प्रातःकाल का भ्रमण

प्रातःकाल का भ्रमण

          जीवन को सुखमय बनाने के लिये मन की प्रसन्नता परम आवश्यक है। मन उसी मनुष्य का प्रसन्न रहता है, जिसका स्वास्थ्य सुन्दर हो । स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिये जितना पौष्टिक पदार्थ आवश्यक है उतना ही शारीरिक श्रम भी । श्रम से मनुष्य की शक्ति और स्वास्थ्य दोनों ही बढ़ते हैं। शारीरिक श्रम की बहुत-सी क्रियायें हैं। कोई व्यायाम करता है तो कोई प्राणायाम, कोई दौड़ लगाता है तो कोई मुग्दर घुमाता है कोई यौगिक क्रियाओं में शीर्षासन ही करता है। जिसकी जिधर रुचि होती है, उसको उसी में अधिक आनन्द आता है। प्रातः कालीन भ्रमण भी शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने के शारीरिक श्रमों में से एक है। प्रात:काल के भ्रमण से मनुष्यों को विभिन्न ऋतुओं की सुगन्धित वायु प्राप्त होती है, जिससे मनुष्य में एक नव- स्फूर्ति और नवजीवन का संचार होता है। ऊषा की लालिमा मानव हृदय को रोग-रंजित कर देती है । प्रात:काल का भ्रमण मनुष्यों को बड़ा ही आनन्द देता है।
          प्रभात का सुहावना सुन्दर समय है । प्रभात को अपने तक पहुँचाने वाले दोनों साथी अन्धकार और चन्द्रिका अपने-अपने घर जा चुके हैं। वह अपने घर के द्वार पर पहुँचा ही था कि जल्दी से हँसती हुई ऊषा स्वागत करने के लिये द्वार पर दौड़ आई। अपने घोंसलों को छोड़कर पक्षी भी बाहर आ गये और कलरव करने लगे । मकरन्द भरी वायु मन्द-मन्द चल रही है। सहसा प्राची के क्षितिज पर भगवान भुवन-भास्कर मुस्कराते हुये दृष्टिगोचर होने लगे । रातभर के कारावास से दु:खी प्रभात की घड़ियाँ गिनते हुये भ्रमर कमल की पंखुड़ियों में से निकलकर, फिर उनके ऊपर गुनगुनाने लगे। उद्यान और वाटिकाओं में पराग भरे पुष्प खिलखिलाकर हँस रहे हैं, वृक्षों की हरियाली नेत्रों को बराबर अपनी ओर आकृष्ट कर रही है, हवा कभी वृक्षों में अठखेलियाँ करती और कभी लाज भरी कलिकाओं का घूँघट उठाकर हठात् उनका मुख झाँक जाती है। कभी-कभी शिथिल पत्रांक में कभी की सोई हुई कलिकाओं का सिर पकड़-पकड़कर हिलाती है। चिड़ियाँ फुक-फुक कर कभी इस शाखा से उस शाखा पर जाती और बच्चों को देखकर फिर लौट जाती हैं। हरी-हरी घास पर पड़ी हुई ओस की बूँदें मोती जैसी मालूम पड़ रही हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की लेखनी भी प्रभात वर्णन में मौन नहीं रहती ।
इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति पटी का रंग ।
किरण कण्टकों से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग ॥
कुछ-कुछ अरुण सुनहरी कुछ-कुछ प्राची की अब भूषा थी । 
पंचवटी की कुटी खोलकर खड़ी स्वयं अब ऊषा थी ॥
          प्रातःकाल के भ्रमण से मानव को विशेष आनन्द की प्राप्ति होती है। प्रकृति के मनोरम दृश्यों को देखकर वह फूला नहीं समाता । उसका हृदय-कमल विकसित हो जाता है। प्रातःकाल परिभ्रमण करने से हमारी शारीरिक शक्ति के साथ-साथ मानसिक शक्ति का भी विकास होता है। हमारे मन से विकार दूर हो जाते हैं। प्रातः काल मन प्रसन्न होने से मनुष्य का संध्या तक का समय बड़ी प्रसन्नता से व्यतीत होता है। सुबह की ठण्डी वायु सेवन करने से मनुष्य के मुख पर तेज आता है। उसकी पाचन शक्ति बढ़ जाती है । वृद्धावस्था में