बाढ़ – एक प्राकृतिक प्रकोप

बाढ़ – एक प्राकृतिक प्रकोप

          प्रकृति के साथ मनुष्य ने सृष्टि के प्रारम्भिक क्षणों से संघर्ष किया है और आज भी कर है। इसी संघर्ष में कहीं उसे सफलता मिली है और कहीं उसे विफलता का मुख देखना पड़ा आधुनिक युग की सुसंस्कृत सभ्यता और वैज्ञानिक आविष्कार मानव की प्रकृति पर विजय करते सुनाई पड़ रहे हैं। “आवश्यकता आविष्कारों की जननी होती है।” इस सिद्धान्त के मनुष्य को प्रकृति से जहाँ-जहाँ भय दिखाई दिया, जहाँ-जहाँ उसे अपने पतन के लक्षण दिखाई वहाँ-वहाँ उसने अपनी बुद्धि का सहारा लिया. और अपनी रक्षा के लिए नए-नए आविष्कार करके प्रकृति का भी मुँह तोड़ उत्तर दिया । बड़े-बड़े पुल, गगनचुम्बी प्रासाद, वायुयान, गरम-ठण्डे कपड़े आदि वस्तुओं का निर्माण अनादि काल से मनुष्य के साथ चल रहे प्रकृति के संघर्ष की कहानी सुना रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य ने अधिकांश क्षेत्रों में: सफलता प्राप्त की है। परन्तु कुछ ऐसे भी हैं । जहाँ वह मौन होकर प्रकृति की चोटों को चुप  सह लेता है। बाढ़ भी एक ऐसा ही प्राकृतिक प्रकोप है, जिसको मनुष्य की बुद्धि भी विवशतापूर्ण आखों से देखने लगती है। इस प्रकोप में मानव अपना सब कुछ स्वाहा कर बैठता है, चाहे धन हो या जन, अन्न हो या वस्त्र, पशु हो या फसल, पत्नी हो या पुत्र, माता हो या पिता| उठाए फुंकार कर दौड़ते हुए सर्पों की भाँति अनन्त जल-प्रवाह की उत्ताल तरंगें अपने में सब समा लेती हैं।
          नदियों के सूखे हुये पेट भी उभार लेना चाहते हैं लेकिन जब तक सौन्दर्य सीमा में रहता है, वह सौन्दर्य कहा जाता है, सीमा का अतिक्रमण होते ही सौन्दर्य भी कुरूपता में बदल जाता है। वह हास्यास्पद हो जाता है, उसमें आकर्षण शक्ति नहीं होती । कुमारी नदियाँ भी वर्षा ऋतु में गर्भ धारण करने को मचल उठती हैं, परन्तु वह मचलाहट जब अपनी सीमा का अतिक्रमण कर बैठती है तब वह भयानक कुरूपता में बदल जाती है। लोग आकृति देखकर काँप उठते हैं, बच्चे और स्त्रियाँ चीत्कार कर उठते हैं। वर्षा ऋतु में पहाड़ों पर अधिक वर्षा होने तथा बर्फ पिघलने के कारण नदियाँ मस्त होकर इतरा और इठला कर चलने लगती हैं। इधर मैदान की वर्षा का पानी लेकर सहायक नदियाँ उनमें मिलती हैं। तभी बड़ी-बड़ी नदियाँ दानवी स्वरूप में समाज का सब कुछ अपहरण करने के लिए फन फैलाकर दौड़ने लगती हैं। नदियों के इसी विनाशकारी स्वरूप को लोग बाढ़ कह देते हैं ।
          बाढ़ दिन में भी आती है और रात में भी, परन्तु रात की बाढ़ दिन की अपेक्षा लाखों गुनी अधिक भयानक होती है। दिन में बाढ़ आ जाने पर लोगों को कुछ समय पूर्व मालूम भी पड़ जाता है। वे अपने धन-जन को लेकर किसी सुरक्षित स्थान में शरण ले लेते हैं और अपने जीवन को बचा लेते हैं, परन्तु रात की बाढ़ सोते हुये व्यक्तियों को, पशुओं को, घरों आदि को एक साथ समेट कर ले जाती है। जो जाग भी जाते हैं, वे भी अपना ज्यादा कुछ नहीं बचा पाते। उस समय भागकर, ऊँचे स्थानों पर पहुँचकर, अपने प्राण बचाने की इतनी शीघ्रता होती है, कि पति पत्नियों को, माता बच्चों को, बहिन छोटे भाइयों को, पिता पुत्र को भी नहीं बचा पाता । स्त्री और बच्चे चीत्कार करने अपने लगते हैं। पुरुष अपनी प्राण-रक्षा के लिए एक-दूसरे को जोरों से पुकारने लगते हैं। पशु रस्से तोड़कर भागने लगते हैं। घर-बार की किसी को कोई चिन्ता नहीं होती, अपने प्राणों की रक्षा का प्रश्न सर्वोपरि होता है। प्रयास करने पर भी बेचारे अपने को नहीं बचा पाते। इस प्रकार अनन्त जलराशि के भयानक थपेड़ों में अपने को डाल देते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों, बिहार, बंगाल और असम में बाढ़ के भयानक आक्रमण प्रतिवर्ष होते ही रहते हैं। उत्तर प्रदेश के उत्तर भाग में यमुना, पूर्व में गंगा, गंडक, सरयू, कोसी और ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ आए दिन अपार नर संहार करती रहती हैं । ब्रह्मपुत्र की बाढ़ यातायात के साधन और डाक व्यवस्था तक को भंग कर देती है ।
