प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन Management of Natural Resources

प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन   Management of Natural Resources

 

जैव-विविधता
♦ पृथ्वी के सभी क्षेत्रों, नदियों, वनों, झीलों, समुद्री क्षेत्रों इत्यादि में मौजूद जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियों की विविधता को ‘जैव-विविधता’ कहा जाता है।
♦ इसके अन्तर्गत पौधे, पशुओं एवं सूक्ष्म जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ शामिल होती हैं, जो पारिस्थितिकी एवं तत्सम्बन्धी अनेक प्रक्रियाओं से जुड़ी रहती हैं।
♦  विश्व की कुल जैव-विविधता का 8% भारत में है।
♦  प्रकृति की इस समृद्ध जैव-विविधता को एकत्र होने में विकास के लाखों वर्ष लगे, लेकिन जातीय क्षति यदि इसी दर से जारी रही तब हम इस सम्पदा को दो शताब्दी से भी कम समय में खो सकते हैं।
♦ आजकल संसार के अधिकतर लोगों के लिए इस ग्रह पर हमारे जीवन तथा रख-रखाव के लिए जैव-विविधता व इसका संरक्षण एक अत्यावश्यक और महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय मुद्दा बना हुआ है।
जैव-विविधता संकट
♦ औद्योगिक विकास, संकरित कृषि, वन विनाश एवं अन्य मानव जनित कारणों से पारिस्थितिकी में असन्तुलन बढ़ता जा रहा है, परिणामतया जैव-विविधता नष्ट हो रही है ।
♦ कई जन्तु व वनस्पतियाँ लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं।
♦ वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार अब तक जानवरों व वनस्पतियों की 654 प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी हैं एवं 1200 जानवरों की व वनस्पतियों की 3632 प्रजातियाँ खतरे में हैं।
♦ जैव-विविधता संकट का मुख्य कारण है— खेती, आवास, सड़कों, कारखानों का बढ़ता विस्तार ।
♦ जैव-विविधता का दूसरा संकट बाहरी प्रजातियों के विस्तार के कारण है।
जैव-विविधता संरक्षण कैसे?
♦ जैव-विविधता संरक्षण स्वस्थाने (In-Situ) तथा बाह्य स्थाने (Ex-Situ) होता है।
♦ स्वस्थाने में संकटापन्न जातियों को उनके प्राकृतिक आवास में सुरक्षित रखा जाता है, जिससे कि सारा पारितन्त्र सुरक्षित रह सके।
♦ आज तक संसार के 34 ‘जैव विविधता वाले हॉट-स्पॉट’ को गहन संरक्षण प्रयास के लिए चुना जा चुका है, जिनमें से तीन-पश्चिमीघाट- श्रीलंका, हिमालय तथा इण्डोवर्मा- भारत के जैव विविधता-समृद्ध क्षेत्र में आते हैं।
♦ हमारे देश के स्वस्थाने संरक्षण के प्रयास 14 जीव मण्डल संरक्षित क्षेत्र, 90 राष्ट्रीय उद्यान, 450 से अधिक वन्यजीव अभ्यारण्य व बहुत से पवित्र उपवनों के द्वारा प्रतिबिम्ब होते हैं।
♦ बाह्य स्थाने संरक्षण के अन्तर्गत संकटग्रस्त जातियों का प्राणी उद्यानों तथा पादप उद्यानों में पात्रों, (In-Vitro), निषेचन, ऊतक संवर्धन प्रवर्धन तथा युग्मक के निम्नताप परिरक्षण जैसी विधियाँ आती हैं।
♦ जैव-विविधता संकट को दूर करने के लिए एवं संरक्षण के लिए ‘प्राकृतिक संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ’ (International Union for Conservation of Nature, IUCN) कार्यरत है।
भारत में जैव-विविधता संरक्षण के लिए कई प्रयास
♦ भारत में जैव-विविधता संरक्षण के लिए कई प्रयास किए गए हैं।
♦ लुप्त होने के कगार पर पहुँचे वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए कई जंगलों को अभ्यारण्य घोषित किया गया है।
♦ इसके अतिरिक्त कई राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना की गई है।
♦ वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए कई कड़े कानून भी बनाए गए हैं, ताकि उनका गैर-कानूनी ढंग से शिकार को रोका जा सके।
जैव-विविधता संरक्षण क्यों?
