परमाणु शक्ति पर मानव विजय
परमाणु शक्ति पर मानव विजय
आज का युग परमाणु युग है। यह नाम इसके नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों के आधार पर दिया गया है। इसी प्रकार पिछले समय को भी, जब मनुष्य ने पत्थर के औजारों का आविष्कार किया तो पाषाण युग और लोहे के शस्त्रों का आविष्कार किया तो लोह-युग कहते थे । आदिकाल से समय का चक्र निरन्तर निर्विरोध गतिशील है। मानव मान्यतायें एवम् विचारधारा तथा मानव सभ्यता व संस्कृति, जिनके आवश्यक पूरक तत्व हैं- विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान समय के साथ-साथ परिवर्तनशील रही है— स्वभाव से ही मानव चिन्तनशील प्राणी, जो समय-समय पर भाँति-भाँति की कल्पनायें करता है। बहुधा मानव-कल्पना नितान्त काल्पनिक प्रतीत होती है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि सदैव मानव का कर्म असम्भव लक्ष्य को सम्भव करना रहा है। उसी असम्भव कही जाने वाली कल्पना को मानव अपने परिश्रम से सम्भव बना देता है और कल्पना को केवल कल्पना के आवरण में से निकालकर वास्तविकता का स्वरूप प्रदान करने का सफल प्रयास करता है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक वेत्ता एल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने अनुभव व प्रयोग के आधार पर भविष्यवाणी की थी कि पदार्थ को ऊर्जा में और ऊर्जा को पदार्थ में द्रव्य ऊर्जा समीकरण (E =mc2) द्वारा परिवर्तित करना सम्भव है । उनका विश्वास था कि विशेष प्रकार के एक औंस ईंधन से पन्द्रह लाख टन कोयले की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। वह शक्ति अणु की शक्ति थी । द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में इस विज्ञानवेत्ता ने अपनी पूर्व धारणाओं को पुनः स्पष्ट किया और इस तर्क का जोरदार समर्थन किया कि एटमबम बनना सम्भव है, पर इसके लिये कुछ विशेष धातुओं के साथ विशेष प्रक्रिया द्वारा जल की आवश्यकता थी, जिसे हैवी वाटर (Heavy water) के नाम से पुकारा जाता था (संसार में उस समय नार्वे में ही एकमात्र ऐसा संयंत्र था, जोइस जल तत्व का उत्पादन कर रहा था।
वैज्ञानिकों के समक्ष ऊर्जा प्राप्त करने की विकट समस्या थी, जिसका उचित समाधान खोजने के लिये वे आतुर थे । यद्यपि पत्थर के कोयले, लकड़ी के ईंधन, मिट्टी के तेल और जल-प्रपातों से विद्युत उत्पन्न करके उसे प्राप्त किया जा रहा था, फिर भी एकान्त के क्षणों में जब वैज्ञानिक सोचता है कि यदि वे स्रोत समाप्त हो गये, क्या होगा? वह चिन्तित हो जाता था। सर्वप्रथम इस क्षेत्र में पदार्पण किया जर्मनी ने। आरम्भ में जर्मनी को सफलता मिली, लेकिन युद्ध के दौरान जर्मन वैज्ञानिक केवल परीक्षात्मक सफलता ही प्राप्त कर सके। उनका अथक परिश्रम व्यवहारिक सफलता की मंजिल तक ले जाने में असफल रहा। लेकिन उद्देश्यपूर्ण परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। जर्मनी के परीक्षणों से एक महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध हुई, जो बाद में बम निर्माण का अनिवार्य सिद्धान्त माना गया । ( यूरेनियम के नाभिक में अपार शक्ति संचित है तथा विखण्डन क्रिया यूरेनियम के परमाणु पर एक न्यूट्रॉन (neutron) के प्रहार से यूरेनियम का नाभिक दो भागों में विभक्त हो जाता है और अपार शक्ति के साथ दो अन्य न्यूट्रॉन को जन्म देता है) । विज्ञान वेत्ता एल्बर्ट आईंस्टीन से प्रेरणा पाकर तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेंकलीन डॉ० रुजवेल्ट ने इस दिशा में