बैंकों का राष्ट्रीयकरण

बैंकों का राष्ट्रीयकरण

          “मैं गरीब और पिछड़ी हुई अपनी जनता के साथ हूँ, आपके कष्टों का मुझे ऐहसास है।” आत्मीयता भरे इन शब्दों को सुनकर बधाई देने आई हुई भीड़ ने आह्लादित होकर प्रधानमन्त्री की जय-जयकार भवन एक बार फिर गूंज उठा। की और इस आत्मीयता भरे अभिनन्दन से प्रधानमन्त्री भवन एक बार फिर गूंज उठा।
          देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं ने जी भर कर हर्षोल्लास पूर्ण खुशियाँ मनाई थीं, अपनी प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की इस अभूतपूर्व विजय और वीरता भरे पदन्यास पर । छोटे उद्योगपतियों, श्रमिकों और साधारण व्यापारियों के मुखों पर युगों से छाई हुई गहरी उदासी धुलने लगी थी। कृषक- ललनाओं के घुँघरू, खेतों और खलियानों में गति एवं लय से मुखरित हो उठे थे, यह जानकर कि अब उनके स्वामियों को साहूकार की शरण में जाना नहीं पड़ेगा। वर्षों से गिने-चुने हाथों में ही खेलने के कारण घुटन महसूस करने वाली देश लक्ष्मी भी अंगड़ाई लेकर जन-साधारण के बीच में आने के लिए आतुर हो उठी थी । पुरानी शीशियों में बन्द इत्र अपने सुवास से देश के कण-कण को सुवासित करने के लिए लालायित हो रहा था ।
          सहसा तिजोरियों के द्वार खुले । लक्ष्मी का युगों का कारावास समाप्ति के चरणों में था। ९ जुलाई, १९६९ को काँग्रेस कार्य समिति की बैठक में श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा देश की बुनियादी आर्थिक नीतियों पर प्रेषित “नोट” खुला, जिसमें प्रमुख वित्तीय संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण के ५० सुझाव थे, जिनका उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाना और उसे समाजवादी आधार देना था, या यों कहिये कि इस नोट में वह संदेश निहित था, जिसमें भारतीय जनता निर्धनता, दरिद्रता, गरीबी और भुखमरी से मुक्ति पा सके ।
          श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपने नोट में काँग्रेस कार्य समिति से बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण, सरकारी प्रतिभूतियों में बैंकों की पूँजी विनियोग की कानून सम्मत राशि की सीमा में वृद्धि, एकाधिकार को सीमित करके औद्योगिक लाइसेंस नीति में आमूल परिवर्तन करने और औद्योगिक लाभ में कर्मचारी के भागीदार होने आदि के प्रश्नों पर विचार करने को कहा था। हाल ही में संसदीय कानून के द्वारा जो सामाजिक नियन्त्रण लागू किया गया था, उससे वे प्रसन्न नहीं थीं। नोट में सुझाव दिया था कि कच्चे माल के आयात का अविलम्ब राष्ट्रीयकरण किया जाये, उद्योग को अस्वास्थ्य प्रदान करने वाली प्रतिबन्धित व्यापारिक चालों पर अंकुश लगाने तथा भूमि रखने की सीमा का अविलम्ब निर्धारित कर भूमि सुधार को जोरदार ढंग से लागू किया जाये । सामाजिक – नियन्त्रण प्रणाली के अन्तर्गत बैंक द्वारा जमा किये जाने वाली राशि को ५ प्रतिशत तक बढ़ा देना था । सुझाव देते हुए श्रीमती गाँधी ने कहा था कि इससे २०० करोड़ रु० की अतिरिक्त आय होगी, जिसका उपयोग सरकारी क्षेत्रों के उद्योगों में किया जायेगा ।
          मतभेद, विचार भिन्नता और विरोधी प्रहारों की तीव्र अग्नि परीक्षा में भी जब स्वर्ण चमक उठा तो श्री चह्वाण से आर्थिक व सामाजिक नीति पर एक नए प्रस्ताव का मसविदा तैयार करने को कहा गया, जिसमें नयी आर्थिक नीति का प्रस्ताव श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा उनके नोट में दिये गये संकेत के आधार पर हो । ११ जुलाई, १९६९ को काँग्रेस कार्य समिति ने बंगलौर में उक्त आर्थिक नीति सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकृत कर दिया। हालांकि काँग्रेस से बाहर राजनीतिज्ञों को इस प्रस्ताव पर कुछ आश्चर्य भी हुआ क्योंकि कुछ मास पूर्व ही फरीदाबाद काँग्रेस अधिवेशन में बैंकों के समाजीकरण के लिये संसद् में कानून पास कराया था ।
          काँग्रेस महासमिति के बंगलौर अधिवेशन से १४ जुलाई को लौटने के पश्चात् प्रधानमन्त्री ने १६ जुलाई को श्री मोरारजी देसाई को वित्तमन्त्री पद से मुक्त कर दिया तथा १७ जुलाई को स्वयं वित्त विभाग सम्भाल लिया। इस पर मोरारजी देसाई ने उप-प्रधानमन्त्री पद से अपना त्याग-पत्र दे दिया और वह १९ जुलाई की संध्या को स्वीकार कर लिया गया।