          बाढ़ के समय की दशा अत्यन्त रोमांचकारी होती है। चारों ओर हृदय विदीर्ण करने वाली ‘बचाओ-बचाओ‘ की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। बच्चे और स्त्रियाँ चीख मार-मार कर रोने लगते हैं। अपने हाथों की कमाई अपने सामने लुट जाती है और मनुष्य नहीं बचा पाता । लाखों मन अन्न की फसल सड़ जाती है, घर गिर पड़ते हैं, पशु बह जाते हैं, परिवार नष्ट हो जाते हैं। बाढ़ के समय अपार धन-जन तो लुटता ही है, परन्तु बाढ़ के उतर जाने पर अनेक भयानक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं। बाढ़ के बाद कुओं में बाढ़ का पानी भर जाने से व गड्ढों में पानी और घास सड़ जाने से अनेक भयंकर बीमारियाँ फैलती हैं। लोगों के पास जीवन निर्वाह की कोई वस्तु नहीं रह जाती, बड़े-बड़े रईस फकीर बन जाते हैं। खेती के लिए न पशु होते हैं और न भूमि । बाढ़ के बाद भूमि इस योग्य नहीं रहती कि उसमें अगली फसल पैदा की जा सके, भूमि के ऊपर नदियों का रेत बिछ जाने से भूमि की उत्पादन क्षमता बिल्कुल नष्ट हो जाती है। अपने खाने तथा पशुओं के चारे की कठिन समस्या मनुष्यों के सामने आ जाती है ।
          वह दिन कितना भयानक था जब मैंने मौसी जी के गाँव में यह सुना कि यमुना का पानी खतरे के निशान से बहुत ऊपर चढ़ गया है और गाँव से कुछ ही दूर है। लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी। पूरे गाँव में हाहाकार मच गया, नौजवान अपना सामान लेकर भागने लगे, बुड्ढे, स्त्रियाँ और बच्चे भगवान को पुकार-पुकार कर याद कर रहे थे, पैसे वालों ने तुरन्त सवारियों का इन्तजाम किया परन्तु गरीब बेचारा कहाँ जाये । कुछ लोगों ने पड़ौसी गावों में शरण ली और कुछ शहर भाग गये। इतने में सरकारी सिपाही आया और इस गाँव को तुरन्त खाली करने की घोषणा की। अधिकांश लोग सामान छोड़कर भाग उठे। गाँव के पास एक बहुत ऊँचा टीला था, शायद किसी जमाने में वह छोटा-मोटा पहाड़ रहा हो । मेरे मौसा जी का सारा परिवार और मैं उस टीले की सबसे ऊँची चोटी पर जा बैठे थे। सारा सामान घर में ही छोड़ दिया था, केवल बक्से और बर्तनों की एक बोरी तथा कुछ अन्य आवश्यक सामान खाटों पर रखकर टीले पर ले गये थे । लोग सुना रहे थे कि यह टीला हमारे लिये भगवान है । इसने हमारी कई बार जानें बचाई हैं। इसीलिये हम इसे ‘भगवान टीला’ कहते हैं। देखते ही देखते कुँकारती हुई यमुना ने गाँव को घेर लिया। हम लोग भगवान से अपने प्राणों की भीख माँग रहे थे। चारों ओर जल था, यमुना अपने वेग से दौड़ रही थी। उछलती-दौड़ती हुई लहरें फुंकारती हुए क्रुद्ध सर्पों जैसी मालूम पड़ रही थीं। पानी के प्रवाह में कभी पेड़ बहते हुए दीखते तो कभी गाय-भैंसे । किनारे के मकान जल के निरन्तर थपेडों से धडाधड़ टूट-टूट कर गिर रहे थे। गिरने की आवाजें वातावरण को और अधिक भयानक बना रही थीं। कुछ परिवार अपने पक्के घरों के घमण्ड में छतों पर बैठे थे। उस भयानक प्रवाह की टक्करों ने पहले तो उन मकानों की नीवों को खोखला किया। दीवारें काँपीं और मकान गिर गये। पूरे परिवार को जल-मग्न देखकर टीले पर बैठे हुए समस्त परिवार फूट-फूट कर रो पड़े । पानी का वेग इतना तेज था कि एक क्षण के बाद पता भी न लगा कि कौन गिरा और कहाँ गया ? वर्षों पुराना एक वट वृक्ष था, कुछ स्त्रियाँ और कुछ बच्चे उस पर अपनी रक्षा के लिए चढ़ गये थे, परन्तु वेग ने उसकी भी जड़ें उखाड़ दीं, धड़ाम से पेड़ गिरा और बहने लगा। उस पर बैठे हुए लोगों में से कुछ ब्रह गये, जिन्होंने मजबूती से मोटी