कार्य करने का ऐतिहासिक निर्णय किया । आरम्भ में कार्य हेतु ६ हजार डालर की राशि के लिये गुप्त-प्रतिरक्षा कोष से आवश्यक अनुदान की व्यवस्था करने की स्वीकृति दी गयी । परिणामस्वरूप सन् १९४० में एकं समिति का गठन किया गया, जिसमें विश्व विख्यात वैज्ञानिक नील्स बोर, एनरिको फर्मि और डॉ० रोबर्ट ओपेनहाइमर विशेष उल्लेखनीय थे । विश्व – विख्यात भौतिक विज्ञान-वेत्ता डॉ० रोबर्ट ओपेनहाइमर को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जो परमाणु बम का जनक माना जाता है। जर्मनी के अतिरिक्त यूरोप और अमेरिका के प्रमुख वैज्ञानिक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसी महान् कार्य से सम्बन्धित थे । अन्त में वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम व सामूहिक प्रयासों के सम्मुख निराशा को आत्मसमर्पण करना पड़ा। परमाणु में अतिनिर्हित महाशक्ति के विकास की विधि का उद्भव किया और १३ जौलाई, १९४५ को एलामोगेडरो रेगिस्तान में बम का परीक्षण कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। ठीक पाँच बजकर तीस मिनट पर इस ऐतिहासिक दिवस की सवेरे चकाचौंध ज्वाला के साथ गगन भेदी विस्फोट हुआ (ज्वाला की तीव्रता सूर्य से भी अधिक थी)। कुकुरमुत्ते के आकार का एक विशालकाय बादल उठा, जो लगभग ४००० फुट ऊँचा था । ९ मील तक झुलसाने वाली गर्मी थी और एक मील की त्रिज्या के अन्दर जीव-जन्तु काल के दुःख़द शिकार हो चुके थे। परीक्षण की सफलता से प्रोत्साहित होकर मानव ने मानव का संहार करने हेतु दो बमों का निर्माण करने का निश्चय किया । ६ अगस्त, १९४५ का दिवस वह करुण दिवस है, जो मानव के अविवेक और विजय के उन्माद से संहार की प्रबल इच्छा की अमिट छाप करोड़ों हृदयों पर छोड़ गया। मित्रराष्ट्रों ने जापान के सम्पन्न नगर हिरोशिमा पर पहला बम गिराकर समस्त संसार को स्तब्ध कर दिया। बम का प्रलयकारी प्रभाव हुआ और तीन लाख जनसंख्या का नगर क्षण भर में नष्ट-भ्रष्ट हो गया। एक बम के दृश्यों से पिपासा शान्त न हुई, बल्कि विजय-वाहिनी को शीघ्रातिशीघ्र आलिंगन करने के मद में ९ अगस्त को दूसरा बम नागासाकी पर गिराया गया। विज्ञान ने मानव के आत्मबल एवं आत्मविश्वास पर घातक प्रहार किया। मानव की क्रूरता के सम्मुख मानव के साहस व शौर्य को पराजित होना पड़ा। परिणामस्वरूप आत्मिक शक्ति का धनी जापान भौतिक दृष्टि से शक्तिहीन हो गया और पतन को अवश्यम्भावी जानकर आत्मसमर्पण करने का अन्तिम विकल्प स्वीकार करने को वह विवश हुआ ।
हिरोशिमा तथा नागासाकी पर बम गिरने से समस्त विश्व अत्यधिक भयभीत व क्षुब्ध हो उठा। विध्वंसकारी परिणामों से केवल साधारण नागरिक ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक भी चिन्तित थे । बम की ध्वंसलीला से बम के जन्मदाता डॉ० रोबर्ट ओपेनहाइमर की अन्तरात्मा अनुताप की तीव्र ज्वाला में दग्ध होने लगी। विश्वबन्धुत्व की भावना से ओतप्रोत मानवता के इस अनुपम सेवक ने स्वयं को निर्दोष व्यक्तियों की शोचनीय मृत्यु का उत्तरदायी मानकर अपने पद से त्याग-पत्र देकर मानव-प्रेम का अमर सन्देश दिया। अफसोस ! विनाशकारी अस्त्रों की भूख का भूखा मानव उस मानवता के पुजारी का निःस्वार्थ त्याग अपने स्वार्थों में भूल गया । जनमत के प्रबल विरोध के बावजूद कुछ राष्ट्र अपनी सुरक्षा की ओट में तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के एकाधिकार की समाप्ति के बहाने इसके निर्माण कार्य में संलग्न रहे । सोवियत संघ प्रथम राष्ट्र था, जिसने १९४९ में परमाणु बम का सफल