नेहरू – पुरस्कार और उसके विजेता

नेहरू – पुरस्कार और उसके विजेता

“बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, 
तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते कहते।”
          उस महान् आत्मा की दास्ताँ को जिसे देश के गरीब और अमीर सभी ने एक भाव होकर सुना और मनन किया, उसके गहनतम् दार्शनिक विचारों को जिन्हें विश्व के बड़े से बड़े दार्शनिक यथावत् समझने में अन्त तक उलझे रहे, भूख और अशिक्षा से मानव-मात्र को बचाने के लिए जिसने विश्व के कोने-कोने में जाकर शरण प्रदान की, सत्य और अहिंसा के आधार पर जिसने विश्व को शान्ति के साथ रहना सिखाया, पंचशील के सिद्धान्तों के द्वारा जिसने विश्व राजनीति को एक नया मार्ग दिखाया, उस महामानव की पवित्रभस्मी जब भारत के कण-कण में मिला दी गई, तब यह निश्चय किया गया कि ऐसे उपाय किये जाएँ जिनमें युगों तक विश्व उस महापुरुष की महान् विचारधाराओं से प्रेरणा लेकर सदभावना के मार्ग पर चलता रहे और विनाश से अपनी रक्षा कर सके ।
          परिणामस्वरूप पं० जवाहरलाल नेहरू की कीर्ति को विश्व में अक्षुण बनाये रखने के लिये स्वर्गीय डॉ० जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक विशाल समिति का निर्माण किया गया । इस समिति का कार्य धन संग्रह के साथ-साथ पण्डित जी के विभिन्न स्मारकों का निर्माण कराना था। प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी तथा संसद् सदस्य श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित भी इस समिति की सदस्या बनाई गईं। इस योजना के अन्तर्गत दिल्ली में नेहरू संग्रहालय की स्थापना की गई । जिसमें नेहरू जी के जीवन से सम्बन्धित अनेकानेक दुर्लभ वस्तुओं का संग्रह किया गया, जिसे देखकर विदेशों के सम्भ्रान्त अतिथि आज भी खोये – खोये से हो जाते हैं। इसी श्रृंखला की कड़ी. के रूप में दिल्ली में नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसमें आधुनिक तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ नये ढंग से सभी कलाओं का समन्वयात्मक ज्ञान कराया जाता है तथा नेहरू जी के कार्य एवं विचारों पर अनुसन्धान किये जाते हैं। भारतीय जन-मानस पर अंकित उनके त्याग एवं तपस्यापूर्ण चित्रों को धूमिल होने से बचाये रखने की ओर यह एक विशिष्ट पदन्यास है। नेहरू जी के नाम पर खेतों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी हो रही हैं, परन्तु इन सबमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण योजना नेहरू पुरस्कार की है, जो अनन्त काल तक पं० नेहरू को विश्व के मानस पटल पर अंकित रख सकेगी।
          नोबेल पुरस्कार की भाँति नेहरू पुरुस्कार भी, विश्व में एक वर्ष में एक ही ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है, जो संसार के लोगों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना व मैत्री को बढ़ावा देने के लिये असाधारण योग देता है। एक लाख रुपये का नेहरू पुरस्कार १९६५ में भारत सरकार द्वारा स्थापित किया गया था, जिसका प्रथम पुरस्कार श्री नेहरू के जन्म दिवस पर १४ नवम्बर, १९६६ को दिया जाना था।
          २६ सितम्बर, १९६६ से ३० सितम्बर, ६६ तक चार दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय नेहरू गोष्ठी का आयोजन था । विश्व के विद्वान् गोष्ठी में भाग लेने दिल्ली में एकत्रित हो रहे थे। भारत सरकार द्वारा नियुक्त, नेहरू पुरस्कार निर्णायक समिति ने इसी शुभ अवसर पर अपने निर्णय की घोषणा करना उचित समझा। इस सात सदस्ययी निर्णायक समिति में भारत के उपराष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सदस्य होते हैं। अन्य पाँच सदस्यों में एक किसी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, दो वरिष्ठ भारतीय नेता, एक किसी विश्वविद्यालय के उपकुलपति और एक समाचार पत्रों के प्रतिनिधि। विभिन्न देशों की सरकार, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन और विश्व के विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा पुरस्कार योग्य नामों की सिफारिश की जाती है। इस प्रथम निर्णायक समिति के सदस्य थे, स्व० डॉ० जाकिर हुसैन