भारत के प्रमुख उद्योग
भारत के प्रमुख उद्योग
भारत कृषि प्रधान देश है— ऐसा विदेशियों ने विख्यात कर दिया परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं थी । यहाँ प्रत्येक विषय के कुशल कलाकार भी थे, जो अपने कला-कौशल से विश्व को चमत्कृत कर देते थे। अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय उद्योग शनैः शनैः समाप्त हो गये और दो सौ वर्षों में तो बिल्कुल ही समाप्त हो गये । इसमें अंग्रेजों का स्वार्थ छिपा हुआ था, वे इंग्लैंड का बना हुआ माल भारतवर्ष में मनमानी कीमत पर बेचते थे, जिससे उनके देश का उद्योग बढ़ता था ।
महात्मा गाँधी ने अपने जीवन काल में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये आन्दोलन किये तथा स्वदेशी वस्तुओं को उपयोग में लाने के लिये जनता को प्रेरित किया। परिणाम यह हुआ कि विदेशी वस्तुओं की बिक्री भारतवर्ष में कम हो गई । भारतवर्ष की बेकारी की समस्या को दूर करने के लिये गाँधी जी ने लघु कुटीर उद्योग-धन्धों पर बड़ा बल दिया। अंग्रेजों ने जब देखा कि हमारे माल की खपत भारत में कम होती जा रही है, तो उन्होंने बड़ी-बड़ी मशीनें भारत को बेचनी शुरू कर दीं। सब प्रकार के कपड़े और चीनी की बड़ी-बड़ी मिलें खोली गईं और अब वे दूसरे रूप में भारत का पैसा इंग्लैंड भेजने लगे । शनैः शनैः स्वतन्त्रता संग्राम तीव्रतर होता गया। भारतीयों की आत्मिक शक्ति के सामने अंग्रेजी शासन झुका, भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुई। स्वाधीनता के पश्चात् देश ने औद्योगिक क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है। यह सत्य अब किसी से छिपा हुआ नहीं है। प्रतिदिन नई-नई महान् उद्योगशालायें खोली जा रही हैं। देश के जन-जीवन को सुखी एवम् सम्पन्न बनाने के लिये भारत सरकार निरन्तर प्रयत्नशील है। नित्य नवीन योजनाओं को जन्म दिया जा रहा है और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने का सरकार भरसक प्रयत्न कर रही है। इस समय भारत के प्रमुख उद्योग-सूती वस्त्र, जूट उद्योग चीनी उद्योग, लोहा तथा इस्पात उद्योग आदि हैं।
भारतवर्ष सूती वस्त्रों के उद्योग के लिये प्रसिद्ध है। भारत में पहली सूती वस्त्र की मिल बम्बई में सन् १८४५ में खोली गई थी। धीरे-धीरे इस उद्योग में तेजी साथ वृद्धि होती आजकल लगभग १००० मिलों में प्रति वर्ष ९५० करोड़ मीटर कपड़ा तैयार किया जाता है।
भारत की आर्थिक व्यवस्था में जूट उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश के लगभग चार लाख नागरिक इस उद्योग में लगे हुए हैं। जूट उद्योग से भारतवर्ष को विदेशी मुद्रा सबसे अधिक मात्रा में प्राप्त होती है। इस समय देश में ११५ जूट मिलें हैं, जिनमें लगभग १३ करोड़ टन से भी अधिक जूट का सामान तैयार होता है।
चीनी उद्योग भारत के सबसे बड़े उद्योगों में से एक है। अंग्रेजी शासन में भारत में विदेशों. से चीनी आती थी । परन्तु इस समय हम चीनी उद्योग में स्वावलम्बी ही नहीं अपितु विदेशों को भी चीनी देते हैं। चीनी निर्यात से देश को आर्थिक लाभ होता है। इस उद्योग से भारतवर्ष की बेरोजगारी और बेकारी की समस्या का काफी समाधान हो चुका है। देश के असंख्य अशिक्षित और शिक्षित पुरुष इस उद्योग से अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं। आज के किसान की आर्थिक दशा इसी उद्योग के सहारे सुधरती जा रही है और वह गेहूँ की अपेक्षा गन्ना पैदा करने में अपना अधिक कल्याण समझता है। परन्तु १९७७ और १९७८ में गन्ने का मूल्य सीमा से अधिक नीचे आ गया था। १९७९ में कुछ स्थिति सुधरी है । सन् १९८०-८१ में देश में चीनी का रिकार्ड उत्पादन हुआ था और अब १९९६ में उससे भी तिगुना हो रहा है ।