परीक्षण करके अमेरिका के एकाधिकार की चुनौती को समाप्त किया । इंगलैण्ड ने १९५२ में तथा फ्रांस ने १९६० में सहारा के मरुस्थल में सफल परीक्षण करके परमाणु बम क्लब की सदस्यता प्राप्त की और अप्रत्यक्ष रूप से आणविक दौड़ को प्रोत्साहित किया । १९६४ अक्टूबर माह में जनवादी चीन ने अणु परीक्षण करके साम्यवादी शिविर में अराजकता को जन्म दिया और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपनी वैज्ञानिक प्रतिमा के माध्यम से प्रभावित करने का प्रयास किया। अमेरिका ने एक कदम और आगे बढ़ाया। नवम्बर १९५२ में उसने हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण करके संहारक शक्ति में वृद्धि की । इस बम की संहारक शक्ति हिरोशिमा पर गिराये गये बम की संहारक शक्ति से एक सौ पचास गुना अधिक थी । सोवियत संघ भी निरन्तर जटिल बाधाओं के विपरीत प्रगतिशील था । १९५६ में हाइड्रोजन बम का परीक्षण करके सोवियत संघ ने इस धारणा को जन्म दिया कि अमेरिका व सोवियत संघ में आणविक दौड़ आरम्भ हो चुकी है, जो भावी विनाशकारी घटनाओं का केवल संकेत मात्र ही नहीं है, बल्कि मानव सभ्यता का अन्तिम चरण प्रतीत होती है ।
परमाणु बम में तो भारी परमाणुओं को तोड़कर ऊर्जा प्राप्त की जाती थी, किन्तु हाइड्रोजन बम में छोटे परमाणुओं को परस्पर सम्मिलित करके परमाणु बनाया जाता है और इस प्रक्रिया में और भी अधिक ऊर्जा मुक्त हो जाती है । इन शस्त्रों का प्रयोग बहुत ही अमानुषिक और भयंकर होता है। इनसे केवल निरीह और निरपराध लोग ही नहीं मारे जाते या घायल होते हैं, अपितु पशु-पक्षी भी काल कलवित हो जाते हैं। जो लोग तुरन्त मर जाते हैं वे सस्ते छूट जाते हैं. परन्तु घायल व्यक्तियों का जीवन बड़ा कष्टमय होता है। साथ ही साथ जिन मनुष्यों पर तुरन्त ही कोई स्पष्ट प्रभाव नहीं होता वे रेडियो सक्रिय कणों के स्पर्श के कारण भयानक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। परमाणु बम के विस्फोट के पश्चात् उसकी रेडियो सक्रिय धूल सारे संसार में फैल जाती है और यह प्राणि मात्र के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है।
यह नितान्त सत्य है कि ये परमाणु शस्त्र जितने भी देशों के पास अधिक होंगे उतना ही विश्व का भय बढ़ता जायेगा। परमाणु युद्ध के विजित और विजेता समान रूप से नष्ट हो जायेंगे। इन युद्धों में केवल मानव सभ्यता ही नष्ट नहीं होगी, अपितु समस्त मानव जाति ही नष्ट हो जायेगी । अतः आज के वैज्ञानिक एक स्वर से यह माँग कर रहे हैं कि परमाणु शस्त्रों पर प्रतिबन्ध लगाना अत्यन्त आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में जेनेवा में आणविक शस्त्रों के प्रसार को सीमित करने व निःशस्त्रीकरण जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श हुआ, लेकिन अभी तक आशातीत समाधान की दिशा में प्रगति नगण्य ही रही है। त्रस्त मानवता को कुछ राहत का अनुभव होना स्वाभाविक था। आणविक शस्त्रों की भयंकरता को कम करने के उद्देश्य से मास्को में एक सन्धि सम्पन्न हुई, तो प्रस्तावित सन्धि के अन्तर्गत वायु व जल परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव किया गया और केवल भूमिगत परीक्षणों की ही अनुमति दी गई। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक राष्ट्र इस सन्धि का निष्ठा से पालन करें तथा ऐसा पारस्परिक सद्भाव का वातावरण तैयार करने में सहयोग दे, जिसमें आणविक भय से सदैव- सदैव के लिए मानवता मुक्त हो सके।
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