बालचर संस्था

बालचर संस्था

          आज समाज को ऐसे सेवकों की आवश्यकता है, जो उसकी निःस्वार्थ सेवा कर सकें । किराए पर लाये हुए सेवक, सेवक नहीं कहे जाते, उन्हें लोग नौकर कहते हैं। आज देश को त्याग और बलिदान करने वाले नवयुवकों की आवश्यकता है जो अपने देश की, समाज की, हर समय और हर स्थिति में सेवा करने के लिये उद्यत हों। नौकरों से कभी देश का भला नहीं हुआ करता । उसके लिये सच्चे समाज-सेवी चाहियें, जो जनता के सुख-दुख को पहचान सकें और उसे अपना समझ बालचर संस्था सकें । सेवा, सहानुभूति एवं सहृदयता की कोमल और पवित्र भावनाओं का उदयकाल मनुष्य की बाल्यावस्था ही है। जिस प्रकार नवीन पौधे की शाखाओं को आप जिधर चाहें झुका सकते हैं, वे बेचारी उधर ही चलने और फैलने लगती हैं। परन्तु यदि आप चाहें कि किसी पुराने या बड़े वृक्ष की किसी शाखा को अपने मन के अनुकूल मोड़ लें तो यह सर्वथा असम्भव होगा । वह शाखा अपने स्थान से टूट भले ही जाए परन्तु झुक या मुड़ नहीं सकती। इसी प्रकार मनुष्य को बाल्यकाल में जिधर आप मोड़ना चाहते हैं, मोड़ सकते हैं। मनुष्य के निर्माण का यही काल है। अच्छी या बुरी आदतें जैसी भी इस काल में मनुष्य में आ जाती हैं वे जीवन भर उसके साथ रहती हैं। बुड्ढे तोते को आप नहीं पढ़ा सकते | तोते का बच्चा सरलता से राधा कृष्ण कहने लगता है। इसी दृष्टिकोण को लेकर समाज सेवा की पवित्र भावनाओं को बाल्यकाल में ही जन्म देने के लिये बालचर संस्था का अपना विशेष महत्त्व है। इसका प्रशिक्षण केन्द्र आज का प्रत्येक विद्यालय है नदी में डूबते हुए कितने व्यक्तियों को आज तक बालचरों ने बचाया, अग्नि की भयानक ज्वालाओं में भस्म होते हुए कितने घरों की रक्षा की, कराहते हुए टूटी टाँग वाले कितने व्यक्तियों को अस्पताल पहुँचाया, कितने लोगों की उन्होंने प्राथमिक चिकित्सा की, आज यह तथ्य सर्वविदित है। आज कौन है जो बालचर संस्था के महत्त्व को नहीं पहचानता, जबकि देश के ऊपर आपत्तियों के काले बादल छाये हुए हैं। आन्तरिक और ब्राह्य युद्ध की चिन्गारियाँ चारों ओर चमक रही हैं। ऐसी स्थिति के समय में बालचर संस्था के सदस्य ही देश के अवैतनिक सच्चे सिपाही सिद्ध होंगे।
          बालचर संस्था का जन्म एक अंग्रेज महाशय के हाथों से हुआ था जिनका नाम था ‘सर रॉबर्ट बैदन पॉवल’ । सन् १९०० में जिस समय अफ्रीका में बोअर-युद्ध हो रहा था, तब उन्होंने इस प्रकार की बालचर सेना का निर्माण किया था। इस सेना से अंग्रेजों को युद्ध में बड़ी सहायता मिली। उन्होंने बालचरों को स्वयं सैनिक प्रशिक्षण दिया था। अपने इस सफल अनुभव के आधार पर उन्होंने यह निश्चय किया कि यह संस्था युद्ध के अतिरिक्त शान्ति काल में भी उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसी दृढ़ निश्चय के आधार पर उन्होंने संस्था का देश और विदेशों में प्रचार किया। भारतवर्ष में इस संस्था की स्थापना श्रीमती एनी बेसेन्ट ने महासमर काल में की थी। तब से अब तक यह संस्था उत्तरोत्तर बढ़ती गई। आज भारतवर्ष के प्रत्येक छोटे और बड़े विद्यालयों में इस संस्था की शाखायें हैं। इसी शाखा के माध्यम से छात्रों में स्वावलम्बन, सहानुभूति, समाज सेवा और श्रमदान की पुनीत भावनाएँ जागृत की जाती हैं। कहा जाता है कि सर रॉबर्ट बैदन पॉवल को यह प्रेरणा हरिद्वार में किसी महात्मा के द्वारा प्राप्त हुई थी, जबकि ये भारत के सेनापति थे।
