भारत का प्रथम अणु-विस्फोट

भारत का प्रथम अणु-विस्फोट

मन्जिल मिले या न मिले इसका गम नहीं। 
मन्जिल की जुस्तजू में मेरा कारवाँ तो है ॥
          भारतीय वैज्ञानिकों का कारवाँ इसी उद्देश्य से अनुप्रेरित हो पच्चीस वर्षों से मौन तपस्वी अपने एकान्त साधनों में रत था। न मन में उदासीनता थी और न मस्तक पर चिन्ता । के द्वीप में उत्साह की बातों को संजोये साधक, ज्ञान के गहन सागर में गोते लगाते और कोई : अमूल्य मोती हाथ में लिये हुए मुस्कराते फिर ऊपर आ जाते। मोतियों की माला शनैः शनैः की ओर बढ़ती रही, हालांकि प्रेरक पथप्रदर्शक भी धीरे-धीरे उठते गए परन्तु भारत की ना अमृत-कुण्ड हैं, भारत-भूमि जहाँ एक ओर वीर जननी है वहाँ दूसरी ओर वैज्ञानिक जनन भी।
          डा० भाभा जैसे सफल माली के संरक्षण में पं० जवाहर लाल नेहरू के द्वारा लगाए हुए अणु-अनुसन्धान के वृक्ष ने भारतीय युवा वर्ग के चिरपोषित स्वप्नों को साकार करते हुये जब पहला ही एक मीठा फल दिया तो पं० जी की आत्मा स्वर्ग में सिहर उठी। अपने शिष्यों का चमत्कार देखकर स्वर्गीय डा० भाभा भी मौन न रह सके और मुस्करा उठे । धरती और आकाश अपनी निर्मलता विषाक्त गैस ने उनकी चूनर और चादर पर प्रसन्न थे क्योंकि प्लूटोनियम की को कलंकित न किया था, उनकी और सन्त राष्ट्र भारत की इस अमर पवित्रता यथावत् थी । विश्व के सुधी फल प्राप्ति पर हर्षोतिरेक से प्रसन्न हो परन्तु दुष्ट और दानव राष्ट्र ईर्ष्यावश खिन्न और क्षुब्ध थे, राम द्वारा धनुभंग की भाँति ।
          गर्वातिरेक से अपने को पंच परमेश्वर मानने वाले अणु-शक्ति सम्पन्न पाँच राष्ट्रों अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के एकाधिकार को समाप्त कर भारत ने हनुमान की भाँति इन पाँच राष्ट्रों की रावण की सभा में जब अपनी विजय पर अट्टहास किया तो ईष्यालु राष्ट्रों के छक्के छूट गये । इधर-उधर ‘त्राहि-माम्’ ‘त्राहि माम्’ की आवाजें उठने लगीं। किसी ने सन्धि-विच्छेद की दुहाई दी तो किसी ने अनुबन्ध विच्छेद की और किसी ने विधि विच्छेद की, हालांकि भारत ने वही किया था, जो ये राष्ट्र आये दिन करते रहते हैं, उन पर न कोई विधि-अवज्ञा का दोष लगता है न विधि-विडम्बना का। भारत के बाद १७ जून, १९७४ को चीन ने वायुमण्डल में अपना सत्रहवाँ परमाणु विस्फोट किया और फ्रांस ने प्रशान्त महासागर में अपना विस्फोट किया, पर किसी ने कुछ नहीं कहा। बात यह है –
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती। 
          गर्भवती साधना सहसा फलवती हो उठी। १८ मई, १९७४ को प्रातः ८ बजकर ५ मिनट पर देश के पश्चिमी भाग में राजस्थान के बाड़मेर जिले की किसी समतल भूमि के १०० मीटर नीचे भारत ने जब अपना चिर प्रतीक्षित ऐतिहासिक प्रथम परमाणु विस्फोट किया तो देश का कण-कण हर्षोल्लास से नाच उठा। लोग सगर्व कहते सुने गए कि ‘अब भारत भी अणु-शक्ति सम्पन्न राष्ट्र हो गया।”
