भारत-पाक सम्बन्ध

भारत-पाक सम्बन्ध

          महात्मा गाँधी और पं० नेहरू जैसे देश के कर्णधारों ने सन् १९४७ के भयानक साम्प्रदायिक रक्तपात के फलस्वरूप अंग्रेजों का देश के विभाजन का प्रस्ताव इसलिए स्वीकार कर लिया था कि यह झगड़ा हमेशा के लिए शान्त एवं समाप्त हो जायेगा और दोनों देश अच्छे पड़ौसी के नाते एक-दूसरे की उन्नति में सहयोग देते रहेंगे। उस समय राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे कुछ महान् विचारक इसके विपरीत थे और पाकिस्तान को विष वृक्ष की संज्ञा देते थे, परंतु बहुमत के आगे उन लोगों की आवाज धीमी पड़ गई और पाकिस्तान बन गया। तब से आज तक ५० वर्ष हो चुके हैं, पाकिस्तान ने भारत के विरोध को अपनी विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य बनाया हुआ है। अब तक जितने भी शासक पाकिस्तान में आये, उन्होंने एक स्वर से भारत का विरोध किया और वहाँ की जनता को भड़काया। परिणामस्वरूप आज तक पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के ऊपर अत्याचार और बलात्कार होते रहे हैं। जनवरी सन् १९६४ में पूर्वी पाकिस्तान में हुए बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे और हिन्दुओं का महाभिनिष्क्रमण तथा १९७१ के गृह युद्ध के परिणामस्वरूप नवोदित बंगला देश में क्रूर नर-संहार, असंख्य शरणार्थियों के रूप में भारत में आ जाना, पाकिस्तान की बर्बरता पूर्ण नीति का ज्वलन्त उदाहरण है। जनवरी १९६४ में हुयें पूर्वी पाकिस्तान के साम्प्रदायिक दंगों पर अपने विचार प्रकट करते हुए लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि “देश का बंटबारा समस्याओं का युक्तिसंगत समाधान सिद्ध नहीं हुआ।”
          भारत के प्रति घृणा, कटुता और वैमनस्यपूर्ण नीतियों के कारण ही पाकिस्तान ने ९ अप्रैल, १९६५ को कच्छ की सीमाओं पर आक्रमण कर दिया। इससे पूर्व पश्चिमी बंगाल की सीमा पर स्थित कूच बिहार, भकावाड़ी, तीसे बीघा, खर-खरिया आदि स्थानों पर उसके आक्रमण हो ही रहे थे । ७ अप्रैल, १९६५ को स्वराष्ट्रमन्त्री ने लोकसभा को यह सूचना दी कि कच्छ-सिन्ध सीमा के दक्षिण में कंजर कोट कच्छ इलाके में पाकिस्तानी भारतीय सीमा में घुस आये हैं। इसके बाद ९ अप्रैल, १९६५ से १ मई, १९६५ तक दोनों ओर से युद्ध चलता रहा । अन्त में २ मई, १९६५ को ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री श्री विल्सन के हस्तक्षेप से युद्ध विराम हुआ।
          लेकिन दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों के समझौते के हस्ताक्षरों की स्याही भी अभी सूख न पाई थी कि पाकिस्तान ने ५ अगस्त, १९६५ को कश्मीर पर पुनः भयानक आक्रमण कर दिया । यद्यपि भारत-पाक संघर्ष, द्वन्द्व और युद्ध की कहानी पाकिस्तान के जन्म के साथ-साथ प्रारम्भ हो गई थी। तब से किसी न किसी रूप में इस कहानी की पुनरावृत्ति होती रही, परन्तु जिसे घोषित युद्ध कहते हैं, वह यही था । वह यही युद्ध था जिसमें भारतीयों ने पाकिस्तानियों के दाँत खट्टे किये थे और उन्हें रुला दिया था । अगस्त १९६५ में पाकिस्तान ने अपने मुजाहिद आक्रमणकारियों को कश्मीर में भेजकर अक्टूबर १९४७ के आक्रमण की पुनरावृत्ति की थी । माओ त्से-तुंग की नीति अपना कर पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर तथा अपनी नियमित सेना को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया। इसके लिए मरी में कैम्प खोला गया था । अप्रैल १९६५ से ये तैयारियाँ खूब जोर-शोर से चल रही थीं। इन्हीं ५ ६ हजार घुसपैठियों को बाकायदा टुकड़ियों और कम्पनियों में बाँटकर तथा आधुनिक हथियारों से लैस करके ५ अगस्त, १९६५ और उसके आप-पास के दिनों में पाकिस्तान ने कश्मीर में भेजना प्रारम्भ कर दिया। यही इस युद्ध का प्रारम्भ था ।
