पंचायती राज विधेयक, १९८९

पंचायती राज विधेयक, १९८९

          भारतीय प्राचीन सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक न्याय और सामाजिक समता का मेरुदण्ड पंचायत व्यवस्था थी । यह वह व्यवस्था थी जिसके द्वारा समाज के प्रत्येक प्राणी को समान न्याय मिलता था, सबको सम्मानपूर्वक जीवन यापन का मार्गदर्शन मिलता था, सब एक-दूसरे को सहारा देकर आगे बढ़ाते थे, परम्परावलम्ब और सहानुभूति पुष्पित होती थी । न धनवान का क्रूर अंकुश निर्धन पर था और न निर्धन का निराशापूर्ण आतंक धनवान पर । राजा भी पंचायतों के निर्णय को शिरोधार्य करता था और निर्धन भी । इसलिये भारतीय सामाजिक व्यवस्था विश्व के पटल पर एक आदर्श और अनुकरणीय व्यवस्था मानी जाती थी।
          पाँच पंचों में, जनता परमेश्वर के दर्शन करती थी इसीलिए उन्हें “पंच- परमेश्वर” कहा जाता था। भारतीय संस्कृति की मान्यता थी कि जिस प्रकार घोषित विधेयक की मुख्य परमेश्वर के विधान और निर्णय सत्य और विशेषतायें । ६. उपसंहार । अपरिवर्तनीय होते हैं वैसे ही पंच परमेश्वर के भी निर्णय सत्य और कल्याणकारी होते हैं उन्हें बदला भी नहीं जा सकता। शनैः शनैः विकास और भौतिकता, विज्ञान और तर्कहीन तथाकथित ज्ञान, वैभवशालीनता की मृग मरीचिका ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को झकझोरना प्रारम्भ कर दिया | साम्राज्यवाद और दासता ने अग्नि में घी का काम किया और वह आदर्श व्यवस्था और पवित्र प्रणाली समाप्त नहीं तो समाप्त प्रायः अवश्य हो गई ।
          भारत भूमि पर महात्मा गाँधी की अवधारणा ने भारतीय पुरातन संस्कृति को एक बार फिर संजीवनी प्रदान की | गाँधी जी ने जहाँ एक ओर स्वतन्त्रता प्राप्ति की लड़ाई लड़ी वहीं दूसरी ओर गाँवों में बसे भारत के सामाजिक एवं आर्थिक अभ्युत्थान के लिये भी संघर्ष किया। गाँधी जी ने स्वतंत्र भारत में पंचायती राज व्यवस्था की परिकल्पना और उसके सुचारु सम्पादन की अनिवार्यता पर. यावज्जीवन बल दिया । गाँधी जी से निर्देशित और अनुप्रेरित कांग्रेस ने पंचायती राज व्यवस्था को अपने नीति निर्देशक सिद्धान्तों में ग्रहण किया । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान निर्माण के समय पं० जवाहरलाल नेहरू ने पंचायती राज व्यवस्था की अपरिहार्यता पर विशेष बल दिया। फलस्वरूप संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान में पंचायती राज व्यवस्था को स्वीकार किया । फलस्वरूप देश में पंचायत राज अधिकारियों और पंचायत सचिवों की प्रान्तीय स्तर पर नियुक्तियाँ हुईं । प्रारम्भ में ऐसा लगा कि महात्मा गाँधी का राम राज्य स्वप्न साकार होने जा रहा है, गाँवों में बसी भारत की आत्मा शायद फिर से जी उठे । परन्तु विकासवाद की दौड़, विज्ञान के उत्कर्ष, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना, युद्धोपकरणों का निर्माण, और युद्ध जन्य विभीषिकाओं की सुरक्षा की तीव्र गति ने महात्मा गाँधी की इस आदर्श व्यवस्था को मन्थर गति प्रदान कर दी । इन्दिरा जी के शासन काल में इस दिशा में जीवनोन्मेष अवश्य हुआ परन्तु वांछित फल प्राप्ति संदिग्ध रही । हालांकि इन्दिरा जी के कार्य काल में देश ने अद्वितीय गौरव प्राप्त किया और देश चरमोत्कर्ष पर था।
