भारत में बेकारी की समस्या

भारत में बेकारी की समस्या

“बुभुक्षितः किं न करोति पापम् । 
क्षीणा नराः निष्करुणाः भवन्तिः ।” 
          भूखा मनुष्य क्या नहीं करता, धन से क्षीण मनुष्य दयाहीन हो जाता है, उसे कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विवेक नहीं होता है । वही दशा आज के युग में विद्यमान है। चारों ओर चोरी और डकैतियों की दुर्घटनायें, छीना-झपटी, लूट-खसोट और कत्ल के हृदयद्रावी समाचार सुनाई पड़ते हैं। कहीं बैंक-खजाने लूटने का समाचार अखबार में छपा हुआ मिलता है, कहीं गाड़ियों को रोकने व लूटने के हालात समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलते हैं । आज देश में स्थान-स्थान पर उपद्रव और हड़तालें हो रहीं हैं। मनुष्य के जीवन से आनन्द और उल्लास न जाने कहाँ जाते रहे। उसे अपनी और अपने परिवार की रोटियों की चिन्ता है, चाहे उनका उपार्जन सदाचार से हो या दुराचार से। आज चाहे फावड़ा और कुदाली चलाकर रक्त-स्वेद – सिक्त रोटियाँ खाने वाले श्रमिक हों, चाहे अनवरत बौद्धिक श्रम करने वाले स्वास्थ्य के शत्रु विद्वान, सभी बेकारी और बेरोजगारी के शिकार बने हुए हैं। निरक्षर तो किसी तरह अपना पेट भर लेते हैं, परन्तु पढ़े-लिखों की आज बुरी हालत है। इसमें अतिशयोक्ति अवश्य है, परन्तु मैं तो मैं यही कहूँगा कि आज पैसे के सौ-सौ एम० ए० ; मिल जाते हैं। वे बेचारे क्या करें, कैसे जीवन चलाएँ, यह आज की बड़ी कठिन समस्या है। आज हम स्वतन्त्र अवश्य हैं, परन्तु अभी आर्थिक दृष्टिकोण से हम पूर्णतया सुखी और समृद्ध नहीं हैं। एक सुखी और सम्पन्न है, तो पचास दुखी और दरिद्र हैं, जिनका जीवन स्तर गिरा हुआ है। ऐसी बात नहीं कि स्वतंत्र भारत में ही यह कोई नया जादू हो गया हो, यह समस्या भारतवर्ष में बहुत दिनों से चली आ रही है । द्वितीय महायुद्ध पूर्व बेकारी की समस्या विद्यमान थी, परन्तु महायुद्ध इस बेकारी के अभिशाप के लिये वरदान बनकर आया और सब श्रेणी के व्यक्तियों को उनकी योग्यतानुसार कार्य मिल गया | सबको पेट भर रोटियाँ मिलने लगीं, परन्तु युद्ध समाप्त होते ही युद्ध सम्बन्धी विभिन्न कार्यों में लगे फिर से बेकार हो गए और समस्या फिर भारतवर्ष पर छा गई और अब तो अपनी चरम सीमा पर विद्यमान है।
          बेकारी का लोमहर्षक चरमोत्कर्ष तो उस समय दिखाई पड़ा, जब रुड़की विश्वविद्यालय में पूर्ण प्रशिक्षित इन्जीनियर्स को उपाधि प्रदान करने हेतु १९६७ की दीक्षान्त समारोह में भारतवर्ष की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ज्योंहि भाषण देने खड़ी हुईं, त्योंहि लगभग एक सहस्र इन्जीनियर्स ने खड़े होकर समवेत स्वर में कहा कि—”हमें भाषण नहीं नौकरी चाहिए।” प्रधानमन्त्री के पास उस समय कोई उत्तर नहीं था, इतने बड़े विकासोन्मुख देश में बेकारी की यह भीषण समस्या एक लज्जाजनक बात थी। इसके बाद तो अनेक इन्जीनियरिंग कालेजों के दीक्षान्त समारोह में इस प्रकार का वाक् आऊट हुआ । एक समय था, जब पण्डित नेहरू कहा करते थे, “हमें देश के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी विशेषज्ञ चाहियें।” परन्तु इस देश में तकनीकी विशेषज्ञों की यह दुर्दशा थी । परन्तु आज स्थिति भिन्न है। हमारी विवेकशील सरकार के प्रयासों से अब यह समस्या हल होती जा रही है ।
          इस बेकारी की दौड़ में अध्यापक, भी पीछे नहीं रहे। पिछले दो तीन वर्षों से प्रशिक्षित अध्यापकों को घर बैठना पड़ता है और उन्हें एक दो साल तक नौकरी नहीं मिलती।
