा सके । सम्भावना यह थी कि कास्टिक सोडा स्क्रबर में से गुजरने के कारण गैस का जहर निष्क्रिय हो जायेगा किन्तु स्क्रबर संयन्त्र ने काम हो नहीं किया। अतः यह मिथाइल आइसो साइनेट चिमनी के रास्ते बाहर निकाली जाने लगी। सर्द रात होने के कारण यह गैस ऊपर जाकर हवा में विसर्जित न होकर घने कोहरे के साथ मिलकर नीचे बैठ गई और मौत का ताण्डव शुरू हो गया। एक समाचार के अनुसार एक सप्ताह पूर्व से टैंकों की सुइयाँ गैस के ताप और दबाव की सूचना दे रही थीं किन्तु कम्पनी के अधिकारियों की लापरवाही बरकरार रही। अतः अब ऐसी दशा में जिसने भी गैस रिसने को रोकने का प्रयास किया वही मृत्यु का शिकार हुआ। सुवरवाइजर मि० शकील भी घटना के शिकार हुए। गैस तेजी से छह फुट ऊपर लगे सुरक्षाकपाट को तोड़ती हुई १५० फुट ऊँचे वेट गैस पाइप से निकलने लगी और एक घण्टे में टैंक खाली हो गया। जान लेवा गैस फैलने लगी। वायु का प्रवाह उत्तर पूर्व की ओर था अतः जो टंकी से दक्षिण-पश्चिम की ओर भागे उन्हें कम हानि हुई किन्तु जो वायु की दिशा में स्टेशन की ओर तथा सड़कों पर भागे वे रास्ते में ही अपने प्राण गवां बैठे, घबराहट में खतरे का सायरन भी नहीं बजा । अतः उस रात्रि के ४-५ बजे के बीच जो सो रहे थे, वे सोते ही रह गये, जो आँखों में गैस की चुभन से जगे, वे भी कुछ समझ न सके तथा हो हल्ला मचने पर जो घरों से निकल कर भागने लगे वे आँखों से अन्धे हो जाने के कारण टकरा कर कहीं भी गिर पड़ते थे। पशु-पक्षियों की भी यही दशा थी। बंधे हुए पशु तो खूंटे पर ही तड़प-तड़प कर मर गये ।
          भोपाल गैस चैम्बर बन गया था। गैस की रिसने का समाचार सुनकर लोग पैदल और जिसके पास जो वाहन था उससे अपने प्राण बचाने के लिए अकेले या दुकेले भाग रहे थे । भीषण नरसंहार का दृश्य था। भोपाल की कई सड़के मुर्दा घाटी बन गई थीं। आँखों में जलन, सीने में बेचैनी और भयानक पीड़ा लिये स्त्री-पुरुष भाग रहे थे, बच्चे दम तोड़ रहे थे, पक्षी छटपटा रहे थे किन्तु जहरीली गैस अपने भयानक होने और मौत के पंजे बस्तियों को अपनी लपेट में कस रहे थे। तीन बजे रात्रि में छोला रोड, हमीदिया नगर, टी० पी० नगर, कोटरा सुल्तानाबाद तक गैस रिसने का समाचार पहुँचने लगा था । लोग घरों को खुला छोड़ कर बेतहाशा भाग रहे थे। शहर से बाहर जाने वाली सड़कों पर लोग नंगे पाँव दौड़ रहे थे। साइकिलें, स्कूटर, घोड़े-तांगें, कारें और जीप दौड़ रही थीं । कोई किसी की सुनता न था । पुलिस मुख्यालय भी सूना पड़ा था । प्रातः ५ बजे तक रोते-भागते चिल्लाते लोग टकरा रहे थे, गिर रहे थे, दौड़ रहे थे, शवों में बदलते जा रहे थे । ३ दिसम्बर से ६ दिसम्बर ८४ तक स्थिति यह रही कि श्मशान और कब्रिस्तान लाशों से पट गये| जलाना या दफनाना सम्भव ही नहीं हो रहा था । घरों और सड़कों पर भी शव पड़े थे लगभग तीन हजार स्त्री पुरुष बच्चे मौत की गोद में सो गये और पचास हजार स्त्री-पुरुष बच्चे घातक बीमारी लेकर आज भी मौत से संघर्ष कर रहे, जिन्दगी पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। श्मशान में जलाने को लकड़ियाँ ही नहीं रहीं। लाशें बिना कफन और ताबूत हाथ-ठेलों, टैम्पों, वैनों और गाड़ियों में आ रही थीं। झौपड़ियों में शव उठाने वाला था ही नहीं