“परहित सरिस धरम नहि भाई” अथवा “मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिये मरे” (परोपकार)
“परहित सरिस धरम नहि भाई” अथवा “मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिये मरे” (परोपकार)
पाप और पुण्य की परिभाषा करना जटिल कार्य है। हम नित्य देखते हैं कि एक व्यक्ति जिस कार्य को पाप समझकर हेय दृष्टि से देखता है, दूसरा व्यक्ति उस कार्य को बड़ी रुचि और प्रसन्नता से करता हुआ पाया जाता है। वही कार्य एक के लिए पुण्य है और दूसरे के लिए पाप, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपनी रुचि और भावना के अनुसार पाप, और पुण्य की परिभाषायें दी हैं, परन्तु वे भी एक-दूसरे से नहीं मिलतीं । आधुनिक युग के परम प्रसिद्ध कवि श्री बच्चन जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि – “यह न समझो पाप मैं कुछ कर रहा हूँ, विश्व की एक माँग पूरी हो रही है । “
जब संसार में कुछ पाप ही नहीं तो फिर पाप और पुण्य की परिभाषा कैसी ? परन्तु वेदव्यास जी ने इस ग्रन्थि को सूक्ष्म शब्दों में बहुत पहले ही सुलझा दिया था। उन्होंने लिखा है –
“अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम |
परोपकारः पुण्याय:, पापाय परपीडनम् ।”
व्यास जी ने अट्ठारह पुराणों की रचना की थी, परन्तु उन सब का सार उन्होंने केवल दो. शब्दों में कह दिया कि पुण्य के लिए परोपकार और पाप के लिए परपीडन । अर्थात् परहित साधन ही पुण्य और दूसरों को कष्ट देना ही पाप है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अग्र पंक्तियों में धर्म-अधर्म की व्याख्या करते हुए एक महान् विश्व धर्म की स्थापना की है –
“परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥”
अर्थात् परोपकार के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है कहने का तात्पर्य यह है कि इस संसार में ‘स्व’ और ‘पर’ का विभेद ही सांसारिक माया है। हम अधिकांश कार्य अपने ही लिये करते हैं, परन्तु ‘स्व’ की संकुचित सीमा से निकलकर ‘पर’ के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करना ही सच्ची मानवता है। यही धर्म है और यही पुण्य है । आत्मिक सुख और जीवन की शान्ति के लिए परोपकार परम आवश्यक है। रहीम ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है –
“यों रहीम सुख होत है उपकारी के संग ।
बाँटन बारे के लगे ज्यों मेंहदी को रंग ॥”
प्रकृति पदार्थ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देती है । पृथ्वी अपने प्राणों का रस निचौड़ कर हमारा पेट भरती है। भर्तृहरि ने निम्नलिखित पंक्तियों में स्पष्ट कहा है –
“पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भ:
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।
नादन्ति शस्यम् खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः ॥”
अनन्त जल-राशि का भार वहन करती हुई नदियाँ अपने जीवन के प्रभात से सन्ध्या तक अनवरत रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान तक आजीवन प्रवाहित होती रहती हैं, क्यों ? केवल दूसरों के कल्याण के लिए। आँधी और तूफानों के अत्याचारों को वृक्ष मौन होकर सह लेते हैं, क्यों? वे सोचते हैं कि सम्भवतः कभी वह दिन भी आयेगा जब थके-मादे मुसाफिरों को हम अपनी छाया प्रदान कर तथा क्षुधातों को अपने मधुर फल देकर अपना जीवन सफल कर सकेंगे। मेघों ने घरिणी से प्रत्युपकार में कभी अन्न की याचना नहीं की, युग-युग से वे इसी प्रकार जल भर कर लाते हैं और धरिणी के अंचल को आर्द्र करके एक बार फिर लौट जाते हैं, परन्तु प्रतिदान का शब्द कभी उनके मुख तक नहीं आया। मैथिलीशरण गुप्त ने एक स्थान पर ऐसा ही कहा है –
“निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी ।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी ॥”
भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव-मात्र की कल्याण-भावना निहित है। यहाँ जो कुछ भी कार्य होते थे वे सदैव “बहुजनहिताय” और “बहुज़नसुखाय” की दृष्टि से होते थे। यही संस्कृति भारतवर्ष की आदर्श संस्कृति रही है। इस संस्कृति की मूल भावना “वसुधैव कुटुम्बकम्” के पवित्र उद्देश्य पर आधारित थी । इसीलिए भारतीय ऋषियों ने विश्व कल्याण की कामना करते हुए लिखा था –
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत ।”
अर्थात् सब सुखी हों, सब निरोग हों, सबका कल्याण हो, किसी को भी दुःख प्राप्त न हो । ऐसी पुनीत भावनायें भारतवर्ष में सदैव प्राप्त होती रही हैं। वास्तव में परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है और न पुण्य ।
जीवन के दैनिक कृत्य जिन्हें हम करते हैं, उन्हें पशु-पक्षी भी बड़ी तल्लीनता से करते हैं, क्या भोजन और क्या शयन ? हम भी अपने अधिकारी से भयभीत रहते हैं और वे भी अपने स्वामी से डरते हैं। हमारी गृहस्थी भी आगे बढ़ती है और उनकी भी । वे भी अपने हित अहित से परिचित होते हैं और हम भी । जैसा कि इन पंक्तियों में कहा गया है –
“आहारनिद्राभयमैथुनञ्च, सामान्यमेततु पशुमिर्नराणाम् ।”
मनुष्य और पशु में यदि कोई अन्तर है तो यह है कि पशु परहित की भावना से शून्य होता है। वह जानता ही नहीं किसी को खिलाना भी चाहिए । पशु के जितने भी कार्य होते हैं वे सभी अपने तक ही सीमित रहते हैं। हम देखते हैं कि एक गाय के दो बछड़े हैं, परन्तु वे अपने भोजन में से एक-दूसरे को नहीं खाने देते। कुत्ता अपनी ही आत्मा से उत्पन्न हुये अपने बच्चे को रोटी के टुकड़े के ऊपर झकझोर डालता है और खाने नहीं देता। अब आप स्वयं ही विचार करें कि यदि मनुष्य भी मनुष्य के साथ ऐसा ही व्यवहार करने लगे तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर ही क्या रहा गुप्त जी कहते हैं—
“यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे । “
मानवता का उद्देश्य और मानव जीवन की सार्थकता, केवल इसी में है कि वह अपने कल्याण के साथ दूसरों के कल्याण की भी सोचे । उसका कर्त्तव्य है कि स्वयम् उठे और दूसरों को भी उठाए । आर्त और दीन की करुणा भरी पुकार से, बड़ी-बड़ी आँखों में छलकते हुये आँसुओं से, अशक्त और असहाय की याचनापूर्ण करुणा दृष्टि से, जिसका हृदय द्रविभूत न हुआ, तृप्ति और भूखों को अपने भूखे पेट पर हाथ फिराते हुये देखकर जिसने अपने सामने रखा हुआ भोजन नहीं दे दिया, अपने पड़ौसी के घर में लगती हुई आग को देखकर जो उसकी रक्षा के लिये एकदम न कूद पड़ा, कल की दमकती हुई चुनरी और सुहाग भरी चूड़ियों को उतरते और फूटते देखकर जिसका हृदय विदीर्ण नहीं हुआ, नदी की निष्ठुरता के कारण बहते हुए शिशुओं और रोती हुई माताओं को देखकर उनकी प्राण रक्षा के लिए जो सहसा जलराशि में कूद न पड़ा, वह मनुष्य नहीं पशु है। तुम्हारे पास यदि धन है तो निर्धनों की सहायता करो, यदि शक्ति हैं तो अशक्तों को अवलम्ब दो, यदि विद्या है तो वाद-विवाद मत करो, अपितु उसको अशिक्षितों में वितरित करो, सच्चे मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकेंगे। मानव जीवन का उद्देश्य केवल इतना ही नहीं कि खाओ, पीओ और मस्त रहो । गोस्वामी जी लिखते हैं –