          १९ जुलाई, १९६९ को वर्षों की चर्चा और विवाद के पश्चात् श्रीमती इन्दिरा गाँधी के आकस्मिक निर्णय पर केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने अपनी स्वीकृति दे दी। उसी दिन रात्रि को राष्ट्रपति वी० वी० गिरि ने अध्यादेश जारी कर दिया जिसके अधीन देश के १४ बैंकों को जिनके पास ५० करोड़ रुपये से ज्यादा रकम जमा थी, केन्द्रीय सरकार के अधीन कर लिया गया।
          अध्यादेश के अनुसार यह निर्णय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और लक्ष्यों के अनुरूप अर्थव्यवस्था के विकास की जरूरतों को अच्छी तरह पूरा करने के उद्देश्य से किया गया। इन बैंकों के हिस्सेदारों को मुआवजा दिया जायेगा। अध्यादेश में कहा है कि भारत से बाहर निगमित बैंकों की शाखाओं का तथा जून १९६९ के अन्त में ५० करोड़ रुपये से कम जमा रकम वाले भारतीय अनुसूचित बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया है। पचास करोड़ रुपये से अधिक जमा रकम वाले बैंक सरकार के अधीन किये गये हैं, विदेशी बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया है।
          १९ जुलाई, १९६९ ई० को आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने देशवासियों से अपील की वे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के सामाजिक व लोकतन्त्रीय प्रयोग को सफल बनाने में सहयोग दें। उन्होंने बैंकों के मैनेजरों और कर्मचारियों से खास तौर से अनुरोध किया कि वे बैंकों द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति में पूरा पूरा सहयोग दें, किन्तु इस फैसले का यह अर्थ नहीं कि क्षेत्रों में भी राष्ट्रीयकरण हो रहा ।
          श्रीमती गाँधी ने आगे कहा- “हमारा एकमात्र उद्देश्य हमारी गरीब जनता की भलाई और उसकी उन्नति है। हर समय हमारी यही कोशिश रहेगी कि उसका जीवन जल्दी से जल्दी सुखद बने I विदेशी नीति की तरह हमारी आन्तरिक नीति में भी, हम अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं, राष्ट्रीय आवश्यकताओं और राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हैं, इससे हमारी योजनाओं और नीतियों के कार्यान्वयन में मदद मिलेगी। राष्ट्रीयकरण से हम अपने उद्देश्यों की पूर्ति अब तेजी से कर सकेंगे। बैंक व्यवस्था के लिये अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण का इन्तजाम करना और उनकी सेवा की शर्तों पर भी गौर करना है। केवल राष्ट्रीयकरण से ही हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। आगे चलकर इन बैंकों के संगठन में परिवर्तन किया जायेगा। विशेषज्ञों की जाँच के बाद यह काम होगा । पन्द्रह वर्ष पहिले १९५४ में संसद् में हपने समाजवादी समाज को अपनाने का फैसला किया था और यह तय हुआ था कि इसको ध्यान में रखते हुए अपनी सभी योजनायें और नीतियाँ बनायें । हमारा समाज गरीब और पिछड़ा है, हमें विकास करना है, विभिन्न तबकों-गरीब और अमीर में विषमता कम करनी है। इसके लिए यह जरूरी है कि हमारी अर्थव्यवस्था के खास मोर्चों पर सरकार द्वारा जनता का कब्जा हो । भारत प्राचीन है लेकिन हमारा लोकतन्त्र नया है और इसकी रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था चन्द लोगों की मुठ्ठी में न रहे। किसी भी मुल्क की अर्थव्यवस्था में बैंक का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। बैंक अमीरों के पैसों का अमानतदार है, अगर ये कुशलता से चलें तो जमा करने वालों का फायदा होता है। देश में करोड़ों छोटे-छोटे किसान, कारीगर, छोटे धन्धे करने वालों को अपने कारोबार के लिए कर्ज की जरूरत है और बैंक इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं। व्यापार और उद्योग चाहे बड़े हों या छोटे बैंक से वाजिब दर पर कर्ज लिए बिना तरक्की नहीं कर सकते । पढ़े-लिखे नौजवानों की संख्या हमारे देश में बढ़ती जा रही हैं, उनके रोजगार और देश की सेवा का अवसर देने में बैंकों का बहुत बड़ा स्थान है।”