♦ पृथ्वी की समृद्ध जैव-विविधता मानव जीवन के लिए प्राणाधार है।
♦ जैव-विविधता को संरक्षित करने के मुख्य कारण संकीर्ण रूप से उपयोग, व्यापक रूप से उपयोग तथा नैतिक हैं।
♦ पारितन्त्र से हमें प्रत्यक्ष लाभ जैसे- भोजन, रेशा, ईंधन, लकड़ी और औषधियों के अलावा बहुत से अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त होते हैं, जैसे कि परागण, पीड़क नियन्त्रण, जलवायु तथा बाढ़ नियन्त्रण आदि।
♦ पृथ्वी की जैव-विविधता की अच्छी तरह देखभाल करना तथा उसको अपनी अगली पीढ़ी को प्रदान करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है।
वन संरक्षण
♦ पर्यावरण सन्तुलन एवं मानव की वास्तविक प्रगति के लिए वन संरक्षण आवश्यक है।
♦ वृक्ष हमारे लिए कई प्रकार से लाभदायक होते हैं। जन्तुओं द्वारा छोड़े गए कार्बन डाइऑक्साइड को ये जीवनदायिनी ऑक्सीजन में बदल देते हैं।
♦ इनकी पत्तियों, छालों एवं जड़ों से हम विभिन्न प्रकार की औषधियाँ बनाते हैं। इनसे हमें रसदार एवं स्वादिष्ट फल प्राप्त होते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत लाभप्रद होते हैं।
♦ कुछ वृक्ष छायादार होते हैं, जिनकी छाया में पशु ही नहीं मानव भी चैन की साँस लेते हैं। जहाँ वृक्ष पर्याप्त मात्रा में होते हैं, वहाँ वर्षा की मात्रा भी सही होती है।
♦ वृक्षों की कमी सूखे का कारण बनती है।
♦ वृक्षों से पर्यावरण की खूबसूरती में निखार आता है।
♦  वृक्षों से प्राप्त लकड़ियाँ भवन निर्माण एवं फर्नीचर बनाने के काम आती हैं। इस तरह मनुष्य जन्म लेने के बाद वृक्षों एवं उनसे प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार की वस्तुओं पर निर्भर रहता है।
वन संरक्षण की आवश्यकता
♦ औद्योगीकरण के कारण वैश्विक स्तर पर तापमान में वृद्धि हुई है फलस्वरूप विश्व की जलवायु में प्रतिकूल परिवर्तन हुआ है। साथ ही समुद्र का जलस्तर उठ जाने के कारण कई देशों एवं शहरों के आने वाले वर्षों में समुद्र में जल-मग्न हो जाने की आशंका है। में
♦ जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भूमि प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यदि इस पर नियन्त्रण नहीं किया गया तो परिणाम अत्यन्त भयंकर होंगे।
♦ एन्वायरोन्मेन्टल डाटा सर्विसेज की मई 2008 की रिपोर्ट के अनुसार, लोगों एवं राष्ट्रों की सुरक्षा भोजन, ऊर्जा, पानी एवं जलवायु इन चार स्तम्भों पर निर्भर हैं। ये चारों एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं और ये सभी खतरे की सीमा को पार करने की कगार पर हैं।
♦ अपने अर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए मानव विश्व के संसाधनों का इतनी तीव्रता से दोहन कर रहा है कि पृथ्वी के जीवन को पोषित करने की क्षमता तेजी से कम हो रही है।
ऊर्जा संकट
♦ विकास के लिए हमें ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करना पड़ता है। पिछली शताब्दी में ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक दोहन हुआ है। जिस तरह इसका दोहन वर्तमान में हो रहा है, यदि इसी तरह इसका आगे भी दोहन होता रहा तो सन् 2050 के बाद पृथ्वी पर इन संसाधनों का अभाव हो जाएगा। ऊर्जा के संसाधनों की इसी कमी को ऊर्जा संकट कहा जाता है।
ऊर्जा के परम्परागत स्रोत
♦ कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, सूर्य, पवन, जल इत्यादि ऊर्जा के विभिन्न स्रोत हैं।
♦ कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस इत्यादि का प्रयोग कई सदियों से हो रहा है, इन्हें ऊर्जा के परम्परागत स्रोत कहा जाता है।
♦ ऊर्जा के ये परम्परागत स्रोत सीमित हैं। इन्हें जीवाश्म ईंधन भी कहा जाता है, इन्हें प्राकृतिक रूप से निर्मित होने में लाखों वर्षों का समय लगता है।
♦ जिस अनुपात में औद्योगीकरण में वृद्धि हो रही है, उससे यह अनुमान लगाया जाता है कि अगले 40-50 वर्षों के भीतर इन संसाधनों के समाप्त होने के आसार हैं।
ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत
♦ ऊर्जा संकट के संसाधन के लिए हमारे लिए इसके गैर-परम्परागत स्रोतों का विकास करना आवश्यक हो गया है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, भूतापीय ऊर्जा, इत्यादि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत हैं।
♦ केवल गैर-परम्परागत स्रोतों के विकास से ही ऊर्जा संकट का समाधान सम्भव नहीं है, हमें पारम्परिक ऊर्जा संसाधनों का भी संरक्षण करना होगा।
♦ परमाणु ऊर्जा का प्रयोग कर भी कोयला एवं खनिज तेल जैसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण किया जा सकता है। नाभिकीय विखण्डन के दौरान उत्पन्न ऊर्जा को नाभिकीय या परमाणु ऊर्जा कहा जाता है।
♦ ऊर्जा संकट की समस्या के समाधान के लिए आधुनिक ऊर्जा स्रोतों में जल विद्युत को भी विशेष महत्त्व दिए जाने की आवश्कता है। जीवाश्म ईंधन के विपरीत यह एक बार प्रयोग के बाद नष्ट नहीं होता। इसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत कहा जाता है।
जल-संकट
♦ वैसे तो पृथ्वी के धरातल का 71% भाग जल से भरा है, किन्तु इनमें से अधिकतर हिस्से का पानी खारा एवं पीने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर मनुष्य के लिए जितना पेय जल विद्यमान है, उनमें से अधिकतर अब प्रदूषित हो चुका है, इसके कारण ही पेय जल की समस्या उत्पन्न हो गई है। जिस अनुपात में जल प्रदूषण में वृद्धि हो रही है, यदि यह वृद्धि ऐसे ही होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाए। जल के अनुपलब्धता की इस स्थिति को ही जल-संकट कहा जाता है।
जल-संकट के कारण
♦ पृथ्वी पर जल के अनेक स्रोत हैं, जैसे वर्षा जल, नदियाँ, झील, पोखर, झरने, भूमिगत जल इत्यादि। पिछले कुछ वर्षों में सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग के कारण भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई है।
♦ सभी स्रोतों से प्राप्त जल मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं होता।
♦ औद्योगीकरण के कारण नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है। इन्हीं कारणों से पेय-जल की समस्या उत्पन्न हो गई है।
जल संरक्षण
♦ मनुष्य अपने भोजन के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति के पेड़-पौधे एवं पशु भी अपने जीवन के लिए जल पर ही निर्भर हैं। फसलों की सिंचाई, मत्स्य उद्योग एवं अन्य कई प्रकार के उद्योगों में जल की आवश्यकता पड़ती है। इन सब दृष्टिकोणों से भी जल की उपयोगिता मनुष्य के लिए बढ़ जाती है। जीवन के लिए सामान्य उपयोगिता एवं दैनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त जल ऊर्जा का भी एक प्रमुख स्रोत है। पर्वतों पर ऊँचे जलाशयों में जल का संरक्षण कर जल विद्युत उत्पन्न किया जाता है। देश के कई क्षेत्रों में विद्युत का यह प्रमुख स्रोत है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और हमारी कृषि वर्षा पर निर्भर करती है। वर्षा की अनिश्चितता के कारण कहा जाता है, कि भारतीय कृषि मानसून के साथ जुड़ा है। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए भी जल-संरक्षण आवश्यक है।
♦ नदियों के जल के प्रदूषण को कम करने के लिए नदियों के किनारे स्थापित उद्योगों पर सख्ती बरतने की आवश्यकता है। इन उद्योगों के अपशिष्टों को नदियों में बहाए जाने से रोकना होगा।
♦ शहरों की नालियों के गन्दे पानी को भी प्राय: नदियों में ही बहाया जाता है। इस गन्दे पानी को नदियों में जाने से पहले इनका उपचार करना होगा।
♦ कारखानों में गन्दे पानी के उपचार के लिए विभिन्न प्रकार के संयन्त्र लगाने होंगे। इन सबके अतिरिक्त जल-संचय एवं जल-प्रबन्धन को भी विशेष महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता है।
♦ जल के वितरण की उचित व्यवस्था करनी होगी। जहाँ तक सम्भव हो जल का वितरण पाइपों के माध्यम से ही करना चाहिए, ताकि भूमि जल को न सोखे एवं उसमें बाहरी गन्दगी का समावेश न हो।