          समान सामाजिक न्याय; समान आर्थिक सहायता वितरण और गरीबी की रेखा से नीचे दबे लोगों को सुखद जीवन बिताने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई ‘जवाहर रोजगार योजना’ में बिना भ्रष्टाचार के सभी सहभागी बन सकें आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिये अखिल भारतीय काँग्रेस (इ) की कार्य समिति द्वारा प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की अध्यक्षता में दिनांक ९ मई, १९८९ को निर्णय लिया तथा प्रस्ताव रक्खा गया कि संविधान में एक नया अध्याय जोड़कर निचले स्तर पर लोकतन्त्र की जड़ों को फैलाया जाये । कार्य समिति ने सरकार को संस्तुति भेजी कि वह देश के लोकतान्त्रिक ढाँचे में पंचायतों को उनका योग्य दर्जा दिलाने के लिये संविधान संशोधन विधेयक लाये। पंचायती राज संस्थाओं को अधिकार देने के लिये संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाये। कार्य समिति ने ग्राम, ब्लॉक और जिला स्तर पर तीन स्तरीय पंचायत राज प्रणाली अपनाने, इनको आर्थिक एवं सामाजिक विकास की योजनायें बनाने के लिए पर्याप्त कानूनी अधिकार देने तथा हर पाँचवें वर्ष इन संस्थाओं के चुनाव कराने की संस्तुति की । कार्य समिति ने यह भी सिफारिश की कि पंचायती राज संस्थानों में आबादी के आधार पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिया जाये तथा महिलाओं के लिये स्थान आरक्षित कर ‘ऐतिहासिक कदम’ उठाये जायें क्योंकि महिलायें ग्रामीण भारत के आर्थिक जीवन से गहरे रूप से जुड़ी हुईं  है I
          १० मई, १९८९ को अखिल भारतीय काँग्रेस (इ) महासमिति का अधिवेशन हुआ तथा कार्य समिति के प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया । तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने इस अधिवेशन को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इस विधेयक के आधार पर आठवीं योजना में काम शुरू हो जायेगा तथा नौवीं योजना में इसे पूरी तरह लागू कर दिया जायेगा । अखिल भारतीय कांग्रेस (इ) कमेटी की महासमिति में पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने तथा उसे हर गाँव तक पहुँचाने के लिये संविधान में व्यापक संशोधन करके उसमें एक नया अध्याय जोड़ने की निम्नलिखित १३ सूत्री सिफारिश थी—
          १. पंचायती राज को संवैधानिक जनादेश प्रदान करने के लिए संविधान में एक नया भाग अंगीकार करना ।
          २. कम क्षेत्र वाले राज्यों या कम आबादी वाले राज्यों, जहाँ द्विस्तरीय ढाँचा पर्याप्त हो सकता है, को छोड़कर सम्पूर्ण देश में पंचायती राज त्रिस्तरीय ढाँचा स्थापित करना।
          ३. चुनाव आयोग के नियन्त्रण एवम् पर्यवेक्षण के अधीन सभी स्तरों पर पंचायती राज संस्थाओं के हर पाँच वर्ष में नियमित अनिवार्य चुनाव कराना ।
          जिस पंचायत राज संस्था को भंग कर दिया हो, उसे शेष कार्यकाल पूरा करने के लिए ६ महीनों के भीतर चुनाव द्वारा अवश्य पुनर्गठित किया जाये ।
          ४. पंचायती राज संस्थाओं में सभी स्थान सामान्य वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव द्वारा भरे जायेंगे । इन संस्थाओं में निम्नलिखित का प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के तरीके राज्य विधान मण्डलों द्वारा निर्धारित किये जायें –
          (क) सांसदों एवम् विधायकों का ।
          (ख) पंचायत राज संस्थाओं में तत्काल उच्च स्तर अर्थात् खण्ड तहसील, तालुका अंचल स्तर पर ग्राम पंचायतों के अध्यक्ष अर्थात् सरपंच, मुखिया, ग्राम प्रमुख आदि ।