देश की समृद्धि के लिए लोहा और इस्पात बहुत ही आवश्यक है। भारतवर्ष में, सर्वप्रथम सन् १९०७ में टाटा आयरन एण्ड स्टील वर्क्स की स्थापना हुई थी, इसके बाद उत्तरोत्तर यह उद्योग बढ़ता गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर में लोहे और इस्पात के तीन बड़े-बड़े कारखाने खोले गये । इससे पूर्व भी हीरापुर, कुलती और भद्रावती के तीन कारखाने इस्पात का उत्पादन कर रहे थे । सन् १९७९-८० में ७४ लाख टन इस्पात का उत्पादन हुआ था। भारत से इस्पात एक बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता है, जिससे देश को काफी विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
सीमेंट के क्षेत्र में भारत अब आत्मनिर्भर हो गया है। इस समय देश में सीमेंट के बड़े-बड़े कारखाने हैं, जिनमें लगभग ८० हजार व्यक्ति काम करते हैं। प्रथम और द्वितीय पंचवर्षीय योजना से सीमेंट के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई थी, किन्तु जनता आज भी सीमेंट की कमी का अनुभव कर रही है, क्योंकि इन दिनों देश में भवन निर्माण भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है । सन् १९५७ में ५३ लाख टन, १९५८ में ६० लाख टन, १९५९ में ६५ लाख टन सीमेंट तैयार हुआ । इन आँकड़ों से यह प्रतीत होता है कि सीमेंट उद्योग भारतवर्ष में उत्तरोत्तर विकासशील है ।
तीसरी योजना के अन्त में १९६५-६६ में सीमेंट का उत्पादन १०८.२० लाख मीटरी टन था। १९६७ के अन्त तक उद्योग की प्रतिष्ठापित क्षमता बढकर १३४ लाख मीटरी टन हो गई।
चौथी योजना में १९७३-७४ में सीमेंट के उत्पादन का लक्ष्य १८० लाख मीटरी टन निर्धारित किया गया था। १९७९ तक यह उत्पादन १२० लाख टन तक पहुँच चुका है। सन् १९८२ से भारत सरकार ने सीमेंट की बिक्री पर नियन्त्रण समाप्त कर दिया है ।
कोयला आज के जीवन में नितान्त आवश्यक है यह कहने की बात नहीं है। छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े से बड़े काम में इसकी उपयोगिता है। गृहस्थी के साधारण कामों के अतिरिक्त देश के महान् कार्य, जैसे-बड़े-बड़े कारखाने, रेल- गाड़ियाँ, पानी के जहाज सभी में कोयले की अत्यन्त आवश्यकता है। भाग्य से हमारे देश में कोयले का अनुमानित भण्डार लगभग १०,११० करोड़ टन है। आज तक भारतवर्ष में प्रतिवर्ष ३ करोड़ ८० लाख टन कोयला निकाला जाता था, परन्तु अब इस ओर विशेष प्रयास किये गये हैं, जिनसे कोयला निकालने के काम में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
ब्रिटिश काल में कागज हमारे यहाँ विदेशों से आता था। इस प्रकार हम परमुखापेक्षी और पराश्रित थे। शनैः शनैः भारत में पुस्तकों के काम में आने वाला कागज बनने लगा । बढ़ते-बढ़ते आज भारत इस अवस्था में है कि उसे पुस्तकों के लिए विदेशों से कागज बिल्कुल नहीं मंगाना पड़ता । परन्तु अखबारी कागज की भारत में अब भी कमी है। मध्य प्रदेश के ‘नेपा’ स्थान में पहली मिल सन् १९५५ में स्थापित हुई थी। अब उसमें पूर्णरूप से काम होने लगा है और अखबारी कागज का ६००० टन प्रतिवर्ष उत्पादन होता है । १९९६ तक देश में अनेक स्थानों पर कागज मिलों की स्थापना हो चुकी है और इस दिशा में भी देश पर्याप्त स्वावलम्बी होता जा रहा है। सन् १९७८-७९ में भारत ने १० लाख टन कागज का उत्पादन किया था ।