          बालचर संस्था का आधुनिक स्वरूप एक सुसंगठित सूक्ष्म सैनिक प्रयास है । आठ वर्ष की अवस्था वाला या इससे अधिक अवस्था का प्रत्यके बालक इस संस्था का सदस्य बनकर अपने को गौरवशाली समझता है । स्काउट कहलाने में उसे एक विशेष स्वाभिमान का अनुभव होता है। बालचरों को विधिवत् उनके कर्त्तव्यों का ज्ञान कराया जाता है। उन्हें देश और समाज की सेवा करने की प्रतिज्ञा लेनी होती है। एक पैट्रोल में आठ बालचर होते हैं। उनका नायक पैट्रोल लीडर कहा जाता है, जो उन सब में तेज होता है और उनका पथ-प्रदर्शन करता है। चार पैट्रोल से अधिक पैट्रोल का एक टुप बनाया जाता है, जिसका नायक टुप लीडर कहा जाता है। प्रत्येक टुप का अधिकारी एक स्काउट मास्टर होता है, जो आगे द्रुप के प्रत्येक स्काउट की शिक्षा, वेश भूषा,. कर्त्तव्य-पालन, अनुशासन आदि की देखभाल रखता है तथा उन्हें प्रशिक्षण भी देता है। जिले के समस्त टूप डिस्ट्रिक्ट स्काउट कमिश्नर के अधीन होते हैं । डिस्ट्रिक्ट स्काउट कमिश्नर किसी ऐसे प्रतिभाशाली योग्य पुरुष को बनाया जाता है, जो जिले की समस्त टूपों का संचालन कर सके। प्रान्त की समस्त बालचर संस्थाएँ प्रान्तीय स्काउट कमिश्नर के अधीन होती हैं, जो समय-समय पर उनके द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करती हैं ।
          सेना के समान स्काउटों की वेशभूषा भी एक समान होती है, उसमें अमीरी और गरीबी का कोई प्रश्न नहीं होता। सब समान वस्त्र पहिनते हैं, साथ-साथ भोजन करते हैं, तथा पारस्परिक सहयोग से समस्याओं को सुलझाते हैं। इस प्रकार विद्यार्थी में समानता और सहयोग की भावना का प्रारम्भ से ही उदय हो जाता है। प्रत्येक बालचर खाकी मौजे, खाकी नेकर, खाकी कमीज और खाकी टोपी या खाकी साफा पहिनता है। खाकी टोपी के विषय में तो अब कुछ नियम शिथिल-सा हो गया, परन्तु शेष वेशभूषा अब भी ज्यों की त्यों है। सबके समान जूते होते हैं, सभी स्कार्फ हैं। प्रत्येक स्काउट की वेशभूषा में सीटी, झण्डी और लाठी की भी अनिवार्यता है। ये तीनों वस्तुऐं अपना-अपना विशेष महत्त्व रखती हैं और समय पड़ने पर बालचर की सहायक सिद्ध होती हैं।
          मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सहायक सिद्ध होने के लिये बालचरों को अनेक प्रकार की शिक्षा दी जाती है। उन शिक्षाओं से वे आपत्तिग्रस्त मनुष्यों की सेवा करते हैं। बालचरों की प्रमुख शिक्षाएँ ये हैं—भोजन बनाना, तैरना, नदी पर पुल बनाना, घायल के पट्टी बाँधना, प्रारम्भिक चिकित्सा करना, घायल को अस्पताल पहुँचाना, गाँठ लगाना, मार्ग ढूँढना, सिगनल देना, सामयिक घर बनाना, सामयिक सड़क बनाना आदि । बालचर को इन विषयों की कई परीक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पड़ती हैं। वह एक डायरी रखता है, जिसमें वह अपने दैनिक कार्यक्रम का उल्लेख करता है, स्वास्थ्य रक्षा के लिये उसे सभी तरह के खेल खिलाये जाते हैं। ऊपर लिखी हुई सभी शिक्षाएँ समाज सेवा से भी सम्बन्धित हैं और सैनिक शिक्षा से भी। सैनिक के लिये ये सभी बातें जानना अत्यन्त आवश्यक है।
          बालचर का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह दीन-दुखियों की सेवा करे और उनसे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करे। उसका प्रत्येक कार्य समाज हित की दृष्टि से होना चाहिये। दूसरों की सहायता के लिये उसे सदैव कटिबद्ध रहना चाहिये, चाहे दिन हो या रात वह कभी भी बुलाया जा सकता है । बालचर का प्रमुख कर्तव्य है कि वह अपने प्राणों को संकट में डालकर दूसरों के प्राणों की रक्षा करे। सर्वसाधारण का हित ध्यान में रक्खे तथा अपने कर्त्तव्य का पूर्ण रूप से पालन करे। उसे सत्यवादी, सहानुभूतिपूर्ण, संवेदनशील, देशभक्त, कर्त्तव्य-पालक, आज्ञा-पालक, दयालु एवं सहनशील होना चाहिये। उसे साहसी एवं ईश्वर-निष्ठ होना चाहिये। ईश्वर में विश्वास और श्रद्धा रखते हुए भयंकर से भयंकर स्थिति में भी साहस नहीं खोना चाहिये और अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिये। उसे आपस में बन्धुत्व की भावना रखते हुए परम्परावलम्बन एवं सहयोग से कार्य करना चाहिये । बालचर को व्यक्ति-हित और समाज-हित दोनों का ही ध्यान रखना चाहिये I