♦ जल संचय हेतु नये जलाशयों का निर्माण करने के बाद उन्हें पक्का कर भी जल को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। खेतों में सिंचाई के नालों को पक्का कर भी जल संरक्षित किया जा सकता है। वर्षा के पानी के संरक्षण के लिए घरों की छतों पर बड़े-बड़े टैंक बनाए जा सकते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण
♦ पर्यावरण में सन्दूषकों (अपशिष्ट पदार्थों) को इस अनुपात में मिलना, जिससे पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ता है, प्रदूषण कहलाता है।
♦ प्रदूषण के कई रूप हैं—जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भूमि प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि। जल में अपशिष्ट पदार्थों का मिलना जल प्रदूषण, वायु में विषैले गैसों का मिलना वायु प्रदूषण, भूमि में रासायनिक अपशिष्टों का मिलना भूमि प्रदूषण एवं अत्यधिक शोर उत्पन्न होना ध्वनि प्रदूषण कहलाते हैं।
प्रदूषण के कारण
♦ उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट पदार्थ जल एवं भूमि प्रदूषण का तो कारण बनते ही हैं, साथ ही इसके कारण वातावरण में विषैली गैसों के मिलने से वायु भी प्रदूषित होती है।
♦ मनुष्य ने अपने लाभ के लिए जंगलों की तेजी से कटाई की है। जंगल के पेड़ प्राकृतिक प्रदूषण नियन्त्रक का काम करते है। पेड़ों के पर्याप्त संख्या में नहीं होने के कारण भी वातावरण में विषैली गैसें जमा होती रहती हैं, उनका निराकरण नहीं हो पाता।
♦ मनुष्य सामानों को ढ़ोने के लिए पॉलीथीन का प्रयोग करता है। प्रयोग के बाद इन पॉलीथीनों को यूँ ही फेंक दिया जाता है ये पॉलीथीन नालियों को अवरुद्ध कर देते हैं, जिसके फलस्वरूप पानी एक जगह जमा होकर प्रदूषित होते रहता है। इसके अतिरिक्त ये पॉलीथीन भूमि में मिलकर उसकी उर्वरा शक्ति को कम करते हैं।
♦ प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ ही मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता बढ़ी है। मोटर, रेल, घरेलू मशीनें इसके उदाहरण हैं। इन मशीनों से निकलने वाले धुएँ भी पर्यावरण के प्रदूषण के प्रमुख कारकों में से एक हैं।
पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणाम
♦ इसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ा है। आज मनुष्य का शरीर अनेक प्रकार की बीमारियों का घर बनता जा रहा है। खेतों में रासायनिक उर्वरकों के जरिए उत्पादित खाद्य-पदार्थ स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सही नहीं हैं।
♦ वातावरण में घुली विषैली गैसों एवं धुएँ के कारण शहरों में मनुष्य का साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है ।
♦ विश्व की जलवायु में तेजी से हो रहे परिवर्तन का कारण भी पर्यावरण असन्तुलन व प्रदूषण ही है ।
पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने के उपाय
♦ सतत् विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं में भी कटौती न हो। यही कारण है कि सतत् विकास अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप निरन्तर चलता रहता है। सतत् विकास में सामाजिक एवं आर्थिक विकास के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पर्यावरण भी सुरक्षित रहे ।
♦  पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए सबसे पहले तो हमें जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने की आवश्यकता है, क्योंकि जनसंख्या में वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से जीवन के लिए अधिक प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास में उद्योगों एवं अन्य कारणों से प्रदूषण में वृद्धि होती है।
♦ यदि हम चाहते हैं कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ सन्तुलित विकास भी हो तो इसके लिए हमें नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा तभी सम्भव है जब हम इसका उपयुक्त प्रयोग करें। उपभोक्तावादी संस्कृति पर नियन्त्रण किए बिना हम सतत् विकास की अवधारणा के अनुरूप कार्य नहीं कर सकते।
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