          निश्चित ही भारत ने उस दिन पाँच बड़े राष्ट्रों (अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन) के अणु-शक्ति एकाधिकार को छिन्न-भिन्न कर विश्व के छठे अणु-राष्ट्र के रूप में अपने को विश्व शक्तियों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। अणु शक्ति आयोग के अध्यक्ष डॉ० ‘एच० एन० सेना के अनुसार, “१० से १५ किलो टन टी० एन० टी० शक्ति वाला यह विस्फेट एकदम सफल, १०० प्रतिशत शुद्ध ईंधन तथा भारतीय सामग्री एवं तकनीक पर आधारित था. यह पूर्णतः नियन्त्रित सीमित विस्फोट था, इसका उद्देश्य गहराई तक धंसने और चट्टान तोड़ने की शक्ति मापना था जिसमें वह पूर्णतः सफल रहा।” इस प्रकार के भूगर्भीय विस्फोट अब तक केवल अमेरिका और सोवियत संघ ने ही किए हैं। यह अणु-विस्फोट १०-१५ किलो टन टी० एन० टी० की विस्फोट शक्ति का सम्भवतः द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के नागासाकी पर गिराये गये अणु-बम के बराबर था । अणु ऊर्जा विभाग की घोषणा के अनुसार इस बम को अन्तर्विस्फोट प्रणाली से विस्फोटित किया गया। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत को इस तकनीक की आधुनिकतम जानकारी है। यह भारतीय अणु बम सन् १९४५ में हिरोशिमा पर गिराये गये अणु बम के आकार से भी छोटा बताया जाता है। हिरोशिमा का बम लगभग २० किलो टन का था । सन् १९६४ के चीन द्वारा किये गये अणु विस्फोट में प्रयुक्त बम का आकार भी लगभग इतना ही था। भारत ने प्लूटोनियम प्रणाली का प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया कि आणविक तकनीक में वह किसी से पीछे नहीं है। प्लूटोनियम विश्व की एक सर्वाधिक विशाक्त धातु है और इसका प्रयोग करने के लिये आधुनिकतम तकनीक की आवश्यकता होती है। प्रोजेक्टानूल मैथड (संक्षेपी पद्धति) की बजाय अन्तर्विस्फोट भूमिगत पद्धति (इम्पलीजन टेक्नीक) से प्लूटोनियम पिंड को विखण्डित करना और भी कठिन है और इस बात का परिचायक है कि भारत ने इस क्षेत्र में इतनी जबरदस्त प्रगति की है।
          अणु-शक्ति आयोग के अध्यक्ष डॉ०. सेठना के अनुसार भारत के पहले शान्तिपूर्ण अणु परीक्षण पर अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य के आधार पर लगभग ३० लाख रुपये खर्च हुए जो ४ लाख डालर के बराबर हैं। डॉ० सेठना ने कहा- अणु परीक्षण पूर्णतः शान्तिपूर्ण कार्य के लिये किया गया है। विस्फोट के लिये स्थान का चयन भी व्यापक अध्ययन के बाद किया गया, जिससे परीक्षण से प्राप्त ज्ञान का सीधा उपयोग ऐसे ही स्थानों में जहाँ तेल अथवा गैस निकालने की सम्भावना हो, परीक्षणों में किया जा सके।” अणु बम बनाने की कल्पना को उन्होंने निरर्थक और ज्वालामुखी पर बैठना जैसा बताया ।
          भाभा अणु अनुसन्धान केन्द्र के निदेशक डॉ० आर० रामन्ना ने बताया कि अणु विस्फोट से विस्फोर्ट स्थल के आस-पास का दृश्य बदल गया । विस्फोट से एक कृत्रिम पहाड़ी बन गई, जिससे बड़ा सुन्दर दृश्य लगने लगा । डॉ० रामन्ना ने कहा कि जब विस्फोट हुआ तब मिट्टी, रेत, पत्थर बहुत जोरों से उछले । हमने यह सब ४ कि० मी० दूर से देखा । हमें सूचना मिली कि वहाँ बहुत कम रेडियोधर्मिता फैली। इसके बाद हम लोगों ने आगे बढ़कर विस्फोट स्थल से १०० मीटर दूर से यह सुन्दर दृश्य देखा । विस्फोट से जो गड्ढा हुआ, उसका अर्द्ध व्यास लगभग २०० मीटर था।