          (ग) जिलास्तरीय संस्था में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं में अध्यक्ष और सहकारी संस्थाओं एवम् लीड बैंकों जैसी संस्थाओं के प्रतिनिधि पंचायती राज संस्थाओं के सभी स्तरों पर केवल चुने हुए सदस्यों द्वारा उनमें से भी सभी पदाधिकारियों का चुनाव किया जाये। जहाँ राज्य के विधान मण्डल ऐसा चाहें ग्राम पंचायत का अध्यक्ष निर्वाचक मण्डल द्वारा सीधे चुना जा सकता है।
          ५. लोक सभा एवम् विधान सभा की भाँति सम्बद्ध पंचायती राज संस्थाओं के प्रादेशिक अधिकार क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के हिस्से के अनुपात में अनुसूचित जातियों एवम् अनुसूचित जन-जातियों के प्रतिनिधियों के लिये कम से कम एक स्थान के लिये स्थान आरक्षित किये जायें। इन प्रतिनिधियों को इसके लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में व्यापक मताधिकार द्वारा प्रजातान्त्रिक रूप से चुना जाये न कि इन्हें नामांकन या सहयोजन द्वारा नियुक्त किया जाये ।
          ६. सभी पंचायती राज संस्थाओं में कम से कम ३० प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए अवश्य आरक्षित किये जायें। सभी महिला प्रतिनिधियों का इस प्रयोजन के लिये आरक्षित प्रादेशिक चुनाव क्षेत्रों में वयस्क मताधिकार द्वारा प्रजातान्त्रिक रूप से चुनाव किया जाये, न कि उन्हें नामांकन या सहयोजन द्वारा नियुक्त किया जाये । अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कोटे में से ३० प्रतिशत स्थान या कम से कम एक स्थान के लिए इन समुदायों सम्बन्धी महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाये ।
          सामान्य चुनाव क्षेत्रों और आंरक्षित चुनाव क्षेत्रों से महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की कुल मिलाकर संख्या का निर्वाचित स्थानों के प्रस्तावित ३० प्रतिशत आरक्षण के भीतर समावेश किया जाये।
          ७. न्याय पंचायत,निर्दिष्ट विषयों सम्बन्धी शक्तियों, अधिकारों तथा जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं को अवश्य सौंपी जानी चाहिए। इसके साथ-साथ उन संस्थाओं को आर्थिक साधनों की सुनिश्चित सुपुर्दगी की व्यवस्था भी होनी चाहिए तथा उनमें वित्तीय जिम्मेदारी का गहरा एहसास पैदा किया जाना चाहिए । इस प्रकार सभी स्तरों पर पंचायती राज संस्थायें निम्नलिखित बातों के लिए जिम्मेदार होंगी-
          (क) राज्य सरकार द्वारा दिये गये सामान्य मार्ग निर्देशों की रूप-रेखा में अपने-अपने कार्य क्षेत्रों के अन्दर आर्थिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन के लिये योजना के मसौदे तैयार करना । योजनाओं के ये मसौदे उच्चतर स्तरों पर योजना तैयार करने तथा उसे अन्तिम रूप देने के लिए मूल उपयोगी साधन होंगे।
          (ख) निर्दिष्ट शर्तों पर अपने अधिकार क्षेत्रों में आने वाली विकास परियोजनाओं, कार्यक्रमों तथा योजनाओं का कार्यान्वयन ।
          ८. सौंपी गई शक्तियों तथा आर्थिक साधनों का पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों तथा पदाधिकारियों के नियन्त्रण में रहना अनिवार्य होगा। उन्हें इस प्रणाली के बाहर के प्राधिकारियों को स्थानान्तरित नहीं किया जाना चाहिए। सभी विकास एजेन्सियों तथा विकास से सम्बद्ध अधिकारी को अनिवार्य रूप से पंचायती राज प्रणाली में लगाया जाना चाहिए ।
          ९. पंचायती राज संस्थाओं को मज़बूत अर्थव्यवस्था सुपुर्दगी का मूलभूत सिद्धान्त है। अर्थ प्रबन्ध निम्नलिखित से सुनिश्चित किया जाना चाहिए –
