भारत रत्न डॉ० भीमराव अम्बेडकर

भारत रत्न डॉ० भीमराव अम्बेडकर

“हरि को भजै सो हरि सा होई”
          यह उक्ति भारतीय संस्कृति में अनन्तकाल से प्रचलित है । नारायण के समान आचरण करने… पर मनुष्य नर से नारायण बन जाता है। मानव मात्र में समता और आत्मैक्य के दर्शन करने वाला व्यक्ति स्वयं ही ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। माधव के पद चिन्हों का अनुसरण करते-करते राधा स्वयं माधव स्वरूप हो गई थी। तो क्या आश्चर्य है यदि बोधिसत्त्व (भगवान बुद्ध) के दर्शन को जीवन में साकार रूप देने वाले डॉ० अम्बेडकर स्वयं बोधिसत्त्व हो गये हों। मानव मात्र की सेवा में अपने को समर्पित करने वाला व्यक्तित्व, दलितों, दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की दर्द भरी मूक भाषा को अमर स्वर प्रदान करने वाला महामानव, समाज में कभी-कभी ही आविर्भूत होता है और वह जन-मानस में परमेश्वर की भाँति आराध्य बन जाता है। रहीम के शब्दों में –
दीन सबन को लखत हैं, दीनहि लखै न कोय। 
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबन्धु सम होय ॥ 
          श्री अम्बेडकर उन्हीं प्रतिभाओं में से थे । इनका जन्म अनुसूचित जाति के एक निर्धन परिवार में १४ अप्रैल, १८९१ ई० को महाराष्ट्र के ‘महू’ छावनी में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौदहवीं सन्तान थे। मेधावी छात्र अम्बेडकर ने १९०७ में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और इसी वर्ष इनका विवाह रामबाई के साथ हो गया । १९१२ में इन्होंने बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की । उच्च शिक्षा के लिए लालायित अम्बेडकर के मन को शान्ति तब मिली जब बड़ौदा नरेश से इस कार्य के लिए उन्हें आर्थिक सहायता मिलने लगी । १९१३ में उच्च अध्ययन के लिये न्यूयार्क चले गये। अमेरिका, लन्दन तथा जर्मन में रहकर उन्होंने अपना अध्ययन पूरा किया । १९२३ तक वे एम० ए०, पी-एच० डी० और बैरिस्टर बार एट लॉ बन चुके थे |
          १९२३ से १९३१ तक का समय डॉ० अम्बेडकर के लिए संघर्ष एवं अभ्युदय का समय था । दलित वर्ग का नेतृत्व करने वाले डॉ० अम्बेडकर प्रथम नेता थे । इन्होंने ‘मूक’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया जिससे दलितों में डॉ० अम्बेडकर के विचारों में आस्था और प्रसिद्धि का शुभारम्भ हुआ। गोलमेज कान्फ्रेंस लन्दन में भाग लेकर इन्होंने पिछड़ी जातियों के लिये पृथक् चुनाव पद्धति और विशेष माँगें अंग्रेज शासन से स्वीकार करायीं । दलितों के लिए उनका कहना था –
शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो ।
          बाबा साहब अम्बेडकर ने २० मार्च, १९२७ को ‘महाड’ में चौबदार तालाब सत्याग्रह किया। बढ़ती हुई ख्याति से शक्ति अर्जन करते हुए २ मार्च, १९२० को डॉ० अम्बेडकर ने नासिक मन्दिर प्रवेश का आन्दोलन प्रारम्भ किया । दलितों, अनुसूचित जातियों एवं पिछड़ी जातियों के अधिकार दिलाने के लिये ६ दिसम्बर, १९३० को प्रथम गोलमेज परिषद् में भाग लेने के लिये लन्दन रवाना हुये तथा १५ अगस्त, १९३१ को द्वितीय गोलमेज कान्फ्रेंस में भाग लेने लन्दन गये । डॉ० अम्बेडकर की प्रतिभा, तर्क शक्ति और कुशाग्रता से प्रभावित अंग्रेजों ने २४ सितम्बर, १९३२ को पूना में इनसे ऐतिहासिक पैक्ट किया जो ‘पूना पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है। २७ मई, १९३५ में इनकी धर्मपत्नी रामबाई का देहान्त हो गया । सहधर्मिणी के बिछोह से डॉ० अम्बेडकर को मानसिक आघात पहुँचा।
          १३ अक्टूबर, १९३५ को डॉ० अम्बेडकर ने अपने धर्मान्तर की घोषणा की। श्रमिकों और दलितों में चेतना जाग्रत करने तथा उन्हें सुसंगठित करने के लिये अगस्त १९३६ में स्वतन्त्र मजदूर दल की स्थापना की तथा उसकी अखिल भारतीय गतिविधियों को आगे बढ़ाने में लग गये । दलितों, शोषितों में शिक्षा का अभाव इन्हें सदैव खटकता था। ये समझते थे कि दलितों के बिना शिक्षित बने इनमें जागृति लाना सम्भव नहीं है इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये २० जून, १९४६ को इन्होंने सिद्धार्थ महाविद्यालय की स्थापना की। अब तक डॉ० अम्बेडकर की ख्याति देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल चुकी थी ।