          १८ मई, १९७४ को प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की विशेष बैठक में इस आणविक महान् उपलब्धि की घोषणा की तथा विदेश मन्त्रालय को निर्देश दिया कि वह विश्व की महाशक्तियों को अणु-क्षेत्र में भारत की नवीनतम उपलब्धि व सफलता के सम्बन्ध में सूचित कर दें। उसी दिन शाम को बुलाये गये संवाददाता सम्मेलन में इस अद्वितीय वैज्ञानिक उपलब्धि पर असीम प्रसन्नता प्रगट करते हुए प्रधानमन्त्री ने अणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ० एच० एन० सेठना और उनके साथियों को बधाई दी। श्रीमती गाँधी ने कहा कि इन वैज्ञानिकों ने अच्छा और व्यवस्थित काम कर दिखाया है। हमें और सारे देश को इन पर गर्व है। शान्तिपूर्ण कार्यों के लिये ही अणु-शक्ति के प्रयोग की नीति को स्पष्ट करते हुये उन्होंने कहा कि यह अनुसन्धान और अध्ययन के लिए है परन्तु हम अणुशक्ति का उपयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिये ही करने को संकल्पबद्ध हैं।
          विश्व के अधिकांश राष्ट्रों ने भारत के अणु-विस्फोट का स्वागत किया और भारतीय वैज्ञानिकों को बधाइयाँ दीं तथा इस परीक्षण को तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति का प्रतीक बताया । फ्रांसीसी परमाणु ऊर्जा आयोग ने भारत द्वारा किये गए सफल परमाणु परीक्षण पर भारतीय वैज्ञानिकों को बधाई दी तथा डॉ० सेठना को भेजे गये अपने संदेशों में कहा कि इससे भारतीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा का पता चलता है । सोवियत संघ ने भारत के सफल अणु परीक्षण पर प्रसन्नता प्रगढ करते हुए सोवियत समाचार एजेन्सी ‘तास’ के माध्यम से भारत के शान्तिपूर्ण इरादों पर जोर दिया। अर्जेण्टीना, ब्राजील, आस्ट्रेलिया तथा स्विटजरलैण्ड ने भी इस उपलब्धि का स्वागत किया। यूगोस्लाविया ने भारतीय परमाणु परीक्षण का स्वागत करते हुए कहा कि, “मित्र देश भारत की विज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्र में यह महान् सफलता है तथा इस परमाणु परीक्षण से यह सिद्ध हो जाता है कि भारत सरकार का यह आश्वासन सही था कि वह परमाणु शक्ति का उपयोग केवल शान्तिपूर्ण कार्यों के लिये ही करेगी। इस तथ्य का भी स्वागत किया जाना चाहिये कि भारत परमाणु तकनीकी के क्षेत्र में अब किसी से पीछे नहीं है, एक गुट निरपेक्ष तथा विकासशील देश ने अपने आप अपनी शक्ति से यह महान् सफलता पायी है। यूगोस्लाविया भारत के इस विश्व का समर्थन करता है कि परमाणु परीक्षण शक्ति का उपयोग हथियार बनाने के लिये नहीं किया जायेगा।” पश्चिमी जर्मनी ने मध्य मार्ग अपनाते हुए कहा कि पश्चिमी जर्मनी भारत को अधिक सहायता देता रहेगा तथा भारत सहायता क्लब की बैठक में पश्चिम जर्मनी का रुख भारत के पक्ष में रहेगा। ब्रिटेन ने भी भारत के अणु परीक्षण का स्वागत किया । १८ मई, १९७४ को बी० बी० सी० लन्दन ने कहा कि भारत विश्व का छठा अणु राष्ट्र हो गया। भारत अणु परीक्षण द्वारा अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता है, परन्तु पाकिस्तान इसे खतरा मानेगा । लन्दन के ‘दी आब्जर्वर’ ने लिखा कि पाँच बड़े परमाणु राष्ट्रों के क्लब में शामिल होने वाला भारत प्रथम विकासशील देश है। परमाणु क्षेत्र में भारत की क्षमता को कई वर्षों पूर्व स्वीकार कर लिया गया था । अणु-आयुध प्रसार निरोध सन्धि पर हस्ताक्षर करने से भारत के इन्कार के बाद यह परमाणु विस्फोट अधिक आश्चर्यकारी साबित नहीं हुआ है । अब सवाल यह है कि भारत इस दिशा में कितनी तेजी से प्रगति करता है। इस समय भारत में जितना प्लूटोनियम तैयार हो रहा है उससे प्रतिवर्ष ३५ छोटे बम तैयार हो सकते हैं अतः विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ ही वर्षों में भारत के पास आणविक सैनिक शक्ति पर्याप्त हो जायेगी । १८ जून, १९७४ को विदेश मन्त्रालय से सम्बद्ध संसदीय सलाहकार समिति की बैठक में भारत सरकार ने बताया कि एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के गुट निरपेक्ष देशों ने भारतीय परमाणु विस्फोट का स्वागत किया है और इस बात पर खुशी प्रकट की है कि चीन के बाद भारत ने परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी ताकतों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया है।
          जहाँ विश्व की प्रतिक्रिया भारत जैसे विकासशील देश के पक्ष में हुई वहाँ कुछ राष्ट्र ऐसे भी थे जिनमें से किसी को दुःख हुआ, किसी को चोट लगी, कुछ पुराने दर्द से घबरा उठे, और कुछ आज्ञा न लेने की अवज्ञा से अपने को अपमानित समझ धमकियाँ दे उठे । दुःख हुआ अमेरिका को, चोट पहुँची पाकिस्तान को, पुराना दर्द उभरा जापान का और सहायता बन्द करने की धमकियाँ दे बैठा कनाडा। पाकिस्तान के तत्कालीन एवं अब स्वर्गवासी प्रधानमन्त्री श्री भुट्टो ने १९ मई, १९७४ को प्रेस कान्फ्रेंस में परमाणु विस्फोट पर टिप्पणी करते हुये कहा कि पाकिस्तान भारतीय उप-महाद्वीप में भारत की चौधराहट को स्वीकार नहीं करेगा तथा भारत की धौंस पट्टी का प्रतिरोध करने के लिये अपने राजनैतिक प्रयत्न जारी रखेगा। भुट्टो ने कहा कि भारत ने अणु परीक्षण कर अणु अस्त्र प्रसार सन्धि की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । २१ मई, १९७४ को तत्कालीन विदेशमन्त्री श्री स्वर्ण सिंह ने पाकिस्तान की शंकाओं को निर्मूल तथा दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि पाकिस्तानं का यह आरोप निराधार है कि भारत किसी अन्य देश तथा क्षेत्र पर आधिपत्य जमाने या प्रभाव जमाने के लिये परीक्षण कर रहा है तथा घोषणा की कि भारत की परमाणु बम बनाने की कोई इच्छा नहीं है, हम परमाणु शक्ति का केवल शान्तिपूर्ण उपयोग ही करेंगे । २२ मई, १९७४ को प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भुट्टो को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि पाकिस्तान की यह शंका पूर्णतः निर्मूल है कि भारत परमाणु अस्त्र बनाकर पाकिस्तान को धमकी देगा और शिमला समझौते को रद्द करेगा। भारत ने परमाणु के शान्तिपूर्ण उपयोग के लिए ही परीक्षण विस्फोट किया है। श्रीमती गाँधी ने स्पष्ट कहा कि अन्य देशों पर चौधराहट जमाने का भारत का कोई इरादा नहीं है और इस बारे में पाकिस्तान की सभी आशंकायें निर्मूल हैं। इतने समझाने-बुझाने के बावजूद भी पाकिस्तान के अपनी विषाक्त विचारधारा से बाज नहीं आया।
“उनकी हर रात गुजरती है दिवाली की तरह,
हमने एक दीप जलाया तो बुरा मान गये । ” 
          भारत के अणु विस्फोट से अमेरिका को इतना दुःख हुआ कि हमारी गरीबी की कहानी हमको ही सुनाने लगा, व्यंग और आलोचनायें छपीं, उधर कनाडा ने भारत की परमाणु सहायता इसलिये स्थगित कर दी क्योंकि वह यह जानना चाहता था कि भारत को विस्फोट के लिये प्लूटोनियम कहाँ से प्राप्त हुआ। पाकिस्तान के पेट में अकारण ही दर्द पैदा हो गया था और उसे अपनी हिमायत के लिये चीखना शुरू कर दिया था। इसी प्रकार की चिल्ल- पौं करने वाले अन्य राष्ट्रों को भी फटकारते