भारतरत्न “सीमान्त गाँधी” बादशाह खान और भारत

भारतरत्न “सीमान्त गाँधी” बादशाह खान और भारत

          भारत विभाजन के बाद गाँधी जन्म शताब्दी के अवसर पर एक बार फिर ऐसे व्यक्तित्व के दर्शन हुए जिसमें राष्ट्रपिता गाँधी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्य ज्यों का त्यों समाया हुआ है। उस व्यक्तित्व का निर्माण यद्यपि इस देश की मिट्टी से नहीं हुआ, परन्तु फिर भी उसकी आत्मा भारतीय है, उसे इस देश से प्यार है, देशवासियों के प्रति ममता है । सत्य और अहिंसा में अटूट एवं अडिग आस्था रखते हुए जिसने अपना सारा जीवन राष्ट्र की सेवा के लिए महात्मा गाँधी के चरणों में समर्पित करके उनका सारा जीवन दर्शन अपने में समा लिया ।
          बादशाह खान का जन्म २४ दिसम्बर, १८८० को पख्तूनिस्तान में जो उस समय पश्चिमी सीमा प्रान्त कहा जाता था, उतमान जई नामक गाँव में हुआ था । शिक्षा दिक्षा के पश्चात् ये युवावस्था से ही मानवता के अनन्य सेवक और निर्भीक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में जनता की आँखों के सामने आ गये थे। ये अपने प्रारम्भिक जीवन से ही पख्तून जाति को विद्या और ज्ञान के अभाव में पारस्परिक दलबन्दी,ईर्ष्या-द्वेष, व्यक्तिगत स्वार्थ तथा अनेकों सामाजिक कुरीतियों एवं बुरी प्रथाओं में ग्रस्त देखकर उद्विग्न हो उठे थे । अतः पख्तून जाति के उत्थान के लिए और उसे कट्टर पंथी अंधविश्वासों तथा अंग्रेजों की शोषणात्मक स्थिति से मुक्ति दिलाने के लिये उन्होंने सन् १९९० और १९२१ के बीच में अज्ञानान्धता को दूर करने के लिये अनेकों स्कूल और कालेजों की स्थापना करायी, तथा “अंजुमन इस्लाह” नामक एक संस्था का भी श्रीगणेश एवं संचालन किया । इसे प्रकार ये अंग्रेजों की काली सूची में आकर इनके कट्टर शत्रु माने जाने लगे । परिणामस्वरूप अनेकों बार जेल यातनायें भोगनी पड़ीं । “
          इन्हीं दिनों ये अपने प्राणों को हथेली पर रखकर गुप्त रूप से गाँव-गाँव में घूम-घूम कर क्रान्तिकारी समाचार पत्रों का प्रचार एवं प्रसार भी करते थे, जिनमें ‘जमींदार’ ‘अलबलगा’ ‘मदीना तथा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद का ‘अलहलाल’ प्रमुख पत्र थे । १९२८ में बादशाह खान ने स्वयं ‘पख्तून’ नामक पत्र निकाला, जिस पर अंग्रेजों ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। बाद में पाकिस्तान सरकार ने भी उस पर कई बार रोक लगा दी । १९२९ में इन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ के नाम से एक और संस्था गठित की, जिसका उद्देश्य, बिना स्वार्थ के मानव मात्र की सेवा करना तथा जनता में सत्य-अहिंसा से युक्त सादा और सरल जीवन व्यतीत करने का प्रचार करना था।
बादशाह खान भारतीय कांग्रेस की गतिविधियों से पहले से ही पूर्ण परिचित थे । १९१९ के रोल्ट एक्ट के विरुद्ध उतमान जई में विशाल जन सभा का आयोजन तथा खिलाफत कमेटियों में सक्रिय कार्य करने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा था। १९२० को कलकत्ता और नागपुर के कांग्रेस सम्मेलनों की अपीलों ने इनको एक दर्शक के रूप में बड़ा प्रभावित किया था । सन् १९२० में जब कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ तब सर्वप्रथम बादशाह खान की मुलाकात गाँधी जी और नेहरू से हुई और तभी से उनके राजनीतिक जीवन में तीव्रता आई। १९३० में ही उनका