          देश की स्वतन्त्रता के प्रथम स्वर्णिम प्रभात में भारत के हृदय सम्राट प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पैनी और पारखी दृष्टि विधि विशेषज्ञ डॉ० भीमराव अम्बेडकर पर पड़ी। ३ अगस्त, १९४७ को प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने इनका स्वतन्त्र भारत के प्रथम मन्त्रिमण्डल में विधि मन्त्री के रूप में समायोजन किया तथा २१ अगस्त, १९४७ को भारत की संविधान प्रारूप समिति का इन्हें अध्यक्ष नियुक्त किया गया। डॉ० अम्बेडकर की अध्यक्षता में भारत के लोकतान्त्रिक, धर्म-निरपेक्ष एवं समाजवादी संविधान की संरचना हुई जिसमें मानव के मौलिक अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा की गई। २६ जनवरी, १९५० को भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित कर दिया गया । २५ मई, १९५० को डॉ० अम्बेडकर ने कोलम्बो की यात्रा की तथा १५ अप्रैल, १९५१ को अम्बेडकर भवन दिल्ली का शिलान्यास किया। २७ सितम्बर, १९५१ को डॉ० अम्बेडकर ने केन्द्रीय मन्त्रि परिषद् से त्याग-पत्र दे दिया।
          डॉ० अम्बेडकर की विद्वत्ता और अपूर्व प्रतिभा का विश्व के विधि विशेषज्ञ लोहा मानते थे । ५ जून, १९५२ को कोलम्बो विश्वविद्यालय ने उन्हें एल० एल० डी० की सम्मानित उपाधि में विभूषित किया । १२ जून, १९५३ को उस्मानिया विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट् की उपाधि से सम्मानित किया ।
          दिसम्बर १९५४ में विश्व बौद्ध परिषद् में भाग लेने रंगून गये तथा बौद्ध धर्म के नेता के रूप में नेपाल गये । वहाँ विश्व बौद्ध सम्मेलन के अध्यक्ष ने इन्हें विशेष प्रकार से सम्मानित किया । १४ अक्टूबर, १९५६ को डॉ० अम्बेडकर बौद्ध धर्म से दीक्षित हो गये । २० नवम्बर, १९५६ को डॉ० अम्बेडकर ने ‘बुद्ध और कार्ल मार्क्स’ पर विद्वत्तापूर्ण तथा ओजपरक ऐतिहासिक भाषण दिया जो आज भी शोधकर्ताओं और विद्वानों का स्मरणीय बना हुआ है। डॉ० अम्बेडकर विधिविशेषज्ञ, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक और अद्वितीय वक्ता होने के साथ-साथ विद्वान् साहित्यकार भी थे । इन्होंने “भगवान् बुद्ध और उनका धर्म” नामक महान् ग्रन्थ की रचना की जिसका समापन ५ दिसम्बर, १९५६ को हुआ। ६ दिसम्बर, १९५६ को यह महामानव महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो गया ।
          १९९० में देश के कोने-कोने में डॉ० अम्बेडकर जन्म शताब्दी समारोह मनाये जा रहे हैं। समाज उनका पुनीत स्मरण करके अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित कर रहा है। समाज को उन्होंने जो कुछ दिया उसके प्रतिदान में कृतज्ञता भरे नेत्रों से श्रद्धावनत समाज आज उनको नमन कर रहा है। भारत की राष्ट्रीय मोर्चा सरकर ने डॉ० अम्बेडकर के जन्म शताब्दी वर्ष १९९० में उन्हें ‘भारत रत्न’ की सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया था।
          भारत के दलितों और पीड़ितों को जीवन का सन्देश देकर उठकर आगे बढ़ो’ की संगीत लहरी सुनाकर, उन्हें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाकर मृत्यु से अमरत्व का पथ दिखाकर भारत माता के सपूत डॉ० अम्बेडकर ने भारत की हृदय तन्त्री को जो झंकृत किया था आज उनमें से मधुर संगीत निकलने लगा है जिसे सुनकर मानवता प्रेमियों का हृदय आन्दोलित हो उठता है। युग की विचारधाराओं में परिवर्तन उपस्थित कर देने वाले ऐसे महापुरुषों को भारत माता कभी-कभी ही जन्म देती है। देश का कल्याण चाहने वाले सभी भारतीयों का कर्त्तव्य है कि भारत रत्न डा० अम्बेडकर के बताये हुए पथ का अनुसरण करें।
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