भारतीय जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव

भारतीय जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव

          जब दो विभिन्न जातियाँ परस्पर मिलती हैं, तब एक नवीन एवं विचित्र परिस्थिति हो जाती है। आम लोग नं एक-दूसरे के जीवन सम्बन्धी दृष्टिकोण को समझ पाते हैं और न को । न वेशभूषा में समानता होती है और न रीति-रिवाजों में न खान-पान एक-सा होता है न आचार-विचार । परन्तु जब एक-दूसरे को परस्पर सम्पर्क में रहने का अवसर मिलता है तब शनैः एक-दूसरे की संस्कृति और सभ्यता से परिचय प्राप्त होने लगता है, एक जाति का दूसरी जाति पर प्रभाव पड़ने लगता है, यह प्रभाव जीवन के सभी क्षेत्रों में—क्या भाषा, क्या विचार, क्या वेशभूषा सब पर समान रूप पड़ता प्रभाव। दोनों जातियों में से किस पर किसका प्रभाव अधिक  पड़ा इसका उत्तर केवल विजेता ओर विजित की तात्कालिक स्थिति ही बतलाती है। विजेता जाति की संस्कृति और सभ्यता अधिक प्रभावपूर्ण होने के कारण विजित जाति  पर अपना प्रभाव डाल देती है और स्वयं विजित की कुछ विशेषताओं को आंशिक रूप से करती है। फल यह होता है कि विजित जातियाँ विजेता जाति के रंग में पूर्ण रूप से रंग जाती क्योंक बिना उसकी “हाँ में हाँ” मिलाए उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा का कोई मार्ग ही दृष्टिगोचर नहीं होता। इस प्रकार हमारे पुरातन संस्कारों पर एक अपरिचित संस्कृति और सभ्यता अपना अधिकार जमा लेती है ।
          भारतवर्ष के पवित्र धरा-धाम पर अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ और शनैः शनैः प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर उनका प्रभाव पड़ने लगा । भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में त्याग और तपस्या, दया और दान, सन्तोष और शान्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान था । विदेशी संस्कृति के प्रभाव से भारतीय संस्कृति के इन आधारभूत स्तम्भों का स्थान भोगवाद और भौतिकवाद ने ले लिया । जनता ने शासन के सम्पर्क में आने के लिये उसकी संस्कृति और सभ्यता को अपनाना आरम्भ किया । देशी होते हुए भी विदेशी राग अलापना आरम्भ किया। दासता की भावनायें उत्तरोत्तर दृढ़ होती गईं । देववाणी संस्कृत और हिन्दी की शिक्षा प्रायः समाप्त-सी होती गई। जनता अधिक से अधिक संख्या में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने में प्रयत्नशील हुई। ऐसा होना भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय नवयुवकों को ही नौकरी मिलती थी। नौकरी का प्रलोभन जनता के लिये पर्याप्त था। भारतीय जनता को युगों तक अपने पाश में आबद्ध रखने के लिये विदेशी शासकों को यह आवश्यक था कि वे यहाँ अपनी भाषा, अपने विचार और अपनी सभ्यता का प्रचार और प्रसार करें और भारतीय साहित्य को, यहाँ के पूर्वजों की गौरव गाथाओं को, सदैव के लिये समाप्त कर दें, तभी उनका साम्राज्य भारत में चिरस्थायी हो सकता था। उन्होंने ऐसा ही किया । हमारे हृदय में दासता की भावना उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार अर्थात् जीवन के सभी क्षेत्रों में हमने विदेशियों को अपना आदर्श मानना आरम्भ कर दिया। हम राजनैतिक रूप से परतन्त्र तो थे ही, परन्तु हमने स्वयम् जानबूझकर अपने को सामाजिक परतन्त्रता की बेड़ियों में भी जकड़ लिया। परिणाम यह हुआ कि भारतीयों की धमनियों में अंग्रेजियत का खून दौड़ने लगा। ‘English man made in India’ अर्थात् ‘भारत में निर्मित अंग्रेज’ बन गये । पर यह नहीं सोचा कि –