परिभ्रमण करना तो संजीवनी औषधि और अमृत का काम करता है। प्रातःकाल घूमने वाला व्यक्ति चिरंजीवी होता है और उसके शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है। प्रातःकाल वायु जब-जब हमारी नासिका और श्वासोच्छ्वास की क्रियाओं से शरीर में प्रवेश करती है, तो हमारा रक्त शुद्ध होता है, फेफड़ों को बल मिलता है, हमारा शरीर निरोग रहता है, वह अजीर्णता का शिकार नहीं बन पाता। मानव का बौद्धिक बल भी बढ़ता है। उसकी प्रज्ञा तीव्र और संकल्प दृढ़ होते हैं। वह उद्योगी और अव्यवसायी बन जाता है। उसमें अच्छे भावों की वृद्धि होती है, नंगे पैर हरी-भरी घास पर घूमने से मनुष्य के मस्तिष्क सम्बन्धी विकार दूर हो जाते हैं। मस्तिष्क की दुर्बलता सफलता में परिवर्तित हो जाती है। आज का युग बैठने का युग है, सभी वर्गों के व्यक्ति सुबह से शाम तक बैठे रहते हैं अर्थात् मस्तिष्क सम्बन्धी कार्य करते हैं। इसलिये उनमें से अधिकांश आज दुर्बल हैं, मुँह पीले पड़े हुये हैं। उदाहरण के लिये, व्यापारी वर्ग को लीजिये। लाला जी सूर्य की रश्मियों के थोड़े आगे-पीछे दुकान पर आकर बैठ जाते हैं। खाना भी दुकान पर ही आ जाता है और रात के नौ बजे तक थड़े पर बैठे रहते हैं। परिणाम यह होता है कि उनकी आन्तरिक शक्ति क्षीण हो जाती है और तोंद बढ़ने लगती है, जो कि दुर्बलता का चिन्ह है। इसी प्रकार अध्यापक, विद्यार्थी, दफ्तरों के क्लर्क, डाक्टर, वैद्य सभी आज इसके शिकार हैं। अतः आधुनिक युग में प्रातः और संध्या का परिभ्रमण कितना लाभकारी है यह तो आप स्वयं निर्णय कर सकते हैं ।
“सूर्योदये चास्तमिते शयानम् । विमुचिति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ॥” 
          सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोने वाले व्यक्ति को चाहे वह विष्णु ही क्यों न हो लक्ष्मी छोड़ देती है, ऐसा कहा गया है। परन्तु आज के युग का सुसभ्य, सुसंस्कृत और सुशिक्षित कहलाने वाला व्यक्ति प्रातः ८ बजे सोकर उठता है, जबकि धूप आधे आकाश पर चढ़ जाती है, शौच जाने से पूर्व चाय पीता है और तब कहीं दैनिक कृत्यों का नम्बर आता है। परिणाम यह होता है कि दिन भर उसका शरीर आलस्य का घर बना रहता है, कार्य में मन नहीं लगता, मस्तिष्क में चिड़-चिड़ापन छाया रहता है, किसी बात का तुरन्त निर्णय नहीं कर पाता । इसके विपरीत, जो मनुष्य ब्राह्म मुहूर्त में उठकर अपने दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर बाग-बग्रीचों व नदी के किनारे पर परिभ्रमण के लिये निकल जाते हैं, वे रात्रि पर्यन्त अपना दिन खुशी के साथ बिताते हैं। इसीलिये कहा गया है – —
“ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत् धर्माथौ चानुचिन्तयेत् । “
          हमें प्रात:काल नियमित रूप से भ्रमण करना चाहिये, जिससे हमारा मन, बुद्धि और शरीर शान्त, प्रसन्न और दृढ़ रह सके । प्रातः परिभ्रमण करने से मनुष्य को नव-स्फूर्ति प्राप्त होती है। पक्षियों के हृदयग्राही कलरव से कर्णेन्द्रिय, सौरभमय समीर से नासिका और प्राकृतिक नैसर्गिक रमणीयता मे सौन्दर्यग्राही नेत्र खिल उठते हैं । अतः स्वस्थ, निरोग, प्रसन्नचित एवं दीर्घजीवी बनने के लिये प्रातः परिभ्रमण एक उत्तम साधन है।
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