          २० सितम्बर, १९६५ को सुरक्षा परिषद् ने भारत-पाक युद्ध विराम सम्बन्धी अपना अन्तिम प्रस्ताव पास किया और १२ सितम्बर को दोपहर तक ७२ घण्टे में युद्ध विराम की माँग की। उधर पाकिस्तान का हिमायती चीन भी १८ सितम्बर को अपनी सेनायें सिक्किम-लद्दाख सीमा तक (८०० भेंड़ें चुराने के अभियोग में) ले आया था। परिणामस्वरूप युद्ध बन्द हो गया, परन्तु वह युद्ध भारत की प्रतिष्ठा का था और पाकिस्तान को हमेशा के लिए सबक सिखाने का प्रश्न था । उस युद्ध के वीर सेनापतियों की शौर्य गाथाओं के अतिरिक्त अनेकों वीरों की कहानियाँ आज भी भारत के घर-घर में गाई जा रही हैं। भारत-पाक युद्ध का समय ऐसा था, जबकि प्रत्येक सैनिक अपने देश की प्रतिष्ठा और मान रक्षा के लिए अपने प्राणों को अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए न्योछावर कर देना ही अपना प्रिय पवित्र कर्त्तव्य समझता था, तभी तो सभी ने मिलकर देश की इज्जत बचा ली थी ।
          संयुक्त राष्ट्र संघ के कहने पर भारत और पाकिस्तान ने २३ सितम्बर, १९६५ को सुबह साढ़े तीन बजे से युद्ध विराम किया था । लोकसभा में युद्ध विराम स्वीकार करने की घोषणा करते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्री ने गद्गद् कण्ठ से कहा था –
          “ मैं इस संसद और समस्त देश की ओर से अपनी सेनाओं के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। उन्होंने अपने अदम्य साहस और वीरता से देश के लोगों में नया विश्वास भरा है। “
          तत्कालीन प्रतिरक्षा मन्त्री श्री चहाण ने १५ नवम्बर, १९६५ को लोकसभा में बताया कि “५ अगस्त से १६ नवम्बर तक भारत के २२२६ जवानों ने वीरगति प्राप्त की । ७८७० जवान घायल हुये और लगभग १५०० लापता हुए। घायलों में से २५११ स्वस्थ होने पर अपनी ड्यूटी पुनः संभाल ली । वीरगति प्राप्त करने वालों में १६१ अफसर थे ।” भारत सरकार ने अनुसार पाकिस्तान के लगभग ५९०० सैनिक मारे गये। घायलों की संख्या का पता नहीं । श्री चह्वाण ने यह भी बताया कि हमारे ३५ हवाई जहाज नष्ट हुए और ८० टैंक तबाह हुये। भारत के अनुसार पाकिस्तान के लगभग ४७५ टैंक नष्ट या क्षतिग्रस्त हुए अथवा कब्जे में ले लिए गए । १९३ पाकिस्तानी टैंक भारत के हाथ पड़े, जिसमें से ३९ बिल्कुल चालू हालत में थे । भारतीय हवाबाजों और तोपचालकों ने ७४ पाकिस्तानी विमानों को निशाने लगाकर मार गिराया। इसके अलावा जो विमान हवाई अड्डों पर बम वर्षा से तबाह या क्षतिग्रस्त किए, उनकी संख्या अलग है और ठीक से मालूम नहीं हो सकी I
          भारत-पाक युद्ध में भारतीय सैनिक की जिस वीरता के ज्वलन्त उदाहरण मिले, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जायेंगे । इस युद्ध से “एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह हुई की नई पीढ़ी ने अपने अटूट देशानुराग और अदम्य साहस का अपना नया कीर्तिमान बनाया ।”
          इतने बड़े संघर्ष के बाद भी भारत ने अपनी अद्वितीय सहनशीलता और सहअस्तित्व की भावना का परिचय देते हुए ताशकन्द घोषणा को स्वीकार किया और उस पर बराबर अमल किया ।