          (क) निर्दिष्ट कर लगाने, वसूल करने तथा प्राधिकार उपयोग में लाने का अधिकार ।
          (ख) इन्हें निर्दिष्ट करों में से राजस्व प्रदान करना ।
          (ग) सहायता अनुदान ।
          १०. हालांकि शक्तियों तथा आर्थिक साधनों की सुपुर्दगी से सम्बन्धित कानून बनाने की जिम्मेदारी राज्य के विधान मण्डलों के पास रहेगी परन्तु राज्य वित्तीय आयोग की स्थापना के लिए संवैधानिक प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए जिससे कि उन सिद्धान्तों की सिफारिश की जा सके जिनके आधार पर पंचायती राज संस्थाओं की मजबूत अर्थव्यवस्था सुनिश्चिा की जा सके ।
          ११. यह सुनिश्चित करने के लिये बड़ी धनराशियाँ जो पंचायती राज संस्थाओं को उपलब्ध होंगी का उचित उपयोग किया जाये और भ्रष्टाचार अथवा भाई-भतीजावाद न हो, लेखा प्रक्रिया को अवश्य ही सख्ती से लागू किया जाना चाहिये। इसके लिए भारत के महानियन्त्रक तथा लेखा परीक्षक की सहायता अवश्य ली जाये ।
          १२. ग्राम प्रशासन को पारस्परिक पद्धतियों और सामुदायिक विकास वाले उत्तर-पूर्वी राज्यों को यदि वे चाहें तो इन पारस्परिक पद्धतियों को जारी रखने की अनुमति दी जा सकती है। संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के अन्तर्गत आने वाले अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों को भी इनकी वर्तमान संस्थाओं के लिए विशेष संरक्षण दिया जाना चाहिए। संघ शाषित क्षेत्रों में पंचायती राज के कार्यान्वयन में वहीं की विशेष परिस्थितियों का ध्यान रखा जाना चाहिये I
          १३. वर्तमान विधान का प्रस्ताव संवैधानिक संशोधन के अनुरूप बनाने के लिये इसका संशोधन करने हेतु राज्य विधान मण्डलों को पर्याप्त समय दिया जाना चाहिये । वर्तमान चुनी हुई राज्य संस्थाओं को अपना वर्तमान कार्यकाल पूरा करने की अनुमति देने पर विचार किया जाये ।
          १५ मई, १९८९ को लोक सभा में प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी द्वारा पंचायती राज्य विधेयक (लोक सभा) संसद में पेश होना था । इससे पूर्व १३ मई, १९८९ को केन्द्र सरकार द्वारा इस ६४वें संशोधन के उद्देश्यों के सम्बन्ध में एक वक्तव्य प्रसारित किया गया । इसमें कहा गया कि इस विधेयक का उद्देश्य तीन स्तरीय पंचायत व्यवस्था स्थापित करना है। विधेयक में चुनाव आयोग की देखरेख में आवधिक चुनावों और महिलाओं के लिए ३० प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में राज्यपालों द्वारा स्थानीय निकायों को भंग करने का कोई प्रावधान नहीं है। यह प्रावधान कुछ अखबारों में प्रकाशित विधेयक के प्रारूप में था और इसकी गैर-काँग्रेस (इ) मुख्यमन्त्रियों एवं विपक्षी दलों के नेताओं ने जमकर आलोचना की थी। पंचायतों का चुनाव कराने की जिम्मेदारी पूरी तरह से निर्वाचन आयोग की होगी तथा उसके लेखाओं की जाँच का कार्य नियन्त्रक महालेखा परीक्षक को सौंपा गया है। पंचायतों को वित्त उपलब्ध कराने की व्यवस्था राज्य की संचित निधि से की गई है । इसके अलावा पंचायतों के बारे में कानून बनाने का अधिकार राज्य विधान-मण्डलों का होगा। प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी द्वारा पेश किये जाने वाले इस संशोधन विधेयक में राज्यों में प्रत्येक पाँच वर्ष में वित्त आयोगों के गठन की व्यवस्था है, जो पंचायतों की वित्तीय