मशीनों के निर्माण में भी भारत अब अन्य देशों से अधिक पीछे नहीं है। स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व सभी मशीनें विदेशों से ही आती थीं, क्या साइकिलें, क्या सिलाई की मशीनें और क्या डीजल इञ्जिन | विदेशों से साइकिलों का आयात अब समाप्त ही नहीं हुआ बल्कि भारत विदेशों को साइकिल तथा सिलाई की मशीनें निर्यात भी कर रहा है। वर्तमान में डीजल इञ्जिन तथा मोटरों का निर्माण भी भारत में ही हो रहा है । परन्तु कुछ आवश्यक पुर्जे आज भी विदेशों से मँगाये जाते हैं। आशा है कि निकट भविष्य में भारत उनमें भी स्वावलम्बी हो जायेगा ।
वायुयानों के निर्माण के लिये बंगलौर में हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स नामक एक विशाल कारखाना है, जिसमें अब तक कई प्रकार के हवाई जहाज बनाये जा चुके हैं। इस समय इस विशाल कारखाने में पुराने ढंग के और नये प्रकार के वायुयान बनाये जा रहे हैं। यह कारखाना दिन-प्रतिदिन उन्नति करता जा रहा है। एक कारखाना बंगलौर में और भी खोला गया है, जिसमें बायुयान बनाये जा रहे हैं। वायुयान बनाने का एक कारखाना भारत सरकार के रक्षा मन्त्रालय ने कानपुर में खोल रखा है। रूस की सहायता से नासिक और हैदराबाद में मिग विमानों का निर्माण किया जाता है। रेल इञ्जिन बनाने का सबसे बड़ा कारखाना चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स है, जो समस्त एशिया में सबसे विशाल कारखाना है। भारत सरकार ने इसकी स्थापना १९५९ में की थी। आज इसमें इंजिन बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष बनकर तैयार हो रहे हैं। इसी प्रकार पैराम्बूर में रेल के डिब्बे बनाने का कारखाना खोला गया है, जिसने कुछ ही वर्षों में देश की समृद्धि में आशातीत सहयोग प्रदान किया है ।
देश में जलयान बनाने के कारखाने विशाखापतनम, कोचीन, पश्चिमी बंगाल (गार्डन बीच), बम्बई (मझगाँव) में स्थापित हैं।
कोयले की भाँति मिट्टी का तेल भी आज के युग की विशेष आवश्यकता है। अब तक देश पैट्रोल के लिये विदेशों पर निर्भर रहता था, परन्तु अब मिट्टी का तेल देश में बहुतायत से पाया जा रहा है और उसको शुद्ध करने के लिए, एक ट्राम्बे में, दूसरा विशाखापतनम में तथा तीसरा मथुरा में, तीन कारखाने खोले जा चुके हैं। तेल का पर्याप्त अन्वेषण किया जा रहा है। काठियावाड़ में काफी मात्रा में तेल पाया गया है परन्तु इस दिशा में देश अभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाया । आशा है निकट भविष्य में भारत सरकार इस दिशा में निश्चित ही पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेगी। उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब में तेल की खोज की जा रही है। बड़ी-बड़ी मशीनों को बनाने के कारखाने भी खोले जा रहे हैं। रासायनिक पदार्थों के निर्माण के लिये देश में अनेक कारखाने काम कर रहे हैं। सिंदरी और नाँगल में रासायनिक खाद तैयार की जा रही है। इसके लिये भी रूस के सहयोग से बड़े-बड़े कारखाने खोले गये हैं। आज के परमाणु-युग में भारतवर्ष ने भी ट्राम्बे में परमाणु भट्टी प्रारम्भ की है।
पंचवर्षीय योजनाओं में भारत के उद्योगों ने आशातीत उन्नति की है। आज भारत यंत्रों और पुर्जों, युद्ध सामग्रियों, दैनिक जीवन के उपयोग और उपभोग की वस्तुओं का निर्माण नहीं कर रहा अपितु अब वह इस स्थिति में है कि वह विश्व के विकासशील देशों को सभी वस्तुओं का निर्यात भी कर रहा है।
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