          इतना होने पर भी पाकिस्तान ने सदैव भारत की मैत्री का प्रस्ताव ठुकराया है और भारत को खा जाने की सदैव धमिकयाँ देता रहा है ऐसा क्यों? इसका केवल एक ही उत्तर है कि पाकिस्तान की नींव ही घृणा, द्वेष, कटुता, संकीर्णता, स्वार्थ और वैमनस्य पर रखी गई है। इस नीति को वहाँ का प्रत्येक शासक बढ़ावा देता रहा है। इससे उनको लाभ भी हुआ है कि वे वहाँ की जनता को भारत के विरोध के अलावा कुछ और सोचने का मौका ही नहीं देना चाहते अन्यथा उनका तख्ता पलट जायेगा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जहाँ भारत अपनी आर्थिक विकास की योजनाओं में लग गया वहाँ पाकिस्तानी शासक ऐसे प्रपंच रचते रहे जिससे भारतवर्ष को नीचा दिखाया जा सके तथा पाकिस्तानी जनता को उनके मूल अधिकारों तथा देश की वास्तविकता से दूर रखा जा सके ।
          अब प्रश्न यह है कि क्या पाकिस्तान के झगड़े का प्रश्न आसानी से सुलझाया जा सकता है ? इसका एक मात्र उत्तर है, नहीं । शायद कोई दिन ही ऐसा जाता हो जिस दिन पाकिस्तान की सीमा पर कोई झगड़ा न होता हो, कश्मीर में तो कोई दिन ऐसा न जाता होगा, जिस दिन दो चार न मरते हों। फिर इसका उपचार क्या है, केवल यही है कि –
“खीरा का मुँह कोटि कै, मलियत नमक मिलाय।
रहिमन कडुवे मुखन की चाहिए, यही सजाए ।”
          सन् १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान में पहिले गृह युद्ध छिड़ा और फिर सहसा, अन्याय और दमनकारी नीतियों के फलस्वरूप, उस गृह युद्ध ने क्रान्ति का रूप धारण कर लिया। पाकिस्तान का पूर्वी भाग आज ‘नवोदित बंगला देश’ के रूप में विश्व के समक्ष आ चुका है ।
          पड़ौस में लगी आग की चिनगारियाँ भारत में आनी स्वाभाविक थीं। नब्बे हजार शरणार्थी अपनी जान बचाकर भारत में आये। क्रूर एवं निर्दयी हाथों से मानवता की रक्षा के लिये भारत ने उन्हें शरण दी, भोजन, वस्त्र और औषधि का प्रबन्ध किया। भारत ने यह सब कुछ मानवीय दृष्टिकोण के आधार पर किया, परन्तु पाकिस्तान ने अपने घर की लड़ाई को हम पर थोपना चाहा और अनर्गल युद्ध की धमकियाँ ही नहीं दीं बल्कि भारत के विरुद्ध ३ दिसम्बर, १९७१ को खुल्लम-खुल्ला युद्ध छेड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप १४ दिन के विनाशकारी युद्ध के पश्चात्, पाकिस्तानी सेना के एक लाख सैनिकों ने बिना शर्त आत्मसमर्पण किया और बंगला देश अस्तित्व में आया । विवश होकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति भुट्टो ने भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया, जिसके फलस्वरूप शिमला में भारत-पाक समझौता २ जुलाई, १९७२ को सम्पन्न हुआ। दोनों देश समझौते को व्यावहारिक रूप देने के लिए प्रयत्नशील रहे, परन्तु चीन की हस्तक्षेप नीति बाधक बनकर सदैव खड़ी रही ।