व्यवस्था की समीक्षा करेगा ताकि ये पंचायतें चुंगीकरों, शुल्कों एवं करों के माध्यम से सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था गठित कर सकें । यह विधेयक पूरे एक वर्ष तक प्रधानमन्त्री गाँधी द्वारा विभिन्न राज्यों के जिला स्तर के प्रशासन तन्त्र के साथ विचार विनिमय और अखिल भारतीय काँग्रेस (इ) महासमिति के सम्मेलन में पारित प्रस्ताव के बाद लाया जा रहा है । इस प्रस्ताव का नारा था “जनता को अधिकार।” विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों सम्बन्धी वक्तव्य में कहा गया है कि पंचायती राज संस्थान के कार्यकलापों की समीक्षा ने दर्शाया है कि कई राज्यों में ये संस्थायें कई कारणों से कमजोर एवं प्रभावहीन हो गई हैं। विधेयक के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं के कमजोर एवं प्रभावहीन होने के पीछे जो कारण हैं उसमें समय-समय पर नियमित रूप से चुनाव नहीं कराना तथा इनमें समाज के कमजोर वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देना और उनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधनों का नहीं होना है।
          विधेयक में प्रावधान है कि सभी राज्यों में तीन स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था स्थापित करना अनिवार्य है। ये तीन स्तर हैं— गाँव, प्रखण्ड और जिला । लेकिन २० लाख से कम आबादी वाले राज्यों के लिये प्रखण्ड स्तर पर पंचायतों की स्थापना आवश्यक नहीं । विधेयक में यह भी प्रावधान है कि सभी स्तरों पर पंचायतों की सभी सीटों को प्रत्यक्ष चुनाव के जरिये भरा जाये । विधेयक में पंचायतों में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। इसमें पंचायतों के लिये पाँच वर्षों का कार्यकाल निर्धारित किया गया है। किसी पंचायत के अपने कार्यकाल से पहले ही भंग कर दिये जाने की स्थिति में भंग करने भीतर नया चुनाव कराने का प्रावधान है। पंचायत में सभी स्तरों के पदाधिकारियों की नियुक्ति सीधे चुनाव के जरिये होगी, किन्तु राज्य विधान सभायें यदि चाहें तो वे पंचायतों में विधायकों और सांसदों को भी प्रतिनिधित्व दे सकेंगे, लेकिन इन प्रतिनिधियों को मतदान का अधिकार नहीं होगा ।
          विपक्ष के कड़े विरोध के बाद प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों में और अधिक वृद्धि करने सम्बन्धी बहुप्रतीक्षित ६४वाँ संविधान संशोधन विधेयक १५ मई, १९८९ को पेश किया। प्रधानमन्त्री ने कहा कि “इस विधेयक से जनता और शासन के बीच सत्ता के दलाल और बिचौलिये समाप्त हो जायेंगे। श्री गाँधी ने कहा कि विधेयक में पंचायतों को कर, शुल्क या टोल टैक्स लगाने और वसूलने का अधिकार दिया गया है तथा सामाजिक न्याय कार्यक्रमों, विकास कार्य, सार्वजनिक वितरण, रोजगार और ग्रामीण विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। विधेयक में प्रावधान है कि राज्य सरकार द्वारा कारण बताये जाने पर राज्यपाल पंचायत भंग कर सकता है लेकिन छः माह में नये चुनाव अनिवार्य होंगे। नागालैंड मिजोरम, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, स्वायत्त जिला परिषद् वाले क्षेत्रों, आदिवासी क्षेत्र, निकोबार लक्ष्यद्वीप, पाँडिचेरी और दिल्ली में यह कानून लागू नहीं होगा क्योंकि वहाँ या तो पहले ही पारस्परिक पंचायत व्यवस्था मौजूद है अथवा वहाँ विशेष परिस्थिति है। शेष सभी राज्यों को संविधान संशोधन के एक वर्ष के भीतर पंचायत कानून बनाने होंगे।”