प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस से सम्बन्ध जुड़ा। धीरे-धीरे वे काँग्रेस में इतने लोकप्रिय हो गये कि सन् १९३४ के बम्बई अधिवेशन में इन्हें अध्यक्ष पद पर बैठाने की अथक कोशिशें की गयीं परन्तु इन्होंने एक सिपाही और खुदाई खिदमतगार की हैसियत से ही बने रहने की इच्छा व्यक्त की और दूसरों के आग्रह को टाल दिया। बड़ी मुश्किल से वे इसी अवसर पर अखिल भारतीय स्वदेशी का उद्घाटन करने के लिए राजी हुए थे। सीमा प्रान्त में इनके प्रवेश पर अंग्रेजों ने पाबन्दी लगा दी थी। उस समय इन्होंने वर्धा और कलकत्ते में कांग्रेस की शक्ति बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया था। सन् १९३८ में कांग्रेस कार्यकारिणी ने इस शर्त पर कि युद्ध के बाद अंग्रेज भारत को स्वतन्त्र कर देंगे तो वह उनकी सहायता युद्ध में करने को तत्पर हैं- अहिंसावादी सीमान्त गाँधी ने इस समिति से त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि उनकी दृष्टि से युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करना हिंसा को बढ़ावा देना था । निःसन्देह बादशाह खान स्वतन्त्रता से बड़ी वस्तु अहिंसा को ही मानते हैं I
          विभाजन से पूर्व सीमा प्रान्त में जनमत संग्रह किया गया। जनता के समक्ष दो विकल्प रखें गये थे— (१) वहाँ के लोग भारत में मिलना चाहते हैं, या (२) पाकिस्तान में बादशाह खान तथा उनके भाई डॉ० खान साहब चाहते थे कि एक विकल्प यह भी होना चाहिये कि पख़्तून स्वतन्त्र रहें, लेकिन यह बात नहीं मानी गई । स्वतन्त्र चेता पठानों ने उस जनमत संग्रह का बहिष्कार कर दिया। इसका परिणाम यह निकला कि अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की दुरभि संधि से सीमा प्रान्त पाकिस्तान का अंग बन गया। बादशाह खान ने इनके लिए कांग्रेस को माफ नहीं किया, परन्तु सच्चे खुदाई खिदमतगार की तरह उन्होंने मन में घृणा नहीं रक्खी, उन्हें आज भी भारत से उतना ही स्नेह है जितना पहिले था।
          बादशाह खान निर्भीक एवं सत्यनिष्ठ नेता थे। उन्होंने ५ मार्च, १९४८ को पाकिस्तानी लोकसभा में राज्य-भक्ति की शपथ ली थी । लोक सभा में दिए गए अपने भाषण में सीमान्त गाँधी ने ललकारते हुए कहा था “भारत ने आजादी हासिल करली है, पाकिस्तान आज ब्रिटिश अफसरों से लदा हुआ है। एक ने अपना घर सम्भाल लिया है पर दूसरा अपने घर में विदेशियों के गीत गा रहा है, देश में आर्डिनेन्स लागू हो रहे हैं, प्रान्तीयता का विष बढ़ रहा है। मैं स्वतन्त्र पख्तूनिस्तान नहीं चाहता, परन्तु पाकिस्तान के वृक्ष की एक शाखा पख्तूनिस्तान को चाहता हूँ, हम अपनी पख्तून संस्कृति को चाहते हैं, गुलामों की गुलामी हमें मान्य नहीं”। कराँची में दिए गए भाषण में बादशाह खान ने कहा था — “ आज पाकिस्तान के पूँजीपति स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी पठानों से डर रहे हैं। ये वही सेनानी हैं, जिन्होंने पाकिस्तान और भारत को आजाद कराया। इन्होंने स्वतन्त्रता के युद्ध में आहुति दी थी। आज उन्हीं से पाकिस्तान का धनी वर्ग घबरा उठा है। पठानों की निष्काम और निःस्वार्थ सेवाओं से ये स्वार्थी, दम्भी और अहंकार के पुतले काँप रहे हैं। लाखों रुपये की जायदाद जो हमारे भाई हिन्दू और सिख अमानत के तौर पर छोड़ गये हैं, उन्हें लीगी अफसरों ने आपस में बाँट लिया है। असलियत में यह जायदाद शरणार्थी भाइयों को देनी चाहिये, जो भारत से आये हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि हमारा क्या भाग्य है। पाकिस्तानी प्रेस और रेडियो पठानों के विरुद्ध लिखने और बोलने में जरा भी नहीं शर्माता।”
