भूदान यज्ञ

भूदान यज्ञ

          अंग्रेज भारत से विदा हुए। भारतवर्ष को स्वाधीनता मिली। युग-युग की दासता की श्रृंखलाएँ सदैव के लिए छिन्न-भिन्न हो गई। जनता-जनार्दन अपनी प्रिय स्वतन्त्रता को प्राप्त करके मुस्करा उठी । परन्तु आज के सामाजिक तथा आर्थिक वैषम्य से वह अभूतपूर्व प्रसन्नता स्वयम् ही समाप्त-सी होती जा रही है। कृषि प्रधान भारत के ९०% कृषक भूमि की उपज के सुख से वंचित रहते थे। भूमिधर कम थे और भूमिहीन अधिक संख्या में थे। इसी भूमि अधिकार सम्बन्धी वैषम्य को भारत से दूर करने के लिए सन्त विनोबा भावे ने भूदान यज्ञ को जन्म दिया। हृदय परिवर्तन द्वारा समाज में नव जागृति का सन्देश देता हुआ जन-जन के हृदय में बन्धुत्व की भावना भरता हुआ यह पवित्र यज्ञ विश्व के समक्ष एक नवीन आर्थिक क्रान्ति उपस्थित कर रहा था । विश्व के महान अर्थशास्त्रियों तथा राजनीतिक नेता इस अभिनव प्रयोग को मौन और आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। भारतवर्ष के धनीमानी, गरीब, अमीर, राजे, महाराजे सभी ने इस पुण्य कार्य में यथा-शक्ति सहयोग प्रदान किया है और इसकी सफलता या विफलता पर आज समस्त विश्व की आँखें लगी  हुई हैं ।
          विनोबा जी ने वर्ग वैषम्य को समाप्त करने की इच्छा से १८ अप्रैल, सन् १९५१ को पहली बार समाज के आगे हाथ फैलाया । वे इस भिक्षा के लिये सर्वप्रथम रामचन्द्र रेड्डी नामक व्यक्ति के पास गये। उसने बड़ी प्रसन्नता से सौ एकड़ भूमि सन्त विनोबा को भिक्षा के रूप में प्रदान की | यह समस्त विश्व में अपने ढंग का अपूर्व दान था । भिक्षुओं और संन्यासियों को अन्न, वस्त्र माँगता देखा और सुना गया था । राजा भोज के समय ग्रामदान तथा गजदान हुआ करता था, जो आज से हजारों वर्ष पहले की बात है, परन्तु इस युग में पृथ्वी दान में दी जा सकती है, ऐसा न किसी ने सोचा था और न विश्वास था । छोटों से लेकर बड़ों तक ने इस पवित्र यज्ञ को बड़े उत्साह से अपना लिया। विनोबा जी अपने मधुर भाषण से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर देते थे । प्रायः उन्हें यह कहते सुना गया—“भूमि माता है, हम सब उसी के पुत्र हैं। माता पर सभी पुत्रों का एक समान अधिकार होता है। जैसे- जल, वायु, धूप पर सभी पुत्रों का एक समान अधिकार है, उसी भाँति पृथ्वी माता पर भी सबका अधिकार है जो उसकी सेवा करे सो मेवा खाये ।”
          विनोबा जी के सत्य और अकाट्य तर्क जनता के हृदय पर रामबाण का काम करते थे। वे कहते थे—“यदि किसी भूमिधर के पाँच पुत्र हैं, तो वह मुझको अपना छठा पुत्र मान ले और जिस प्रकार वह अपने पाँचों पुत्रों को जमीन बाँटता है, उसी प्रकार मुझे भी उनके साथ ही छठा हिस्सा दे दे। इस प्रकार पाँच करोड़ एकड़ भूमि दान के रूप में प्राप्त हो जाये, तो वह भारत के करोड़ों भूमिहीन कृषकों की जीविका का साधन बन जायेगी तथा साथ ही साथ उनकी कृषि उत्पादन शक्ति में भी सहायक सिद्ध होगी।” तैलंगाना में विनोबा जी को बारह हजार एकड़ भूमि दान में प्राप्त हो गई । २ अक्टूबर, १९५१ को सागर विश्वविद्यालय में उन्होंने पाँच हजार एकड़ भूमि की याचना की। बिहार में तो लगभग २५ लाख एकड़ भूमि उन्हें दान के रूप में उपलब्ध हो चुकी थी । हृदय-परिवर्तन के आधार पर सामाजिक ढाँचे में इतना महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इतिहास में एक अनोखी वस्तु है। आचार्य विनोबा पूँजी के मूल्य पर आधारित सारी अर्थव्यवस्था को बदलना चाहते थे । जिनके पास भूमि नहीं है, अर्थात् शहर में रहने वालों से धन माँगते थे, जिनके पास न धन है और न भूमि है और उनसे बुद्धिदान की याचना करते थे। जिनके पास धन, भूमि और बुद्धि में से कुछ भी नहीं है उनसे शरीरिक श्रम की याचना करते थे। विनोबा जी का कहना था कि तीनों को मिलाकर ही भूदान की सार्थकता सिद्ध होती है। भूदान से गरीब किसानों को जमीन मिलेगी, धन दान से वह हल बैल खरीद सकते हैं, श्रमदान से असहाय कृषक की सहायता की जा सकती है।