शाखाओं को पकड़ रक्खा थे । वे अब भी उसे पकड़े हुए, उसी पेड़ के सहारे प्रवाह में बहते हुये चले जा रहे थे। उसमें एक स्त्री थी, जिसका एक बच्चा भी । मजबूती से पकड़ने के लिये जैसे ही उसने दूसरा हाथ बदला, बच्चा उससे छूट गया और जैसे ही वह उसे पकड़ने के लिये झुकी, उसे भी यमुना ने अपनी गोद में ले लिया । शायद यमुना ने सोचा हो कि “जब तेरा बच्चा और पति ही न रहे तो तू ही इस संसार में अकेले रहकर क्या करेगी ? इसलिये आ और मेरी गोद में सो जा ।” यमुना की यह नर-संहार लीला, चौबीस घण्टे तक चलती रही । इसके पश्चात् धीरे-धीरे पानी कम हुआ और हम टीले से नीचे उतरे ।
          बाढ़ों की दृष्टि से हमारे देश का भाग्य बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रतिवर्ष असंख्य मनुष्य बेघर-बार हो जाते हैं। सन् ७५ की पटना की भयंकर बाढ़ और जौलाई ७८ की उत्तर प्रदेश, बिहार एवं अन्य प्रदेशों में आई हुई बाढें इस विनाश के प्रत्यक्ष रूप हैं। देश के कोने-कोने से चन्दा इकट्ठा करके उनकी सहायता की जाती है । उन्हें वस्त्र और भोजन पहुँचाये जाते हैं। ऐसे अवसरों पर राजनीतिक दल तथा समाज-सेवी संस्थायें पीड़ितों की तन-मन-धन से सेवा करती हैं, नगरों में अनेक स्थानों पर बाढ़ पीड़ितों के आवास की व्यवस्था की जाती है। जनता उनकी सहायता के लिए उमड़ पड़ी है। कोई रोटी दे रहा है तो कोई कपड़ा दे रहा है। कोई बीमार को दवा देने में ही अपना श्रेय समझ रहा है। स्कूल और कॉलिजों के विद्यार्थी उस समय बड़े सहायक सिद्ध होते हैं तथा बाढ़ पीड़ितों की सहायता कर अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं। बाढ़ पीड़ितों को सरकार भी सहायता पहुँचाती है। बाढ़ के कारण जहाँ यातायात व्यवस्था बन्द हो जाती है वहाँ हवाई जहाज से भोजन, वस्त्र तथा दवाइयाँ गिराई जाती हैं। सैनिकों को बाढ़ पीड़ितों की सेवा के लिये नियुक्त किया जाता है। बाढ़ के समय लोगों को घर से निकालने तथा सुरक्षित शिविरों में भेजने के लिए इन्जन से चलने वाली तेज नावें भी भेजी जाती हैं। बाढ़ पीड़ित किसानों का लगान सरकार माफ कर देती है। सरकार . द्वारा उन्हें कर्जा भी मिलता है तथा सस्ते अनाज की दुकानें भी खुलवा दी जाती हैं। बीमारो को औषधियाँ भी मुफ्त ही दी जाती हैं। इस प्रकार बाढ़ पीड़ितों को जीवन निर्वाह की सभी आवश्यक वस्तुएँ सरकार द्वारा दी जाती हैं। जनता यदि चाहे तो वह नदियों के दोनों और अपने अथक परिश्रम से ऊँचे-ऊँचे बाँध बना सकती है, जिससे नदी की धार उससे आगे न बढ़ सके । नदियों को गहरा कर देने से भी बाढ़ का भय कम हो जाता है। नदी के किनारे गड्ढों में ऊँचे टीले बना लेने चाहिएँ जिससे विपत्ति के समय रक्षा हो सके। उन टीलो का ऊँचा रास्ता बनाकर गाँव से मिला देना चाहिये। ऐसे गाँवों में जहाँ बाढ़ें आती रहती हैं वहाँ जनता को कुछ ऐसी तेज सवारियों का भी इन्तजाम रखना चाहिये जो बाढ़ के खतरे की सूचना मिलते ही उन्हें तुरन्त सुरक्षित स्थान पर पहुँचा सकें| ऐसे गाँवों में सेवा दलों का प्रबन्ध होना चाहिए जो विपत्ति के समय स्त्री और बच्चों की रक्षा कर सकें । आशा है कि भविष्य में मनुष्य इन विनाशकारी जल-लहरों पर भी अपना नियन्त्रण कर सकेगा।
          स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश की सरकार का ध्यान इस संहारकारी प्राकृतिक प्रकोप की ओर गया है। बाढ़ों को रोकने के लिये करोड़ों रुपये की योजनायें प्रारम्भ कर दी गई हैं। बाँध बनाये जा रहे हैं, परन्तु धन के अभाव में यह कार्य शीघ्र पूरा नहीं हो रहा है। सरकार के साथ-साथ जनता का भी कर्तव्य है कि वह सरकार को इस कार्य में पूर्ण सहयोग दे, श्रमदान करे, क्योंकि इसमें अपनी और अपने समाज की सुरक्षा है।
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