भारतीय कृषक
भारतीय कृषक
ब्रहा सृष्टि का निर्माण करते हैं, विष्णु पालन करते हैं तथा महेश संहार करते है । इस प्रकार सृष्टि-संचालन तीनों देवताओं में विभक्त हैं। इस पर विश्वास करके यदि हम कृषकों को ही विष्णु कह दें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी और न अध्याहास । विश्व का समस्त वैभव, उतुंग प्रासाद, आमोद-प्रमोद सब कुछ कृषक के बलिष्ठ कन्धों पर आश्रित है। आकाश में उड़ने वाले स्वतन्त्र पक्षी, पृथ्वी पर विचरण करने वाला मानव, यहाँ तक कि जलचर भी कृषकों पर ही आधारित निरक्षरता । हैं। तपस्या भरा त्याग, अभिमान रहित उदारता और क्लान्ति रहित परिश्रम का यदि चित्र देखना है, तो आप भारतीय किसान को देखिये । वह स्वयं न खाकर दूसरों को खिलाता है। स्वयं न पहिन कर संसार को वस्त्र देता है, उसके अनुपम त्याग की समानता संसार की कोई वस्तु नहीं कर सकती । भारतीय किसान की आकृति से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कोई वीतराग संन्यासी हो, जिसे न मान का हर्ष है और न अपमान का खेद, न फटे कपड़े पहनने का दुःख़ है और न कभी अच्छे वस्त्र पहनने की प्रसन्नता, जिसे न दुःख में दुःख है और न सुख की कामना, जिसे न अज्ञानता से आत्मग्लानि होती है और न दरिद्रता सी दीनता । किसान वह साधक है कि साधना करते हुए जिसके हृदय में कभी सिद्धि की इच्छा उत्पन्न नहीं होती। यह कर्मयोगी है जो फल प्राप्ति की इच्छा से रहित होकर कर्म करने में तल्लीन रहता है। उसका छोटा-सा संसार इस संसार से अलग है। यह उसी में पैदा होता है और कामना रहित जीवन व्यतीत करके उसी में समाप्त हो जाता है ।
कड़कड़ाते जाड़ों की भयानक रात, मनुष्य के शरीर को चीरकर बाहर जाने वाली सनसनाती हवा, चारों ओर घनीभूत अन्धकार, जिसमें निकट के वृक्ष भी प्रेत होने का सन्देह देते हैं, जंगली जानवरों के रोने की भयानक आवाजें, उल्लुओं की अशुभ ध्वनियाँ, थर-थर कंपा देने वाली शीत, ये सब एक तरफ और हाथ में कसला लिए हुए खेत पर बैठा किसान एक तरफ । उसे सूचना मिली थी आज रात को दो बजे उसके खेत को बम्बे से पानी मिलेगा। पानी आया और अंधेरे में उसकी हँसी बिखर उठी । संसार सो रहा था पर वह संसार के लिए जग रहा था, खेत में पानी और उसके पैर बर्फ जैसे पानी में ।
पक्षी प्यास से व्याकुल होकर इधर-उधर पानी की खोज में उड़ रहे थे। सूर्य अपनी अग्नि जैसी किरणों से संसार को भूने डाल रहा था । गर्म हवा के झोंकों से शरीर झुलसा जा रहा था । अपने-अपने घरों के किवाड़ बन्द किये लोग आराम कर रहे थे । धनिकों के दरवाजों पर खस की टट्टियाँ थीं। ऊपर से जला देने वाली धूप और नीचे से पैरों में छाले डाल देने वाली तपन । शरीर पर फटी धोती लपेटे, नंगे पैर किसान अब भी खेत में था । पशु-पक्षी तक सघन वृक्षों की छाया में विश्राम कर रहे थे, परन्तु हँसते हुए किसान को यह ध्यान नहीं था कि धूप के अतिरिक्त कहीं छाया भी है।
बादल आए, उमड़े-घुमड़े, गरजे- लरजे और बरसने लगे, इतने बरसे कि गाँव की गलियों में घुटनों तक पानी हो गया। कड़कड़ाती बिजलियाँ चमकने लगीं। माताओं ने अपने-अपने बच्चे बिजली के डर से घरों में छिपा लिये । काली भैसों के स्वामी अपनी-अपनी भैंसों को खोलकर भीतर ले गये, इस भय से कि काली चीज पर बिजली जल्दी गिरती है, परन्तु किसान का धूप से जला हुआ काला शरीर अब भी खेत में था। कहीं खेत में अधिक पानी न हो जाये, इस भय से कहीं मेड़ तोड़कर पानी को निकालता और कहीं वर्षा के थपेड़ों से गिरे हुए पौधों को उठाता ।