पशु-पक्षियों, बिल्ली-कुत्तों, चूहों के मुर्दा शरीर, खुले में पड़े सड़ रहे थे और चारों ओर दुर्गन्ध का साम्राज्य था । मोती लाल विज्ञान महाविद्यालय के तीन छात्र जो तीन दिन तक लाशें उठा कर यथा स्थान पहुँचाते रहे थे स्वयं मृत्यु के पास में जकड़े गये। भय तथा आतंक का ऐसा आलम था कि पुलिसकर्मी और सरकारी अधिकारी फण्ड, क्रेन और गाड़ियों के आने की प्रतीक्षा करते रहे । ऐसे संकट के समय अनेक स्वयं सेवी संस्थाओं जिनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, आर्य समाज, विश्व हिन्दू परिषद तथा विद्यार्थी परिषद आदि के लोग अधिकाशंत: थे, वे आगे बढ़कर शवों को पहुँचाने, औषधि की व्यवस्था करने, राहत कार्य करने, शिविर लगाने और खाने-पीने का प्रबन्ध करने में सरकारी अधिकारियों से पहले आगे बढ़कर कर्त्तव्य का पालन किया। मुख्यमन्त्री के पहुँचने और दो दिन बन्द चुनावी दौर के बीच से प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी के भोपाल पहुँचने पर सरकारी मशीनरी भी जुटी । छोला रोड पर स्थित एक राहत शिविर में सेवा कार्य में लगे एक स्वयं सेवी संस्था के कार्यकर्ता ने श्री राजीव गाँधी से शिकायत की, “न यहाँ पुलिस की व्यवस्था है, न इलाज की । तीन हजार से ज्यादा लोग मर गये हैं। न नेताओं को फुरसत है । न सरकार को ।” ६ दिसम्बर को गैस पीड़ितों ने मुख्यमन्त्री भवन पर प्रदर्शन किया क्योंकि सरकारी शिविरों में न तो उन्हें खाना नसीब हो रहा था और न मुआवजे की राशि का ईमानदारी से बँटवारा हो रहा था । कुछ अधिकारी एक हजार रुपये की रसीद पर हस्ताक्षर कराकर केवल १०० रुपये ही पकड़ा रहे थे। इस हादसे के सन्दर्भ में भोपाल के दो नागरिकों ने अमेरिका में १५ अरब डालर के मुआवजे के लिए मुकदमा दायर कर दिया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी मृत व्यक्ति के परिवार को पाँच-पाँच लाख रुपये देने के लिए भी दावा किया जा चुका है। सरकारी स्तर पर भी अमेरिका सरकार से राजनैतिक स्तर पर तथा वहाँ की साझेदारी कम्पनी से हर्जाने के तौर पर उचित मुआवजा लेने के प्रयत्न चल रहे हैं। केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार ने भी मृतकों, रोगियों तथा बेसहारों को सहायता दी है।
          रेलवे स्टेशन और बस अड्डों से दो-तीन किलोमीटर दूर इस मिक कारखाने ने रात के गहरे सन्नाटे, में भोपाल को एक भयानक त्रासदी में बदल दिया । उस रात कौन, कहाँ तथा किस दशा में मरा, कोई हिसाब नहीं। विषैली गैस का प्रकोप इतना भयंकर था बच्चे बूढ़े ही नहीं, नवजात और गर्भस्थ शिशु तक मारे गये। पेड़-पौधे तक झुलस गये । भय का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि १२ दिसम्बर को जब शेष गैस को निष्प्रभाव बनाकर छोड़ने की घोषणा हुई तो सरकार तथा कम्पनी के अधिकारियों और विशेषज्ञों के आश्वासन के उपरान्त भी गैस काण्ड की रात के समान ही दिन में लोग भोपाल छोड़कर भागने लगे। उन्हें गैस सम्बन्धी किसी भी घोषणा पर विश्वास ही नहीं रहा। अमरीका की बहुराष्ट्रीय निगम का भोपाल स्थित यह कारखाना अब सील बन्द है। उसके वर्क्स मैनेजर मुकुन्द, असिस्टैन्ट राय चौधरी, संयन्त्र अधीक्षक के० पी० शेटी, प्लांट सुपर वाइजर, प्लांट इन्चार्ज चौधरी आदि सभी हिरासत में हैं। अध्यक्ष केशव महेन्द्र तथा प्रबन्ध संचालक वी० पी० गोखले भी बन्दी बना लिये गये हैं। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन, अमरीका के अध्यक्ष वारेन एण्डरसन को उस रोज हिरासत में ले लिया था । किन्तु कुछ घण्टे बाद रिहा कर दिया गया और सरकारी विमान से उन्हें अमरीका भेज दिया गया क्यों ? रहस्यमय है।