“काजर होय न ऊजरौ, नौ मन साबन लाय”
          प्रत्येक राष्ट्र का रहन-सहन उस राष्ट्र के प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल होता है । अंग्रेजों का देश शीत-प्रधान देश है । वे लोग अपने शरीर के लिये सदैव कसे हुए चुस्त कपड़े पहनते हैं। कोट, पैंट, टाई, हैट आदि सभी उपकरण शीत- रक्षा के लिये आवश्यक हैं। भारतवर्ष उष्ण देश है, यहाँ न इतने गर्म कपड़ों की आवश्यकता है और न कसी हुई पोशाक की। इसीलिये यहाँ की वेशभूषा ढीली-ढाली थी | लोग आराम से कुर्ता-धोती पहिनते थे। मुसलमानों के आगमन ने पजामे का आविष्कार किया था । अतः मुस्लिम शासनकाल में हमने चुस्त पजामा पहिना, शेरवानी पहनी । “आदाब अर्ज” कहना सीखा, स्त्रियों ने घूँघट को अपनाया, पुरुषों ने स्त्रियों को घर की चहारदीवारी में बन्द कर दिया, ऐसा था विजेता जाति का प्रभाव ।
          परन्तु जब देश में अंग्रेजों का शासन हुआ तब यहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बड़ी तेजी से उनके रंग में रंगने लगे और अंग्रेजी वेशभूषा और उनकी सभ्यता पर ऐसे पड़े जैसे महीनों का भूखा व्यक्ति रोटी पर पड़ता है। इस प्रकार हम भारतीयों ने “देशी गधा पूर्वी रेंक” वाली कहावत सिद्ध कर दी ।
          आज का भारतीय पाश्चात्य प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित है। यह भौतिकवाद के पाश में नख से शिख तक आबद्ध है, उसके जीवन का चरम लक्ष्य केवल सुखोपयोग ही है, परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि आज का मानव अशान्त है, दुःखी है और अपने वर्तमान से असन्तुष्ट है। यद्यपि जीवन को सुखमय बनाने के लिये आज उसे सभी वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हैं, फिर भी उसकी अन्तरात्मा किसी अज्ञात शान्ति के लिये बेचैन है। समाज में विशेषतायें उत्तरोत्तर घनी होती जा रही हैं, भोग लिप्साओं की वृद्धि के साथ उनकी पूर्ति के प्रयत्न करता है, श्रम की चक्की में वह पिसा जा रहा है। इन समस्त आन्तरिक और बाह्य अशान्तियों का यदि कोई कारण है, तो यह है कि पाश्चात्य आदर्शों का प्रभाव भारतीय जीवन पर सीमा से अधिक अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुका है। इसलिये भारतीय जनता विपन्न है। “खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ” (Eat, drink and be merry) के भोगवादी सिद्धान्त ने आज विनाश के गर्त में डाल दिया है। आज का भारतीय अपने पूर्वजों की विचारधारा का मनन करना अपमान समझता है। यह निश्चित है कि उसका यह मिथ्या स्वाभिमान उसे एक न एक दिन ले डूबेगा । कहाँ गये गोस्वामी तुलसीदास जी के ये वाक्य–
“एहि तन करु फल विषय न भाई, सब छल छाँड़ि भजिय रघुराई ” 
          एक दिन वह था जब भारत को विश्वगुरु की उपाधि से सम्बोधित किया जाता था, देश-विदेश के विद्वान् यहाँ आध्यात्मवाद की शिक्षा लेने आते थे । आज का भारतीय तब तक उच्चकोटि के विद्वानों की श्रेणी में नहीं आता जब तक कि उसके पास कोई विदेशी डिग्री या डिप्लोमा न हो । कितना अन्तर आ गया हैं भारत के गौरव में। और न वह त्याग है और न तपस्या, न दया है न दान, न सहानुभूति है न सहयोग, संवेदन का तो कहीं नाम ही नहीं। भारत की धर्म-प्राण जनता आज नास्तिकता की ओर बढ़ती जा रही है। न उसे परमात्मा के प्रति आस्था है और न अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा | श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने पाश्चात्य सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए लिखा है –