“एहि तन कर फल विषय न भाई, सब छल छांड़ि भजिय रघुराई । ”
अर्थात् इस जीवन का केवल यही उद्देश्य नहीं है कि मनुष्य अपने को विषय वासनाओं में व्यस्त कर दे, अपितु निष्कपट होकर भगवत् स्मरण करे । भगवद् भजन भी तभी सफल हो सकता है जब आप उस परमेश्वर की सन्तान की “आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः” का सिद्धान्त लेकर सहानुभूति, सहयोग और संवेदना के साथ सेवा करेंगे । अतः परहित साधना ही मनुष्यता है, यही सबसे बड़ा भगवद् भजन है। किसी पाश्चात्य कवि ने भी लिखा है—“The best way to pray to God is to love His creation.” कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनका न कोई स्वार्थ है और न कोई लाभ, फिर भी वे दूसरे के कार्य में विघ्न अवश्य डाल देते हैं। भर्तृहरि कहते हैं कि वे कौन हैं मैं नहीं जानता –
“येनिध्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमेह ।”
त्याग और बलिदान सदैव भारतीय संस्कृति के मूलाधार रहे हैं। इस पवित्र भूमि पर ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ जिन्होंने मानव-कल्याण के लिये अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया । आज भी सरस्वती उनका यशोगान गा रही है । वृत्रासुर राक्षस का विनाश महर्षि दधीचि की अस्थियों से विनिर्मित अस्त्र से ही सम्भव था । देवताओं ने इन्द्र की अध्यक्षता में, दधीचि से प्रार्थना की और उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली । रन्तिदेव ने क्षुधातुर को द्वारस्थ देखकर अपने सामने से थाल उठाकर दे दिया –
“परार्थ रन्तिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि जाल भी।”
राजा शिवि को देखिये, बाज के आक्रमण से भयभीत कपोत, त्राण प्राप्ति की इच्छा से उनकी गोद में आ बैठा। बाज वहाँ भी आ पहुँचा और महाराज के सामने दो शर्तें रक्खीं कि या तो आप मेरा शिकार लौटा दीजिए या फिर उसके बराबर मुझे अपना मांस दे दीजिए । शिवि ने तराजू से तौलकर कबूतर के बराबर अपने शरीर का माँस दे दिया। एक बार महाकवि निराला किसी यात्रा से लौट रहे थे, मार्ग में एक भिखारिन वृद्धा मिली। इस वृद्धा ने निराला जी को बेटा ! सम्बोधन करके भीख माँगी । निराला जी बहुमूल्य शाल ओढ़े हुए थे, वृद्धा कुछ नग्न थी, शीत का समय था । निराला जी ने अपना शाल उसे उढ़ा दिया। महाकवि निराला जी का तो समस्त जीवन ही परमार्थ की कहानी है, उन्होंने अपने लिये कभी कुछ संचित नहीं किया।
यदि भारतवर्ष में चिरकाल से परहित साधना की भावना प्रवाहित होती न चली आती, मनुष्य यदि अपने संकुचित “स्व” में ही कूप-मण्डूक की भाँति सीमित रहता तो निश्चय ही मानवता रसातल को चली गई होती। आज भी, जबकि महायुद्ध की विभीषिकायें अपने मृत्यु संगीत से सृष्टि को श्मशान का रूप देने के लिए उत्सुक हैं, भारतवर्ष पंचशीलं, आदि सिद्धान्तों द्वारा विश्व की सहानुभूतिपूर्ण परिचर्या में व्यस्त है। इस बात की आवश्यकता है कि मानव स्वार्थभावना का परित्याग करके “वसुधैव कुटम्बकम्” के सिद्धान्त पर चलता हुआ मानवता के कल्याण के लिये प्रयत्न करे। तभी हम उदार चरित्र वाले कहे जा सकते हैं। जब तक जन-जन में और व्यष्टि व्यष्टि में इस मूल मन्त्र का प्रवेश न होगा, तब तक राष्ट्र न सुखी हो सकता है, न समृद्ध ही ।
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