हुए श्रीमती गाँधी ने २५ मई, १९७४ को अफ्रीकी एकता संगठन के ग्यारहवें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में, जिसमें अनेक देशों के राजदूत भी उपस्थित थे, सिंहनी की भाँति गर्जना करते हुए कहा—“शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिये भारत के अणु-परीक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले क्या यह मानते हैं कि बड़े देशों को विध्वंस के लिये अणु बम बनाने का अधिकार है और भारत जैसे विकासोन्मुख देश अपनी जनता की गरीबी तथा दूसरी मुश्किलों को हल करने के लिये भी अणु शक्ति का विकास नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि यह बात समझ में नहीं आती कि जिस चीज के लिये हम पिछले २५ साल से प्रयत्न कर रहे थे उस पर अब इतना शोर क्यों किया जा रहा है। हमने चोरी-छिपे कुछ नहीं किया है, जो कुछ किया है उसकी घोषणा बहुत पहले से कर दी थी। हम अब भी अपनी पुरानी बात पर अटल हैं कि अणु-शक्ति का प्रयोग कृषि विकास, बिजली उत्पादन तथा चिकित्सा के क्षेत्र में ही किया जायेगा, विध्वंस के लिये नहीं। भारत के इस परीक्षण से किसी को डरने की जरूरत नहीं है।” प्रधानमन्त्री ने कुछ देशों के इस तर्क को निराधार बताया कि भारत के अणु-विस्फोट से विश्व में एक नया तनाव पैदा हुआ है। उन्होंने कहा कि “भारत सरकार हमेशा से कहती रही है और मेरा भारत के सभी पड़ौसी देशों को पुनः यह है कि अणु-विस्फोट के बाद उन्हें भारत किसी तरह डरने की जरूरत नहीं है । अणु-शक्ति के क्षेत्र में हम जो कर रहे हैं उसकी तकनीकी जानकारी हम अपने पड़ौसी देशों को बाँटने के लिये भी तैयार हैं। श्रीमती गाँधी ने कहा कि कुछ देश यह कह रहे हैं कि भारत जैसे गरीब अणु-शक्ति की दौड़ में नहीं पड़ना चाहिये। ऐसी बात तब भी कही गई थी जब हमने अपने यहाँ भारी उद्योगों की स्थापना की शुरूआत की थी। असल में ये देश भारत को बहुत विकसित देखना नहीं चाहते। प्रधानमन्त्री ने कहा कि आज की दुनिया जिस तेजी से बदल रही है उसे देखते हुए हमारे लिये यह जरूरी हो गया कि हम विज्ञान व टेक्नोलोजी में नई खोज देश के आर्थिक विकास तथा अपनी जनता का जीवन स्तर उन्नत करने के लिये नये साधनों की तलाश करें।”
          प्रधानमन्त्री ने २७ मई, १९७४ को अमेरिकी पत्रिका ‘न्यूजवीक’ के एक इन्टरव्यू में स्पष्ट कहा कि भारत को ऐसा समझ लिया गया है कि जब चाहा उसकी तारीफ कर दी और जब चाहा  उसे लताड़ा … अमेरिका जो सहायता देता है वह एक तरफा नहीं है, वास्तव में विद्वानों के रूप में हम भी अमेरिका को कुछ मदद तो देते ही हैं, अमेरिका किसी न किसी तरह हमारे कुछ श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को यहाँ से ले ही जाता है। हमने जो परीक्षण किया है वह हमारे अनुसंधान कार्य ही अंग है, हमने इस सम्बन्ध में कभी अपने को मजबूत बनाने, दूसरों में भय पैदा करने, प्रतिष्ठा या वर्ग की दृष्टि से नहीं सोचा । १६ जून, १९७४ को प्रधानमन्त्री ने अमेरिकन ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन की एक दूर-दर्शन भेंट वार्ता में यह स्पष्ट कर दिया कि “भारत द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। जिन देशों ने महात्मा गाँधी के जीते जी उनके बारे में कभी एक शब्द भी सराहना का नहीं कहा, वे अब हमें उपदेश दे रहे हैं कि महात्मा गाँधी के सिद्धान्त क्या थे-जैसे कि वे हमसे ज्यादा महात्मा गाँधी को जानते हों I”