          “पाश्चात्य आदर्शों ने जितना हमें ज्ञान दिया है उतना ही व्यस्त रहना भी सिखा दिया है । शान्ति नाम की कोई चीज हम सुनते भर हैं, कभी अनुभव करने का अवसर नहीं पाते और न उसकी कुछ आवश्यकता है। हलचल से भरे हुए नगरों में प्रलोभन और मन बहलाव के जो लाखों साधन हैं, वे चौबीसों घण्टे मनुष्यों को एकांत से अलग उस भीड़ में गर्क रखते हैं जिस भीड़ की खास खूबी यह है कि उसमें सोचने और चिन्तन करने का अनुभव नहीं होता। मन के भीतर जो आत्मा नाम का देवता है दिन भर का हिसाब-किताब देने के लिये हमने उसके सम्पर्क में जाना छोड़ दिया है। हमारे पुरखे पाप करते हुए डरते थे, क्योंकि पाप को वे समझते थे, किन्तु हम पाप-पुण्य को नहीं मानते । हमने उस युग के नीतिशास्त्र को त्रुटिपूर्ण और अव्यावहारिक समझकर एक पृथक् नीतिशास्त्र का निर्माण किया है, जिसमें बुद्धि का प्राधान्य है। आत्मा नाम की कोई ऐसी वस्तु नहीं है, ऐसा हमारा विश्वास हो गया है । इसलिये हमने उसका पूर्णतया बहिष्कार भी कर दिया है । परिणामस्वरूप लन्दन के चौक पर के घड़ियाल की आवाजें रेडियो पर सुन लेते हैं, लेकिन अपने पड़ौसी की आह और कराह हमें सुनाई नहीं पड़ती। आज अधिक से अधिक व्यक्तियों से मुलाकात करते हैं, लेकिन सम्पर्क जितना भी अधिक बढ़ा है, घनिष्ठता उतनी ही कम हो गई है। हमारे मानसिक महल में कई बरामदे हैं, सारी जिन्दगी हम लोगों से उन्हीं बरामदों में मिलते हैं, परन्तु बरामदे के पीछे जो आत्मा का कक्ष है, उसमें हम किसी को भी नहीं ले जाते । एक खास तरह की वाक्पटुता, एक खास तरह की व्यवहार कुशलता, एक खास तरह की चतुरता और नकली नैसर्गिकता के चूने से पुती हुई एक विशेष प्रकार की बनावट हमारी आज की विशेषताएँ हैं, जिन्हें हम निःसंकोच पाश्चात्य सम्यता द्वारा प्रदत्त वरदान कह सकते हैं। हम यांत्रिक युग के सुशिष्ट नागरिक हैं। हमारे पूर्वज करघे से कपड़ा बुनते थे । उनके कपड़ा बुनने के साधन कितने फूहड़, भद्दे और श्रमसाध्य थे, फिर भी उनका कपड़ा उनकी आत्मा के भावों से उनके अपने व्यक्तित्व से ओत-प्रोत था । उनका वह कपड़ा उनका अपना था, उस पर अपनत्व की छाप थी। लेकिन आजकल के कारखानों का कौन ऐसा मजदूर है, जो यह कह सकता है कि मशीन के आखिरी मुँह से जो कपड़ा निकल रहा है उसका एक मीटर भी ऐसा है जिसे वह अपना निर्माण कह सके। आज के श्रमिक के लिये जीवन का अर्थ है एक निरर्थक यान्त्रिक क्रिया की बुद्धिहीन अनवरत आवृत्ति । हमारे पूर्वज निरक्षर होकर भी शिक्षित एवं सुसंस्कृत थे, किन्तु हम पढ़ लिखकर भी घोर अशिक्षित हैं। पाश्चात्य दुष्प्रभाव के कारण ही आज के भारतीय युवक हिप्पी बनने की दौड़ लगा रहे हैं। वेशभूषा ऐसी हो गई है कि लड़के और लड़की में दूर से अन्तर ही दिखाई नहीं पड़ता । “
          अतः यह आवश्यक है कि यदि हम भारतवर्ष की प्राचीन गौरव – गरिमा को नष्ट नहीं होने देना चाहते तो हमें अपनी वही प्राचीन सभ्यता और संस्कृति अपनानी होगी क्योंकि अपनी संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित रहता है । जाति और देश का कल्याण तभी सम्भव है, जब हम अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करें और उस पर चलें अन्यथा नहीं। अपने पिता को ही पिता कहा जाता है, दूसरे के पिता को नहीं । . इसलिये गीता में कहा है कि –
“स्वधर्मे निधन श्रेय: परधर्मो भयावह: I”
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