          प्रधानमन्त्री के इस साहसिक एवं दृढ़तापूर्ण पदन्यास की सारे देश में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। दल के अध्यक्षों ने बधाई संदेश भेजे और श्रीमती गाँधी के इस “साहसिक कदम” को समाजवाद की ओर एक सही कदम बताया । बैंक कर्मचारियों ने आतिशबाजियाँ कीं और मिठाइयाँ खाई गईं। उद्योगपतियों तथा व्यापारी वर्ग द्वारा उसकी आलोचनायें भी हुईं तथा इसे वाणिज्य, व्यापार और उद्योग के विकास में बाधक बताया गया। जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं की ओर से बैंक के राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी अध्यादेशों को उच्चतम न्यायालय में २१ जुलाई को चुनौती दी गई। दो आदेश याचिकायें प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से संविधान प्रदत्त व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है, इसलिए यह अवैध है। दूसरे, कुछ ही घंटों में संसद् का अधिवेशन होने वाला था, ऐसी अवस्था में अध्यादेश निकाल संसद् को उसके अधिकारों से वंचित किया गया है अर्थात् संसद् सदस्य होने के नाते हमारे अधिकारों का भी अपहरण हुआ है। २२ जुलाई को श्रीमती गाँधी ने संसद् के दोनों सदनों में घोषणा की कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी अध्यादेश पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्तरिम निषेधाज्ञा देने से १४ बड़े बैंकों पर सरकारी नियन्त्रण स्थापित हो जाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन बैंकों के निदेशक मण्डल भंग किये जाने को हैं, इस पर भी निषेधादेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, रिजर्व बैंक को भी सतर्क कर दिया गया है, जिससे जनता के हितों की रक्षा हो सके।
          २५ जुलाई, १९६९ ई० को लोक सभा में बैंक राष्ट्रीयकरण बिल पेश किया गया तथा १० दिन की बहस के बाद ४ अगस्त को तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच राष्ट्रीयकरण विधेयक लोकसभा में पारित कर दिया गया। ६ अगस्त को राज्य सभा के पटल पर यह बहुचर्चित बिल रक्खा गया तथा तीन दिन की बहस के पश्चात् ८ अगस्त को पारित कर दिया गया । ९ अगस्त, १९६९ ई० को कार्यवाहक राष्ट्रपति श्री हिदायतुल्ला ने बैंक राष्ट्रीयकरण विधेयक को स्वीकृति दे दी और इसके साथ ही विधेयक कानून लागू हो गया ।
          १५ अप्रैल, १९८० को भारत सरकार द्वारा देश के छः बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश जारी किया गया, जो जून १९८० ई० में अधिनियम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
          बैंकों का राष्ट्रीयकरण महात्मा गाँधी को भी प्रिय था। आज विश्वबन्धु बापू के अनेक स्वप्नों में से एक स्वप्न साकार हुआ। इस स्वप्न को सत्य सिद्ध करने का श्रेय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को है। इस साहसिक कदम के लिए भारत का इतिहास उन्हें सदैव स्मरण करेगा।
          पिछले कुछ वर्षों से कृषि और छोटे उद्योगों के लिए कर्ज में विस्तार की जरूरत बहुत अधिक अनुभव की जा रही थी। नगरों में जरूरतों की पूर्ति पर आधारित बैंक व्यवस्था में परिवर्तन लाने पर जोर दिया जाने लगा था। इसके पीछे राजनीतिक नारेबाजी से अधिक आर्थिक अनिवार्यता थी। साथ ही कुछ थोड़े से लोगों के हाथों में आर्थिक सत्ता और राष्ट्रीय सम्पत्ति केन्द्रीत हो गई थी, इससे सामाजिक तथा राजनीतिक तनाव भी उत्पन्न होने लगा था। इसके बाद बैंकों पर सामाजिक नियन्त्रण की योजना लागू की गई, ऋण परिषद् की स्थापना हुई, बैंकों में सुधार के लिए आयोग का गठन हुआ, परन्तु न उतनी तेजी आ सकी और न ही उतनी सफलता ही मिल सकी, जितनी आशा थी । वर्षो पहिले अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक प्रतिनिधि मण्डल ने भी सिफारिश की थी कि भारत के बैंकों को मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण देना शुरू करना चाहिए। जर्मनी में बैंक इसी आधार पर काम करते हैं, किन्तु भारत के बैंक ब्रिटेन की व्यवस्था पर आधारित होने के कारण अल्पकालीन ऋण देने का काम करते थे।
