भूमण्डलीकृत विश्व का निर्माण The Making of a Global World

भूमण्डलीकृत विश्व का निर्माण   The Making of a Global World

 

आधुनिक युग से पहले
♦ आधुनिक काल से पहले के युग में दुनिया के दूर-दूर स्थित भागों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्पर्कों का सबसे जीवन्त उदाहरण सिल्क मार्गों के रूप में दिखाई देता है। ‘सिल्क मार्ग’ नाम से पता चलता है कि इस मार्ग से पश्चिम को भेजे जाने वाले चीनी रेशम (सिल्क) का कितना महत्त्व था। इतिहासकारों ने बहुत सारे सिल्क मार्गों के बारे में बताया है।
♦ मुस्लिम धर्मोपदेशक भी इसी रास्ते से दुनिया में फैले। इससे भी बहुत पहले पूर्वी भारत में उपजा बौद्ध धर्म सिल्क मार्ग की विविध शाखाओं से ही कई दिशाओं में फैल चुका था।
♦ आलू, सोया, मूँगफली, मक्का, टमाटर, मिर्च, शकरकन्द और ऐसे ही बहुत सारे दूसरे खाद्य पदार्थ लगभग पाँच सौ साल पहले यूरोप और एशिया में तब पहुँचे जब क्रिस्टोफर कोलम्बस गलती से उन अज्ञात महाद्वीपों में पहुँच गया था जिन्हें बाद में अमेरिका के नाम से जाना जाने लगा। (यहाँ ‘अमेरिका’ का मतलब उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका और कैरीबियन द्वीप समूह, सभी से है।)
♦ अपनी ‘खोज’ से पहले लाखों साल से अमेरिका का दुनिया से कोई सम्पर्क नहीं था। लेकिन सोलहवीं सदी से उसकी विशाल भूमि और बेहिसाब फसलें व खनिज पदार्थ हर दिशा में जीवन का रूप-रंग बदलने लगे।
♦ आज के पेरू और मैक्सिको में मौजूद खानों से निकलने वाली कीमती वस्तुओं, खासतौर से चाँदी, ने भी यूरोप की सम्पदा को बढ़ाया और पश्चिमी एशिया के साथ होने वाले उसके व्यापार को गति प्रदान की।
♦ अठारहवीं शताब्दी का काफी समय बीत जाने के बाद भी चीन और भारत को दुनिया के सबसे धनी देशों में गिना जाता था। एशियाई व्यापार में भी उन्हीं का दबदबा था।
उन्नीसवीं शताब्दी (सन् 1815-1914)
♦ उन्नीसवीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे के पूरे समाजो की कायापलट कर दी और विदेश सम्बन्धों को नये ढर्रे में ढाल दिया।
♦ अर्थशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह की गतियों या ‘प्रवाहों’ का उल्लेख किया है। इनमें पहला प्रवाह व्यापार का होता है जो उन्नीसवीं सदी में मुख्य रूप से वस्तुओं (जैसे कपड़ा या गेहूँ आदि) के व्यापार तक ही सीमित था। दूसरा, श्रम का प्रवाह होता है। इसमें लोग काभ या रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। तीसरा प्रवाह पूँजी का होता है जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर दराज के इलाकों में निवेश कर दिया जाता है। ये तीनों तरह के प्रवाह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और लोगों के जीवन को प्रभावित करते थे।
विश्व अर्थव्यवस्था का उदय
♦ अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की आबादो तेजी से बढ़ने लगी थी। नतीजा, देश में भोजन की माँग भी बढ़ी। जैसे-जैसे शहर फैले और उद्योग बढ़ने लगे, कृषि उत्पादों की माँग भी बढ़ने लगी।
♦ उन्नीसवीं सदी के मध्य से ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति काफी तेज रही जिससे लोगों की आय में वृद्धि हुई। इससे लोगों की जरूरतें बढ़ीं। खाद्य पदार्थों का और भी ज्यादा मात्रा में आयात होने लगा। पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, दुनिया के हर हिस्से में ब्रिटेन का पेट भरने के लिए जमीनों को साफ करके खेती की जाने लगी।
♦ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे स्थानों पर मजदूरों की कमी थी वहाँ लोगों को ले जाकर बसाया जाने लगा यानी श्रम का प्रवाह होने लगा।
♦ उन्नीसवीं सदी में लगभग पाँच करोड़ लोग अमेरिका और आस्ट्रेलिया में जाकर बस गये। माना जाता है कि पूरी दुनिया में लगभग पाँच करोड़ लोग बेहतर भविष्य की चाह में अपने घर-बार छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाकर काम करने लगे थे।
♦ सन् 1890 तक एक वैश्विक अर्थव्यवस्था सामने आ चुकी थी। इस घटनाक्रम के साथ गतिविधि ही श्रम विस्थापन रुझानों, पूँजी प्रवाह, पारिस्थितिकी और तकनीक में गहरे बदलाव आ चुके थे।अब भोजन किसी आस-पास के गाँव या कस्बे से नहीं बल्कि हजारों मील दूर से आने लगा था।
♦ विभिन्न चीजों के उत्पादन में विभिन्न इलाकों ने इतनी महारत हासिल कर ली थी कि सन् 1820 से सन् 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना वृद्धि हो चुकी थी। इस व्यापार में लगभग 60% हिस्सा ‘प्राथमिक उत्पादों’ यानी गेहूँ और कपास जैसे कृषि उत्पादों तथा कोयले जैसे खनिज पदार्थों का था।
♦ विश्व अर्थव्यवस्था के विकास में तकनीक की भूमिका भी अहम रही। रेलवे, भाप के जहाज, टेलीग्राफ, ये सब तकनीकी बदलाव बहुत महत्त्वपूर्ण रहे। उनके बिना उन्नीसवीं सदी में आए परिवर्तनों की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में उपनिवेशवाद