          अहिंसा में बादशाह खान की अटूट आस्था एवं विश्वास था। इन्होंने अटक पार युद्धशाली पख्तूनों के हाथ से बन्दूकों को फिकवाकर उनके हिंसापूर्ण हृदय में मानव मात्र की सेवा का भाव जगाया और उन्हें शोषण तथा अन्याय के विरुद्ध सत्याग्रह करने के लिए प्रेरित किया। अंग्रेजों के अत्याचार भी इन्हें अहिंसा से विमुख न कर सके। शान्ति, सत्य और अहिंसा की त्रिवेणी पर आधारित बादशाह खान के निर्भीक एवं निष्कपट भाषणों का श्रोताओं पर जादू का सा प्रभाव होता था । बादशाह खान के विचार में राष्ट्रीय हित और जातीय उत्थान, शान्ति और सुख का एकमात्र साधन धर्म है। किन्तु इनका धर्म मनुष्य को सत्य, न्याय, बन्धुत्व का ज्ञान कराने तथा ईश्वर के सभी जीवों की सेवा करने के लिये है। जिस मनुष्य में मानव जाति का हित-चिन्तन और प्रेम का भाव नहीं होता, घृणा होती है वह उनकी दृष्टि से धर्म से कोसों दूर है।
          गाँधी जन्म शताब्दी के पुनीत अवसर पर सीमान्त गाँधी का भारत आगमन एक सुखद एवं महत्वपूर्ण घटना थी। २ अक्टूबर, ६९ को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर श्रद्वांजलि अर्पित करते हुए विशाल सार्वजनिक सभा में बादशाह
खान ने कहा
          “मैं २२ वर्ष के बाद यहाँ आया हूँ। इस दौरान हम पर जो गुजरी है वह शायद आपको मालूम न हो । बाईस वर्ष के बाद आपकी मुहब्बत और गाँधी जी की याद मुझे यहाँ खींचकर लाई है। मैं आप लोगों के लिये यहाँ आया हूँ। मैं यहाँ आपसे पैसा माँगने नहीं आया। पख्तूनिस्तान के मामले में मदद प्राप्त करने के लिए भी यहाँ नहीं आया हूँ। वह तो हमें मिलने ही वाला है मैं आप लोगों को अपना मुरीद बनाने यहाँ नहीं आया हूँ। मैं इस गरज से यहाँ आया हूँ कि गाँधी जी ने जो सबक सिखाया था उसकी आप लोगों को याद दिलाऊँ और यह देखूँ कि आपने उस पर कहाँ तक अमल किया है। मैं आपको याद दिलाने आया हूँ कि आप अपनी तवारीख देखें और उन बातों पर गौर करें, जो कौमें बात अधिक करती हैं और उन पर अमल कम, वह अधिक दिनों तक जिंदा नहीं रह सकतीं” इत्यादि ।
          इसके पश्चात् बादशाह खान ने भारत के विभिन्न राज्यों और नगरों का दौरा किया, स्थान-स्थान पर जनता बादशाह खान के दर्शनों और उनके मानवीय गाँधीवादी विचारों को सुनने के लिये उमड़ पड़ती थी । भारतीय जनता को सीमान्त गाँधी में अपने प्रिय बापू के दर्शन होते हैं। बादशाह खान हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और पारसियों का समान रूप से पथ-प्रदर्शन और उद्द्बोधन करते हैं।
          एक बार पुनः ९६ वर्षीय सीमान्त गाँधी अस्वस्थ होते हुए भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शताब्दी समारोह में भाग लेने अपने पुत्र खान अब्दुल वली खाँ के साथ पाकिस्तान से विशेष विमान द्वारा २६ दिसम्बर, ८५ को दिल्ली पधारे। प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी ने दिल्ली हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया । २७ दिसम्बर को सीमान्त गाँधी प्रधानमन्त्री के साथ कांग्रेस शताब्दी समारोह में भाग लेने महात्मा गाँधी नगर बम्बई पहुँचे तथा समारोह को गौरवान्वित किया।