          भारत तथा पाकिस्तान के सम्बन्धों को आपसी विश्वास तथा सद्भाव को नया आधार देने की दृष्टि से भारत सरकार के तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने ६ फरवरी, १९७८ को पाकिस्तान की यात्रा की। पाकिस्तान में भी इस यात्रा की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही थी । ७ फरवरी, १९७८ को पाकिस्तान की राजकीय यात्रा के समय भारत के विदेश मन्त्री ने इस्लामाबाद में पाक पत्रकारों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा, “भारत सरकार की घोषणाओं और आश्वासनों का सब देशों में स्वागत और समर्थन किया जा रहा है पाकिस्तान में भी उन पर भरोसा और विश्वास किया जाना चाहिए। भारत पाकिस्तान की स्वतन्त्रता और सार्वभौमिकता का सम्मान और आदर करता है । ” कश्मीर के सम्बन्ध में विदेश मन्त्री ने कहा – “अन्य पुरानी बातों की जगह हमें नई स्थिति के आधार पर विचार करना होगा । हम खुद आगे की ओर देख रहे हैं पीछे की ओर नहीं । हमारे दोनों देशों के बीच सम्बन्धों की धार में बहुत पानी बह चुका है। हमें अब पुरानी बातों को भुलाकर सम्बन्धों के नये युग की ओर देखना चाहिए। हमने भूतकाल भुला दिया है, और अब हमें आगे की ओर देखना चाहिए।”
          भारत की सरकार के सौमनस्य के कारण दोनों देशों के बीच लगभग ८ वर्ष से चले आ रहे सलालपन बिजली परियोजना विवाद पर १४ अप्रैल, १९७८ को दोनों देशों के समझौते पर हस्ताक्षर होते ही पटाक्षेप हो गया ।
          १९८१ में पाकिस्तान के राष्ट्रपति व मार्शल ला प्रशासक जनरल जिया उल हक ने अमेरिका आदि देशों से आधुनिक शस्त्रास्त्र प्राप्त करने प्रारम्भ कर दिये और परमाणु बम बनाने की प्रतिज्ञा-सी कर ली है। पाकिस्तान की इस सैनिक तैयारी को भारत ने शंका की दृष्टि से देखा तथापि भारत अपनी सुरक्षा के लिए पूर्णतया समर्थ एवं तत्पर रहा । १ नवम्बर, १९८२ को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया उल हक दिल्ली पधारे, जिससे यह आशा की गई कि दोनों देशों के सम्बन्ध और अधिक मैत्रीपूर्ण बनेंगे | प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से वार्ता के उपरान्त उन्होंने वार्ता को बहुत उपयोगी .एवम् सौहार्दपूर्ण बताया। श्री राजीव गाँधी के प्रधानमन्त्रित्व काल में, भारत-पाक सम्बन्धों में और भी अधिक सुधार की आशा हुई। १९८५-८६ में जनरल जिया ने भारत की मैत्रीपूर्ण यात्रा की और श्री गाँधी भी १९८६ में पाकिस्तान गये । उस समय यह आशा हई थी कि दोनों देशों में आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ेगा ।
          अपवित्र हृदय की दोस्ती भी समय पर दगा देती है। प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया की ओर शुद्ध हृदय से मैत्री का हाथ कई बार बढ़ाया है, बदले में वे भी मुस्करा कर हाथ बढ़ाते हैं, ८७ और ८८ में दो बार टैस्ट मैच देखने भी भारत आ चुके हैं पर पाकिस्तान की कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर है। सीमाओं पर पाकिस्तानी सेनाओं की सन्नद्धता, युद्ध का पूर्वाभ्यास, परमाणु बमों का निर्माण, अमेरिका से संहारक अस्त्र-शस्त्रों का अत्यधिक आयात, भारत के सैन्य ठिकानों की गुप्तचरी, सिक्खों का भारत के विरुद्ध पाकिस्तान में प्रशिक्षण, आदि क्रिया-कलाप यह सिद्ध करते हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ कभी भी युद्ध में कूद सकता है। आये दिन भारत की सीमा सुरक्षा चौकियों पर गोलाबारी होना, सीमाओं का अतिक्रमण करके घुस पैठिये भेजना, आतंकवादियों को हथियार सप्लाई करना आदि कार्य मैत्री के द्योतक नहीं हैं ।
          सियाचिन पर आये दिन गोलाबारी होती रहती है । कोई दिन ऐसा नहीं मुठभेड़ न होती हो । ४ नवम्बर, ८८ को प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि — “यदि उसने सियाचिन में फिर से भारत पर हमला किया तो उन्हें मुँह तोड़ जवाब दिया जाएगा, जैसा कि उन्हें पहले भी दिया जा चुका है।”