          २० जून, १९७४ को राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी मसूरी में भाषण करते हुए इस सन्दर्भ में श्रीमती गाँधी ने फिर कहा कि “विश्व के कुछ राष्ट्र दुरंगी नीति अपना रहे हैं। हमने एक परमाणु विस्फोट किया तो लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया जबकि अन्य राष्ट्र आये दिन ऐसा करते रहते हैं और कोई चिल्ल पुकार नहीं होती।” स्मरण रहे कि भारतीय परमाणु विस्फोट के १ मास बाद चीन ने वायुमण्डल में तथा इसी के आस-पास फ्रांस ने भी प्रशान्त महासागर में परमाणु-विस्फोट किया था। शक्ति और सामर्थ्य वैषम्य की कितनी विचित्र विडम्बना है –
“एक हैं वे जब चाहें, जहाँ चाहें, जो चाहें कह दें, 
एक हम हैं कि कह भी, कुछ भी कहीं सकते नहीं।”
          यह सत्य किसी से छिपा नहीं है कि परमाणु विस्फोट करने वाले अन्य सभी देशों (अमेरिका, रूस, इंगलैंड, फ्रांस तथा चीन) का घोषित उद्देश्य सैनिक उद्देश्य है। भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसका उद्देश्य शान्तिमय विकास है। भारत गरीब देश है यह अपनी गरीबी दूर करने के लिये ही परमाणु विज्ञान का उपयोग करना चाहता है। परमाणु बम से संहार के खतरे का जहाँ तक सम्बन्ध है वह सर्वविदित है। नागासाकी और हिरोशिमा में परमाणु बम से होने वाला लोमहर्षक संहार विश्व देख चुका है। परन्तु इस भारतीय परमाणु विस्फोट के साथ जो रचनात्मक शिव संकल्प जुड़े हैं, वही उसकी विशेषता है। अब तक परमाणु विज्ञान का उपयोग आसुरी उद्देश्यों एवं संहारक शस्त्रों के विकास के प्रयोजनों के लिये किया जाता रहा है परन्तु भारत ने इस विज्ञान को संहारक मार्ग से हटाकर मानवता की सेवा के लिये शान्तिमय प्रयोजनों की नई दिशा प्रदान की है जो भारतीय आदर्शों और प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराओं के अनुकूल है।
          भारत के द्वारा किये गये भूगर्भीय परमाणु विस्फोटों के द्वारा सरलता से नहरें खोदी जा सकती हैं जिनसे भारतीय कृषि जगत् में एक नया जीवन आयेगा । तेल और गैसें पृथ्वी में से सरलतापूर्वक निकाली जा सकती हैं। धातुओं की खानों का निर्माण हो सकता है, नदियों के बहाव को मोड़ा जा सकता है, बन्दरगाहों की सफाई की जा सकती है, मानव की जीवन-लीला समाप्त करा देने वाले रोगों से मुक्ति मिल सकती है और सबसे बड़ा लाभ यह है कि हम अपनी परमाणु सुरक्षा प्रणाली के विकास के लिये किसी अन्य देश पर निर्भर न रहेंगे। भूगर्भ में भी परमाणु विस्फोटों से चट्टानों की गर्मी द्वारा बिजली उत्पन्न कर सकेंगे। अमेरिकी वैज्ञानिक भी भूमि की गर्मी द्वारा बिजली तैयार करने के लिये भूगर्भ विस्फोट करने पर विचार कर रहे हैं, भूगर्भ में जो कठोर चट्टानें छिपी हैं, उनमें बहुत गर्मी विद्यमान है, परमाणु विस्फोट से भूगर्भ की यही चट्टानें फोड़कर उनकी दरारों से पानी का रास्ता निकाला जायेगा, चट्टानों की गर्मी इस पानी को भाप में बदल देगी, और यह भाप एक अन्य छेद से बाहर निकलकर टरबाइन जेनेरेटर चलाने के काम आयेगी जिससे बिजली पैदा होगी। भारत, खनन उद्यमों के अतिरिक्त परमाणु बिजली परियोजनाओं के दूसरे चरण में प्लूटोनियम के अधिकांश उत्पादन का उपयोग बिजली के उत्पादन के लिये करेंगा जिससे देश की आर्थिक समृद्धि में तीव्रता आयेगी । इस परमाणु – विस्फोट से एक मनोवैज्ञानिक तात्कालिक लाभ यह हुआ है कि भारतीयों का मनोबल ऊँचा हुआ है। अब भारत भी विश्व में अपना सिर ऊँचा करके खड़ा हो सकेगा।