अध्यक्ष, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री के० सुब्बाराव, जस्टिस खलील अहमद, उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित, टाटा उद्योग के डाइरेक्टर श्री एन० ए० पालकीवाला, उस्मानिया विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ० डी० एस० रेडी तथा नेशनल हेरल्ड के सम्पादक श्री चेलापति राव । निर्णायक समिति की ओर से उपराष्ट्रपति ने १७ सितम्बर, १९६६ को घोषणा की कि अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिये जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव ऊ थान्ट को दिया जायेगा । विश्व की कई सरकारों, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों और विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा पुरस्कार पाने के लिये नामों की सिफारिश की गई थी। बहुत सोच-विचार के बाद ऊ थान्ट का नाम तय किया गया ।
          निर्णायक समिति का यह निर्णय वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था । राष्ट्र संघ के महासचिव के रूप में श्री ऊधान्ट की सेवाएँ इतिहास के पृष्ठ पर सदैव अंकित रहेंगी । युद्ध की विभीषिकाओं से त्रस्त विश्व को उन्होंने अनेक बार बचाया । अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव और शांति बनाये रखने में वे निरन्तर प्रयत्नशील थे | उस समय उनका और भी अधिक महत्त्व बढ़ गया था क्योंकि इस समय सारे संसार की आँखें वियतनाम व पश्चिम एशिया में शांति स्थापना के लिये लगी हुई थीं ।
          २८ सितम्बर, १९६६, को नेहरू गोष्ठी की अध्यक्षता श्रीमती मिरदल ने की थी तथा संयुक्त राष्ट्र महासचिव से प्राप्त “शान्ति पुरस्कार” स्वीकृति सम्बन्धी तार पढ़कर सुनाया। इस अवसर पर श्री उ थान्ट ने कहा था — “ अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिए भारत ने मुझे जो नेहरू पुरस्कार दिया है, यह मेरे लिए बड़ी गौरव की बात है।” उन्होंने कहा- “पुरस्कार की एक लाख रुपए की धनराशि मैं संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल (न्यूयार्क) को दे दूँगा । यह स्कूल आर्थिक क से रहा है।” २७ सितम्बर को श्री ऊ-थान्ट ने एक वक्तव्य में कहा था कि जवाहरलाल नेहरू इस शताब्दी के एक महान् राजनेता थे । मुझे उनसे कई बार मिलने का सौभाग्य मिला। उनके प्रति मेरी बड़ी शृद्धा थी । अतः यह पुरस्कार मिलना मैं अपने लिए गौरव की बात समझता हूँ। खासकर बच्चों और युवकों में स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की विशेष दिलचस्पी थी। अतः मैं की पुरस्कार राशि संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल को दान करना उचित समझता हूँ ।
          १४ नवम्बर, १९६६ के स्थान पर ऊ थान्ट १० अप्रैल, १९६७ को भारत सरकार के निमन्त्रण पर ६ दिन की यात्रा पर भारत पधारे । १२ अप्रैल, १९६७ को एक विशेष समारोह का आयोजन किया गया तथा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने “अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव का जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार” श्री ऊन्थान्ट को समर्पित किया। ऊन्थान्ट ने स्वर्गीय नेहरू की भावनाओं तथा उनके आदर्शों के लिए कार्य करते रहने का प्रण लेते हुए कृतज्ञतापूर्वक यह पुरस्कार स्वीकार किया।
          इस अवसर पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा कि यह पुरस्कार भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ तथा बर्मा और भारत को एक सूत्र में आँधता है। ऊ थान्ट ने अपना जीवन एक शिक्षक के रूप में शुरू किया और आज भी वे एक शिक्षक की तरह अपना सब कुछ विश्व शान्ति और सद्भाव उत्पन्न करने में समर्पित कर रहे हैं। वे एक बौद्ध हैं। एक बौद्ध की ही तरह उनमें अगाध विश्व प्रेम और सद्भाव भरा है। वे शान्ति और समझौते के ध्येय पर चलते हैं, मतभेदों को दूर करने के लिए शक्ति का प्रयोग अनैतिक ही नहीं, गलत नीति भी है। मनुष्य के भाई-चारे की माँग है कि मानव सहयोग बढ़े। हमारी सुरक्षा मानवीय मूल्यों तथा अध्यात्मवाद के परिपालन में है। शान्ति की सुरक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय अनुशासन आवश्यक हैं। प्रधानमन्त्री