          गाँधी ने काठमाँडू से लौटते हुये विमान में संवाददाताओं से कहा कि वह पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री मोहम्मद खान जुनेजो को बता चुके थे कि पाकिस्तानी सेना सियाचिन ग्लेशियर में भारतीय सुरक्षा चौकियों पर हमला कर रही है। बाद में यहाँ पहुँचने पर दिल्ली हवाई अड्डे पर उन्होंने संवाददाताओं से बातचीत करते हुए कहा कि पाकिस्तान को हमला नहीं करने का सबक सीखना चाहिये ।
          प्रधानमन्त्री ने कहा कि उन्होंने जुनेजो से स्पष्ट तौर पर यह भी कह दिया था कि सियाचिन क्षेत्र में भारतीय चौकियों पर हमला पाकिस्तान ने किया था और हम रक्षा के लिये जवाबी कार्रवाई करने को बाध्य थे ।
          प्रधानमन्त्री ने कहा कि जुनेजो ने आपसी बातचीत के दौरान जब सियाचिन का प्रश्न उठाया था तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि मामला उनके हाथ में है। यदि उन्होंने हमारे ठिकानों पर हमला किया तो हम अपनी सुरक्षा करेंगे ही ।
          गाँधी ने जुनेजो से यह भी कहा कि “समस्या का यही कारण है । इसलिये बेहतर यही है कि वह हमला नहीं करे । ”
          गाँधी ने दोहराया कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सामान्य बनाने में मुख्य बाधा है और वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम उसकी आवश्यकता से काफी बड़ा है ।
          जब गाँधी ने पाकिस्तान द्वारा आवश्यकता से अधिक यूरेनियम परिष्कृत किये जाने की बात की और कहा कि मित्र देश भी मानने लगे हैं कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम है और वह हथियार बनाने जा रहा है ।
          उन्होंने कहा कि बातचीत के दौरान उन्होंने जुनेजो को बता दिया है उनके परमाणु कार्यक्रम से इस क्षेत्र में हथियारों की होड़ शुरू होगी, जिसकी पूरी जिम्मेदारी पाकिस्तान पर होगी ।
          गाँधी के अनुसार जुनेजो इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके कि पाकिस्तान आवश्यकता से अधिक मात्रा में यूरेनियम परिष्कृत कर रहा है ।
          चर्चा के लिये पेश चौदह सूत्री कार्यक्रम में सियाचिन मामले पर बातचीत पुनः शुरू करना, आतंकवाद और नशीले पदार्थों के आवागमन रोकने में सहयोग, निजी क्षेत्र के माध्यम से व्यापार बढ़ाना और प्रत्यावर्तन करार की बातें शामिल हैं।
          इसके अलावा राजस्थान क्षेत्र में खोखरापार, मुनाबू रेल मार्ग पर यातायात शुरू करने, पुस्तक, समाचार, पत्र-पत्रिकाओं का मुक्त रूप से आदान-प्रदा र भूमि तथा जल सीमा निर्धारित करने के बारे में बातचीत का भी प्रस्ताव किया गया है।
          जानकर सूत्रों के अनुसार राजीव जुनेजो की बातचीत के फलस्वरूप दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक दिसम्बर में होगी। इससे पहले दोनों देशों के वित्त और योजना सचिवों की भी बैठक होगी।
          गाँधी ने दक्षेस के शिखर सम्मेलन में अपने साथ गये संवाददाताओं को बताया कि जुनेजो के साथ व्यापक विचार-विमर्श के दौरान उन्होंने दोनों देशों के बीच शान्ति एवं समझौते को लेकर व्यापार तथा जनता के पारस्परिक सम्पर्क तक के मुद्दों पर तत्काल फिर से बातचीत शुरू करने का प्रस्ताव किया था ।
