भारत के अमर सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

भारत के अमर सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

          मातृभूमि की वन्दना में अनेकों ने अपनी-अपनी स्वर साधनाएँ प्रस्तुत कीं, परन्तु सबसे ऊँचा स्वर ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी सुभाष का था । वह स्वर सर्वोच्च होने के साथ-साथ सबसे भिन्न भी था । उस समय की स्थिति ऐसी थी कि सुभाष के स्वर में शंखनाद था, सिंह गर्जना थी, बैरियों की छाती धड़कने लगीं, मातृ-भूमि अपने वरदपुत्र की साधना पर मुस्करा उठी। जनता ने जय-जयकार किया कवियों ने प्रशंसा में गीत लिखे, सम्पादकों ने लेखनी सफल की, बस फिर क्या था साधक अब बहुत आगे था, यही एक ऐसा साधक था, जिसने गाँधी जी जैसे कूटनीतिज्ञ व्यक्ति से एक बार नहीं अनेकों बार भारतवर्ष के सार्वजनिक क्षेत्र में टक्कर ली ।
          सुभाष बाबू का जन्म उड़ीसा राज्य के कटक शहर में २० जनवरी, सन् १८९७ में हुआ था । इनके पिता रायबहादुर जानकी नाथ बोस कटक म्युनिसीपैलिटी तथा जिला बोर्ड के प्रधान थे तथा नगर के गणमान्य वकीलों में से थे। सुभाष की प्रारम्भिक शिक्षा एक यूरोपियन स्कूल में हुई। मैट्रिक की परीक्षा में सुभाष ने कलकत्ता यूनीवर्सिटी में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। इसके बाद इन्होंने प्रसीडेंसी कालेज में प्रवेश किया। वहाँ एक ओटेन नामक अंग्रेज प्रोफेसर था जो सदैव भारतीयों के प्रति निन्दाजनक शब्द कहा करता था, स्वाभिमानी सुभाष के लिये यह असहा था। उन्होंने कक्षा में ही एक दिन उसके एक चाँटा जड़ दिया। उस दिन से ही उसने भारतीयों की निन्दा करनी तो बन्द कर दी, परन्तु सुभाष को कॉलिज से निकाल दिया गया। इसके पश्चात् वे स्कॉटिश चर्च कॉलिज में प्रविष्ट हुये और कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी० ए० ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। सन् १९१९ में वे भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा पास करने के लिये इंगलैण्ड गये। छः महीने ” के कठोर परिश्रम से उस परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त करके उत्तीर्ण हो गये । आई० सी० एस० की परीक्षा पास करके वे भारत लौट आये और नौकरशाही की शोषक मशीन का पुर्जा बनने से स्पष्ट इन्कार कर दिया ।
          सुभाष बाबू के जीवन पर देशबन्धु चितरन्जन दास के त्याग और तपस्या का बड़ा गहन प्रभाव पड़ा। वे उनके कार्यों में सहयोग देने लगे। उनके द्वारा निकाले गये “अग्रगामी” पत्र का सम्पादन भार इन्होंने अपने ऊपर ले लिया । सन् १९२१ में इन्होंने स्वयं सेवकों का संगठन-कार्य प्रारम्भ किया। फलस्वरूप अंग्रेज गवर्नमेंट ने इन्हें दिसम्बर मास में गिरफ्तार कर लिया। प्रिंस ऑफ वेल्स जब भारत आये, समस्त भारत में उनका बॉयकॉट किया गया, सुभाष ने बंगाल में इस आयोजन का नेतृत्व किया । देशबन्धु द्वारा आयोजित स्वराज्य पार्टी में इन्होंने तन, मन, धन से पूर्ण सहयोग दिया। इस भयानक आतंक से डर कर २५ अक्टूबर को इन्हें बर्मा की माँडले जेल भेज दिया गया, परन्तु स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण १७ मई, १९२७ को इन्हें मुक्त कर दिया। उस समय तक देशबन्धु की मृत्यु हो चुकी थी । कारावास से मुक्त होने के पश्चात् मद्रास कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष डॉ० अन्सारी ने इन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रधानमन्त्री नियुक्त किया ।