तथा राष्ट्रपति ने महासचिव के रूप में उन्थान्ट के कार्य की सराहना की और कहा कि वे विश्वशान्ति और सहयोग के पोषक हैं। उन्हें यह प्रथम पुरस्कार देने का फैसला बहुत ही उचित और प्रशंसनीय है। उन्होंने बर्मा की स्वतन्त्रता की लड़ाई में भी कार्य किया है। श्री नेहरू राष्ट्र को युद्ध से बचाना चाहते थे । स्वतन्त्रता के लिए शान्ति आवश्यक है। अशोक संसार में सबसे बड़े सम्राट माने जाते हैं। वे भी विश्व शान्ति पक्ष के पोषक और प्रणेता थे। श्री नेहरू का संयुक्त राष्ट्र संघ में अटूट विश्वास था । हम भी राष्ट्रों के बीच शान्तिपूर्ण सहयोग तथा विवाद को बातचीत से हल करने के पक्ष में हैं। डॉ० राधाकृष्णन ने ऊ थान्ट के वियतनाम में शान्ति स्थापित करने के प्रयास की सराहना की और आशा व्यक्त की कि जिनेवा सम्मेलन दुबारा बुलाया जायेगा । विश्वमत का लोग ध्यान रखेंगे। उन्थान्ट शान्ति चाहते हैं, बिना किसी पक्ष की विजय अथवा पराजय के ।
          श्री ऊ-थान्ट ने अपने भाषण में कहा कि अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिए पहला नेहरू पुरस्कार पाना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव की बात होगी, किन्तु महासचिव के लिए यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तरह के पुरस्कार से प्रेरणा तथा प्रोत्साहन मिलता है। श्री नेहरू के प्रति भावभरी श्रद्धांजलि भेंट करते हुए उन्थान्ट ने कहा “उन्होंने अपनी भावना की गहराई तथा बुद्धि के बल पर महत्ता प्राप्त की । जीवन के हर अंग के लिए वे नैतिक दृष्टिकोण रखते थे। उनमें अपार धैर्य, उत्साह और लगन थी । इसके बावजूद वे हम सब की तरह ही एक मनुष्य थे । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में श्री नेहरू ने महान् नेतृत्व किया। उनके नेतृत्व में भारत ने संसार में एक उच्च स्थान पाया। विभिन्न राजनैतिक विचारों वाले राष्ट्रों के बीच में आज सहयोग है, किन्तु सहयोग की बातों की चर्चा कम होती है और विवादों का प्रचार अधिक होता है। कांगो में सेना भेजने के उनके फैसले से संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य में बड़ी मदद मिली और एक नया अध्याय शुरू हुआ । जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव की बात है, एक-दूसरे को जानना ही बहुत नहीं, सहानुभूति तथा आपस में सहयोग भी होना चाहिये और हमारा मस्तिष्क विस्तृत एवं विशाल होना चाहिये ।”
          अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना और मैत्री को बढ़ावा देने के लिए असाधारण योगदान के आधार पर यह पुरस्कार १९६६ में अमेरिका के डॉ० मार्टिन लूथर किंग को, १९६७ में पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खाँ को, १९६८ में अमेरिका के यहूदी मैनूहिन को, १९६९ में अल्बानिया की मदर टेरेसा को, १९७० में जाम्बिया के कैनेथ कौडा को, १९७१ में यूगोस्लाविया के प्रेसीडेन्ट टीटो को, १९७२ में फ्रांस के एन्ड्रे मालरॉक्स को, १९७३ में तन्जानिया के जूलियस नैरेरे को, १९७४ में अर्जेन्टाइना के डॉ० रौल प्रेबिस्च को, १९७५ में अमरीका के जोन्स साल्फ को, १९७६ में इटली के डॉ० गुईसप्पा टुक्की को, १९७७ में नैपाल के तुलसी मेहर श्रेष्ठ को, १९७८ में जापान के निचीदात्सु फ्यूजी को, १९७९ में दक्षिणी अफ्रीका के नेल्सन आर० मांडेला को, १९८० में ब्रिटेन की श्रीमती बार्ड बारबारा को मिल चुका है। १९९४ में यह गौरवशाली पुरस्कार मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर- विन मुहम्मद को उनकी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के उपाय एवं सद्भावना तथा अद्वितीय ख्याति के लिये दिया गया था।
          श्री नेहरू ने अपने जीवन काल में अपने देश और समस्त विश्व के लिए जो कुछ किया, ● वह श्री नेहरू की कीर्तिपताका को ज्यों का त्यों बनाये रखने में अपने में स्वयं पर्याप्त था, परन्तु । फिर भी ये उपाय उस महा-मानव के यशोध्वज को सुरक्षित रखेंगे तथा साथ ही साथ श्री नेहरू के आदर्शों पर चलने की प्रेरणा को प्रोत्साहन देते रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास है।
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