          २७ नवम्बर, १९५४ को नई दिल्ली में एक सम्मेलन में, जिसमें डॉ० भाभा भी उपस्थित थे, पं० जवाहर लाल नेहरू ने घोषणा की थी कि “भारतीय परमाणु कार्यक्रम का उद्देश्य केवल शान्तिकालीन है।” उन्हीं पद चिन्हों पर चलते हुए वही घोषणा १८ मई, १९७४ को भारत के प्रथम परमाणु विस्फोट के बाद श्रीमती गाँधी ने दिल्ली में की। उन्होंने कहा कि हम अणु-शक्ति का उपयोग शान्तिमय कार्यों के लिये ही करने को संकल्पबद्ध हैं। २७ वर्ष पूर्व भारत में स्वर्गीय होमी भाभा ने परमाणु विज्ञान के अनुसंधान की जो नींव डाली थी, यदि उसके साथ हमारे चिरपोषित संकल्प जुड़े न होते तो सम्भव है, भारत यह विस्फोट अनेक वर्ष पहले ही कर चुका होता। किन्तु शान्तिमय प्रयोजनों के लिए प्रदूषण रहित भूगर्भीय प्रयोग के साथ बंधे होने से भारत को इस विस्फोट में इतना समय लग गया। आशा है कि इस परमाणु विस्फोट से देश की दीन-हीन, निर्धन , और अभावग्रस्त जनता की दशा सुधारने में योग देने वाले रचनात्मक कार्यों द्वारा एक समृद्ध गौरवशाली के निर्माण में सहायता मिल सकेगी। विश्वास किया जाता है कि भारतीय वैज्ञानिक भविष्य में, जैसी कि भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने आशा प्रकट की है, इससे भी अधिक क्षमता के परमाणु विस्फोट करने में समर्थ होंगे जिनके गर्भ में केवल मानव कल्याण ही निहित होगा ।
          मार्च १९७७ में नई केन्द्रीय सरकार की स्थापना के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जिमीकार्टर १ जनवरी से ३ जनवरी १९७८ तक भारत की राजकीय यात्रा पर आये। उन्होंने २ जनवरी, १९७८ को संसद के संयुक्त अधिवेशन में स्वागत के समय, स्पष्ट घोषणा की थी कि अणु शक्ति विकास में भारत और अमेरिका का सहयोग जारी रहेगा और अमेरिका भारत को आवश्यकतानुसार प्लूटोनियम देता रहेगा। परन्तु अमेरिका लौटने पर वहाँ की संसद के विरोध के कारण श्री कार्टर को अपने वायदे को भूलना पड़ा। इस पर प्रधानमन्त्री श्री देसाई ने अनेक बार निर्भीकता से घोषणा की कि यदि अमेरिका अपने वायदे से मुकरता है तो हम भी अमेरिका से बंधे नहीं हैं, हम कहीं से भी प्लूटोनियम लेने में स्वतन्त्र हैं। सन् १९८० में श्रीमती गाँधी पुनः देश की प्रधानमंत्री बनीं और उन्होंने परमाणु शक्ति के विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित रखा। यद्यपि अमेरिका अपने वायदे को भुलाकर और १९६३ की परमाणु ईंधन सम्बन्धी संधि को तोड़कर भारत को प्लूटोनियम देने में आनाकानी कर रहा है लेकिन अगस्त, १९८२ में भारत ने इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है। अब भारत इस दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहा है । सम्भव है कि भारतीय वैज्ञानिक निकट भविष्य में मानव कल्याण के लिये भूगर्भीय प्रदूषण रहित अणु-विस्फोट करने में समर्थ हो सके। लेकिन इतना अवश्य है कि आणविक शक्ति के क्षेत्र में भारत का भविष्य उज्ज्वल है।
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