♦ उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में व्यापार बढ़ा और बाजार तेजी से फैलने लगे। यह केवल फैलते व्यापार और सम्पन्नता का ही दौर नहीं था। उपनिवेशवाद इसका स्याह पक्ष था। व्यापार में इजाफे और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ निकटता का एक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के बहुत सारे भागों में स्वतन्त्रता और आजीविका के सामान छिनने लगे।
♦ उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में यूरोपियों की विजयों से बहुत सारे कष्टदायक आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय परिवर्तन आए और औपनिवेशिक समाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित कर लिया गया।
♦ उन्नीसवीं सदी के आखिर में ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने शासन वाले विदेशी क्षेत्रफल में भारी वृद्धि कर ली थी। बेल्जियम और जर्मनी नई औपनिवेशिक ताकतों के रूप में सामने आए।
♦ पहले स्पेन के कब्जे में रह चुके कुछ उपनिवेशों पर कब्जा करके सन् 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी औपनिवेशिक ताकत बन गया।
रिण्डरपेस्ट या मवेशी प्लेग
♦ अफ्रीका में सन् 1890 के दशक में रिण्डरपेस्ट नामक बीमारी बहुत तेजी से फैल गई। मवेशियों में प्लेग की तरह फैलने वाली इस बीमारी से लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा। यह इस बात का अच्छा उदाहरण है कि औपनिवेशिक समाजों पर यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव से बड़े पैमाने पर क्या असर पड़े?
भारत से अनुबन्धित श्रमिकों का जाना
♦ भारत से अनुबन्धित (गिरमिटिया) श्रमिकों को ले जाया जाना भी उन्नीसवीं सदी की दुनिया की विविधता को प्रतिबिम्बित करता है। उन्नीसवीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था। भारतीय अनुबन्धित श्रमिकों को खास तरह के अनुबन्ध या एग्रीमेन्ट के तहत ले जाया जाता था। इन अनुबन्धों में यह शर्त होती थी कि यदि मजदूर अपने मालिक के बागानों में पाँच साल काम कर लेगें तो वे स्वदेश लौट सकते हैं। भारत के ज्यादातर अनुबन्धित श्रमिक मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाकों से जाते थे।
भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यवस्था
♦ भारत में पैदा होने वाली महीन कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था। सन् 1800 के आस-पास निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो सन् 1815 में घट कर 15% रह गया। सन् 1870 तक तो यह अनुपात केवल 3% रह गया। सन् 1820 के दशक से चीन को बड़ी मात्रा में अफीम का निर्यात भी किया जाने लगा। कुछ समय तक तो भारतीय निर्यात में अफीम का हिस्सा ही सबसे ज्यादा रहा। ब्रिटेन की सरकार भारत में अफीम की खेती करवाती थी और उसे चीन को निर्यात कर देती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ ही आ गई थी।
महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था
♦ वैश्विक अर्थव्यवस्था के निर्माण में दो विश्वयुद्धों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
♦ एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में औद्योगिक देशों ने अनेक आधुनिक उपकरणों एवं हथियारों का आविष्कार युद्ध के दौरान ही किया, किन्तु इसका लाभ बाद में अन्य क्षेत्र को भी मिला।
♦ विश्वयुद्ध ने जहाँ विकास को गति प्रदान की, वहीं इससे आर्थिक नुकसान भी हुआ।
♦ आर्थिक महामन्दी की शुरुआत सन् 1929 से हुई और यह संकट तीस के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान दुनिया के ज्यादातर हिस्सों के उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में भयानक गिरावट दर्ज की गई ।
♦ सन् 1933 तक 4000 से ज्यादा बैंक बन्द हो चुके थे और सन् 1929 से सन् 1932 के बीच तकरीबन 110000 कम्पनियाँ चौपट हो चुकी थीं। यद्यपि सन् 1935 तक ज्यादातर औद्योगिक देशों में आर्थिक संकट से उबरने के संकेत दिखाई देने लगे थे लेकिन समाजों, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और राजनीति तथा लोगों के दिल-दिमाग पर उसकी जो छाप पड़ी वह जल्दी मिटने वाली नहीं थी।
भारत और महामन्दी
♦ औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार माल का आयातक बन चुका था। महामन्दी ने भारतीय व्यापार को तुरन्त प्रभावित किया। सन् 1928 से सन् 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घट कर लगभग आधे रह गए थे। जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिरने लगीं तो यहाँ भी कीमतें नीचे आ गईं। सन् 1928 से सन् 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50% गई। शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ।
विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण युद्धोत्तर काल