          प्रधानमन्त्री ने कहा कि बैठक में इस बात पर सहमति हो गई थी कि भारत पाक संयुक्त आयोग की अगले वर्ष के प्रारम्भ महीने वाली बैठक के पूर्व दोनों देशों के विदेश सचिवों की किसी उपयुक्त तिथि को बैठक होगी I
          परन्तु इन घोषणाओं और चेतावनियों का पाकिस्तान पर क्या प्रभाव ? ८ मई, ८८ को अधिकारिक सूत्रों के अनुसार पाकिस्तानी सैनिक अधिकारी जम्मू-कश्मीर से लगी सीमा पर अमेरिका से प्राप्त माउन्टेन गन तथा टैंकों से लैस अतिरिक्त सैन्य बल तैनातं कर सीमा पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है।
          इन सूत्रों के अनुसार गत-सायं जम्मू के आर० एस० पुरा सैक्टर से सीमा सुरक्षा बल के साथ हुई दो अलग-अलग मुठभेड़ों में इस सीमान्त क्षेत्र से सक्रिय पाक तस्करों व जासूसी के गिरोह के ३ सदस्य मारे गये I
          सूत्रों ने बताया कि यह तीनों पाक नागरिक आर० एस० पुरा सैक्टर में तीन महत्वपूर्ण स्थानों, पर सक्रिय थे और कल जब वे सीमा में घुसने की कोशिश कर रहे थे तभी सीमा सुरक्षा बल के जवानों के ललकारे जाने पर उन्होंने गोलियाँ चला दीं। जिसके जवाब में जवानों ने गोलियाँ चलाई और वे तीनों मौत के घाट उतार दिये ।
          समझा जाता है कि पाक जासूसों के इस संवेदनशील ठिकानों का आतंकवादियों तथा तस्करों के लिये उपयोग किया जाता था । मारे गये तीनों तस्करों व जासूसों से कुछ आपत्तिजनक दस्तावेज भी बरामद हुए हैं।
          सन् १९८८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक की आकस्मिक मृत्यु और वहाँ पर लोकतन्त्र की बहाली के बाद दोनों देशों के मध्य तनाव कुछ कम हुआ है। दिसम्बर १९८८ के सार्क सम्मेलन के दौरान प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी तथा पाक प्रधानमन्त्री श्रीमती बेनजीर भुट्टो के मध्य औपचारिक वार्ता हुई । लेकिन सितम्बर १९८९ के बेलग्रेड गुट निरपेक्ष सम्मेलन में पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने कश्मीर का प्रश्न उठाकर दोनों देशों के मध्य सम्बन्धों को पुनः तनावपूर्ण बना दिया। सियाचिन की समस्या भी दोनों देशों के मध्य कटुता बने रहने का प्रमुख कारण बनी हुई है।
          सन् १९९० के वर्ष में कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान के, आक्रात्मक हस्तक्षेप श्रीमती बेनजीर भुट्टो द्वारा निरन्तर कश्मीर पर प्रभुत्व का दावा, पाक सेना का सीमा पर युद्ध का पूर्वाभ्यास आदि बातों ने दोनों देशों के मध्य सम्बन्धों को अत्यधिक तनावपूर्ण बना दिया है। प्रधानमन्त्री श्री वी० पी० सिंह ने पाकिस्तान को स्पष्ट रूप से चेतावनी दे दी है कि भारत अपनी अखण्डता की रक्षा के लिए युद्ध के लिए भी सदा तत्पर रहेगा ।
          पहला इतिहास, वर्तमान परिस्थितियाँ और भावी विचारधाराओं से स्पष्ट है कि पाकिस्तान न कभी चैन से बैठेगा और न भारत को बैठने देगा। राग द्वेष का यह क्रम अनन्त काल तक इसी प्रकार चलता रहेगा। आज ९७ है परन्तु आज भी पाक प्रशिक्षित घुसपैठिये कश्मीर में उपद्रव कर रहे हैं। हजरतबल दरगाह में आंतकवादी जबरदस्ती घुस गये। बड़े प्रयत्नों के बाद उन्हें वहाँ से हटाया जा सका।
          आज १९९७ में भी भारत पाक संघर्ष जारी है। शीत युद्ध की स्थिति सदैव बनी रहती है । श्रीमती बेनजीर भुट्टो के अपदस्थ होने के बाद यह स्थिति और भी भयानक हो गई है। कब, क्या हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता ।
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