          बालचर संस्था समाज के लिये अत्यन्त उपयोगी है। बड़े-बड़े मेलों में, रामलीला में, गंगा-स्नान के पर्वों पर और बड़ी-बड़ी सभाओं में बालचर अनुशासन स्थापित रखते हैं, प्रबन्ध करते हैं, जनता की सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखते हैं। बड़े-बड़े मेलों में चोरी, आग लगना, झगड़ा होना, आदि की घटनायें साधारण होती हैं। स्काउट अपने प्रबन्ध से कोई अव्यवस्था नहीं होने देते। छोटे-छोटे बच्चे मेलों की भीड़ में जो अपने माता-पिता से बिछुड़ जाते हैं और इधर-उधर रोते-चिल्लाते घूमा करते हैं, उन्हें उनके माता-पिता तक ढूँढकर पहुँचाना बालचरों का ही प्रशंसनीय साहस है। गंगा के पर्वों पर जो बच्चे या बड़े स्नान करते-करते गंगा के प्रवाह में डूबने लगते हैं, बालचर अपने प्राणों को हथेली पर रखकर उनके प्राणों की रक्षा के लिए गंगा में एकदम कूद जाते हैं और उन्हें बचाने का प्राणपण से प्रयत्न करता है। इतना ही नहीं, बीमार की परिचर्या उन्हें इससे भी ऊपर उठा देती है। जिसका कोई नहीं होता, कराहते – कराहते दिन और रात बिता देते हैं, एक घूँट पानी के लिए भी जो तरसते रहते हैं, बालचर उनकी सेवा करता है, प्राथमिक उपचार करता है, इसके पश्चात् उन्हें अस्पताल पहुँचाता है। बालचर अपने सत्प्रयासों से कलह की अग्नि और वास्तविक अग्नि, दोनों को ही शान्त कर देता है। जहाँ आपस में दंगे और लड़ाई-झगड़े हो जाते हैं, ये स्वयं सेवक वहाँ नम्रतापूर्वक शान्ति स्थापित करते हैं और जहाँ वास्तविक आग लग जाती है वहाँ तो अपने प्राणों को हथेली पर रखकर आग में कूद पड़ते हैं और जान माल की रक्षा करते हैं ।
          इस संस्था से समाज को अनेक लाभ हैं। यह संस्था निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा करती है। जनता में स्वावलम्बन और आत्म-निर्भरता की भावनाओं को जाग्रत करती है। इस संस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि छोटे-छोटे बालकों में सेवा-धर्म का उदय होता है, वे सबके कल्याण में अपना कल्याण समझने लगते हैं, समाज का हित उनका अपना हित होता है। इस प्रकार उनका चरित्र एक आदर्श चरित्र बन जाता है। वे देश के कर्मण्य और मनस्वी नागरिक बन जाते हैं। देश की सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य और वैभव, ऐसे ही नागरिकों पर आधारित होता है।
          आज देश को और समाज को ऐसी ही निःस्वार्थ सेवी संस्थाओं की आवश्यकता है। संस्था का उद्देश्य और लक्ष्य वास्तव में प्रशंसनीय है। बच्चे भी इसमें बड़े उत्साह से भाग लेते हैं। खाकी वर्दी पहिन कर वे एक विशेष गौरव का अनुभव करते हैं। परन्तु दुःख का विषय है कि आज देश में जितना संरक्षण इस संस्था को प्राप्त होना चाहिये था, उतना नहीं प्राप्त हो रहा। इसलिए स्कूलों और कॉलिजों में भी इस दिशा में उदासीनता आती जा रही है। शिक्षा प्रेमियों और देश के समाज सुधारकों तथा सरकार का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वे इस समाज-सेवी संस्था को विशेष रूप से पल्लवित और पुष्पित करने के लिए विशेष सहयोग दें।
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