          इस विधेयक के द्वारा संविधान में एक नयी ग्यारहवीं अनुसूची भी जोड़ी गयी है जिसमें पंचायतों के कार्यक्षेत्र में निम्नांकित २९ विषय दिये गये हैं।
          कृषि, कृषि विस्तार; भूमि सुधार और मुद्रा सुरक्षा, लघु सिंचाई, जल-प्रबन्ध और जल-विकास, पशु-पालन, दुग्ध उद्योग, कुक्कुट पालन, मत्स्य उद्योग, सामाजिक वनोद्योग और फार्म वनोद्योग, लघु वन उत्पाद, लघु उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग; खादी ग्राम और कुटीर उद्योग, ग्रामीण आवास, पेय जल, ईंधन और चारा, सड़कें, पुलिया, पुल, नौघाट, जल-मार्ग तथा संचार के अन्य साधन, ग्रामीण विद्युतीकरण जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण भी है और पारस्परिक ऊर्जा स्रोत, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, शिक्षा-प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय, तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा, प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा, पुस्तकालय, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, बाजार और मेले, स्वास्थ्य और स्वच्छता, अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और औषधालय, सूती और बाल विकास, समाज कल्याण, विकलाँगों और मानसिक रूप से अविकसित व्यक्तियों का कल्याण, जनता के कमजोर वर्गों का एक विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण, लोक वितरण प्रणाली तथा सामुदायिक सम्पत्ति का रख-रखाव ।
          विधेयक में पंचायतों की शक्तियाँ, अधिकार और उत्तरदायित्व के सम्बन्धों में कहा गया है कि इस संविधान संशोधन के उपबन्धों के अधीन रहते हुए राज्य सरकार कानून द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और अधिकार प्रदान कर सकें जो उन्हें स्वायत्तशासी संस्थाओं के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों ।
          यदि निष्पक्ष रूप से देखा जाये तो पंचायती राज विधेयक का उद्देश्य जनता तक ‘स्वराज’ पहुँचाने का प्रसार है, यह एक ऐसी राजनीतिक क्रान्ति है जिसका भारत की जनता के लिये विशेष महत्त्व है। इस महान् क्रान्ति की सफलता के लिये जनता के व्यापक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। यह प्रशिक्षण निर्दलीय और निर्लिप्त जनसेवी संस्थाओं द्वारा दिया जाना चाहिये । पंचायती राज की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसे सत्ता का हस्तान्तरण किस रूप में किया जाता है और जिन लोगों को हस्तान्तरण किया जाता है वे कितनी जिम्मेदारी से अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं। राजनैतिक दल अगर इस योजना को अपनी स्वार्थपूर्ति का माध्यम न बनायें तो निश्चित ही यह योजना भारत की काया पलट करने में समर्थ हो सकेगी। पंचायती राज में सत्ता और प्रशासन के तीन स्तर होंगे — ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत समिति और जिला परिषद् । प्रत्येक स्तर पर स्थानीय निकाय को अपने कार्यों को पूरा करने के लिये साधन और अधिकार मिलना नितान्त आवश्यक है। आज गाँव में जाति और वर्ग के भेद और विभेदन इतने उभरे हुए हैं कि ग्रामीण जन- – जीवन संत्रस्त-सा है। ग्रामीण समस्याओं का समाधान बिना सामूहिक प्रयत्न या बिना सामूहिक संकल्प सम्भव नहीं है। ईर्ष्या और प्रतिद्वन्दिताओं के इस वातावरण में ग्राम पंचायतों और क्षेत्र पंचायतों के चुनाव दलगत राजनीति से ऊपर उठकर निष्पक्ष हो सकेंगे यह अभी संदिग्ध है। निर्लिप्त और सेवा भावना वाले व्यक्ति जब तक पंचायतों के विभिन्न पदों पर आसीन न होंगे तब तक निष्पक्ष विकास, निष्पक्ष वितरण और निष्पक्ष रोजगार उपलब्ध होना निष्पक्ष बना रहेगा।