          शिक्षित व्यक्तियों की बेकारी का मुख्य कारण उचित शिक्षा व्यवस्था का अभाव है। यह महान् दुःख की बात है कि लोग अपनी शिक्षा में इतना द्रव्य व्यय करते हैं, फिर भी उन्हें काम नहीं मिलता । इस बेकारी का सारा दोष उस शिक्षा व्यवस्था का है, जो लार्ड मैकाले द्वारा इसी ध्येय की पूर्ति के लिए प्रारम्भ की और गुलाम बनें । वर्तमान शिक्षा प्रणाली में व्यवसायिक और औद्योगिक है। एक बार पण्डित जवाहरलाल नेहरू गई थी जिससे इस देश में नौकर शिक्षा का नितान्त अभाव ने कहा था – ” प्रति वर्ष नौ लाख पढ़े-लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं, जबकि हमारे पास खाली नौकरियाँ शतांश के लिए भी नहीं हैं। हमें बी० ए० नहीं चाहियें वैज्ञानिक और टैक्नीकल विशेषज्ञ चाहियें।” प्रधानमन्त्री का यह कथन हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति की त्रुटियों की ओर संकेत करता है ।
          आज के युग में शिक्षा के द्वार सभी के लिए खुले हैं। बिना उपयुक्त योग्यता के विद्यार्थी, वैज्ञानिक, इन्जीनियर और अध्यापक बनने के लिए प्रयत्नशील हैं। इतना ही नहीं ऊँचे प्रशिक्षण प्राप्त तकनीकी विशेषज्ञ भी नौकरी तलाश करता है क्योंकि वह स्वयं धनाभाव के कारण कोई फैक्टरी नहीं चला सकता ।
          प्राचीन काल में हमारे देश के घर-घर में कुछ न कुछ उद्योग-धन्धा चलता था। कहीं कपड़े बुने जाते थे, तो कहीं पर चर्खा काता जाता था, कहीं गुड़ बनता था तो कहीं खिलौने। इसी प्रकार के हजारों छोटे-छोटे गृह उद्योगों से लोग अपना-अपना जीविकोपार्जन करते थे। परन्तु अंग्रेजों ने कुछ तो अपने देश की व्यापारिक समृद्धि के लिये यहाँ के गृह उद्योगों को नष्ट किया व ढाका और चन्देरी, आदि के कारीगरों के हाथ तक कटवा दिये और हम स्वयं मशीनों के बाहुल्य के कारण अकर्मण्य हो गये। बाबू बनने की इच्छा तीव्रतर हो उठी । हममें आत्म निर्भरता समाप्त हो गई, सदैव के लिए परमुखापेक्षी बन गये ।
          देश की दिनों-दिन बढ़ती जनसंख्या बेकारी की समस्या को और भी बढ़ा रही है। साधन की सुविधाएँ और उत्पादन तो वही रहा, परन्तु उपभोक्ता अधिक हो गए। जैसे घर में कमाने वाला तो एक हो, खाने वाले बहुत से हों और वे भी दिन पर दिन बढ़ते जायें, तो उस घर की दरिद्रता अवश्य आ जाएगी । बस यही दशा भारतवर्ष की थी। अनेकों अप्राकृतिक उपायों के बावजूद भी जनसंख्या उत्तरोत्तर बढ़ती रही है । सन् १९५१ में भारत की ३६ करोड़ जनसंख्या सन् १९८१ में लगभग ६८ करोड़ तक पहुँच गई है । यही बढ़ती हुई जनसंख्या बेकारी की समस्या को सुलझाने में भयंकर विध्न उपस्थित कर रही है। इसे रोकने के लिए यद्यपि सरकार की ओर से भी बहुत प्रयत्न किए जा रहे हैं।
          क्या कारण है कि मनुष्य भूखों मरना पसन्द करता है, परन्तु खोमचा लगा कर चाट या मजदूरी करना पसन्द नहीं करता। बाबूजी रात को चोरी में शामिल हो सकते हैं, डकैती में शामिल हो सकते हैं, परन्तु दिन में मजदूरी की धूल मुँह पर नहीं पड़ने देना चाहते। कहते हैं कि दुनिया कहेगी पढ़-लिखकर खोमचे में चाट बेच रहा । यही मिथ्या स्वाभिमान मनुष्य को कुछ करने नहीं देता। पढ़ने-लिखने ने मजदूरी या व्यापार करने को मना तो नहीं कर दिया। इसी मिथ्या स्वाभिमान ने भारतवर्ष में अनके कुरीतियों एवं पतन को जन्म दिया है ।
          हमारे देश की सामाजिक व धार्मिक परम्परायें भी बेकारी की समस्या को प्रोत्साहित करती हैं। साधु संन्यासियों को भिक्षा देना पुण्य समझा जाता है। बहुत से आलसी और अकर्मण्य हृष्ट-पुष्ट शरीर वालों ने भी एक व्यवसाय बना रखा है। भिक्षा न देना पाप समझा जाता है, अतः दानियों की उदारता पर मुग्ध होकर बहुत से स्वस्थ व्यक्ति भी भिक्षावृत्ति पर उतर आते हैं। इस प्रकार बेकारों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ सामाजिक नियम भी कुछ ऐसी ही हैं जैसे वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विशेष-विशेष वर्गों के लिए विशेष-विशेष कार्य हैं, यदि वह मिले तो बेचारा करे अन्यथा हाथ पर हाथ रखकर घर में बैठा रहे। यह सामाजिक व्यवस्था भी बेकारी को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रही है ।
          बेरोजगारी के कारण युवा आक्रोश और असन्तोष ने समाज में अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। समाज के नियम और नागरिक कर्त्तव्य समाप्त होते जा रहे हैं। यदि इस भयानक समस्या का समाधान शीघ्र ही न निकला, तो देश की सामाजिक स्थिति और अधिक भयानक हो जाने की सम्भावनायें हैं ।