          भोपाल के गैस पीड़ितों को सीधी आर्थिक राहत प्राप्त होने के मार्ग में दुर्भाग्य अथवा ,संयोग से कोई न कोई अड़चन आ ही जाती है ।
          पाँच वर्ष की लम्बी प्रतीक्षा के कारण भोपाल गैस प्रभावित छत्तीस वार्डों के पीड़ितों को सरकार द्वारा प्रदान की गई दो सौ रुपये प्रति माह की अन्तरिम राहत के वितरण का कार्य अचानक २ जून, १९९० को बैंक कर्मचारियों के आन्दोलन के कारण रुक गया।
          अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ के आह्वान पर गैस पीड़ित पहचान केन्द्रों पर पर्याप्त स्टाफ और सुरक्षा व्यवस्था की माँग को लेकर अधिकारी एक जून १९९० को पहचान केन्द्रों पर नहीं गये तथा बैंकों की इन शाखाओं में आज से राहत राशि वितरण शुरू होना था वो नहीं हो सका।
          गैस पीड़ितों की पहचान का काम अन्य तकनीक दिक्कतों के कारण एक महीना विलम्ब से शुरू हुआ और पूरे गैस पीड़ितों की पहचान होने में लगभग दो मास का समय लगने की सम्भावना है। इसके बावजूद अनेक गैस पीड़ित संगठनों द्वारा राहत राशि के वितरण की प्रक्रिया को लेकर अनेक आपत्तियाँ की जा रही हैं ।
          इसके पूर्व भी चार बार भोपाल के गैस पीड़ितों को राहत राशि निश्चित तौर पर मिलते-मिलते मौके पर कई कानूनी अथवा प्रशासनिक अड़चन आने पर रुक चुकी हैं ।
          सबसे पहले दो वर्ष भोपाल जिला अदालत द्वारा गैस पीड़ितों के हक में ३५० करोड़ रुपये बतौर अन्तरिम राहत के बाँटने का फैसला सुनाये जाने से गैस पीड़ितों में उम्मीद जागी थी। फिर जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा राशि घटाकर २५० करोड़ रुपये कर दिये जाने से गैस पीड़ित राहत हासिल होने की उम्मीद करने लगे थे ।
          बाद में यूनियन कार्बाइड द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में इस फैसले के विरुद्ध अपील के कारण मामला खटायी में पड़ गया। फिर उम्मीद थी कि एक दो माह में अन्तरिम राहत मिल जायेगी किन्तु इसी बीच भारत सरकार और कार्बाइड के बीच ७१५ करोड़ रुपये की राशि पर समझौता हो जाने से एक बार फिर से गैस पीड़ित आशान्वित हो गये किन्तु नवम्बर १९८९ में केन्द्र में सरकार बदलने और कुछ गैस पीड़ित संगठनों द्वारा समझौते का विरोध करने में समझौता राशि एवं फैसले के बारे में नया दृष्टिकोण बनने से मामला फिर अधर में लटक गया।
          इसी बीच केन्द्र सरकार द्वारा गैस पीड़ितों के लिए ३६० करोड़ रुपये की राहत राशि दिये जाने से गैस पीड़ित फिर से राहत की प्रतीक्षा में दिन गिनने लगे । ढेरों तकनीकी अड़चनों के बाद जब दो जून १९९० से राहत राशि का वितरण शुरू होने का मौका आया तो बैंक कर्मचारियों के आन्दोलन से फिर वे राहत राशि के वितरण से वंचित हो गये । परन्तु भारत सरकार निरन्तर सहत देने के लिए प्रयत्नशील है।
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