          १५ मई, ८७ को बादशाह खान को दिल की बीमारी के इलाज के लिए पाकिस्तान से बम्बई लाया गया था । २६ जून, ८७ को स्वस्थ होने पर उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। लेकिन जब वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे तभी उन्हें हृदय आघात हो गया। उन्हें दिल्ली के आल इण्डिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट ले जाया गया। हालत कुछ सुधरने पर वायुयान से १६ अगस्त, ८७ को पेशावर वापस ले जाया गया। इस बीच जब वे भारत में ही थे भारत सरकार ने उन्हें तभी देश के सर्वोच्च पुरस्कार “भारत रत्न” से सम्मानित किया था।
          बादशाह खान पिछले छः महीनों से अचेतावस्था में थे। भारतवर्ष से जाने के बाद उन्हें पेशावर के लेडी रीडिंग अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था । २० जनवरी, ८८ को प्रातः पौने सात बजे मृत्यु ने उन पर विजय प्राप्त कर ली। भारत को सूचना मिलते ही भारत सरकार ने सीमान्त गाँधी के शोक में पाँच दिन के राजकीय शोक की घोषणा की तथा २१ जनवरी शुक्रवार को केन्द्रीय सरकार ने अवकाश घोषित किया । उस दिन बादशाह खान को जलालाबाद में दफनाया जाना था। बादशाह खान ने अपनी वसीयत में लिखा था कि वह चाहते हैं कि उन्हें जलालाबाद के अपने घर के बगीचे में दफन किया जाये । बादशाह खान के पुत्र तथा अवामी नेशनल पार्टी के अध्यक्ष वली खान ने उनकी अन्तिम इच्छा पूर्ति की ।
          स्वतन्त्रता संग्राम के समर्पित सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खाँ के निधन से सारा भारत शोक सागर में डूब गया। भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी सहित अनेक नेताओं ने उन्हें भारत का सच्चा मित्र एवं मानवतावादी बताते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में उनके विशिष्ट योगदान को नमन किया। प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी अपनी स्टाकहोम की यात्रा स्थगित कर बादशाह खान के अन्तिम दर्शन के लिए पेशावर पहुँचे । श्री गाँधी ने जिन्ना पार्क में एक स्मारक भवन में रक्खे दिवंगत नेता के पार्थिव शरीर के बगल में बैठकर परम्परागत इस्लामिक तरीके से दुआ की। श्री गाँधी की खबर मिलते ही वहाँ अपार जन समूह उमड़ पड़ा था और लोगों ने ‘हमारा दोस्त हिन्दुस्तां’, के नारे लगाये । प्रधानमन्त्री ने १०० मिनट पेशावर में रहने के बाद स्वदेश लौटने से पूर्व पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया को तार द्वारा स्वयं तथा अपने परिवार को बादशाह खान के अन्तिम दर्शन के लिये धन्यवाद दिया तथा थोड़े समय की सूचना पर इतने उत्कृष्ट प्रबन्ध किये जाने के लिए कृतज्ञता प्रकट की । इस प्रकार स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण इतिहास का पटाक्षेप हो गया ।
          आज भारत स्वतन्त्र है परन्तु स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष में सीमान्त गाँधी के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगारों का जो योग था वह कभी भुलाया नहीं जा सकता । उसके इतिहास पर उसके त्याग और बलिदान की एक अमिट छाप है। कभी वे कांग्रेस की एक बहुत बड़ी शक्ति थे और इस शक्ति का ही यह प्रताप था कि सीमा प्रान्त में कांग्रेस को कभी मुँह की नहीं खानी पड़ी । इस देश के लोग उनके प्रति महान् कृतज्ञता अनुभव करते हैं ।
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