          बेकारी की समस्या को दूर करने के लिए हमें अपनी शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करना होगा । सैद्धान्तिक शिक्षा से काम नहीं चल सकता। शिक्षा व्यवहारिक होनी चाहिये। प्रारम्भ से ही विद्यार्थियों में स्वावलम्बन की भावना भरनी चाहिये । अन्य देशों में विद्यार्थी कमाते हैं और पढ़ते भी हैं। इसलिए उन्हें भावी जीवन में कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ती। भारतीय सरकार ने ऐसे शिक्षा केन्द्रों का प्रबन्ध किया है और उनमें इस प्रकार के प्रशिक्षण दिये जा रहे हैं, जिससे भारतीय नवयुवक स्वावलम्बी और आत्म-केन्द्रित बनें ।
          विदेशी सरकार ने अपनी साम्राज्यवाद की लालसा में भारतवर्ष के उद्योग-धन्धों को नष्ट कर दिया, अब इन्हें विकसित करना चाहिये, जैसे सूत कातना, कपड़े बुनना, शहद तैयार करना, कागज तैयार करना, इत्यादि । उचित व्यवस्था के अभाव के कारण गाँव के बड़े-बड़े चतुर कारीगर आज बेकार हो रहे हैं। सरसों पैदा होती है गाँवों में तेल निकाला जाता है शहरों में कितने आश्चर्य की बात है।
          देश में जनसंख्या की वृद्धि रोकने से भी बेकारी की समस्या कुछ न कुछ सुलझेगी ही। इस बढ़ती हुई आबादी को रोकने के तीन उपाय हैं। प्रथम मनुष्य को आत्मसंयम से रहना चाहिये । देश के कल्याण के लिये देशवासियों को इन्द्रिय सुखों में कमी करनी चाहिए। दूसरा, संतति निग्रह की औषधियाँ और तीसरा, विवाह की आयु का नियम द्वारा निर्धारण ।
          भारतीय कुछ अकर्मण्य और आलसी भी हो गये हैं, उन्होंने शरीरिक परिश्रम करना बन्द कर दिया है। पकी पकाई रोटी खाने को सब तैयार हैं। पर पकाने को कोई तैयार नहीं, सभी सरल से सरल काम करना चाहते हैं। कठिन परिश्रम कोई नहीं करना चाहता । उद्योग और अध्यवसाय जैसी कोई वस्तु आजकल नहीं रही है। अतः अपनी इच्छानुकूल काम न मिलने के कारण लोग बेकार रहने लगे ।
          बेकारी की समस्या जितनी नगर के सामने है, उससे अधिक गाँव वालों के सामने भी है। भारत गाँवों का देश है, यहाँ का किसान वर्षा पर आश्रित रहता है । वर्षा के अभाव में अन्नोत्पादन सम्भव नहीं । कुटीर उद्योग-धन्धों की ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे कि वे अपने रिक्त समय में कार्य कर सकें । इससे देश की आर्थिक अवस्था दृढ़ होगी । ग्रामीण व्यक्तियों को गाँव छोड़कर नगर में नहीं जाना चाहिये, इससे बेरोजगारी बढ़ती है। इस पर भी नियन्त्रण लगाना चाहिये । आजकल हजारों ग़ाँवों के रहने वाले शहरों में आकर बसते जा रहे हैं जिससे बेकारी की समस्या की वृद्धि हो रही है।
          भारतवर्ष की राष्ट्रीय सरकार ने इस समस्या को सुलझाने के लिये काफी ठोस कदम उठाये हैं। स्नातक बेरोजगारों को भारत सरकार राष्ट्रीयकृत बैंकों से सरल किश्तों पर बीस हजार का ऋण दे रही है जिससे वे अपना स्वतन्त्र उद्योग स्थापित कर सकें। सरकार ने स्वयं भी हजारों नये बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये हैं जिनमें बेरोजगारों को खपाया जा सके । जो शिक्षित बेरोजगार कृषि में रुचि रखते हैं उन्हें खाद, बीज एवं अन्य यन्त्रों के लिये बैंकों से ऋण की सुविधा उपलब्ध करायी गई है । यह सब २० सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की प्रेरणा का फल था । पंचवर्षीय योजनाओं से किसानों की स्थिति में सुधार के लिये सरकार प्रयत्नशील है। देश निरन्तर आगे बढ़ रहा है, आशा है कि निकट भविष्य में शीघ्र ही भारत से बेकारी की समस्या दूर हो जायेगी, क्योंकि सरकार स्वयं इस बात की इच्छुक है कि भारत में बेकारी की समस्या जल्दी से जल्दी दूर हो जाये। इसमें सन्देह नहीं कि भारतवर्ष में बेकारी की समस्यायें बहुत कुछ हद तक सुलझायी जा चुकी हैं।
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