♦ युद्धोत्तर काल में पुनर्निर्माण का काम दो बड़े प्रभावों के साये में आगे बढ़ा। पश्चिमी विश्व में अमेरिका आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से एक वर्चस्वशाली ताकत बन चुका था। दूसरी ओर सोवियत संघ भी एक वर्चस्वशाली शक्ति के रूप में सामने आया। नात्सी जर्मनी को हराने के लिए सोवियत संघ की जनता ने भारी कुर्बानियाँ दी थीं। जिस समय पूँजीवादी दुनिया महामन्दी से जूझ रही थी उसी दौरान सोवियत संघ के लोगों ने अपने देश को एक पिछड़े खेतिहर देश की जगह एक विश्व शक्ति की हैसियत में ला खड़ा किया था।
युद्धोत्तर बन्दोबस्त और ब्रेटन-वुड्स संस्थान
युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोजगार बनाए रखा जाए। इस फ्रेमवर्क पर जुलाई, 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी।
♦ सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्थापना की गई।
♦ युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इन्तजाम करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (जिसे आम बोलचाल में विश्व बैंक कहा जाता है) का गठन किया गया। इसी वजह से विश्व बैंक और आईएमएफ को ब्रेटन वुड्स संस्थान या ब्रेटन टिवन (ब्रेटन वुड्स की जुडवाँ सन्तान) भी कहा जाता है। इसी आधार पर युणेनर अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को अकसर ब्रेटन वुड्स व्यवस्था भी कहा जाता है।
♦ विश्व बैंक और आईएमएफ ने सन् 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थानों की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियन्त्रण रहता है। अमेरिका विश्व बैंक और आईएमएफ के किसी भी फैसले को वीटो कर सकता है।
♦ अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधारित होती थी। इस व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ जैसे- भारतीय मुद्रा, रुपया, डॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बँधा हुआ था। एक डॉलर के बदले में कितने रुपये देने होंगे, यह स्थिर रहता था। डॉलर का मूल्य भी सोने से बँधा हुआ था। एक डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर निर्धारित की गई थी।
अनौपनिवेशीकरण और स्वतन्त्रता
♦ दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर उपनिवेश स्वतन्त्र, स्वाधीन राष्ट्र बन चुके थे लेकिन ये सभी देश गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। उनकी अर्थव्यवस्थाएँ और समाज लम्बे समय तक चले औपनिवेशिक शासन के कारण अस्त-व्यस्त हो चुके थे।
♦ आईएमएफ और विश्व बैंक का गठन तो औद्योगिक देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही किया गया था। ये संस्थान भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने में दक्ष नहीं थे। लेकिन जिस प्रकार यूरोप और जापान ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन किया था उसके कारण ये देश आईएमएफ और विश्व बैंक पर बहुत निर्भर भी नहीं थे। इसी कारण पचास के दशक के आखिरी सालों में आकर ब्रेटन वुड्स संस्थान विकासशील देशों पर भी पहले से ज्यादा ध्यान देने लगे।
♦ अनौपनिवेशीकरण के बहुत साल बीत जाने के बाद भी बहुत सारे नवस्वाधीन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही नियन्त्रण बना हुआ था।
♦ कई बार अमेरिका जैसे अन्य शक्तिशाली देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत कम कीमत पर दोहन करने लगती थीं।
♦ ज्यादातर विकासशील देशों को पचास और साठ के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तेज प्रगति से कोई लाभ नहीं हुआ। इस समस्या को देखते हुए उन्होंने एक नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली (New International Economic Order-NIEO) के लिए आवाज उठाई और समूह 77 (जी-77) के रूप में संगठित हो गए। एनआईईओ से उनका आशय एक ऐसी व्यवस्था से था जिसमें उन्हें अपने संसाधनों पर सही मायनों में नियन्त्रण मिल सके, जिसमें उन्हें विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल के सही दाम मिलें और अपने तैयार मालों को विकसित देशों के बाजारों में बेचने के लिए बेहतर पहुँच मिले।
ब्रेटन वुड्स का समापन और ‘वैश्वीकरण’ की शुरुआत
♦ साठ के दशक से ही विदशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमजोर कर दिया था। अमेरिकी डॉलर अब दुनिया की प्रधान मुद्रा के रूप में पहले जितना सम्मानित और निर्विवाद नहीं रह गया था। सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी। अन्ततः स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और प्रवाहमयी या अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई ।
♦ सत्तर के दशक के आखिरी सालों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केन्द्रित करने लगीं जहाँ वेतन कम थे।
♦ उद्योगों को कम वेतन वाले देशों में ले जाने से वैश्विक व्यापार और पूँजी प्रवाहों पर भी असर पड़ा।
♦ पिछले दो दशक में भारत, चीन और ब्राजील आदि देशों की अर्थव्यवस्था में आए भारी बदलावों के कारण दुनिया का आर्थिक भूगोल पूरी तरह बदल चुका है।
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