संसार में ऊषा की लालिमा फैलने से पूर्व ही किसान एक सजग प्रहरी की भाँति जग उठता । घर में नहीं जहाँ उसका पशुधन होता है वह वहीं सोता है, न उसे पत्नी से प्रेम है और न बच्चों की ममता । उठते ही पशुधन की सेवा, इसके पश्चात् अपनी कर्मभूमि खेत की ओर उसके पैर स्वयं ही उठ जाते हैं। खेत पर ही तो ऊषा उसका अभिनन्दन करती है। अब वह संध्या के अन्धकार तक घर नहीं लौटेगा। उसका स्नान, उसका भोजन और विश्राम, जो कुछ भी होगा वह एकान्त वनस्थली में। बातों के लिये बैल हैं, हल हैं । जब मन आया उन्हीं से हँस बोल लिया । धन्य है रे मौन तपस्वी तूने संसार के सभी वीतराग संन्यासियों में पृथक् स्थान प्राप्त किया है। तू सन्तोष की साकार मूर्ति है, तू त्याग और तपस्या का चिर संचित वैभव है ।
आज से ३० वर्ष पहले के किसान में और आज के किसान में कुछ अन्तर हुआ है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किसान के बहते आँसू कुछ रुके हैं। अब कभी-कभी उसके मलिन मुख पर भी मुस्कराहट दौड़ने लगी है। जमींदारों के शोषण से तो उसे सर्वथा मुक्ति मिल चुकी है, परन्तु फिर भी वह संसार का अन्नदाता आज भी पूर्णरूप से सुखी नहीं है। आज भी पच्चीस प्रतिशत किसान ऐसे हैं, जिनके पास दोनों समय खाने के लिए भर पेट भोजन नहीं, शरीर ढकने के लिए स्वच्छ और मजबूत कपड़े नहीं । उनकी गृह-लक्ष्मियाँ फटी हुई धोतियों में अपनी लज्जा को छिपाये जीवन यापनं करती हैं। टूटे-फूटे मकान और टूटी हुई झोंपड़ियाँ आज भी उनके । प्रासाद बने हुए हैं
मूसलाधार वर्षा हुई, छत बैठने लगी, दीवार गिरने लगीं किसान क्या करता, आकाश की ओर देखकर रो दिया और उस अज्ञात से, अपनी रक्षा की याचना करने लगा, किसान की जीवन सहचरी दरिद्रता मानो आज भी उसका साथ छोड़ने को तैयार नहीं । अन्य देशों के कृषक सुखी हैं, सम्पन्न हैं, धन-धान्य युक्त हैं, जीवन को सुखमय बनाने के सभी साधन उन्हें उपलब्ध हैं। उन देशों के नागरिकों और कृषकों के ज्ञान, मान, धन, सम्पत्ति सभी में समानता है। वे सुरक्षित होते हैं और सुसंस्कृत भी परन्तु भारतीय किसान अधिकांश रूप से अभी सुसम्पन्न नहीं हैं। सम्भव है, निकट भविष्य में उनकी स्थिति में कुछ और अधिक सुधार हों क्योंकि सरकार उनकी उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। मैथिलीशरण जी ने एक बार लिखा था-
‘शिक्षा की यदि कमी न होती, तो ये गाँव स्वर्ग बन जाते ।’
ग्रामीणों की निरक्षरता उनके जीवन के लिये अभिशाप है। बिना शिक्षा के मनुष्यों का मानसिक विकास नहीं होता और वह कूप-मन्डूक बना रहता है । शिक्षित मनुष्य समाज के उत्थान में सहयोग देते हैं परन्तु जो अशिक्षित होते हैं, उन्हें न समाज से काम है न राष्ट्र से । तुलसीदास जी ने एक स्थान पर लिखा है – “सब ते भले विमूढ़, जिन्हें न व्यापै जगत् गति ।” परन्तु यह विमूढ़ता देश हित के लिए घातक है। देश की स्वतन्त्रता का वास्तविक मूल्यांकन देश के सभ्य व सुशिक्षित नागरिक ही कर सकते हैं। पर जो अशिक्षा के गहन अन्धकार में डूब रहे हैं उन्हें इन सब बातों से क्या, और वास्तव में लोगों को ऐसा कहते सुना भी गया है—
‘कोउ नृप होउ हमें का हानी, चेरी छाड़ि न हुई हैं रानी ।’
