निरक्षरता – एक अभिशाप

निरक्षरता – एक अभिशाप

“सब ते भले विमूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति”
          मूर्खों के लिए गोस्वामी जी का यह व्यंग इसलिए सार्थक है कि जहाँ समझदार और बुद्धिमान व्यक्ति के लिए संसार में पग-पग पर ठोकरें हैं, चिन्तायें हैं, उलझनें हैं, वहाँ मूर्ख आराम से निश्चित होकर अपनी जिन्दगी काट जाता है, न उसे अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य के विषय में सोचना पड़ता है, न उसे  घर की इज्जत सताती है और न बाहर की चिन्ता, उसे समाज से न कोई मतलब रहता है और न देश से कोई सम्बन्ध | कोल्हू के बैल की तरह जिस रास्ते पर आप उसे डाल दीजिये उसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझकर वह चलता चला जायेगा। अब प्रश्न यह है कि पशुता से मनुष्यता को विभक्त करने वाली ऐसी कौन-सी विशेषतायें हैं? क्योंकि वे सभी गुण जो मनुष्यों में होते हैं पशुओं में भी पाये जाते हैं। देखिए, जहाँ मनुष्य अपने स्वार्थ में प्रवीण होता है वहाँ पशु और पक्षी भी अपने हानि-लाभ को खूब जानते हैं। आप अपने परिवार से प्रेम करते हैं, तो गाय भैंस भी अपने बछड़े को खूब दुलार करती हैं। डण्डे से आप भी डरते हैं और वे भी । गाने बजाने से आप भी प्रसन्न हो जाते हैं उधर सर्प और मृग भी बीन और वीणा पर अपनी जान दे देते हैं। यदि आप कलाकार और गुणी हैं, तो सरकस का कुत्ता और हाथी भी बड़ी-बड़ी करामातें दिखा देता है। यदि आप परिवार वृद्धि में दक्ष हैं, तो कुत्ते और बिल्ली आप से इस विषय में कहीं ज्यादा निपुण हैं। यदि आप कहें कि हम ईश्वर की पूजा करते हैं, तो हमने सर्पों को भी सत्यनारायण की कथा सुनते देखा है। यदि नृत्य वादन में आप अपने को निपुण मानते हैं, तो रीछ भी नाच ही लेता है और यदि आप सौंन्दर्योपासक हैं, तो बन्दर भी ससुराल जाने से पूर्व सिर पर टोपी रखकर शीशे में अपने व्यक्तित्व का निरीक्षण कर ही लेता है। यदि आप कहें कि हम वीर योद्धा हैं और मल्ल युद्ध में चतुर हैं तो क्या आपने कभी सांडों को बाजार में लड़ते नहीं देखा ? रास्ते बंद हो जाते हैं और उन दोनों का उस समय तक युद्ध होता है, जब तक कि जय और पराजय का प्रश्न सुलझ नहीं जाता। यदि आप देश-प्रेम और जाति -प्रेम का दावा करते हैं, तो चींटियों, बन्दरों और कौओं से ज्यादा जाति- प्रेम आपके अन्दर कभी हो नहीं सकता। चीनी या गुड़ के एक कण को खाने के लिए चींटी जब तक अपनी समस्त अड़ोसिन-पडोसिनों को नहीं बुला लायेगी, खायेगी नहीं । यदि एक बन्दर बिजली के तार पर लटक जायेगा या एक बन्दर का बच्चा कहीं फँस जायेगा तो सारे बन्दर इकट्ठे होकर छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे, जब कि मनुष्यों में यह गुण दिखाई ही देना बन्द होता जा रहा है। अतः यदि इन समानधर्मी प्राणियों में कोई अन्तर है तो वह केवल शिक्षा और शिक्षा पर आधारित ज्ञान का है । अतः आप समझ गये होंगे कि पशु से मनुष्य बनने के लिये शिक्षा कितनी अनिवार्य है । अतः यदि आप निरक्षर हैं, तो पशु ही हैं ।
          हमारे यहाँ समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण और कर्मों के अनुकूल शिक्षा प्राप्त करता था। समाज और शासन की ओर से शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी । तभी तो भारतं अन्य देशों का गुरु माना जाता था । परन्तु पिछले एक सहस्त्र वर्षों की अनवरत दासता ने निःसंदेह हमें शिक्षाहीन बना दिया क्योंकि प्रारम्भिक दो-तीन शताब्दियों तक तो हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये लड़ते-मरते रहे, किसको ध्यान था पढ़ने-लिखने का । उसके बाद सांस्कृतिक और धार्मिक चक्करों में कुछ शताब्दियों बिताईं। फिर जो आराम मिला तो अपने को भूल गये उसके बाद तो शताब्दियों तक अंग्रेज छाये रहे, जिनका मूलमन्त्र था कि यदि हम भारत पर शासन करना चाहते हैं, तो यहाँ की भाषा तथा साहित्य को समाप्त करना होगा और जितने अधिक से अधिक बिना पढ़े-लिखे व्यक्ति होंगे, उतना ही हमारा शासन मजबूत और चिरंजीवी होगा । इसलिये अंग्रेज ने भारत में चपरासी, चौकीदार, बावर्ची और क्लर्क ही पैदा किये । मुश्किल से एक-एक शहर में एक-एक स्कूल होता था, उसमें भी धनीमानियों के बच्चे पढ़ने जाते थे। धीरे-धीरे अंग्रेजी शासन के ५० वर्षों के इस जहरीले इन्जेक्शन का यह असर हुआ कि भारत में अंगूठा टेक पैदा होने लगे और अन्त में उनकी संख्या ९९% तक पहुँच गई ।