          ५ जून, १९८९ को अपने निवास पर एकत्र हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने जो कुछ कहा यह नितान्त सत्य है। उन्होंने कहा था –
          “कि विपक्षी दलों ने पंचायती राज व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की सरकार की संविधान संशोधन विधेयक पेश करने की पहल में बाधा पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । राजीव गाँधी ने कहा कि सरकार पंचायतों को पर्याप्त अधिकार सौंपने के लिये कृत संकल्प है और उसने विपक्ष के अवरोध डालने के प्रयास को नाकाम कर दिया है ।
          उन्होंने बताया कि पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर गरीबों तक सीधे पहुँचने का प्रयत्न किया । परिणाम यह निकला कि उस जमाने में बैंकों की सात-आठ हजार शाखाएँ काम करती थीं, जबकि आज सवा चालीस हजार शाखाएँ गरीब जनता की सेवा में लगी हैं ।
          राजीव गाँधी ने कहा कि ८० करोड़ लोगों की शिकायतों का निस्तारण करने के लिये पाँच हजार विधायक और पाँच सौ सांसद काफी नहीं हैं। घूम फिर कर गाँव और गलियों की समस्या मुख्यमन्त्रियों तथा स्वयं प्रधानमन्त्री के पास लाई जाती हैं। इन साढ़े पाँच हजार जनसेवकों के अतिरिक्त और जो सीढ़ियाँ होनी चाहियें वे गायब हो चुकी हैं। अस्सी करोड़ लोग जब माँगों के लिये दरवाजे खटखटा रहे हों, तब रिक्तिता का सूत्र सरमाएदारी और भ्रष्टाचारियों के हाथों में सन्तुलन की चाबी सौंप देता है । पंचायती राज प्रणाली से अस्सी करोड़ जनता की आवाज सुनने का अधिकार २० लाख नुमाइन्दों के पास आ जायेगा जो निश्चित ही बहुत बड़ा है। तब समस्याओं का निस्तारण पंचायतघरों, मुहल्लों, गाँव और ब्लॉक स्तर पर हो जाया करेगा। इन प्रतिनिधियों को सौ से लेकर पाँच सौ लोग चुनेंगे, जो निश्चित रूप से सत्ता की दलाली करने वालों पर अंकुश लगाने का काम करेगा।
          प्रधानमन्त्री ने कहा कि फासला बढ़ने से भ्रष्टाचार बढ़ता है सत्ता का गाँवों में हस्तान्तरण हो जाने से राज्यों को शक्ति मिलेगी और लोकतान्त्रिक विकास के बन्द मार्ग खुल जायेंगे। उन्होंने कहा कि सत्तानशीनी का पुराना तरीका इन चालीस सालों में बेमानी हो चुका । लोकतन्त्र की शक्ति प्रधानमन्त्री की और अधिकार देकर सामंतशाही बढ़ाने से नहीं, वरन् लोकतन्त्र को जनता के हाथों में सौंपने से निपट सकती है ।
          इसमें सन्देह नहीं है कि पंचायती राज विधेयक देश में पंचायती राज की स्थापना की दिशा में एक क्रान्तिकारी कदम है। लेकिन कुछ विशेष कारणों से यह विधेयक संसद में पारित नहीं हो सका । जनता दल की नयी केन्द्र सरकार इस विधेयक को संसद में पुनः प्रस्तुत करने का निश्चय कर चुकी थी परन्तु यह ग्यारह महीनों में ही समाप्त हो गई। श्री चन्द्रशेखर की सरकार की चार महीनों में ही इति श्री हो गई । श्री पी० वी० नरसिम्हाराव की सामन्जस्य, सहयोग और सहमति वाली स्थायी सरकार ने इस कल्याणकारी दिशा में अनेक पंग उठाये हैं। आशा है कि यह विधेयक कानून बन कर भारत में राम राज्य की स्थापना करने में सफल होगा ।
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