परन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि भारतवर्ष में निरक्षरता और ज्ञान शून्यता का प्रभाव है। भारतवर्ष की ग्रामवासिनी अस्सी प्रतिशत जनता आज भी अज्ञानान्धकार के गहन गर्त में डूबी हुई है। उसकी दृष्टि में न देश का मूल्य है, न समाज का, न संस्कृति का और न सभ्यता का । उसे केवल हल चलाना और खेती करना, इसके अतिरिक्त, और कोई काम नहीं । पराधीन काल की अपेक्षा आधुनिक काल में यद्यपि सरकार इस दिशा में घोर प्रयत्न कर रही, गाँव-गाँव और तहसील-तहसील में विद्यालय खोले गये हैं, ग्रामीण बन्धुओं को सुरक्षित करने का प्रयास अबाध गति से चल रहा है, फिर भी अभी पर्याप्त समय लगेगा उनकी खोई चेतना को पुनः लाने में। ग्रामीणों की अशिक्षा का प्रभाव शहर में रहकर नहीं, गाँव में जाकर देखिये। बातों ही बातों में डण्डे चलाना, किसी को मौत के घाट उतार देना, दिन-दहाड़े किसी को लूट कर भाग जाना और उसको मारकर कहीं डाल देना, जब मन चाहा दस बीस इकट्ठे होकर चल देना, और किसी दूसरे गाँव में जाकर डकैती डाल देना, जब मन चाहा तभी किसी भी यात्री की मोटर को लूट लेना, पारस्परिक सामाजिक अश्लील सम्बन्ध से एक-दूसरे घर में आग लगा देना, जरा-जरा सी बातों पर मुकदमेबाजी में हजारों रुपये खर्च कर देना, आदि यह सब ग्रामीणों की अशिक्षा का ही प्रभाव है। आज आपको गाँवों में पार्टी बन्दियाँ मिलेंगी, जो कि समाज की एकता और अभेद के लिए घोर हानिकारक हैं। जातिवाद का अंहकार आज भी उनके हृदय में घर किये है, उनके इसी अहंकार की भयंकरता के कारण बेचारे छोटी जाति के लोग शहरों में आकर बस गये हैं, गाँव जाने का नाम नहीं लेते । आज भी नई रोशनी में जो गाँव के लड़के शहर में आकर चार अक्षर सीख भी जाते हैं वे जब गाँव को लौटते हैं, तो और भी व्यभिचार और दुराचार फैला देते हैं। आज के गाँव नहीं जिनके लिये मैथिलीशरण जी ने बड़े दयाद्रर्भाव से ऊपर लिखी हुई पंक्तियाँ कही थीं, आज इनके विचारों और संस्कारों को परिष्कार की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कभी शिक्षा की थी । आज एक आवश्यकता पूरी नहीं होने पाई थी कि दूसरी आवश्यकता सामने दिखाई पड़ रही है ।
किसानों की सर्वांगीण उन्नति के लिये सरकार आज प्रयत्नशील है। जैसे—बच्चों की शिक्षा के लिये विद्यालय, प्रौढ़ों की शिक्षा के लिये सांध्यकालीन विद्यालय, स्वास्थ्य के लिये चिकित्सालय, डाक की सुविधा के लिये डाक घर आदि । कृषि की उन्नति के लिये अनेक प्रकार के खाद, नवीन यन्त्र प्रदान किये जा रहे हैं, भिन्न-भिन्न सर्वसाधारणोपयोगी संस्थायें आपको गाँव-गाँव में मिलेंगी। ग्राम और ग्रामीणों की सामूहिक उन्नति के लिये शासन की ओर से अनेक नये विभाग खोले गये हैं। जिनमें काम करने वाले अधिकारी और कर्मचारी नित्य ग्रामीणों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए उन्हें उन्नति की ओर ले जा रहे हैं । तत्कालीन प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने जनता सरकार के दो वर्षों की सफलताओं की समीक्षा करते हुए २ अप्रैल, १९७९ को जनता के नाम अपने संदेश में कहा कि —“गाँवों के विकास का काम जिस स्तर पर हमने अपने हाथ में लिया था उतने जोर-शोर से ग्रामोन्नति के कदम पहले कभी नहीं उठाये थे। सरकार ने पाँच वर्ष में देश के एक लाख बीस हजार गाँवों में जहाँ पीने के पानी की सन्तोषजनक व्यवस्था नहीं है, पेय जल उपलब्ध करने का बीड़ा उठाया है।”
सन्तोष की बात है कि किसानों में जागृति आई है। १९७८ में अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ। चौधरी चरण सिंह के जन्म-दिवस को कृषक-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है। परन्तु पहले युग में किसान, जितना भोला-भाला था आज के युग में वह उतना ही चालाक है, भले ही वह कठिन परिश्रमी हो, त्यागी हो, तपस्वी हो और देश का अन्नदाता हो । भारतवर्ष को स्वतन्त्रता मिली और ग्रामीण को उच्छृंखलता । आज जितनी अराजकता, उद्दण्डता गाँवों में है, उतनी नगरों में नहीं। आज के गाँव न स्वर्ग हैं और न ग्रामीण किसान स्वर्गवासी देवता । ।
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