          सुभाष बाबू भारतीय नेताओं की औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे, वे पूर्ण स्वातन्त्र्य के पक्षपाती थे, अग्रिम वर्ष के कांग्रेस के अधिवेशन में यही प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। गाँधी जी से विरोध होने पर भी, ये उनके द्वारा संचालित आन्दोलनों में सहर्ष भाग लेते रहे | १९३० में कानून भंग के अपराध से इन्हें पुनः जेल भेज दिया गया। जेल में आपका स्वास्थ्य खराब हो गया, अंग्रेजी सरकार से आपने स्वास्थ्य लाभ के लिये विदेश जाने की अनुमति माँगी, सरकार ने आज्ञा दे दी । आप योरुप चले गये । विदेश में चार वर्ष रहकर आपने देश के बाहर का वातावरण भारतीयों के अनुकूल बना लिया । विदेश से लौटने पर ये हरीपुरा कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित किये गये। इस अधिवेशन में आपने अपने ओजस्वी भाषण में फैडरल योजना का घोर विरोध किया। अगले वर्ष अर्थात् १९३९ में ये गाँधी जी की इच्छा की अवहेलना करके कांग्रेस राष्ट्रपति के उच्च पद के लिये पुनः खड़े हुए। कांग्रेस के इतिहास में यह चुनाव अत्यधिक संघर्ष का था । जब वे गाँधी जी के कहने से न मानें तो, उन्होंने अपने प्रिय भक्त डॉ० पट्टाभि सीतारमैया को विरोधी उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया। अखिल भारतीय चुनाव हुआ, सुभाष २०३ वोटों से विजयी हुये, सीतारमैया की करारी हार हुई। गाँधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार मानी। सुभाष बाबू ने त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का सभापतित्व किया। गाँधी जी ने काँग्रेस छोड़ देने की धमकी दी। सुभाष बाबू यह नहीं चाहते थे, इसलिये कुछ दिनों के बाद स्वयम् उन्होंने ही इस पद से त्याग-पत्र दे दिया और स्वयं अपने अग्रगामी दल का अलग निर्माण कर लिया ।
          कुछ समय पश्चात् भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत इन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। सुभाष 1 आमरण अनशन की घोषणा कर दी, इसलिये सरकार ने इन्हें जेल से मुक्त करके घर पर ही नजरबन्द कर दिया, परन्तु सख्त देख-भाल यहाँ पर भी रही। नजरबन्दी के समय में आपने समाधिस्य होने की घोषणा कर दी । एक दिन द्वारपालों को अधिकारियों को और अंग्रेजी सरकार को अपनी अद्भुत दैवी शक्ति से पागल बना दिया। सबकी आँखों में धूल झोंकते हुये आधी रात के समय मौलवी के वेश में घर से बाहर निकल गये। ये कलकत्ते से पेशावर गये, वहाँ उत्तम चन्द्र की सहायता प्राप्त करके एक गूंगे मुसलमान के रूप में काबुल होते हुए जर्मनी पहुँचे। वहाँ इन्होंने ” “आजाद हिन्द सेना” की नींव डाली। जापान की सहायता से सुभाष ने ब्रह्मा तथा मलाया से अंग्रेजों को मार भगाया। अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये सैंकड़ों नवयुवकों ने खून से हस्ताक्षर करके सुभाष को दे दिये । नेता जी सुभाष ने अपने सैनिकों से कहा था “तुम मुझे अपना खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा ।” विश्व के १९ राष्ट्रों ने आजाद हिन्द फौज को स्वीकार कर लिया था । ‘जयहिन्द’ और ‘दिल्ली चलो’ के नारों से इम्फाल और अराकान की पहाड़ियाँ गूँज उठीं। ५ जौलाई, १९४३ को सुभाष ने इस सेना का नेतृत्व सम्भाला । १९४५ में सुभाष ने अपनी भारत माता की परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिये दूसरा भयानक आक्रमण किया। परन्तु जर्मनी की हार के साथ आजाद हिन्द फौज का भाग्य ही बदल गया। सैनिक गिरफ्तार कर लिये गये । वायुयान द्वारा नेता जी जापान जा रहे थे, रास्ते में जहाज में आग लग गई, इस प्रकार सुभाष १९ अगस्त, १९४५ को संसार छोड़कर चल बसे, ऐसा कहा जाता है । परन्तु अधिकांश लोग इस जनश्रुति पर अभी विश्वास नहीं करते क्योंकि नेता जी के परिवार वाले अब भी उनकी जन्मतिथि अर्थात् वर्षगाँठ मनाते हैं।
          क्रान्ति दूत सुभाष भयंकर ज्वालामुखी के समान थे । वे जीवनपर्यन्त ब्रिटिश साम्राज्य की आँखों में खटकते रहे। यदि वे आज हमारे बीच में होते तो निश्चय ही जनता उनका हृदय से स्वागत और आदर करती । परन्तु भारतीयों का दुर्भाग्य है कि वे लौटकर न आये और आये भी होंगे, तो किसी को पता नहीं चला। वे सिंह थे। उनकी गर्जनायें शत्रुओं के हृदय को शतशः विदीर्ण कर देती थीं। आज भी भारतवासियों के हृदय-पटल पर उनकी भव्यमूर्ति ज्यों की त्यों अंकित है। नेता जी स्वयम् में महान् थे और उनका त्याग और बलिदान था। भारतवर्ष की भावी संतति के लिये वे सदैव प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे। उनके आदर्शों पर चलकर जनता देश के कल्याण के लिये कटिबद्ध रहेगी।
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