          बैंकों के राष्ट्रीयकरण से तीन लक्ष्य पूरे होंगे। पहला, प्राथमिक क्षेत्र को कर्ज अधिक उपलब्ध होगा, दूसरा बैंक प्रबन्ध में व्यावसायिक प्रशिक्षण और ज्ञान को बढ़ावा मिलेगा तथा तीसरा बड़े उद्योग समूहों पर सरकार का नियन्त्रण स्थापित होगा। इसके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि देश का आर्थिक असन्तुलन किसी सीमा तक समाप्त हो जायेगा। सारे प्रयत्नों के बावजूद देश के आयात और निर्यात व्यापार का असन्तुलन बना हुआ है। विदेशों से जो भी नयी सहायता मिलती है, उसका अधिकांश उन्हीं विदेशी महाजनों को पुराने ऋण के ब्याज और किश्तों के रूप में वापस हो जाता है, इधर आन्तरिक साधनों की कमी के कारण सार्वजनिक ऋण बढ़ता जा रहा है। चौथी योजना इसलिए तीन साल तक लटकी रही। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को एक साथ अरबों रुपये की राशि प्राप्त हुई है। दूसरे देश के २० बैंकों की हजारों शाखाओं के द्वारा वह आसानी से उन इलाकों तक पहुँच सकेगी जहाँ तक पहुँचने के लिए उसे एक विशाल प्रशासन तन्त्र की स्थापना करनी पड़ती।
          देश में बैंक खातेदारी की संख्या दो करोड़ बतायी जाती है। मोटे तौर पर इनका कोई ८० अरब रुपया विभिन्न बैंकों में जमा है। इन्हें अभी ५ से ६% तक का ब्याज मिलता है। इन्हें यह ब्याज आगे भी मिलता रहेगा, इसका आश्वासन सरकार ने दिया है। जहाँ तक खातेदारों की रकम । की सुरक्षा का प्रश्न है, राजकीय संरक्षण की वरीयता से ज्यादा और क्या वरीयता हो सकती है। अब न बैंक बन्द होने का भय है और न जमा धन के लुटने का भय । खातेदारों को केवल ५ से ६ प्रतिशत ब्याज मिलता है जबकि बैंक शेयर होल्डरों को २२ प्रतिशत लाभांश मिलता रहा है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से यह ठेकेदारी समाप्त होगी, आर्थिक वैषम्य शनैः शनैः समाप्त होगा और नीचे के लोगों को ऊपर उठने का अवसर मिलेगा। कुछ लोगों की यह धारणायें भ्रान्त एवं निर्मूल हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से देश की अर्थ-व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विश्व के कई विकसित देशों ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है और उन देशों की अर्थव्यवस्था पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। जिन लोकतन्त्रीय देशों में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ है। वे हैं-फ्रांस, इटली, स्वीडन और श्रीलंका ।
          देश का बाजार भाव बैंकों के सहारे अब तक धनिकों के हाथ में रहा है। जब चाहें तब किसी भी वस्तु की खरीद की और गोदाम भर दिये गए। स्वाभाविक है, कि उस वस्तु का बाजार में न होना, उसका मूल्य बढ़ा देगा। कुछ समय बाद उसी वस्तु को अपने मनमाने भावों पर बेचना, उपभोक्ताओं के साथ अन्याय नहीं था तो और क्या था ? अब बैंक के धन का इच्छानुसार उपयोग और उपभोग नहीं किया जा सकेगा। ब्लैक मनी अब छिपाकर नहीं रखी जा सकती, जिसके पास जो कुछ है, वह सरकार की नज़र में रहेगा। चन्द लोग बैंकों के रुपये से फाइनेन्स कम्पनियाँ खोलकर जनता को न चूस सकेंगे। अब जनता को आवश्यक टैक्सों का भार वहन न करना पड़ेगा क्योंकि बैंकों के माध्यम से सरकार पर पर्याप्त धन आयेगा, जिससे योजनायें पूरी होंगी। पिछले कुछ दशकों से देश में जो गरीब-अमीर की खाई बढ़ती जा रही थी, आर्थिक-वैषम्य की जो आग धीरे-धीरे सुलगती जा रही थी, वह प्रधानमन्त्री के इस साहसिक कदम से दूर एवं शान्त होगी। निःसन्देह ऐसा साहसिक कदम उठाकर श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने करोड़ों भारतीय नागरिकों की इच्छा का सम्मान किया है।
          २० सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की प्रेरणा से भारत के सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने प्रतिवर्ष की भाँति १९८८ में भी निरीह और असहायों को, निर्धन और निराश्रितों को, रेड़ी और रिक्शे वालों को, बेरोजगार और निर्बल उद्यमियों को, विकलांग और विधवाओं को करोड़ों रुपयों का ऋण बाँटा । छोटे किसानों को खेती और खेती के उपकरणों के लिए सरल ब्याज पर आर्थिक सहयोग दिया जाना, बिना सहारे लोगों को अपने पैरों खड़ा करना यही राष्ट्रीयकृत बैंकों की सर्वाधिक उपयोगिता है। हर गरीब आज इन्दिरा जी को याद करके इस पुण्य कार्य के लिए नमन करता है ।
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