          इससे हमारी सबसे बड़ी हानि और अंग्रेजों के लिये बड़ा लाभ यह हुआ कि हमने अंग्रेजों के आगे सिर नहीं उठाया, क्योंकि समुचित शिक्षा के अभाव में न हमारे पास स्वतन्त्र चेतना शक्ति थी और न परिमार्जित संस्कार । अंग्रेज जानता था कि ये पढ़-लिखकर सिर उठाएँगे इसलिये शिक्षा समाप्त की गई थी। शिक्षा के अभाव में न मनुष्य में उद्बोधन शक्ति रहती है, न जागृति । न वह देश और राष्ट्र के कल्याण के लिये सोच सकता है और न अपने सामाजिक एवं जातीय विकास के लिये । न वह अपने देश के प्राचीन साहित्य को पढ़कर ज्ञानार्जन ही कर सकता है और न पूर्वजों के त्याग और बलिदानों से ही प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति न अपने घर का वातावरण शिष्ट एवं मित्र बना सकता है और न अपने बच्चों का ही भविष्य निर्माण अच्छी प्रकार से कर सकता है। इस प्रकार निरक्षरता के कारण न तो देश के भावी नागरिक ही अच्छे बन पाते हैं और न मनुष्य आत्म-कल्याण और राष्ट्र-कल्याण की ओर ही उन्मुख हो सकता है, न धर्म-चिन्तन ही कर पाता है और न अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेचन ही । कहने का तात्पर्य यह है कि देश की निरक्षरता के कारण देशवासियों को सभी प्रकार के घोर कष्टों का सामना करना पड़ा, चाहे वे राजनैतिक हों, सामाजिक हों, आर्थिक हों, धार्मिक हों या वैयक्तिक हों । अशिक्षा के कारण न हम अपना व्यापार बढ़ा सके और न औद्योगिक विकास ही कर सके। मैंने वह दृश्य भी देखा है, कि जब एक हिन्दी में लिखी चिट्ठी कहीं से आ जाती थी तो लोग उसे पढ़वाने के लिये पढ़े-लिखे की तलाश में निकला करते थे और अंग्रेजी का तार आ गया तो फिर आसानी से पढ़ने वाला भी नहीं मिलता था। लोग अपना नाम तक न लिख सकते थे और न पढ़ सकते थे । अंगूठे की निशानी लगाकर बेचारे काम चलाते थे । इसलिये जमींदार और साहूकार जैसा चाहते थे वैसा लिख लेते थे – चाहे एक हजार के दस हजार कर लें या एक बीघे के दस बीघे ।
          धीरे-धीरे समय बदला, देश में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के प्रति जागृति की भावना फैलने लगी । स्वतन्त्रता प्राप्ति की आवश्यकता के साथ-साथ जनता ने शिक्षा के महत्त्व को भी समझा । शिक्षित नागरिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति में अधिक सहायक सिद्ध हो सकते थे। देश की निरक्षरता को दूर करने के लिये साक्षरता आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। राष्ट्रीय आन्दोलन के फलस्वरूप १९३७ ई० में जब प्रान्तों में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना हुई तो देश के असंख्य अनपढ़ नर-नारियों को साक्षर बनाने के प्रयत्न प्रारम्भ हुये। गाँव-गाँव में प्रौढ़- शिक्षा केन्द्र तथा रात्रि पाठशालायें खोली गईं, पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित किये गये । ‘अशिक्षा का नाश हो, अंगूठा लगाना पाप है, ‘ आदि नारे गाँव-गाँव में गूंजने लगे। साक्षरता-सप्ताह मनाये जाने लगे तथा प्रत्येक व्यक्ति को शपथ दिलायी जाती कि वह कम से कम एक व्यक्ति को अवश्य साक्षर बनाये। गाँव वालों को यह समझाया गया कि पुलिस, पटवारी, जमींदार, साहूकार और व्यापारी, उन्हें इसलिये लूटते हैं क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं। वृद्ध पुरुषों और महिलाओं ने भी इसमें सक्रिय भाग लिया। १९३९ में ये प्रान्तीय सरकारें समाप्त हो गईं, फिर भी साक्षरता प्रसार आन्दोलन १९४७ तक अपने खोखले रूप में चलता ही रहा, क्योंकि जो लोग साक्षरता के प्रसार में लगे हुये थे वे भी केवल नाम लिखना या अक्षर ज्ञान ही कराते थे । सन् १९४७ के पश्चात् इन आन्दोलनों को और अधिक व्यापक रूप दिया गया। गाँवों में अशिक्षित को शिक्षित करने के साथ-साथ उनके मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान की वृद्धि के उपाय भी किये गये। उनके पारिवारिक तथा आर्थिक जीवन को भी उन्नत बनाया गया ।