          भारतवर्ष की आध्यात्मिक संस्कृति में त्याग और बलिदान तथा दया और दान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भूदान आन्दोलन सर्वथा उसके अनुकूल है। सत्य और शान्ति के आधार पर ही भारतवर्ष ने अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता प्राप्त की थी, सत्य और शान्ति के आधार पर ही वह अपना आर्थिक वैषम्य दूर करना चाहता है। भूदान आन्दोलन इस दिशा में उसका सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पदन्यास था। देने वाले और लेने वाले दोनों ही प्रेम, मैत्री, सहयोग और सहानुभूति की पवित्र भावनाओं से भर जाते हैं। मनुष्य में मानवता के शुभ संस्कारों का उदय होता है। परोपकार के नाम पर भूमिदान का यह महान् यज्ञ इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। विश्व के किसी भाग में इतने विशाल स्तर पर भूमि का बँटवारा स्वेच्छा से नहीं हुआजहाँ कहीं भी हुआ रक्तपात और भीषण जन-क्रान्ति से। भारतीय किसान एक-एक गज भूमि के लिए आपस में लड़ा करते थे, नृशंस हत्यायें होती थीं । मुकदमेबाजी में अनन्त धन खर्च किया जाता था। परन्तु विनोबा जी के प्रभाव से युग बदला, वातावरण बदला। आज प्रसन्नतापूर्वक भारतीय स्वयम् ही अपने भूमिहीन बन्धुओं को भूमि दे रहे हैं। विनोबा जी का कथन था, “भूदान यज्ञ से प्राप्त हुई भूमि का वितरण मुझे स्वयम् करना है, सम्भव है कहीं-कहीं मुझे ग्राम पंचायतों की सहायता लेनी पड़े और कहीं-कही उनके ही ऊपर छोड़ देना पड़े। परन्तु इसकी देखभाल मुझे ही करनी होगी। ग्राम पंचायतों को अपना काम ईमानदारी और निष्पक्षता से करना चाहिये ।” वास्तव में वितरण का पुनीत कार्य ग्राम पंचायतों की सहायता से सरलतापूर्वक सम्पन्न हुआ था।
          निःसन्देह भूदान आन्दोलन कांग्रेस आदर्शों की सफलतापूर्वक पूर्ति कर रहा था । श्री विनोबा के स्वर्गारोहण के पश्चात् देश के विभिन्न राजनीतिक संगठनों का भी यह कर्त्तव्य है कि वे भी इस यज्ञ की सफलता के लिये प्रयत्नशील हों । भूदान आन्दोलन भारत के भविष्य के नव-समाज का प्रभात-गीत है,इसकी सफलता और पूर्णता में असंख्य भारतीयों का मंगल निहित है । प्रत्येक भारतीय का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह अपनी शक्ति के अनुसार इस यज्ञ में आहुति देकर परलोक तथा इस लोक में आदरणीय स्थान प्राप्त करे । तभी आर्थिक वैषम्य की अग्नि शान्त हो सकती है अन्यथा यह ज्वालामुखी एक दिन फूट निकलेगा और उससे भारतवर्ष का कण-कण भस्मसात् हो जायेगा । एक लेखक ने भूदान के महत्त्व के विषय में लिखा है- “भूदान यज्ञ विश्व का अभूतपूर्व शान्ति और समानता का यज्ञ है। युग-युगान्तर और कल्प-कल्पान्तर की अनन्त तपस्या तथा साधना का अमृत है। यह यज्ञ विश्व की विषमता का आहुति यज्ञ है । यह राजनीति की धर्मनीति है। यह क्रान्ति, सृष्टि की अभिनव देन है। यह विश्व गरिमा का हिमालय शिखर है । “
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