          स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश में से से अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिये विशेष प्रयत्न किये गये। पहिले जिले में एक दो स्कूल हुआ करते थे और डिग्री कॉलिज तो दो-दो चार-चार जिलों को छोड़कर होते थे। बेचारे गरीब की क्या मजाल थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा ले। और अब आपको हर तहसील और हर बड़े गाँव में इण्टरमीडिएट कॉलिज मिलेगा, शहरों में इनकी संख्या इतनी है कि कुछ कहते नहीं बनता । फिर भी आप देखिये कि जौलाई में हर कॉलेज में विद्यार्थियों के दाखिले को भीड़ लगी रहती है। लड़कों की शिक्षा के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाने लगा हैं ।
          खेद है कि छ: पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी भारत की तीन चौथाई से भी कहीं अधिक जनसंख्या आज भी अशिक्षित है। आज भी करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जिनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर। अशिक्षित जनता में प्रजातन्त्र का सफलतापूर्वक निर्वाह कठिन हो जाता है, अपने अधिकार और कर्त्तव्य के ज्ञान से वे शून्य होते हैं। अशिक्षा के कारण न वे अपना अच्छा प्रतिनिधि ही चुन सकते हैं और न वे मत का महत्त्व ही समझते हैं।
          उत्तर प्रदेश में, जो कि अन्य राज्यों से, जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, आदि से अधिक शिक्षित समझा जाता है, सन १९८१ की जनगणना के अनुसार देहरादून जिला सबसे अधिक शिक्षित है। कानपुर का दूसरा तथा लखनऊ का तीसरा स्थान आता है। सबसे कम शिक्षित लोग बदायूं जिले में हैं। वहाँ केवल ९.६ प्रतिशत लोग पढ़े-लिखे हैं। रायबरेली, सीतापुर, बाराबंकी, गोंडा, सुल्तानपुर, बहराइच, प्रतापगढ़, उन्नाव, रामपुर और शाहजहाँपुर में तो १५ प्रतिशत से भी कम लोग शिक्षित हैं। ये आँकड़े कितने लज्जाजनक ।
          बड़े खेद की बात है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के ४९ वर्षों के बाद भी देशवासी अज्ञानान्धकार के कुयें में उसी तरह गोते लगा रहे हैं, जैसे पहिले । यह एक अभिशाप है, देश के मस्तक पर कलंक है। इसके दो कारण हैं—एक तो शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि सर्वसाधारण उसको वहन करते-करते थक जाता है। दूसरे हम लोगों का ध्यान भी शिक्षा की ओर कम है और बातों में जैसे—झूठ बोलना, मक्कारी, बदमाशी और इसी प्रकार के कार्यों में हम अधिक प्रवीणता प्राप्त करते जा रहे हैं, अपेक्षाकृत शिक्षा के । यदि हम अपने देश का कल्याण चाहते हैं, तो प्रत्येक देशवासी का शिक्षित होना परम आवश्यक है । १९७७ से प्रतिष्ठित भारत सरकार ने शिक्षा पर विशेष रूप से प्रौढ़-शिक्षा पर अधिक बल दिया है। १९७८ में प्रौढ़- शिक्षा सम्बन्धी ठोस योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये समस्त भारत में प्रौढ़-शिक्षा विभागों की स्थापना की गई तथा सांध्यकालीन प्रौढ़ पाठशालायें कार्यरत हैं। इस योजना से निश्चित ही भारत में निरक्षरता में कुछ न कुछ कमी अवश्य आई होगी । इस योजना के अन्तर्गत १९९५ तक सरकार का निरक्षरता उन्मूलन का संकल्प था। परन्तु सरकार का यह स्वप्न ९६ तक तो सफल नहीं हुआ। इस योजना के कार्यकर्त्ता मन से और ईमानदारी से कार्य नहीं करते ।
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